07-05-2011, 09:26 PM | #1 |
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इस्मत चुगताई की कहानियाँ
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काम्या
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07-05-2011, 09:31 PM | #2 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
इस्मत चुगताई का परिचय...
इस्मत चुगताई उर्दू ही नहीं भारतीय साहित्य में भी एक चर्चित और सशक्त कहानीकार के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने आज से करीब 70 साल पहले महिलाओं से जुड़े मुद्दों को अपनी रचनाओं में बेबाकी से उठाया और पुरुष प्रधान समाज में उन मुद्दों को चुटीले और संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम भी उठाया। उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में 15 अगस्त 1911 को जन्मीं इस्मत का ज्यादातर वक्त जोधपुर में गुजरा। पढाई के दौरान ही उन्होंने चोरी-छुपे कहानियां लिखनी शुरू कीं। उनकी पहली लघु कथा फसादी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका साकी में प्रकाशित हुई थी। समाज विशेषकर आधी आबादी यानी महिलाओं के मुद्दों पर पैनी नजर रखने वाली इस्मत राशिद जहां, वाजेदा तबस्सुम और कुर्रतुलऐन हैदर जैसी प्रख्यात लेखिकाओं की समकालीन थीं। आलोचकों के अनुसार इस्मत ने शहरी जीवन में महिलाओं के मुद्दे पर सरल, प्रभावी और मुहावरेदार भाषा में ठीक उसी प्रकार से लेखन कार्य किया है जिस प्रकार से प्रेमचंद ने देहात के पात्रों को बखूबी से उतारा है। इस्मत के अफसानों में औरत अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती है।
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07-05-2011, 09:33 PM | #3 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
ऐसा नहीं कि इस्मत के अफसानों में सिर्फ महिला मुद्दे ही थे। उन्होंने समाज की कुरीतियों, व्यवस्थाओं और अन्य पात्रों को भी बखूबी पेश किया। यही नहीं वह अफसानों में करारा व्यंग्य भी करती थीं जो उनकी कहानियों की रोचकता और सार्थकता को बढ़ा देता है।
उर्दू अदब में सआदत हसन मंटो, इस्मत, कृष्णचंदर और राजिन्दर सिंह बेदी को कहानी के चार स्तंभ माना जाता है। इनमें भी आलोचक मंटो और चुगताई को ऊँचे स्थानों पर रखते हैं क्योंकि इनकी लेखनी से निकलने वाली भाषा, पात्रों, मुद्दों और स्थितियों ने उर्दू साहित्य को काफी समृद्ध किया। इस्मत के अनेक कथा संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें कलियां, छुई-मुई, एक बात और दो हाथ शामिल हैं। साथ ही उन्होंने टेढी लकीर, जिद्दी, एक कतरा-ए-खून, दिल की दुनिया, मासूमा और बहरूपनगर शीर्षक से उपन्यास भी लिखे। इस्मत ने वर्ष 1941 में शहीद लतीफ से शादी की। बाद में उनकी मदद से उन्होंने 12 फिल्मों की पटकथा लिखीं। उन्हें वर्ष 1975 में फिल्म गर्म हवा के लिए सर्वश्रेष्ठ कहानी का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। उन्होंने वर्ष 1978 में श्याम बेनेगल की फिल्म जुनून के संवाद लिखे। अपनी कलम की धार से सामाजिक बंधनों पर वार करने वाली इस साहित्यकार का 24 अक्टूबर 1991 को मुम्बई में निधन हो गया।
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07-05-2011, 09:47 PM | #4 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
चौथी का जोड़ा:
सहदरी के चौके पर आज फिर साफ - सुथरी जाजम बिछी थी। टूटी - फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आडे - तिरछे कतले पूरे दालान में बिखरे हुए थे। मोहल्ले टोले की औरतें खामोश और सहमी हुई - सी बैठी हुई थीं; जैसे कोई बडी वारदात होने वाली हो। मांओं ने बच्चे छाती से लगा लिये थे। कभी - कभी कोई मुनहन्नी - सा चरचरम बच्चा रसद की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता। '' नांय - नायं मेरे लाल! '' दुबली - पतली मां से अपने घुटने पर लिटाकर यों हिलाती, जैसे धान - मिले चावल सूप में फटक रही हो और बच्चा हुंकारे भर कर खामोश हो जाता। आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की मां के मुतफक्किर चेहरे को तक रही थीं। छोटे अर्ज की टूल के दो पाट तो जोड लिये गये, मगर अभी सफेद गजी क़ा निशान ब्योंतने की किसी की हिम्मत न पडती थी। कांट - छांट के मामले में कुबरा की मां का मरतबा बहुत ऊंचा था। उनके सूखे - सूखे हाथों ने न जाने कितने जहेज संवारे थे, कितने छठी - छूछक तैयार किये थे और कितने ही कफन ब्योंते थे। जहां कहीं मुहल्ले में कपडा कम पड ज़ाता और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठती, कुबरा की मां के पास केस लाया जाता। कुबरा की मां कपडे क़े कान निकालती, कलफ तोडतीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चौखूंटा करतीं और दिल ही दिल में कैंची चलाकर आंखों से नाप - तोलकर मुस्कुरा उठतीं। '' आस्तीन और घेर तो निकल आयेगा, गिरेबान के लिये कतरन मेरी बकची से ले लो।'' और मुश्किल आसान हो जाती। कपडा तराशकर वो कतरनों की पिण्डी बना कर पकडा देतीं। पर आज तो गजी क़ा टुकडा बहुत ही छोटा था और सबको यकीन था कि आज तो कुबरा की मां की नाप - तोल हार जायेगी। तभी तो सब दम साधे उनका मुंह ताक रही थीं। कुबरा की मां के पुर - इसतकक़ाल चेहरे पर फिक्र की कोई शक्ल न थी। चार गज गज़ी के टुकडे क़ो वो निगाहों से ब्योंत रही थीं। लाल टूल का अक्स उनके नीलगूं जर्द चेहरे पर शफक़ की तरह फूट रहा था। वो उदास - उदास गहरी झुर्रियां अंधेरी घटाओं की तरह एकदम उजागर हो गयीं, जैसे जंगल में आग भडक़ उठी हो! और उन्होंने मुस्कुराकर कैंची उठायी। मुहल्लेवालों के जमघटे से एक लम्बी इत्मीनान की सांस उभरी। गोद के बच्चे भी ठसक दिये गये। चील - जैसी निगाहों वाली कुंवारियों ने लपाझप सुई के नाकों में डोरे पिरोए। नयी ब्याही दुल्हनों ने अंगुश्ताने पहन लिये। कुबरा की मां की कैंची चल पडी थी।
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07-05-2011, 09:52 PM | #5 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
सहदरी के आखिरी कोने में पलंगडी पर हमीदा पैर लटकाये, हथेली पर ठोडी रखे दूर कुछ सोच रही थी।
दोपहर का खाना निपटाकर इसी तरह बी - अम्मां सहदरी की चौकी पर जा बैठती हैं और बकची खोलकर रंगबिरंगे कपडों का जाल बिखेर दिया करती है। कूंडी के पास बैठी बरतन मांजती हुई कुबरा कनखियों से उन लाल कपडों को देखती तो एक सुर्ख छिपकली - सी उसके जर्दी मायल मटियाले रंग में लपक उठती। रूपहली कटोरियों के जाल जब पोले - पोले हाथों से खोल कर अपने जानुओं पर फैलाती तो उसका मुरझाया हुआ चेहरा एक अजीब अरमान भरी रौशनी से जगमगा उठता। गहरी सन्दूको - जैसी शिकनों पर कटोरियों का अक्स नन्हीं - नन्हीं मशालों की तरह जगमगाने लगता। हर टांके पर जरी का काम हिलता और मशालें कंपकंपा उठतीं। याद नहीं कब इस शबनमी दुपट्टे के बने - टके तैयार हुए और गाजी क़े भारी कब्र - जैसे सन्दूक की तह में डूब गये। कटोरियों के जाल धुंधला गये। गंगा - जमनी किरने मान्द पड गयीं। तूली के लच्छे उदास हो गये। मगर कुबरा की बारात न आयी। जब एक जोडा पुराना हुआ जाता तो उसे चाले का जोडा कहकर सेंत दिया जाता और फिर एक नये जोडे क़े साथ नयी उम्मीदों का इफतताह ( शुरुआत) हो जाता। बडी छानबीन के बाद नयी दुल्हन छांटी जाती। सहदरी के चौके पर साफ - सुथरी जाजम बिछती। मुहल्ले की औरतें हाथ में पानदान और बगलों में बच्चे दबाये झांझे बजाती आन पहुंचतीं। '' छोटे कपडे क़ी गोट तो उतर आयेगी, पर बच्चों का कपडा न निकलेगा।'' '' लो बुआ लो, और सुनो। क्या निगोडी भारी टूल की चूलें पडेंग़ी?'' और फिर सबके चेहरे फिक्रमन्द हो जाते। कुबरा की मां खामोश कीमियागर की तरह आंखों के फीते से तूलो - अर्ज नापतीं और बीवियां आपस में छोटे कपडे क़े मुताल्लिक खुसर - पुसर करके कहकहे लगातीं। ऐसे में कोई मनचली कोई सुहाग या बन्ना छेड देती, कोई और चार हाथ आगे वाली समधनों को गालियां सुनाने लगती, बेहूदा गन्दे मजाक और चुहलें शुरु हो जातीं। ऐसे मौके पर कुंवारी - बालियों को सहदरी से दूर सिर ढांक कर खपरैल में बैठने का हुक्म दे दिया जाता और जब कोई नया कहकहा सहदरी से उभरता तो बेचारियां एक ठण्डी सांस भर कर रह जातीं। अल्लाह! ये कहकहे उन्हें खुद कब नसीब होंगे। इस चहल - पहल से दूर कुबरा शर्म की मारी मच्छरों वाली कोठरी में सर झुकाये बैठी रहती है। इतने में कतर - ब्योंत निहायत नाजुक़ मरहले पर पहुंच जाती। कोई कली उलटी कट जाती और उसके साथ बीवियों की मत भी कट जाती। कुबरा सहम कर दरवाजे क़ी आड से झांकती।
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07-05-2011, 10:00 PM | #6 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
यही तो मुश्किल थी, कोई जोडा अल्लाह - मारा चैन से न सिलने पाया। जो कली उल्टी कट जाय तो जान लो, नाइन की लगाई हुई बात में जरूर कोई अडंग़ा लगेगा। या तो दूल्हा की कोई दाश्त: ( रखैल) निकल आयेगी या उसकी मां ठोस कडों का अडंगा बांधेगी। जो गोट में कान आ जाय तो समझ लो महर पर बात टूटेगी या भरत के पायों के पलंग पर झगडा होगा। चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है। बी - अम्मां की सारी मश्शाकी और सुघडापा धरा रह जाता। न जाने ऐन वक्त पर क्या हो जाता कि धनिया बराबर बात तूल पकड ज़ाती। बिसमिल्लाह के जोर से सुघड मां ने जहेज ज़ोडना शुरु किया था। जरा सी कतर भी बची तो तेलदानी या शीशी का गिलाफ सीकर धनुक - गोकरू से संवार कर रख देती। लडक़ी का क्या है, खीरे - ककडी सी बढती है। जो बारात आ गयी तो यही सलीका काम आयेगा।
और जब से अब्बा गुजरे, सलीके क़ा भी दम फूल गया। हमीदा को एकदम अपने अब्बा याद आ गये। अब्बा कितने दुबले - पतले, लम्बे जैसे मुहर्रम का अलम! एक बार झुक जाते तो सीधे खडे होना दुश्वार था। सुबह ही सुबह उठ कर नीम की मिस्वाक ( दातुन) तोड लेते और हमीदा को घुटनों पर बिठा कर जाने क्या सोचा करते। फिर सोचते - सोचते नीम की मिस्वाक का कोई फूंसडा हलक में चला जाता और वे खांसते ही चले जाते। हमीदा बिगड क़र उनकी गोद से उतर जाती। खांसी के धक्कों से यूं हिल - हिल जाना उसे कतई पसन्द नहीं था। उसके नन्हें - से गुस्से पर वे और हंसते और खांसी सीने में बेतरह उलझती, जैसे गरदन - कटे कबूतर फडफ़डा रहे हों। फिर बी - अम्मां आकर उन्हें सहारा देतीं। पीठ पर धपधप हाथ मारतीं। '' तौबा है, ऐसी भी क्या हंसी।'' अच्छू के दबाव से सुर्ख आंखें ऊपर उठा कर अब्बा बेकसी से मुस्कराते। खांसी तो रुक जाती मगर देर तक हांफा करते। '' कुछ दवा - दारू क्यों नहीं करते? कितनी बार कहा तुमसे।'' '' बडे शफाखाने का डॉक्टर कहता है, सूइयां लगवाओ और रोज तीन पाव दूध और आधी छटांक मक्खन।'' '' ए खाक पडे ऌन डाक्टरों की सूरत पर! भल एक तो खांसी, ऊपर से चिकनाई! बलगम न पैदा कर देगी? हकीम को दिखाओ किसी।'' '' दिखाऊंगा।'' अब्बा हुक्का गुडग़ुडाते और फिर अच्छू लगता। '' आग लगे इस मुए हुक्के को! इसी ने तो ये खांसी लगायी है। जवान बेटी की तरफ भी देखते हो आंख उठा कर?
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07-05-2011, 10:09 PM | #7 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
और अब अब्बा कुबरा की जवानी की तरफ रहम - तलब निगाहों से देखते। कुबरा जवान थी। कौन कहता था जवान थी? वो तो जैसे बिस्मिल्लाह ( विद्यारम्भ की रस्म) के दिन से ही अपनी जवानी की आमद की सुनावनी सुन कर ठिठक कर रह गयी थी। न जाने कैसी जवानी आयी थी कि न तो उसकी आंखों में किरनें नाचीं न उसके रुखसारों पर जुल्फ़ें परेशान हुईं, न उसके सीने पर तूफान उठे और न कभी उसने सावन - भादों की घटाओं से मचल - मचल कर प्रीतम या साजन मांगे। वो झुकी - झुकी, सहमी - सहमी जवानी जो न जाने कब दबे पांव उस पर रेंग आयी, वैसे ही चुपचाप न जाने किधर चल दी। मीठा बरस नमकीन हुआ और फिर कडवा हो गया।
अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुंह गिरे और उन्हें उठाने के लिये किसी हकीम या डाक्टर का नुस्खा न आ सका। और हमीदा ने मीठी रोटी के लिये जिद करनी छोड दी। और कुबरा के पैगाम न जाने किधर रास्ता भूल गये। जानो किसी को मालूम ही नहीं कि इस टाट के परदे के पीछे किसी की जवानी आखिरी सिसकियां ले रही है और एक नयी जवानी सांप के फन की तरह उठ रही है। मगर बी - अम्मां का दस्तूर न टूटा। वो इसी तरह रोज - रोज दोपहर को सहदरी में रंग - बिरंगे कपडे फ़ैला कर गुडियों का खेल खेला करती हैं। कहीं न कहीं से जोड ज़मा करके शरबत के महीने में क्रेप का दुपट्टा साढे सात रुपए में खरीद ही डाला। बात ही ऐसी थी कि बगैर खरीदे गुज़ारा न था। मंझले मामू का तार आया कि उनका बडा लडक़ा राहत पुलिस की ट्रेनिंग के सिलसिले में आ रहा है। बी - अम्मां को तो बस जैसे एकदम घबराहट का दौरा पड ग़या। जानो चौखट पर बारात आन खडी हुई और उन्होंने अभी दुल्हन की मांग अफशां भी नहीं कतरी। हौल से तो उनके छक्के छूट गये। झट अपनी मुंहबोली बहन, बिन्दु की मां को बुला भेजा कि बहन, मेरा मरी का मुंह देखो जो इस घडी न आओ। और फिर दोनों में खुसर - पुसर हुई। बीच में एक नजर दोनों कुबरा पर भी डाल लेतीं, जो दालान में बैठी चावल फटक रही थी। वो इस कानाफूसी की जबान को अच्छी तरह समझती थी।
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07-05-2011, 10:12 PM | #8 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
उसी वक्त बी - अम्मां ने कानों से चार माशा की लौंगें उतार कर मुंहबोली बहन के हवाले कीं कि जैसे - तैसे करके शाम तक तोला भर गोकरू, छ: माशा सलमा - सितारा और पाव गज नेफे के लिये टूल ला दें। बाहर की तरफ वाला कमरा झाड - पौंछ कर तैयार किया गया। थोडा सा चूना मंगा कर कुबरा ने अपने हाथों से कमरा पोत डाला। कमरा तो चिट्टा हो गया, मगर उसकी हथेलियों की खाल उड ग़यी। और जब वो शाम को मसाला पीसने बैठी तो चक्कर खा कर दोहरी हो गयी। सारी रात करवटें बदलते गुजरी। एक तो हथेलियों की वजह से, दूसरे सुबह की गाडी से राहत आ रहे थे।
'' अल्लह! मेरे अल्लाह मियां, अबके तो मेरी आपा का नसीब खुल जाये। मेरे अल्लाह, मैं सौ रकात नफिल ( एक प्रकार की नमाज) तेरी दरगाह में पढूंग़ी।'' हमीदा ने फजिर की नमाज पढक़र दुआ मांगी। सुबह जब राहत भाई आये तो कुबरा पहले से ही मच्छरोंवाली कोठरी में जा छुपी थी। जब सेवइयों और पराठों का नाश्ता करके बैठक में चले गये तो धीरे - धीरे नई दुल्हन की तरह पैर रखती हुई कुबरा कोठरी से निकली और जूठे बर्तन उठा लिये। '' लाओ मैं धो दूं बी आपा।'' हमीदा ने शरारत से कहा। '' नहीं।'' वो शर्म से झुक गयीं। हमीदा छेडती रही, बी - अम्मां मुस्कुराती रहीं और क्रेप के दुपट्टे में लप्पा टांकती रहीं। जिस रास्ते कान की लौंग गयी थी, उसी रास्ते फूल, पत्ता और चांदी की पाजेब भी चल दी थीं। और फिर हाथों की दो - दो चूडियां भी, जो मंझले मामू ने रंडापा उतारने पर दी थीं। रूखी - सूखी खुद खाकर आये दिन राहत के लिये परांठे तले जाते, कोफ्ते, भुना पुलाव महकते। खुद सूखा निवाला पानी से उतार कर वो होने वाले दामाद को गोश्त के लच्छे खिलातीं।
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07-05-2011, 10:51 PM | #9 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
'' जमाना बडा खराब है बेटी! '' वो हमीदा को मुंह फुलाये देखकर कहा करतीं और वो सोचा करती - हम भूखे रह कर दामाद को खिला रहे हैं। बी - आपा सुबह - सवेरे उठकर मशीन की तरह जुट जाती हैं। निहार मुंह पानी का घूंट पीकर राहत के लिये परांठे तलती हैं। दूध औटाती हैं, ताकि मोटी सी बालाई पडे। उसका बस नहीं था कि वो अपनी चर्बी निकाल कर उन परांठों में भर दे। और क्यों न भरे, आखिर को वह एक दिन उसीका हो जायेगा। जो कुछ कमायेगा, उसीकी हथेली पर रख देगा। फल देने वाले पौधे को कौन नहीं सींचता?
फिर जब एक दिन फूल खिलेंगे और फूलों से लदी हुई डाली झुकेगी तो ये ताना देने वालियों के मुंह पर कैसा जूता पडेग़ा! और उस खयाल ही से बी - आपा के चेहरे पर सुहाग खेल उठता। कानों में शहनाइयां बजने लगतीं और वो राहत भाई के कमरे को पलकों से झाडतीं। उसके कपडों को प्यार से तह करतीं, जैसे वे उनसे कुछ कहते हों। वो उनके बदबूदार, चूहों जैसे सडे हुए मोजे धोतीं, बिसान्दी बनियान और नाक से लिपटे हुए रुमाल साफ करतीं। उसके तेल में चिपचिपाते हुए तकिये के गिलाफ पर स्वीट ड्रीम्स काढतीं। पर मामला चारों कोने चौकस नहीं बैठ रहा था। राहत सुबह अण्डे - परांठे डट कर जाता और शाम को आकर कोफ्ते खाकर सो जाता। और बी - अम्मां की मुंहबोली बहन हाकिमाना अन्दाज में खुसर - पुसर करतीं। '' बडा शर्मीला है बेचारा! '' बी - अम्मां तौलिये पेश करतीं। '' हां ये तो ठीक है, पर भई कुछ तो पता चले रंग - ढंग से, कुछ आंखों से।'' '' अए नउज, ख़ुदा न करे मेरी लौंडिया आंखें लडाए, उसका आंचल भी नहीं देखा है किसी ने।'' बी - अम्मां फख्र से कहतीं। '' ए, तो परदा तुडवाने को कौन कहे है!'' बी - आपा के पके मुंहासों को देखकर उन्हें बी - अम्मां की दूरंदेशी की दाद देनी पडती। '' ऐ बहन, तुम तो सच में बहुत भोली हो। ये मैं कब कहूं हूं? ये छोटी निगोडी क़ौन सी बकरीद को काम आयेगी? '' वो मेरी तरफ देख कर हंसतीं '' अरी ओ नकचढी! बहनों से कोई बातचीत, कोई हंसी - मजाक! उंह अरे चल दिवानी!'' '' ऐ, तो मैं क्या करूं खाला?'' '' राहत मियां से बातचीत क्यों नहीं करती?'' '' भइया हमें तो शर्म आती है।'' '' ए है, वो तुझे फाड ही तो खायेगा न?'' बी अम्मां चिढा कर बोलतीं। '' नहीं तो मगर'' मैं लाजवाब हो गयी। और फिर मिसकौट हुई। बडी सोच - विचार के बाद खली के कबाब बनाये गये। आज बी - आपा भी कई बार मुस्कुरा पडीं। चुपके से बोलीं, '' देख हंसना नहीं, नहीं तो सारा खेल बिगड ज़ायेगा।'' '' नहीं हंसूंगी।'' मैं ने वादा किया।
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07-05-2011, 11:11 PM | #10 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
'' खाना खा लीजिये।'' मैं ने चौकी पर खाने की सेनी रखते हुए कहा। फिर जो पाटी के नीचे रखे हुए लोटे से हाथ धोते वक्त मेरी तरफ सिर से पांव तक देखा तो मैं भागी वहां से। अल्लाह, तोबा! क्या खूनी आंखें हैं!
'' जा निगोडी, मरी, अरी देख तो सही, वो कैसा मुंह बनाते हैं। ए है, सारा मजा किरकिरा हो जायेगा।'' आपा - बी ने एक बार मेरी तरफ देखा। उनकी आंखों में इल्तिजा थी, लुटी हुई बारातों का गुबार था और चौथी के पुराने जोडों की मन्द उदासी। मैं सिर झुकाए फिर खम्भे से लग कर खडी हो गयी। राहत खामोश खाते रहे। मेरी तरफ न देखा। खली के कबाब खाते देख कर मुझे चाहिये था कि मजाक उडाऊं, कहकहे लगाऊं कि वाह जी वाह, दूल्हा भाई, खली के कबाब खा रहे हो!'' मगर जानो किसी ने मेरा नरखरा दबोच लिया हो। बी - अम्मां ने मुझे जल्कर वापस बुला लिया और मुंह ही मुंह में मुझे कोसने लगीं। अब मैं उनसे क्या कहती, कि वो मजे से खा रहा है कमबख्त! '' राहत भाई! कोफ्ते पसन्द आये? बी - अम्मां के सिखाने पर मैं ने पूछा। जवाब नदारद। '' बताइये न?'' '' अरी ठीक से जाकर पूछ! '' बी - अम्मां ने टहोका दिया। '' आपने लाकर दिये और हमने खाये। मजेदार ही होंगे।'' '' अरे वाह रे जंगली! '' बी - अम्मां से न रहा गया। '' तुम्हें पता भी न चला, क्या मजे से खली के कबाब खा गये!'' '' खली के? अरे तो रोज क़ाहे के होते हैं? मैं तो आदी हो चला हूं खली और भूसा खाने का।'' बी - अम्मां का मुंह उतर गया। बी - अम्मां की झुकी हुई पलकें ऊपर न उठ सकीं। दूसरे रोज बी - आपा ने रोजाना से दुगुनी सिलाई की और फिर जब शाम को मैं खाना लेकर गयी तो बोले - '' कहिये आज क्या लायी हैं? आज तो लकडी क़े बुरादे की बारी है।'' '' क्या हमारे यहां का खाना आपको पसन्द नहीं आता? '' मैं ने जलकर कहा। '' ये बात नहीं, कुछ अजीब - सा मालूम होता है। कभी खली के कबाब तो कभी भूसे की तरकारी।'' मेरे तन बदन में आग लग गयी। हम सूखी रोटी खाकर इसे हाथी की खुराक दें। घी टपकतप परांठे ठुसाएं। मेरी बी - आपा को जुशांदा नसीब नहीं और इसे दूध मलाई निगलवाएं। मैं भन्ना कर चली आयी।
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