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Old 11-01-2011, 06:27 AM   #251
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मेहता सिर झुकाये सुनते रहे। एक-एक शब्द मानो उनके भीतर की आँखें इस तरह खोले देता था, जैसी अब तक कभी न खुली थीं। वह भावनायें जो अब तक उनके सामने स्वप्न-चित्रों की तरह आयी थीं, अब जीवन सत्य बनकर स्पिन्दन हो गयी थी। वह अपने रोम-रोम में प्रकाश और उत्कर्ष का अनुभव कर रहे थे। जीवन के महान् संकल्पों के सम्मुख हमारा बालपन हमारी आँखों में फिर जाता है। मेहता की आँखों में मधुर बाल-स्मृतियाँ सजीव हो उठीं, जब वह अपनी विधवा माता की गोद में बैठकर महान् सुख का अनुभव किया करते थे। कहाँ है वह माता, आये और देखे अपने बालक की इस सुकीर्ति को। मुझे आशीर्वाद दो। तुम्हारा वह ज़िद्दी बालक आज एक नया जन्म ले रहा है।

उन्होंने मालती के चरण दोनों हाथ से पकड़ लिये और काँपते हुए बोले — तुम्हारा आदेश स्वीकार है मालती! और दोनों एकान्त होकर प्रगाढ़ आलिंगन में बँध गये। दोनों की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी।

सिलिया का बालक अब दो साल का हो रहा था और सारे गाँव में दौड़ लगाता था। अपने साथ एक विचित्र भाषा लाया था, और उसी में बोलता था, चाहे कोई समझे या न समझे। उसकी भाषा में त, ल और घ की कसरत थी और स, र आदि वर्ण ग़ायब थे। उस भाषा में रोटी का नाम था ओटी, दूघ का तूत, साग का छाग और कौड़ी का तौली। जानवरों की बोलियों की ऐसी नक़ल करता है कि हँसते-हँसते लोगों के पेट में बल पड़ जाता है। किसी ने पूछा — रामू, कुत्ता कैसे बोलता है? रामू गम्भीर भाव से कहता — भों-भों, और काटने दौड़ता। बिल्ली कैसे बोले? और रामू म्याँव-म्याँव करके आँखें निकालकर ताकता और पंजों से नोचता। बड़ा मस्त लड़का था। जब देखो खेलने में मगन रहता, न खाने की सुधि थी, न पीने की। गोद से उसे चिढ़ थी। उसके सबसे सुखी क्षण वह होते, जब वह द्वार के नीम के नीचे मनों धूल बटोर कर उसमें लोटता, सिर पर चढ़ाता, उसकी ढेरियाँ लगाता, घरौंदे बनाता। अपनी उम्र के लड़कों से उसकी एक क्षण न पटती। शायद उन्हें अपने साथ खेलाने के योग्य ही न समझता था। कोई पूछता — तुम्हारा नाम क्या है? चटपट कहता — लामू।

‘ तुम्हारे बाप का क्या नाम है? ‘

‘ मातादीन। ‘

‘ और तुम्हारी माँ का? ‘

‘ छिलिया। ‘

‘ और दातादीन कौन है? ‘

‘ वह अमाला छाला है। ‘

न जाने किसने दातादीन से उसका यह नाता बता दिया था। रामू और रूपा में ख़ूब पटती थी। वह रूपा का खिलौना था। उसे उबटन मलती, काजल लगाती नहलाती, बाल सँवारती, अपने हाथों कौर-कौर बनाकर खिलाती, और कभी-कभी उसे गोद में लिये रात को सो जाती। धनिया डाँटती, तू सब कुछ छुआछूत किये देती है; मगर वह किसी की न सुनती। चीथड़े की गुड़िया ने उसे माता बनना सिखाया था। वह मातृ-भावना का जीता-जागता बालक पाकर अब गुड़ियों से सन्तुष्ट न हो सकती थी। उसी के घर के पिछवाड़े जहाँ किसी ज़माने में उसकी बरदौर थी, होरी के खँडहर में सिलिया अपना एक फूस का झोपड़ा डालकर रहने लगी थी। होरी के घर में उम्र तो नहीं कट सकती थी। मातादीन को कई सौ रुपए ख़र्च करने के बाद अन्त में काशी के पण्डितों ने फिर से ब्राह्मण बना दिया। उस दिन बड़ा भारी हवन हुआ, बहुत-से ब्राह्मणों ने भोजन किया और बहुत से मन्त्र और श्लोक पढ़े गये। मातादीन को शुद्ध गोबर और गोमूत्र खाना-पीना पड़ा। गोबर से उसका मन पवित्र हो गया। मूत्र से उसकी आत्मा में अशुचिता के कीटाणु मर गये। लेकिन एक तरह से इस प्रायश्चित ने उसे सचमुच पवित्र कर दिया। हवन के प्रचंड अग्नि-कुंड में उसकी मानवता
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Old 11-01-2011, 06:28 AM   #252
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निखर गयी और हवन की ज्वाला के प्रकाश से उसने धर्म-स्तम्भों को अच्छी तरह परख लिया। उस दिन से उसे धर्म के नाम से चिढ़ हो गयी। उसने जनेऊ उतार फेंका और पुरोहिती को गंगा में डुबा दिया। अब वह पक्का खेतिहर था। उसने यह भी देखा कि यद्यपि विद्वानों ने उसका ब्राह्मणत्व स्वीकार कर लिया; लेकिन जनता अब भी उसके हाथ का पानी नहीं पीती, उससे मुहूर्त पूछती है, साइत और लग्न का विचार करवाती है, उसे पर्व के दिन दान भी दे देती है, पर उससे अपने बरतन नहीं छुलाती। जिस दिन सिलिया के बालक का जन्म हुआ उसने दूनी मात्रा में भंग पी, और गर्व से जैसे उसकी छाती तन गयी, और उँगलियाँ बार-बार मूँछों पर पड़ने लगीं। बच्चा कैसा होगा? उसी के जैसा? कैसे देखे? उसका मन मसोसकर रह गया।

तीसरे दिन रूपा खेत में उससे मिली। उसने पूछा — रुपिया, तूने सिलिया का लड़का देखा?

रूपिया बोली — देखा क्यों नहीं। लाल-लाल है ख़ूब मोटा, बड़ी-बड़ी आँखें हैं, सिर में झबराले बाल हैं, टुकुर-टुकुर ताकता है।

मातादीन के हृदय में जैसे वह बालक आ बैठा था, और हाथ-पाँव फेंक रहा था। उसकी आँखों में नशा-सा छा गया। उसने उस किशोरी रूपा को गोद में उठा लिया, फिर कन्धे पर बिठा लिया, फिर उतारकर उसके कपोलों को चूम लिया। रूपा बाल सँभालती हुई ढीठ होकर बोली — चलो, मैं तुमको दूर से दिखा दूँ। ओसारे में ही तो है। सिलिया बहन न जाने क्यों हरदम रोती रहती है। मातादीन ने मुँह फेर लिया। उसकी आँखें सजल हो आयी थीं, और ओठ काँप रहे थे। उस रात को जब सारा गाँव सो गया और पेड़ अन्धकार में डूब गये, तो वह सिलिया के द्वार पर आया और सम्पूर्ण प्राणों से बालक का रोना सुना, जिसमें सारी दुनिया का संगीत, आनन्द और माधुर्य भरा हुआ था। सिलिया बच्चे को होरी के घर में खटोले पर सुलाकर मजूरी करने चली जाती। मातादीन किसी-न-किसी बहाने से होरी के घर आता और कनखियों से बच्चे को देखकर अपना कलेजा और आँखें और प्राण शीतल करता। धनिया मुस्करा कर कहती — लजाते क्यों हो, गोद में ले लो, प्यार करो, कैसा काठ का कलेजा है तुम्हारा। बिलकुल तुमको पड़ा है। मातादीन एक-दो रुपया सिलिया के लिए फेंककर बाहर निकल आता। बालक के साथ उसकी आत्मा भी बढ़ रही थी, खिल रही थी, चमक रही थी। अब उसके जीवन का भी उद्देश्य था, एक व्रत था। उसमें संयम आ गया, गम्भीरता आ गयी, दायित्व आ गया। एक दिन रामू खटोले पर लेटा हुआ था। धनिया कहीं गयी थी। रूपा भी लड़कों का शोर सुनकर खेलने चली गयी। घर अकेला था। उसी वक़्त मातादीन पहुँचा। बालक नीले आकाश की ओर देख-देख हाथ-पाँव फेंक रहा था, हुमक रहा था, जीवन के उस उल्लास के साथ जो अभी उसमें ताज़ा था। मातादीन को देखकर वह हँस पड़ा। मातादीन स्नेह-विह्वल हो गया। उसने बालक को उठाकर छाती से लगा लिया। उसकी सारी देह और हृदय और प्राण रोमांचित हो उठे, मानो पानी की लहरों में प्रकाश की रेखाएँ काँप रही हों। बच्चे की गहरी, निर्मल, अथाह, मोद-भरी आँखों में जैसे उसके जीवन का सत्य मिल गया। उसे एक प्रकार का भय-सा लगा, मानो वह दृष्टि उसके हृदय में चुभी जाती हो — वह कितना अपवित्र है, ईश्वर का वह प्रसाद कैसे छू सकता है। उसने बालक को सशंक मन के साथ फिर लिटा दिया। उसी वक़्त रूपा बाहर से आ गयी और वह बाहर निकल गया। एक दिन ख़ूब ओले गिरे। सिलिया घास लेकर बाज़ार गयी हुई थी। रूपा अपने खेल में मग्न थी। रामू अब बैठने लगा था। कुछ-कुछ बकवाँ चलने भी लगा था। उसने जो आँगन में बिनौले बिछे देखे, तो समझा, बतासे फैले हुए हैं। कई उठाकर खाये और आँगन में ख़ूब खेला। रात को उसे ज्वर आ गया। दूसरे दिन निमोनिया हो गया। तीसरे दिन सन्ध्या समय सिलिया की गोद में ही बालक के प्राण निकल गये। लेकिन बालक मरकर भी सिलिया के जीवन का केन्द्र बना रहा। उसकी छाती में दूध का उबाल-सा आता और आँचल भींग जाता। उसी क्षण आँखों से आँसू भी निकल पड़ते। पहले सब कामों से छुट्टी पाकर रात को जब वह रामू को हिये से लगाकर स्तन उसके मुँह में दे देती तो मानो उसके प्राणों में बालक की स्फूर्ति भर जाती। तब वह प्यारे-प्यारे गीत गाती, मीठे-मीठे स्वप्न देखती और नये-नये संसार रचती, जिसका राजा रामू होता। अब सब कामों से छुट्टी पाकर वह अपनी सूनी झोंपड़ी में रोती थी और उसके प्राण तड़पते थे, उड़ जाने के लिए, उस लोक में जहाँ उसका लाल इस समय भी खेल रहा होगा। सारा गाँव उसके
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Old 11-01-2011, 06:28 AM   #253
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दुःख में शरीक था। रामू कितना चोंचाल था, जो कोई बुलाता, उसी की गोद में चला जाता। मरकर और पहुँच से बाहर होकर वह और भी प्रिय हो गया था, उसकी छाया उससे कहीं सुन्दर, कहीं चोंचाल, कहीं लुभावनी थी। मातादीन उस दिन खुल पड़ा। परदा होता है हवा के लिए। आँधी में परदे उठाके रख दिये जाते हैं कि आँधी के साथ उड़ न जायँ। उसने शव को दोनों हथेलियों पर उठा लिया और अकेला नदी के किनारे तक ले गया, जो एक मील का पाट छोड़कर पतली-सी धार में समा गयी थी। आठ दिन तक उसके हाथ सीधे न हो सके। उस दिन वह ज़रा भी नहीं लजाया, ज़रा भी नहीं झिझका। और किसी ने कुछ कहा भी नहीं; बल्कि सभी ने उसके साहस और दृढ़ता की तारीफ़ की। होरी ने कहा — यही मरद का धरम है। जिसकी बाँह पकड़ी, उसे क्या छोड़ना! धनिया ने आँखें नचाकर कहा — मत बखान करो, जी जलता है। यह मरद है? मैं ऐसे मरद को नामरद कहती हूँ। जब बाँह पकड़ी थी, तब क्या दूध पीता था कि सिलिया ब्राह्मणी हो गयी थी? एक महीना बीत गया। सिलिया फिर मजूरी करने लगी थी। सन्ध्या हो गयी थी। पूणर्मासी का चाँद विहँसता-सा निकल आया था। सिलिया ने कटे हुए खेत में से गिरे हुए जौ के बाल चुनकर टोकरी में रख लिये थे और घर जाना चाहती थी कि चाँद पर निगाह पड़ गयी और दर्द-भरी स्मृतियों का मानो स्रोत खुल गया। अंचल दूध से भींग गया और मुख आँसुओं से। उसने सिर लटका लिया और जैसे रुदन का आनन्द लेने गयी। सहसा किसी की आहट पाकर वह चौंक पड़ी। मातादीन पीछे से आकर सामने खड़ा हो गया और बोला — कब तक रोये जायगी सिलिया! रोने से वह फिर तो न आ जायगा। यह कहते-कहते वह ख़ुद रो पड़ा।

सिलिया के कंठे में आये हुए भत्र्सना के शब्द पिघल गये। आवाज़ सँभालकर बोली — तुम आज इधर कैसे आ गये?

मातादीन कातर होकर बोला — इधर से जा रहा था। तुझे बैठा देखा, चला आया।

‘ तुम तो उसे खेला भी न पाये। ‘

‘ नहीं सिलिया, एक दिन खेलाया था। ‘

‘ सच? ‘

‘ सच! ‘

‘ मैं कहाँ थी? ‘

‘ तू बाज़ार गयी थी। ‘

‘ तुम्हारी गोद में रोया नहीं? ‘

‘ नहीं सिलिया, हँसता था। ‘

‘ सच? ‘

‘ सच! ‘

‘ बस एक ही दिन खेलाया? ‘

‘ हाँ एक ही दिन; मगर देखने रोज़ आता था। उसे खटोले पर खेलते देखता था और दिल थामकर चला जाता था। ‘

‘ तुम्हीं को पड़ा था। ‘
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Old 11-01-2011, 06:29 AM   #254
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मुझे तो पछतावा होता है कि नाहक़ उस दिन उसे गोद में लिया। यह मेरे पापों का दंड है। ‘

सिलिया की आँखों में क्षमा झलक रही थी। उसने टोकरी सिर पर रख ली और घर चली। मातादीन भी उसके साथ-साथ चला। सिलिया ने कहा — मैं तो अब धनिया काकी के बरौठे में सोती हूँ। अपने घर में अच्छा नहीं लगता।

‘ धनिया मुझे बराबर समझाती रहती थी।

‘ सच? ‘

‘ हाँ सच। जब मिलती थी समझाने लगती थी। ‘

गाँव के समीप आकर सिलिया ने कहा — अच्छा, अब इधर से अपने घर चले जाओ। कहीं पण्डित देख न लें। मातादीन ने गर्दन उठाकर कहा — मैं अब किसी से नहीं डरता।

‘ घर से निकाल देंगे तो कहाँ जाओगे? ‘

‘ मैंने अपना घर बना लिया है। ‘

‘ सच? ‘

‘ हाँ, सच। ‘

‘ कहाँ, मैंने तो नहीं देखा। ‘

‘ चल तो दिखाता हूँ। ‘

दोनों और आगे बढ़े। मातादीन आगे था। सिलिया पीछे। होरी का घर आ गया। मातादीन उसके पिछवाड़े जाकर सिलिया की झोपड़ी के द्वार पर खड़ा हो गया और बोला — यही हमारा घर है। सिलिया ने अविश्वास, क्षमा, व्यंग और दुःख भरे स्वर में कहा — यह तो सिलिया चमारिन का घर है। मातादीन ने द्वार की टाटी खोलते हुए कहा — यह मेरी देवी का मन्दिर है। सिलिया की आँखें चमकने लगीं। बोली — मन्दिर है तो एक लोटा पानी उँड़ेलकर चले जाओगे। मातादीन ने उसके सिर की टोकरी उतारते हुए कम्पित स्वर में कहा — नहीं सिलिया, जब तक प्राण है तेरी शरण में रहूँगा। तेरी ही पूजा करूँगा।

‘ झूठ कहते हो। ‘

‘ नहीं, तेरे चरण छूकर कहता हूँ। सुना, पटवारी का लौंडा भुनेसरी तेरे पीछे बहुत पड़ा था। तूने उसे ख़ूब डाँटा। ‘

‘ तुमसे किसने कहा? ‘

‘ भुनेसरी आप ही कहता था। ‘

‘ सच? ‘

‘ हाँ, सच। ‘
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Old 11-01-2011, 06:30 AM   #255
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सिलिया ने दियासलाई से कुप्पी जलाई। एक किनारे मिट्टी का घड़ा था, दूसरी ओर चूल्हा था, जहाँ दो-तीन पीतल और लोहे के बासन मँजे-धुले रखे थे। बीच में पुआल बिछा था। वही सिलिया का बिस्तर था। इस बिस्तर के सिरहाने की ओर रामू की छोटी खटोली जैसे रो रही थी, और उसी के पास दो-तीन मिट्टी के हाथी-घोड़े अंग-भंग दशा में पड़े हुए थे। जब स्वामी ही न रहा तो कौन उनकी देख-भाल करता। मातादीन पुआल पर बैठ गया। कलेजे में हूक-सी उठ रही थी; जी चाहता था, ख़ूब रोये। सिलिया ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर पूछा — तुम्हें कभी मेरी याद आती थी?

मातादीन ने उसका हाथ पकड़कर हृदय से लगाकर कहा — तू हरदम मेरी आँखों के सामने फिरती रहती थी। तू भी कभी मुझे याद करती थी?

‘ मेरा तो तुमसे जी जलता था। ‘

‘ और दया नहीं आती थी? ‘

‘ कभी नहीं। ‘

‘ तो भुनेसरी … ‘

‘ अच्छा, गाली मत दो। मैं डर रही हूँ, गाँववाले क्या कहेंगे। ‘

‘ जो भले आदमी हैं, वह कहेंगे यही इसका धरम था। जो बुरे हैं उनकी मैं परवा नहीं करता। ‘

‘ और तुम्हारा खाना कौन पकायेगा। ‘

‘ मेरी रानी, सिलिया। ‘

‘ तो ब्राह्मन कैसे रहोगे? ‘

‘ मैं ब्राह्मण नहीं, चमार ही रहना चाहता हूँ। जो अपना धरम पाले वही ब्राह्मण है, जो धरम से मुँह मोड़े वही चमार है। ‘

सिलिया ने उसके गले में बाहें डाल दीं।

होरी की दशा दिन-दिन गिरती ही जा रही थी। जीवन के संघर्ष में उसे सदैव हार हुई; पर उसने कभी हिम्मत नहीं हारी। प्रत्येक हार जैसे उसे भाग्य से लड़ने की शक्ति दे देती थी; मगर अब वह उस अन्तिम दशा को पहुँच गया था, जब उसमें आत्म-विश्वास भी न रहा था। अगर वह अपने धर्म पर अटल रह सकता, तो भी कुछ आँसू पुछते; मगर वह बात न थी। उसने नीयत भी बिगाड़ी, अधर्म भी कमाया, कोई ऐसी बुराई न थी, जिसमें वह पड़ा न हो; पर जीवन की कोई अभिलाषा न पूरी हुई, और भले दिन मृगतृष्णा की भाँति दूर ही होते चले गये, यहाँ तक कि अब उसे धोखा भी न रह गया था, झूठी आशा की हरियाली और चमक भी अब नज़र न आती थी। हारे हुए महीप की भाँति उसने अपने को इन तीन बीघे के क़िले में बन्द कर लिया था और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था। फ़ाके सहे, बदनाम हुआ, मज़ूरी की; पर क़िले को हाथ से न जाने दिया; मगर अब वह क़िला भी हाथ से निकला जाता था। तीन साल से लगान बाक़ी पड़ा हुआ था और अब पण्डित नोखेराम ने उस पर बेदख़ली का दावा कर दिया था। कहीं से रुपए मिलने की आशा न थी। ज़मीन उसके हाथ से निकल जायगी और उसके जीवन के बाक़ी दिन मजूरी करने में कटेंगे। भगवान्
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की इच्छा! राय साहब को क्या दोष दे? असामियों हो से उनका भी गुज़र है। इसी गाँव पर आधे से ज़्यादा घरों पर बेदख़ली आ रही है; आवे। औरों की जो दशा होगी, वही उसकी भी होगा। भाग्य में सुख बदा होता, तो लड़का यों हाथ से निकल जाता? साँझ हो गयी थी। वह इसी चिन्ता में डूबा बैठा था कि पण्डित दातादीन ने आकर कहा — क्या हुआ होरी, तुम्हारी बेदख़ली के बारे में? इन दिनों नोखेराम से मेरी बोल-चाल बन्द है। कुछ पता नहीं। सुना, तारीख़ को पन्द्रह दिन और रह गये हैं। होरी ने उनके लिए खाट डालकर कहा — वह मालिक हैं, जो चाहें करें; मेरे पास रुपए होते, तो यह दुर्दशा क्यों होती। खाया नहीं, उड़ाया नहीं; लेकिन उपज ही न हो और जो हो भी, वह कौड़ियों के मोल बिके, तो किसान क्या करे?

‘ लेकिन जैजात तो बचानी ही पड़ेगी। निबाह कैसे होगा। बाप-दादों की इतनी ही निसानी बच रही है। वह निकल गयी, तो कहाँ रहोगे? ‘

‘ भगवान् की मरज़ी है, मेरा क्या बस! ‘

‘ एक उपाय है जो तुम करो। ‘

होरी को जैसे अभय-दान मिल गया। इनके पाँव पड़कर बोला — बड़ा धरम होगा महाराज, तुम्हारे सिवा मेरा कौन है। मैं तो निरास हो गया था।

‘ निरास होने की कोई बात नहीं। बस, इतना ही समझ लो कि सुख में आदमी का धरम कुछ और होता है, दुख में कुछ और। सुख में आदमी दान देता है, मगर दुःख में भीख तक माँगता है। उस समय आदमी का यही धरम हो जाता है। सरीर अच्छा रहता है तो हम बिना असनान-पूजा किये मुँह में पानी भी नहीं डालते; लेकिन बीमार हो जाते हैं, तो बिना नहाये-धोये, कपड़े पहने, खाट पर बैठे पथ्य लेते हैं। उस समय का यही धरम है। यहाँ हममें-तुममें कितना भेद है; लेकिन जगन्नाथपुरी में कोई भेद नहीं रहता। ऊँचे-नीचे सभी एक पंगत में बैठकर खाते हैं। आपत्काल में श्रीरामचन्द्र ने सेवरी के जूठे फल खाये थे, बालि को छिपकर वध किया था। जब संकट में बड़े-बड़ों की मर्यादा टूट जाती है, तो हमारी-तुम्हारी कौन बात है? रामसेवक महतो को तो जानते हो न? ‘

होरी ने निरुत्साह होकर कहा — हाँ, जानता क्यों नहीं।

‘ मेरा जजमान है। बड़ा अच्छा ज़माना है उसका। खेती अलग, लेन-देन अलग। ऐसे रोब-दाब का आदमी ही नहीं देखा। कई महीने हुए उसकी औरत मर गयी है। सन्तान कोई नहीं। अगर रुपिया का ब्याह उससे करना चाहो, तो मैं उसे राज़ी कर लूँ। मेरी बात वह कभी न टालेगा। लड़की सयानी हो गयी है और ज़माना बुरा है। कहीं कोई बात हो जाय, तो मुँह में कालिख लग जाय। यह बड़ा अच्छा औसर है। लड़की का ब्याह भी हो जायगा, और तुम्हारे खेत भी बच जायँगे। सारे ख़रच-वरच से बचे जाते हो। ‘

रामसेवक होरी से दो ही चार साल छोटा था। ऐसे आदमी से रूपा के ब्याह करने का प्रस्ताव ही अपमानजनक था। कहाँ फूल-सी रूपा और कहाँ वह बूढ़ा ठूँठ। जीवन में होरी ने बड़ी-बड़ी चोट सही थी, मगर यह चोट सबसे गहरी थी। आज उसके ऐसे दिन आ गये हैं कि उससे लड़की बेचने की बात कही जाती है और उसमें इन्कार करने का साहस नहीं है। ग्लानि से उसका सिर झुक गया। दातादीन ने एक मिनट के बाद पूछा — तो क्या कहते हो? होरी ने साफ़ जवाब न दिया। बोला — सोचकर कहूँगा।
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‘ इसमें सोचने की क्या बात है? ‘

‘ धनिया से भी तो पूँछ लूँ। ‘

‘ तुम राज़ी हो कि नहीं। ‘

‘ ज़रा सोच लेने दो महाराज। आज तक कुल में कभी ऐसा नहीं हुआ। उसकी मरजाद भी तो रखना है। ‘

‘ पाँच-छः दिन के अन्दर मुझे जवाब दे देना। ऐसा न हो, तुम सोचते ही रहो और बेदख़ली आ जाय। ‘

दातादीन चले गये। होरी की ओर से उन्हें कोई अन्देशा न था। अन्देशा था धनिया की ओर से। उसकी नाक बड़ी लम्बी है। चाहे मिट जाय, मरजाद न छोड़ेगी। मगर होरी हाँ कर ले तो वह रो-धोकर मान ही जायगी। खेतों के निकलने में भी तो मरजाद बिगड़ती है। धनिया ने आकर पूछा — पण्डित क्यों आये थे?

‘ कुछ नहीं, यही बेदख़ली की बातचीत थी। ‘

‘ आँसू पोंछने आये होंगे, यह तो न होगा कि सौ रुपए उधार दे दें। ‘

‘ माँगने का मुँह भी तो नहीं। ‘

‘ तो यहाँ आते ही क्यों हैं? ‘

‘ रुपिया की सगाई की बात थी। ‘

‘ किससे? ‘

‘ रामसेवक को जानती है? उन्हीं से। ‘

‘ मैंने उन्हें कब देखा, हाँ नाम बहुत दिन से सुनती हूँ। वह तो बूढ़ा होगा। ‘

‘ बूढ़ा नहीं है, हाँ अधेड़ है। ‘

‘ तुमने पण्डित को फटकारा नहीं। मुझसे कहते तो ऐसा जवाब देती कि याद करते। ‘

‘ फटकारा नहीं; लेकिन इन्कार कर दिया। कहते थे, ब्याह भी बिना ख़रच-बरच के हो जायगा; और खेत भी बच जायँगे। ‘

‘ साफ़-साफ़ क्यों नहीं बोलते कि लड़की बेचने को कहते थे। कैसे इस बूढ़े का हियाव पड़ा? ‘
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लेकिन होरी इस प्रश्न पर जितना ही विचार करता, उतना ही उसका दुराग्रह कम होता जाता था। कुल-मयार्दा की लाज उसे कुछ कम न थी; लेकिन जिसे असाध्य रोग ने ग्रस लिया हो, वह खाद्य-अखाद्य की परवाह कब करता है? दातादीन के सामने होरी ने कुछ ऐसा व प्रकट किया था, जिसे स्वीकृति नहीं कहा जा सकता, मगर भीतर से वह पिघल गया था। उम्र की ऐसी कोई बात नहीं। मरना-जीना तक़दीर के हाथ है। बूढ़े बैठे रहते हैं, जवान चले जाते हैं। रूपा को सुख लिखा है, तो वहाँ भी सुख उठायेगी; दुख लिखा है, तो कहीं भी सुख नहीं पा सकती और लड़की बेचने की तो कोई बात ही नहीं। होरी उससे जो कुछ लेगा, उधार लेगा और हाथ में रुपए आते ही चुका देगा। इसमें शर्म या अपमान की कोई बात ही नहीं है। बेशक, उसमें समाई होती, तो वह रूपा का ब्याह किसी जवान लड़के से और अच्छे कुल में करता, दहेज भी देता, बरात के खिलाने-पिलाने में भी ख़ूब दिल खोलकर ख़र्च करता; मगर जब ईश्वर ने उसे इस लायक़ नहीं बनाया, तो कुश-कन्या के सिवा और वह कर क्या सकता है? लोग हँसेंगे; लेकिन जो लोग ख़ाली हँसते हैं, और कोई मदद नहीं करते, उनकी हँसी की वह क्यों परवा करे। मुश्किल यही है कि धनिया न राज़ी होगी। गधी तो है ही। वही पुरानी लाज ढोये जायेगी। यह कुल-प्रतिष्ठा के पालने का समय नहीं, अपनी जान बचाने का अवसर है। ऐसी ही बड़ी लाजवाली है, तो लाये, पाँच सौ निकाले। कहाँ धरे हैं? दो दिन गुज़र गये और इस मामले पर उन लोगों में कोई बातचीत न हुई। हाँ, दोनों सांकेतिक भाषा में बातें करते थे। धनिया कहती — वर-कन्या जोड़ के हों तभी ब्याह का आनन्द है। होरी जवाब देता — ब्याह आनन्द का नाम नहीं है पगली, यह तो तपस्या है।

‘ चलो तपस्या है? ‘

‘ हाँ, मैं कहता जो हूँ। भगवान् आदमी को जिस दशा में डाल दें, उसमें सुखी रहना तपस्या नहीं, तो और क्या है? ‘ दूसरे दिन धनिया ने वैवाहिक आनन्द का दूसरा पहलू सोच निकाला। घर में जब तक सास-ससुर, देवरानियाँ-जेठानियाँ न हों, तो ससुराल का सुख ही क्या? कुछ दिन तो लड़की बहुरिया बनने का सुख पाये। होरी ने कहा — वह वैवाहिक-जीवन का सुख नहीं, दंड है। धनिया तिनक उठी — तुम्हारी बातें भी निराली होती हैं। अकेली बहू घर में कैसे रहेगी, न कोई आगे न कोई पीछे। होरी बोला — तू तो इस घर में आयी तो एक नहीं, दो-दो देवर थे, सास थी, ससुर था। तूने कौन-सा सुख उठा लिया, बता।

‘ क्या सभी घरों में ऐसे ही प्राणी होते हैं? ‘

‘ और नहीं तो क्या आकाश की देवियाँ आ जाती हैं। अकेली तो बहू। उस पर हुकूमत करनेवाला सारा घर। बेचारी किस-किस को ख़ुश करे। जिसका हुक्म न माने, वही बैरी। सबसे भला अकेला। ‘

फिर भी बात यहीं तक रह गयी; मगर धनिया का पल्ला हलका होता जाता था। चौथे दिन रामसेवक महतो ख़ुद आ पहुँचे। कलाँ-रास घोड़े पर सवार, साथ एक नाई और एक ख़िदमतगार, जैसे कोई बड़ा ज़मींदार हो। उम्र चालीस से ऊपर थी, बाल खिचड़ी हो गये थे; पर चेहरे पर तेज था, देह गठी हुई। होरी उनके सामने बिलकुल बूढ़ा लगता था। किसी मुक़दमे की पैरवी करने जा रहे थे। यहाँ ज़रा दोपहरी काट लेना चाहते हैं। धूप कितनी तेज़ है, और कितने ज़ोरों की लू चल रही है! होरी सहुआइन की दूकान से गेहूँ का आटा और घी लाया। पूरियाँ बनीं। तीनों मेहमानों ने खाया। दातादीन भी आशीर्वाद देने आ पहुँचे। बातें होने लगीं। दातादीन ने पूछा — कैसा मुक़दमा है महतो? रामसेवक ने शान जमाते हुए कहा —
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Old 11-01-2011, 06:32 AM   #259
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

मुक़दमा तो एक न एक लगा ही रहता है महाराज! संसार में गऊ बनने से काम नहीं चलता। जितना दबो उतना ही लोग दबाते हैं। थाना-पुलिस, कचहरी-अदालत सब हैं हमारी रक्षा के लिए; लेकिन रक्षा कोई नहीं करता। चारों तरफ़ लूट है। जो ग़रीब है, बेकस है, उसकी गरदन काटने के लिए सभी तैयार रहते हैं। भगवान् न करे कोई बेईमानी करे। यह बड़ा पाप है; लेकिन अपने हक़ और न्याय के लिए न लड़ना उससे भी बड़ा पाप है। तुम्हीं सोचो, आदमी कहाँ तक दबे? यहाँ तो जो किसान है, वह सबका नरम चारा है। पटवारी को नज़राना और दस्तूरी न दे, तो गाँव में रहना मुश्किल। ज़मींदार के चपरासी और कारिन्दों का पेट न भरे तो निर्वाह न हो। थानेदार और कानिसिटिबिल तो जैसे उसके दामाद हैं, जब उनका दौरा गाँव में हो जाय, किसानों का धरम है कि वह उनका आदर-सत्कार करें, नज़र-नयाज दें, नहीं एक रिपोट में गाँव का गाँव बँध जाय। कभी क़ानूनगो आते हैं, कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी, कभी एजंट, कभी कलक्टर, कभी कमिसनर, किसान को उनके सामने हाथ बाँधे हाजिर रहना चाहिए। उनके लिए रसद-चारे, अंडे-मुरग़ी, दूध-घी का इन्तज़ाम करना चाहिए। तुम्हारे सिर भी तो वही बीत रही है महाराज! एक-न-एक हाकिम रोज़ नये-नये बढ़ते जाते हैं। डाक्टर कुओं में दवाई डालने के लिए आने लगा है। एक दूसरा डाक्टर कभी-कभी आकर ढोरों को देखता है, लड़कों का इम्तहान लेनेवाला इसपिट्टर है, न जाने किस-किस महकमे के अफ़सर हैं, नहर के अलग, जंगल के अलग, ताड़ी-सराब के अलग, गाँव-सुधार के अलग खेती-विभाग के अलग। कहाँ तक गिनाऊँ। पादड़ी आ जाता है, तो उसे भी रसद देना पड़ता है, नहीं शिकायत कर दे। और जो कहो कि इतने महकमों और इतने अफ़सरों से किसान का कुछ उपकार होता हो, नाम को नहीं। कभी ज़मींदार ने गाँव पर हल पीछे दो-दो रुपये चन्दा लगाया। किसी बड़े अफ़सर की दावत की थी। किसानों ने देने से इनकार कर दिया। बस, उसने सारे गाँव पर जाफा कर दिया। हाकिम भी ज़मींदार ही का पच्छ करते हैं। यह नहीं सोचते कि किसान भी आदमी हैं, उनके भी बाल-बच्चे हैं, उनकी भी इज़्ज़त-आबरू है। और यह सब हमारे दब्बूपन का फल है। मैंने गाँव भर में डोंड़ी पिटवा दी कि कोई बेसी लगान न दो और न खेत छोड़ो, हमको कोई कायल कर दे, तो हम जाफा देने को तैयार हैं; लेकिन जो तुम चाहो कि बेमुँह के किसानों को पीसकर पी जायँ तो यह न होगा। गाँववालों ने मेरी बात मान ली, और सबने जाफा देने से इनकार कर दिया। ज़मींदार ने देखा, सारा गाँव एक हो गया है, तो लाचार हो गया। खेत बेदख़ल कर दे, तो जोते कौन! इस ज़माने में जब तक कड़े न पड़ो, कोई नहीं सुनता। बिना रोये तो बालक भी माँ से दूध नहीं पाता। रामसेवक तीसरे पहर चला गया और धनिया और होरी पर न मिटनेवाला असर छोड़ गया। दातादीन का मन्त्र जाग गया। उन्होंने पूछा — अब क्या कहते हो? होरी ने धनिया की ओर इशारा करके कहा — इससे पूछो।

‘ हम तुम दोनों से पूछते हैं। ‘

धनिया बोली — उमिर तो ज़्यादा है; लेकिन तुम लोगों की राय है, तो मुझे भी मंज़ूर है। तक़दीर में जो लिखा होगा, वह तो आगे आयेगा ही; मगर आदमी अच्छा है। और होरी को तो रामसेवक पर वह विश्वास हो गया था, जो दुर्बलों को जीवटवाले आदमियों पर होता है। वह शेख़ चिल्ली के-से मंसूबे बाँधने लगा था। ऐसा आदमी उसका हाथ पकड़ ले, तो बेड़ा पार है। विवाह का मुहूर्त ठीक हो गया। गोबर को भी बुलाना होगा। अपनी तरफ़ से लिख दो, आने न आने का उसे अख़्तियार है। यह कहने को तो मुँह न रहे कि तुमने मुझे बुलाया कब था? सोना को भी बुलाना होगा। धनिया ने कहा — गोबर तो ऐसा नहीं था, लेकिन जब झुनिया आने दे। परदेश जाकर ऐसा भूल गया कि न चिट्ठी न पत्री। न जाने कैसे हैं। — यह कहते-कहते उसकी आँखें सजल हो गयीं। गोबर को ख़त मिला, तो चलने को तैयार हो गया। झुनिया को जाना अच्छा तो न लगता था; पर इस अवसर पर कुछ कह न सकी। बहन के ब्याह में भाई का न जाना कैसे सम्भव है! सोना के ब्याह में न जाने का कलंक क्या कम है?
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Old 11-01-2011, 06:33 AM   #260
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गोबर आर्द्र कंठ से बोला — माँ बाप से खिंचे रहना कोई अच्छी बात नहीं है। अब हमारे हाथ-पाँव हैं, उनसे खिंच लें, चाहे लड़ लें; लेकिन जन्म तो उन्हीं ने दिया, पाल-पोसकर जवान तो उन्हीं ने किया, अब वह हमें चार बात भी कहें, तो हमें ग़म खाना चाहिए। इधर मुझे बार-बार अम्माँ-दादा की याद आया करती है। उस बखत मुझे न जाने क्यों उन पर ग़ुस्सा आ गया। तेरे कारन माँ-बाप को भी छोड़ना पड़ा। झुनिया तिनक उठी — मेरे सिर पर यह पाप न लगाओ, हाँ! तुम्हीं को लड़ने की सूझी थी। मैं तो अम्माँ के पास इसने दिन रही, कभी साँस तक न लिया।

‘ लड़ाई तेरे कारन हुई। ‘

‘ अच्छा मेरे ही कारन सही। मैंने भी तो तुम्हारे लिए अपना घर-बार छोड़ दिया। ‘

‘ तेरे घर में कौन तुझे प्यार करता था। भाई बिगड़ते थे, भावजें जलाती थीं। भोला जो तुझे पा जाते तो कच्चा ही खा जाते। ‘

‘ तुम्हारे ही कारन। ‘

‘ अबकी जब तक रहें, इस तरह रहें कि उन्हें भी ज़िन्दगानी का कुछ सुख मिले। उनकी मरज़ी के ख़िलाफ़ कोई काम न करें। दादा इतने अच्छे हैं कि कभी मुझे डाँटा तक नहीं। अम्माँ ने कई बार मारा है; लेकिन वह जब मारती थीं, तब कुछ-न कुछ खाने को दे देती थीं। मारती थीं; पर जब तक मुझे हँसा न लें, उन्हें चैन न आता था। ‘

दोनों ने मालती से ज़िक्र किया। मालती ने छुट्टी ही नहीं दी, कन्या के उपहार के लिए एक चर्खा और हाथों का कंगन भी दिया। वह ख़ुद जाना चाहती थी; लेकिन कई ऐसे मरीज़ उसके इलाज में थे, जिन्हें एक दिन के लिए भी न छोड़ सकती थी। हाँ, शादी के दिन आने का वादा किया और बच्चे के लिए खिलौनों का ढेर लगा दिया। उसे बार-बार चूमती थी और प्यार करती थी, मानो सब कुछ पेशगी ले लेना चाहती है और बच्चा उसके प्यार की बिलकुल परवा न करके घर चलने के लिए ख़ुश था, उस घर के लिए जिसको उसने देखा तक न था। उसकी बाल-कल्पना में घर स्वर्ग से भी बढ़कर कोई चीज़ थी। गोबर ने घर पहुँचकर उसकी दशा देखी तो ऐसा निराश हुआ कि इसी वक़्त यहाँ से लौट जाय। घर का एक हिस्सा गिरने-गिरने हो गया था। द्वार पर केवल एक बैल बँधा हुआ था, वह भी नीमजान। धनिया और होरी दोनों फूले न समाये; लेकिन गोबर का जी उचाट था। अब इस घर के सँभलने की क्या आशा है! वह ग़ुलामी करता है; लेकिन भरपेट खाता तो है। केवल एक ही मालिक का तो नौकर है। यहाँ तो जिसे देखो, वही रोब जमाता है। ग़ुलामी है; पर सूखी। मेहनत करके अनाज पैदा करो और जो रुपए मिलें, वह दूसरों को दे दो। आप बैठे राम-राम करो। दादा ही का कलेजा है कि यह सब सहते हैं। उससे तो एक दिन न सहा जाय। और यह दशा कुछ होरी ही की न थी। सारे गाँव पर यह विपत्ति थी। ऐसा एक आदमी भी नहीं, जिसकी रोनी सूरत न हो, मानो उनके प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो। चलते-फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे; इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तक़दीर में लिखा था। जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गये हों और सारी हरियाली मुरझा गयी हो। जेठ के दिन हैं, अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद है; मगर किसी के चेहरे पर ख़ुशी नहीं है। बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुलकर महाजनों और कारिन्दों की भेंट हो चुका है और जो कुछ बचा है, वह
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