18-09-2013, 11:59 AM | #31 |
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Re: जीवन में भाग्य और पुरूषार्थ.दोनों का ही अप
आशा करता हूँ कि इस लेख को पढकर उन लोगों की सोच में कुछ परिवर्तन हो सके…….. जो कि किसी के मुख से भाग्य शब्द सुनने पर ही उसे कुछ इस प्रकार से देखते हैं मानो कि उनके सामने कोई 16 वीं सदी का कोई प्राणी खडा हो..............
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19-09-2013, 12:28 PM | #32 |
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Re: जीवन में भाग्य और पुरूषार्थ.दोनों का ही अप
इस आलेख में भाग्य, प्रारब्ध, पुरुषार्थ और इन्हीं से जुड़े अन्य तत्वों के बारे में बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी प्रस्तुत की गयी है. निश्चित ही संदर्भित विषय पर पाठकों की जिज्ञासा शांत करने का अच्छा प्रयास किया गया है. धन्यवाद, डॉक्टर साहब.
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19-09-2013, 12:33 PM | #33 |
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Re: जीवन में भाग्य और पुरूषार्थ.दोनों का ही अप
रजनीश जी उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद............
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15-11-2013, 06:01 PM | #34 |
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Re: जीवन में भाग्य और पुरूषार्थ.दोनों का ही अप
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16-11-2013, 12:43 AM | #35 |
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Re: जीवन में भाग्य और पुरूषार्थ.दोनों का ही अप
बहुत ही विश्श्लेषणपरक और तर्कपूर्ण जानकारी ! पढ़कर बहुत अच्छा लगा !आज तो नहीं पर आगे समय मिला तो इन मुद्दो पर अवश्य कुछ कहना चाहुंगा ! धन्यवाद !!
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16-11-2013, 01:45 PM | #36 | |
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Re: जीवन में भाग्य और पुरूषार्थ.दोनों का ही अप
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धन्यवाद मित्र.................
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22-12-2013, 08:21 PM | #37 |
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Re: जीवन में भाग्य और पुरूषार्थ.दोनों का ही अप
भाग्य अथवा पुरूषार्थ—एक समस्या: यहूदी, ईसाई और इस्लाम— दुनिया के ये तीनों ही धर्म ऎसे हैं जो कि कर्म के सिद्धान्त को अटल रूप में नहीं मानते. उनके अनुसार इस जन्म में ईश्वर नें आत्मा को पैदा कर दिया. किसी को तो गरीब की झोंपडी में और किसी को अमीर के यहाँ उस ईश्वर नें क्यूँ पैदा कर दिया ?—इसका विज्ञान के साथ ही इनके पास भी कोई उत्तर नहीं. इनके अनुसार इस जन्म में अच्छे कर्म करने वाले स्वर्ग चले जाएंगें और जो बुरे कर्म करने वाले हैं, उन्हे हमेशा हमेशा के लिए नरक भेज दिया जाएगा. ये लोग वर्तमान वैज्ञानिकों की तरह से जीवन का आकस्मिक उत्पन होना तो मानते हैं—भले ही ईश्वर नें उत्पन किया हो, हुआ तो यों ही, बिना हमारी जिम्मेदारी के परन्तु वर्तमान विज्ञान की तरह इस सब हिसाब-किताब को अकारण राख करके चल देना नहीं मानते. इस जन्म के कर्मों का फल स्वर्ग (जन्नत) या नरक (दोजख) मानते हैं. परन्तु इस जन्म के थोडे से कर्मों का इतना अनन्त फल भला कैसे हो सकता है ? हमने इस जन्म में कुछ अच्छे काम किए, कुछ बुरे. अगर अच्छे बुरों की अपेक्षा कुछ अधिक हो गए तो हमें हमेशा के लिए स्वर्ग मिल जाएगा, अगर कुछ कम रह गए तो हमेशा के लिए नरक में धकेल दिए जाएंगें——यह तो कार्य-कारण के नियम के विपरीत हुआ. कर्म का सिद्धान्त अगर ठीक है तो पूर्व भी मानना पडता है और पुनर्जन्म भी. यह तो हमें दिख रहा है कि अगर कार्य-कारण का नियम एक सत्य नियम है, तो कर्मों का लेखा भी एक अमिट लेखा है, यह हिसाब पीछे से चला आता है. इस जन्म में यह हमारे हाथ में आ जाता है, और जब इस जन्म में हम जीवन के इस बही खाते को बन्द (मृ्त्यु होने पर) करते हैं, तो आगे कहीं जन्म लेने पर इसी लेने देने से अगला हिसाब शुरू करते हैं, बस एक तरह से डेबिट-क्रेडिट चलता रहता है, जब तक कि बही खाते का लेनदेन पूरी तरह से शून्य की स्थिति (मोक्ष) में नहीं पहुँच जाता. इसके अतिरिक्त कोई और अन्य कल्पना सिर्फ कार्य-कारण के नियम को छोडकर ही की जा सकती है, इसके बिना नहीं :.........
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22-12-2013, 08:23 PM | #38 |
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Re: जीवन में भाग्य और पुरूषार्थ.दोनों का ही अप
भाग्य अथवा पुरूषार्थ—एक समस्या: तो अब फिर वही पहले वाला प्रश्न ले देकर फिर सामने आन खडा होता है, कि—-क्या हम प्रारब्ध से, भाग्य से, मुक्कदर से पिछले कर्मों से इस तरह जकडे हुए हैं कि इनकी “अवश्यम्भाविता” और इनके “चक्र” में से निकल ही नहीं सकते. जो भाग्य में लिखा गया, वो होना ही है. मस्तक में जो रेखा खिँच गई, वो अमिट है या जीवन में पुरूषार्थ का, स्वतन्त्रता का भी कोई स्थान है कि नहीं ? हमारी आर्य संस्कृ्ति नें विश्व में कार्य-कारण के व्यापक भौतिक नियम को देखकर उसी को आध्यात्मिक जगत में कर्म के सिद्धान्त का नाम दिया. कर्म के सिद्धान्त को मानने से उसके लिए पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को मानना आवश्यक हो गया, परन्तु इनके मानने से उनके सामने एक महान समस्या उठ खडी हुई| वो ये कि इस सिद्धान्त को मानने से तो इन्सान परतन्त्र हो जाता है, उसकी अपनी कोई स्वतंत्रता ही नहीं रह जाती. जब सब कुछ पहले से ही हमारे कर्म फल के रूप में भाग्य में लिख दिया गया है तो फिर हमारे हाथ में भला क्या रह जाता है. पुरूषार्थ जैसे किसी शब्द का तो कोई औचित्य ही नहीं बचता| भाग्य और पुरूषार्थ का कर्मों के बन्धन के साथ बँधा होना तथा स्वतन्त्र रूप से कार्य कर सकना—-इन दोनों बातों की संगति समझने के लिए “कर्म” को कुछ ओर गहराई से समझने की जरूरत है :.........
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22-12-2013, 08:32 PM | #39 |
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Re: जीवन में भाग्य और पुरूषार्थ.दोनों का ही अप
भाग्य अथवा पुरूषार्थ : पूर्व जन्मों के कर्मों का फल ही हमारा भाग्य और इस जन्म के कर्मों के फल को पुरूषार्थ का परिणाम माना जाता है । कार्य से कारण माना जाता है । पुरूषार्थ करने पर भी जब कोई फल नहीं मिलता तो वह अज्ञात कर्मों के कारण ही माना जाता है । ये अज्ञात कर्म पूर्व जन्म के ही तो कर्म हैं । प्रत्येक कर्म प्रतिक्रिया (रिएक्शन) उत्पन्न करता है । यह प्रतिक्रिया वातावरण और काल के अधीन रहती है । जब ये अनुकूल होते हैं तो पुरूषार्थ का फल प्रचुर मात्रा में मिलता है और जब वातावरण प्रतिकूल होते हैं पुरूषार्थ का फल हीन अथवा नकारात्मक हो जाता है । अर्थात वातावरण , परिस्थिति और काल भाग्य से अनुकूल और प्रतिकूल होते हैं । कुछ लोगों के अनुसार वातावरण आदि तो निर्माण किये जाते हैं , जो निर्माण करने की योग्यता और बुद्धि रखेंगे उनको पुरूषार्थ फलयुक्त होगा । फिर भी प्रश्न उत्पन्न होता है कि योग्यता और बुद्धि जो वातावरणादि को निर्माण करती है , उसी में भेद क्यों होता है ? इसका उत्तर है कि जन्म के समय माता - पिता की शारीरिक , मानसिक तथा आर्थिक परिस्थिति पर बुद्धि और योग्यता का निर्माण होता है और माता - पिता की इन अवस्थाओं में अंतर होता है । वास्तव में अनेकानेक भिन्न - भिन्न प्रकार के परिणाम आत्मा के भिन्न - भिन्न प्रकार के कर्मों के फल ही हैं ।ज्ञात कर्मों को पुरूषार्थ कहते हैं , और अज्ञात कर्मों को , जिनको हम इस जन्म के कर्मों के साथ जोड़ नहीं सकते , भाग्य कहते हैं । ये पूर्व जन्म के किये कर्म ही तो होंगे :......... अशोक "प्रवृद्ध"
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15-03-2014, 05:26 PM | #40 |
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Re: जीवन में भाग्य और पुरूषार्थ.दोनों का ही अप
"भाग्य और पुरषार्थ में संतुलन" : नैवाकृति: फलति नैव कुलं न शीलं विद्यापि नैव न च यत्नकृताऽपि सेवा। भाग्यानि पूर्वतपसा खलु सञ्चितानि काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षा:।। अर्थ: मनुष्य की सुन्दर आकृति,उतम कुल, शील, विद्या, और खूब अच्छी तरह की हुई सेवा - ये सब कुछ फल नहीं देते किन्तु पूर्वजन्म के कर्म ही समय पर वृक्ष की तरह फल देते हैं। हमारे वर्तमान जीवन में हमारे भूतकाल का भी पूरा पूरा प्रभाव और नियंत्रण रहता है क्योकि हमारा जो आज है वह गुजरे कल से ही पैदा होता है और जो आने वाला कल है वह आज से यानि वर्तमान से पैदा होगा। यह जो कल, आज और कल वाली बात है यह काल गणना के अंतर्गत ही है वरना जो कालातीत स्थिति में है उनके लिए 'न भूतो न भविष्यति' के अनुसार न भूतकाल है न भविष्य काल है। उनके लिए सदा वर्तमान काल ही रहता है। शरीर तल पर भूत भविष्य होते हैं, आत्मा के तल पर सदैव वर्तमान काल ही रहता है। हमें शरीर के तल पर भूतकाल और भविष्य काल का अनुभव होता है और हम समझते हैं की पूर्व काल की कर्मो के फल हम भोग रहें हैं। दरअसल सारे कर्मो का फल वर्तमान काल में ही फलित हो रहें हैं। जो इस रहस्य को समझ लेते हैं वें भूत-भविष्य से परे उठकर सदैव वर्तमान में ही जीते हैं और कर्म और कर्मफल के तारतभय को जानते हैं। कर्म से कर्मफल कभी जुदा नहीं होता क्योकि कर्मफल जिसे हम प्रारब्ध या भाग्य मानते हैं वह कर्म का ही अंतिम चरण होता है। पूर्व जन्मों में या पूर्व समय में हमने जो भी कर्म किये, उन्हीं सब का फल मिलकर तो भाग्य रूप में हमारे सामने आता है। भाग्य हमारे पूर्व कर्म संस्कारों का ही तो नाम है और इनके बारे में एकमात्र सच्चाई यही है कि वह बीत चुके हैं। अब उन्हें बदला नहीं जा सकता। लेकिन अपने वर्तमान कर्म तो हम चुन ही सकते हैं। यह समझना कोई मुश्किल नहीं कि भूत पर वर्तमान हमेशा ही भारी रहेगा क्योंकि भूत तो जैसे का तैसा रहेगा लेकिन वर्तमान को हम अपनी इच्छा और अपनी हिम्मत से अपने अनुसार ढाल सकते हैं।कर्म से भाग्य बनता है या भाग्य से कर्म करते हैं लेकिन दोनों के बीच कोई खास रिश्ता जरूर होता है। :......... साभार :.........
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