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25-03-2015, 07:06 PM | #1 |
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तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी
मुसव्विर मैं तेरा शाहकार वापस करने आया हूं
अब इन रंगीन रुख़सारों में थोड़ी ज़िदर्यां भर दे हिजाब आलूद नज़रों में ज़रा बेबाकियां भर दे लबों की भीगी भीगी सिलवटों को मुज़महिल कर दे नुमाया रग-ए-पेशानी पे अक्स-ए-सोज़-ए-दिल कर दे तबस्सुम आफ़रीं चेहरे में कुछ संजीदापन कर दे जवां सीने के मखरुती उठाने सरिनगूं कर दे घने बालों को कम कर दे, मगर रख्शांदगी दे दे नज़र से तम्कनत ले कर मिज़ाज-ए-आजिजी दे दे मगर हां बेंच के बदले इसे सोफ़े पे बिठला दे यहां मेरे बजाए इक चमकती कार दिखला दे
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25-03-2015, 07:07 PM | #2 |
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Re: तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी
ऐ सरज़मीन-ए-पाक़ के यारां-ए-नेक नाम
बा-सद-खलूस शायर-ए-आवारा का सलाम ऐ वादी-ए-जमील मेंरे दिल की धडकनें आदाब कह रही हैं तेरी बारगाह में तू आज भी है मेरे लिए जन्नत-ए-ख़याल हैं तुझ में दफन मेरी जवानी के चार साल कुम्हलाये हैं यहाँ पे मेरी ज़िन्दगी के फूल इन रास्तों में दफन हैं मेरी ख़ुशी के फूल तेरी नवाजिशों को भुलाया न जाएगा माजी का नक्श दिल से मिटाया न जाएगा तेरी नशात खैज़-फ़ज़ा-ए-जवान की खैर गुल हाय रंग-ओ-बू के हसीं कारवाँ की खैर दौर-ए-खिजां में भी तेरी कलियाँ खिली रहे ता-हश्र ये हसीं फज़ाएँ बसी रहे हम एक ख़ार थे जो चमन से निकल गए नंग-ए-वतन थे खुद ही वतन से निकल गए गाये हैं फ़ज़ा में वफाओं के राग भी नगमात आतिशें भी बिखेरी है आग भी सरकश बने हैं गीत बगावत के गाये हैं बरसों नए निजाम के नक्शे बनाए हैं नगमा नशात-रूह का गाया है बारहा गीतों में आंसूओं को छुपाया है बारहा मासूमियों के जुर्म में बदनाम भी हुए तेरे तुफैल मोरिद-ए-इलज़ाम भी हुए इस सरज़मीन पे आज हम इक बार ही सही दुनिया हमारे नाम से बेज़ार ही सही लेकिन हम इन फ़ज़ाओं के पाले हुए तो हैं गर यां नहीं तो यां से निकाले हुए तो हैं !
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25-03-2015, 07:08 PM | #3 |
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Re: तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी
खलवत-ओ-जलवत में तुम मुझसे मिली हो बरहा
तुमने क्या देखा नहीं, मैं मुस्कुरा सकता नहीं मैं की मायूसी मेरी फितरत में दाखिल हो चुकी ज़ब्र भी खुद पर करूं तो गुनगुना सकता नहीं मुझमे क्या देखा की तुम उल्फत का दम भरने लगी मैं तो खुद अपने भी कोई काम आ सकता नहीं रूह-अफज़ा है जुनूने-इश्क के नगमे मगर अब मै इन गाये हुए गीतों को गा सकता नहीं मैंने देखा है शिकस्ते-साजे-उल्फत का समां अब किसी तहरीक पर बरबत उठा सकता नहीं तुम मेरी होकर भी बेगाना ही पाओगी मुझे मैं तुम्हारा होकर भी तुम में समा सकता नहीं गाये हैं मैंने खुलूसे-दिल से भी उल्फत के गीत अब रियाकारी से भी चाहूं तो गा सकता नहीं किस तरह तुमको बना लूं मैं शरीके ज़िन्दगी मैं तो अपनी ज़िन्दगी का भार उठा सकता नहीं यास की तारीकियों में डूब जाने दो मुझे अब मैं शम्मा-ए-आरजू की लौ बढ़ा सकता नहीं
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25-03-2015, 07:09 PM | #4 |
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Re: तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी
(एक दोस्त की शादी पर)
तराने गूंज उठे हैं फजां में शादियानों के हवा है इत्र-आगीं, ज़र्रा-ज़र्रा मुस्कुराता है मगर दूर, एक अफसुर्दा मकां में सर्द बिस्तर पर कोई दिल है की हर आहट पे यूँ ही चौंक जाता है मेरी आँखों में आंसू आ गए नादीदा आँखों के मेरे दिल में कोई ग़मगीन नग्मे सरसराता है ये रस्मे-इन्किता-इ-अहदे-अल्फत, ये हवाते-नौ मोहब्बत रो रही है और तमद्दुन मुस्कुराता है ये शादी खाना-आबादी हो, मेरे मोहतरिम भाई मुबारिक कह नहीं सकता मेरा दिल कांप जाता है
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25-03-2015, 07:10 PM | #5 |
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Re: तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी
जीने से दिल बेज़ार है
हर सांस एक आज़ार है कितनी हज़ीं है ज़िंदगी अंदोह-गीं है ज़िंदगी वी बज़्मे-अहबाबे-वतन वी हमनवायाने-सुखन आते हैं जिस दम याद अब करते हैं दिल नाशाद अब गुज़री हुई रंगीनियां खोई हुई दिलचस्पियां पहरों रुलाती हैं मुझे अक्सर सताती हैं मुझे वो जामजमे वो चह्चहे वो रूह-अफ़ज़ा कहकहे जब दिल को मौत आई न थी यूं बेहिसी छाई न थी वो नाज़नीनाने-वतन ज़ोहरा- ज़बीनाने-वतन जिन मे से एक रंगीं कबा आतिश-नफ़स आतिश-नवा करके मोहब्बत आशना रंगे अकीदत आशना मेरे दिले नाकाम को खूं-गश्ता-ए-आलाम को दागे-ज़ुदाई दे गई सारी खुदाई ले गई उन साअतों की याद मे उन राहतों की याद मे मरमूम सा रहता हूं मैं गम की कसक सहता हूं मैं सुनता हूं जब अहबाब से किस्से गमे-अय्याम के बेताब हो जाता हूं मैं आहों मे खो जाता हूं मैं फ़िर वो अज़ीज़-ओ-अकरबा जो तोड कर अहदे-वफ़ा अहबाब से मुंह मोड कर दुनिया से रिश्ता तोड कर हद्दे-उफ़ से उस तरफ़ रंगे-शफ़क से उस तरफ़ एक वादी-ए-खामोश की एक आलमे-बेहोश की गहराइयों मे सो गये तारिकियों मे खो गये उन का तसव्वुर नागाहां लेता है दिल में चुटकियां और खूं रुलाता है मुझे बेकल बनाता है मुझे वो गांव की हमजोलियां मफ़लूक दहकां-ज़ादियां जो दस्ते-फ़र्ते-यास से और यूरिशे-इफ़लास से इस्मत लुटाकर रह गई खुद को गंवा कर रह गई गमगीं जवानी बन गई रुसवा कहानी बन गई उनसे कभी गलियों मे जब होता हूं मैं दोचार जब नज़रें झुका लेता हूं मैं खुद को छुपा लेता हूं मैं कितनी हज़ीं है ज़िदगी अन्दोह-गीं है ज़िंदगी
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25-03-2015, 07:12 PM | #6 |
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Re: तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी
जीने से दिल बेज़ार है
हर सांस एक आज़ार है कितनी हज़ीं है ज़िंदगी अंदोह-गीं है ज़िंदगी वी बज़्मे-अहबाबे-वतन वी हमनवायाने-सुखन आते हैं जिस दम याद अब करते हैं दिल नाशाद अब गुज़री हुई रंगीनियां खोई हुई दिलचस्पियां पहरों रुलाती हैं मुझे अक्सर सताती हैं मुझे वो जामजमे वो चह्चहे वो रूह-अफ़ज़ा कहकहे जब दिल को मौत आई न थी यूं बेहिसी छाई न थी वो नाज़नीनाने-वतन ज़ोहरा- ज़बीनाने-वतन जिन मे से एक रंगीं कबा आतिश-नफ़स आतिश-नवा करके मोहब्बत आशना रंगे अकीदत आशना मेरे दिले नाकाम को खूं-गश्ता-ए-आलाम को दागे-ज़ुदाई दे गई सारी खुदाई ले गई उन साअतों की याद मे उन राहतों की याद मे मरमूम सा रहता हूं मैं गम की कसक सहता हूं मैं सुनता हूं जब अहबाब से किस्से गमे-अय्याम के बेताब हो जाता हूं मैं आहों मे खो जाता हूं मैं फ़िर वो अज़ीज़-ओ-अकरबा जो तोड कर अहदे-वफ़ा अहबाब से मुंह मोड कर दुनिया से रिश्ता तोड कर हद्दे-उफ़ से उस तरफ़ रंगे-शफ़क से उस तरफ़ एक वादी-ए-खामोश की एक आलमे-बेहोश की गहराइयों मे सो गये तारिकियों मे खो गये उन का तसव्वुर नागाहां लेता है दिल में चुटकियां और खूं रुलाता है मुझे बेकल बनाता है मुझे वो गांव की हमजोलियां मफ़लूक दहकां-ज़ादियां जो दस्ते-फ़र्ते-यास से और यूरिशे-इफ़लास से इस्मत लुटाकर रह गई खुद को गंवा कर रह गई गमगीं जवानी बन गई रुसवा कहानी बन गई उनसे कभी गलियों मे जब होता हूं मैं दोचार जब नज़रें झुका लेता हूं मैं खुद को छुपा लेता हूं मैं कितनी हज़ीं है ज़िदगी अन्दोह-गीं है ज़िंदगी
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25-03-2015, 07:20 PM | #7 |
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Re: तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी
अपने सीने से लगाये हुये उम्मीद की लाश
मुद्दतों ज़ीस्त1 को नाशाद2 किया है मैनें तूने तो एक ही सदमे से किया था दो चार दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैनें जब भी राहों में नज़र आये हरीरी मलबूस3 सर्द आहों से तुझे याद किया है मैनें और अब जब कि मेरी रूह की पहनाई में एक सुनसान सी मग़्मूम घटा छाई है तू दमकते हुए आरिज़4 की शुआयेँ5 लेकर गुलशुदा6 शम्मएँ7 जलाने को चली आई है मेरी महबूब ये हन्गामा-ए-तजदीद8-ए-वफ़ा मेरी अफ़सुर्दा9 जवानी के लिये रास नहीं मैं ने जो फूल चुने थे तेरे क़दमों के लिये उन का धुंधला-सा तसव्वुर10 भी मेरे पास नहीं एक यख़बस्ता11 उदासी है दिल-ओ-जाँ पे मुहीत12 अब मेरी रूह में बाक़ी है न उम्मीद न जोश रह गया दब के गिराँबार13 सलासिल14 के तले मेरी दरमान्दा15 जवानी की उमन्गों का ख़रोश 1 जीस्त- ज़िंदगी । 2 नाशाद- ग़मग़ीन, उत्साहहीन । 3 हरीरी मलबूस - रेशमा कपड़े का टुकड़ा । 4 आरिज़ - गाल और होंठों के अंग । 5 शुआ - किरण । 6 गुलशुदा - बुझ चुकी, मृतप्राय । 7 शम्मा - आग । 8 तज़दीद - पुनरोद्भव, फिर से जाग उठना । 9 अफ़सुर्दा - मुरझाई हुई, कुम्हलाई हुई । 10 तसव्वुर -ख़याल, विचार, याद । 11 यख़बस्ता - जमी हुई । 12 मुहीत -फैला हुआ । 13 गिराँबार - तनी हुई, कसी हुई । 14 सलासिल - ज़ंजीर । 15 दरमान्दा - असहाय, बेसहारा
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25-03-2015, 07:22 PM | #8 |
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Re: तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी
तुम्हे उदास सी पाता हूं मैं कई दिन से,
न जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम? वो शोखियां वो तबस्सुम वो कहकहे न रहे हर एक चीज को हसरत से देखती हो तुम। छुपा-छुपा के खमोशी मे अपनी बेचैनी, खुद अपने राज़ की तशहीर बन गई हो तुम। मेरी उम्मीद अगर मिट गई तो मिटने दो, उम्मीद क्या है बस इक पेशो-पस है कुछ भी नहीं। मेरी हयात की गमगीनियों क गम न करो, गमे-हयात गमे-यक-नफ़स है कुछ भी नहीं। तुम अपने हुस्न की र*अनाईयों पे रहम करो, वफ़ा फ़रेब है तूले-हवस है कुछ भी नहीं। मुझे तुम्हारे तगाफ़ुल से क्यों शिकायत हो, मेरी फ़ना मेरे एहसास क तकाज़ा है। मै जानता हूं कि दुनिया क खौफ़ है तुमको, मुझे खबर है, ये दुनिया अज़ीब दुनिया है। यहां हयात के पर्दे मे मौत पलती है, शिकस्ते-साज की आवाज रुहे-नग्मा है। मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज़ नहीं, मेरे खयाल की दुनिया मे मेरे पास हो तुम। ये तुमने ठीक कहा है, तुम्हे मिला ना करूं मगर मुझे ये बता दो कि क्यों उदास हो तुम? खफ़ा न होन मेरी ज़ुर्रते-तखातुब पर तुम्हे खबर है मेरी जिंदगी की आस हो तुम? मेरा तो कुच भी नहीं है, मै रो के जी लूंगा, मगर खुदा के लिये तुम असीरे-गम न रहो, हुआ ही क्या जो तुम को जमने से छीन लिया यहां पे कौन हुआ है किसी का, सोचो तो, मुझे कसम है मेरी दुख भरी जवानी की मै खुश हूं, मेरी मुहब्बत के फ़ूल ठुकरा दो। मै अपनी रूह की हर एक खुशी मिटा लूंगा, मगर तुम्हारी मसर्रत मिटा नहीं सकता। मै खुद को मौत के हांथों मे सौंप सकता हूं, मगर ये बारे-मसाइब उठा नहीं सकता। तुम्हारे गम के सिवा और भी तो गम हैं मुझे निजात जिनमे मै इक लहज़ा पा नहीं सकता। ये ऊंचे ऊंचे मकानों के ड्योढियों के तले, हर एक गाम पे भूखे भिखारियों की सदा। हर एक घर मे ये इफ़लास और भूख का शोर हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आहो बका। ये करखानों मे लोहे क शोरो-गुल जिसमे, है दफ़्न लाखों गरीबो की रूह का नग्मा। ये शाहराहों पे रंगीन साडियों की झलक, ये झोपडों मे गरीबों की बेकफ़न लाशें। ये माल-रोड पे कारों की रेल-पेल का शोर, ये पटरियों पे गरीबों के ज़र्द-रू बच्चे। गली-गली मे ये बिकते हुए जवां चेहरे, हसीन आंखों मे अफ़सुर्दगी सी छाई हुई। ये जंग और ये मेरे वतन के शोख जवां, खरीदी जाती है उठती जवानियां जिनकी। ये बात-बात पे कनूनों-जाब्ते की गिरफ़्त, ये ज़िल्लतें, ये गुलामी, ये दौरे मज़बूरी। ये गम बहुत है मेरी ज़िन्दगी मिटाने को, उदास रह के मेरे दिल को और रंज न दो। फ़िर न कीजे मीरी गुस्ताख-निगाही का गिला देखिये आपने फ़िर प्यारे से देखा मुझको।
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25-03-2015, 07:22 PM | #9 |
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Re: तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी
तुम्हे उदास सी पाता हूं मैं कई दिन से,
न जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम? वो शोखियां वो तबस्सुम वो कहकहे न रहे हर एक चीज को हसरत से देखती हो तुम। छुपा-छुपा के खमोशी मे अपनी बेचैनी, खुद अपने राज़ की तशहीर बन गई हो तुम। मेरी उम्मीद अगर मिट गई तो मिटने दो, उम्मीद क्या है बस इक पेशो-पस है कुछ भी नहीं। मेरी हयात की गमगीनियों क गम न करो, गमे-हयात गमे-यक-नफ़स है कुछ भी नहीं। तुम अपने हुस्न की र*अनाईयों पे रहम करो, वफ़ा फ़रेब है तूले-हवस है कुछ भी नहीं। मुझे तुम्हारे तगाफ़ुल से क्यों शिकायत हो, मेरी फ़ना मेरे एहसास क तकाज़ा है। मै जानता हूं कि दुनिया क खौफ़ है तुमको, मुझे खबर है, ये दुनिया अज़ीब दुनिया है। यहां हयात के पर्दे मे मौत पलती है, शिकस्ते-साज की आवाज रुहे-नग्मा है। मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज़ नहीं, मेरे खयाल की दुनिया मे मेरे पास हो तुम। ये तुमने ठीक कहा है, तुम्हे मिला ना करूं मगर मुझे ये बता दो कि क्यों उदास हो तुम? खफ़ा न होन मेरी ज़ुर्रते-तखातुब पर तुम्हे खबर है मेरी जिंदगी की आस हो तुम? मेरा तो कुच भी नहीं है, मै रो के जी लूंगा, मगर खुदा के लिये तुम असीरे-गम न रहो, हुआ ही क्या जो तुम को जमने से छीन लिया यहां पे कौन हुआ है किसी का, सोचो तो, मुझे कसम है मेरी दुख भरी जवानी की मै खुश हूं, मेरी मुहब्बत के फ़ूल ठुकरा दो। मै अपनी रूह की हर एक खुशी मिटा लूंगा, मगर तुम्हारी मसर्रत मिटा नहीं सकता। मै खुद को मौत के हांथों मे सौंप सकता हूं, मगर ये बारे-मसाइब उठा नहीं सकता। तुम्हारे गम के सिवा और भी तो गम हैं मुझे निजात जिनमे मै इक लहज़ा पा नहीं सकता। ये ऊंचे ऊंचे मकानों के ड्योढियों के तले, हर एक गाम पे भूखे भिखारियों की सदा। हर एक घर मे ये इफ़लास और भूख का शोर हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आहो बका। ये करखानों मे लोहे क शोरो-गुल जिसमे, है दफ़्न लाखों गरीबो की रूह का नग्मा। ये शाहराहों पे रंगीन साडियों की झलक, ये झोपडों मे गरीबों की बेकफ़न लाशें। ये माल-रोड पे कारों की रेल-पेल का शोर, ये पटरियों पे गरीबों के ज़र्द-रू बच्चे। गली-गली मे ये बिकते हुए जवां चेहरे, हसीन आंखों मे अफ़सुर्दगी सी छाई हुई। ये जंग और ये मेरे वतन के शोख जवां, खरीदी जाती है उठती जवानियां जिनकी। ये बात-बात पे कनूनों-जाब्ते की गिरफ़्त, ये ज़िल्लतें, ये गुलामी, ये दौरे मज़बूरी। ये गम बहुत है मेरी ज़िन्दगी मिटाने को, उदास रह के मेरे दिल को और रंज न दो। फ़िर न कीजे मीरी गुस्ताख-निगाही का गिला देखिये आपने फ़िर प्यारे से देखा मुझको।
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25-03-2015, 07:22 PM | #10 |
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Re: तल्खियाँ/ साहिर लुधियानवी
मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है
कि शायद मेरे दिल को इश्क़ के नग़्मों से नफ़रत है मुझे हंगामा-ए-जंग-ओ-जदल में कैफ़ मिलता है मेरी फ़ितरत को ख़ूँरेज़ी के अफ़सानों से रग़्बत है मेरी दुनिया में कुछ वक्त नहीं है रक़्स-ओ-नग़्में की मेरा महबूब नग़्मा शोर-ए-आहंग-ए-बग़ावत है मगर ऐ काश! देखें वो मेरी पुरसोज़ रातों को मैं जब तारों पे नज़रें गाड़कर आसूँ बहाता हूँ तसव्वुर बनके भूली वारदातें याद आती हैं तो सोज़-ओ-दर्द की शिद्दत से पहरों तिल्मिलाता हूँ कोई ख़्वाबों में ख़्वाबीदा उमंगों को जगाती है तो अपनी ज़िन्दगी को मौत के पहलू में पाता हूँ मैं शायर हूँ मुझे फ़ितरत के नज़ारों से उल्फ़त है मेरा दिल दुश्मन-ए-नग़्मा-सराई हो नहीं सकता मुझे इन्सानियत का दर्द भी बख़्शा है क़ुदरत ने मेरा मक़सद फ़क़त शोला नवाई हो नहीं सकता जवाँ हूँ मैं जवानी लग़्ज़िशों का एक तूफ़ाँ है मेरी बातों में रन्ग-ए-पारसाई हो नहीं सकता मेरे सरकश तरानों की हक़ीक़त है तो इतनी है कि जब मैं देखता हूँ भूक के मारे किसानों को ग़रीबों को, मुफ़लिसों को, बेकसों को, बेसहारों को सिसकती नाज़नीनों को, तड़पते नौजवानों को हुकूमत के तशद्दुद को, अमारत के तकब्बुर को किसी के चिथड़ों को और शहन्शाही ख़ज़ानों को तो दिल ताब-ए-निशात-ए-बज़्म-ए-इश्रत ला नहीं सकता मैं चाहूँ भी तो ख़्वाब-आवार तराने गा नहीं सकता शब्दार्थ सरकश - सरचढ़े । जंग-ओ-जदल - युद्ध और संघर्ष । कैफ़ - शांति । खूँरेजी - खूनखराबा । रग्बत - स्नेह । रक्स - नृत्य । आहंग - आलाप । तसव्वुर - खयाल, विचार याद । सोज - जलन । शिद्दत - तेज, प्रचण्डता । उल्फत - प्रेम । नग्मासराई - नग्में गाने वाला । फ़कत - केवल, सिर्फ़ । मुफ़लिस - गरीब । तकब्बुर - मगरूर, गुमान । ताब-ए-निशात - खुशी की जलन । बज़्म-ए-इश्रत - समाज की भीड़ या महफ़िल
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