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Old 17-03-2015, 04:08 PM   #1
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Default जीवन परिचय (महादेवी वर्मा)

महादेवी वर्मा

महादेवी वर्मा (26 मार्च, 1907 — 11 सितंबर, 1987) हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। वे हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत के साथ महत्वपूर्ण स्तंभ मानी जाती हैं।

वह अश्रुमयी देवी वर्मा,
हँसना न कभी जिसने सीखा, पीड़ा की गायक यह प्रतिमा|
माताजी हेमवती देवी, पति श्री नारायण सिंह वर्मा ||
जन्मीं थीं फर्रुखाबाद बीच कवियत्री महादेवी वर्मा|
'नीरमा','रश्मि','सांध्यगीत','दीपशिखा' की वे लड़ियाँ|
भावनात्मक गीतमयी शैली में 'यामा'की कड़ियाँ ||
करुणा में छायावाद लिये, अधरों में बंद विराग लिये |
प्रथ्वी पर कवियों की महिमा|
यह अश्रुमयी देवी वर्मा ||

महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च सन् 1907 को (भारतीय संवत के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा संवत 1964 को) प्रात: ८ बजे फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश के एक संपन्न परिवार में हुआ। इस परिवार में लगभग २०० वर्षों या सात पीढ़ियों के बाद महादेवी जी के रूप में पुत्री का जन्म हुआ था। अत: इनके बाबा बाबू बाँके विहारी जी हर्ष से झूम उठे और इन्हें घर की देवी- महादेवी माना और उन्होंने इनका नाम महादेवी रखा था। महादेवी जी के माता-पिता का नाम हेमरानी देवी और बाबू गोविन्द प्रसाद वर्मा था। श्रीमती महादेवी वर्मा की छोटी बहन और दो छोटे भाई थे। क्रमश: श्यामा देवी (श्रीमती श्यामा देवी सक्सेना धर्मपत्नी- डॉ॰ बाबूराम सक्सेना, भूतपूर्व विभागाध्यक्ष एवं उपकुलपति इलाहाबाद विश्व विद्यालय) श्री जगमोहन वर्मा एवं श्री मनमोहन वर्मा। महादेवी वर्मा एवं जगमोहन वर्मा शान्ति एवं गम्भीर स्वभाव के तथा श्यामादेवी व मनमोहन वर्मा चंचल, शरारती एवं हठी स्वभाव के थे।

महादेवी वर्मा के हृदय में शैशवावस्था से ही जीव मात्र के प्रति करुणा थी, दया थी। उन्हें ठण्डक में कूँ कूँ करते हुए पिल्लों का भी ध्यान रहता था। पशु-पक्षियों का लालन-पालन और उनके साथ खेलकूद में ही दिन बिताती थीं। चित्र बनाने का शौक भी उन्हें बचपन से ही था। इस शौक की पूर्ति वे पृथ्वी पर कोयले आदि से चित्र उकेर कर करती थीं। उनके व्यक्तित्व में जो पीडा, करुणा और वेदना है, विद्रोहीपन है, अहं है, दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता है तथा अपने काव्य में उन्होंने जिन तरल सूक्ष्म तथा कोमल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की है, इन सब के बीज उनकी इसी अवस्था में पड़ चुके थे और उनका अंकुरण तथा पल्लवन भी होने लगा था।


महादेवी की शिक्षा 1912 में इंदौर के मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई साथ ही संस्कृत, अंग्रेजी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। 1916 में विवाह के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने 1919 में बाई का बाग स्थित क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। महादेवी जी की प्रतिभा का निखार यहीं से प्रारम्भ होता है।

1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया और कविता यात्रा के विकास की शुरुआत भी इसी समय और यहीं से हुई। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब आपने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी, एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। पाठशाला में हिंदी अध्यापक से प्रभावित होकर ब्रजभाषा में समस्यापूर्ति भी करने लगीं। फिर तत्कालीन खड़ीबोली की कविता से प्रभावित होकर खड़ीबोली में रोला और हरिगीतिका छंदों में काव्य लिखना प्रारंभ किया। उसी समय माँ से सुनी एक करुण कथा को लेकर सौ छंदों में एक खंडकाव्य भी लिख डाला। कुछ दिनों बाद उनकी रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। विद्यार्थी जीवन में वे प्रायः राष्ट्रीय और सामाजिक जागृति संबंधी कविताएँ लिखती रहीं, जो लेखिका के ही कथनानुसार "विद्यालय के वातावरण में ही खो जाने के लिए लिखी गईं थीं। उनकी समाप्ति के साथ ही मेरी कविता का शैशव भी समाप्त हो गया।"

महादेवी जैसे प्रतिभाशाली और प्रसिद्ध व्यक्तित्व का परिचय और पहचान तत्कालीन सभी साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों से थी। वे महात्मा गांधी से भी प्रभावित रहीं। सुभद्रा कुमारी चौहान की मित्रता कॉलेज जीवन में ही जुड़ी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं- "सुनो, ये कविता भी लिखती हैं।" पन्त जी के पहले दर्शन भी हिन्दू बोर्डिंग हाउस के कवि सम्मेलन में हुए थे और उनके घुँघराले बड़े बालों को देखकर उनको लड़की समझने की भ्रांति भी हुई थी। महादेवी जी गंभीर प्रकृति की महिला थीं लेकिन उनसे मिलने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी। रक्षाबंधन, होली और उनके जन्मदिन पर उनके घर जमावड़ा सा लगा रहता था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला से उनका भाई बहन का रिश्ता जगत प्रसिद्ध है। उनसे राखी बंधाने वालों में सुप्रसिद्ध साहित्यकार गोपीकृष्ण गोपेश भी थे। सुमित्रानंदन पंत को भी राखी बांधती थीं और सुमित्रानंदन पंत उन्हें राखी बांधते। इस प्रकार स्त्री-पुरुष की बराबरी की एक नई प्रथा उन्होंने शुरू की थी।[8] वे राखी को रक्षा का नहीं स्नेह का प्रतीक मानती थीं।
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Default Re: जीवन परिचय

नवाँ वर्ष पूरा होते होते सन् 1916 में उनके बाबा श्री बाँके विहारी ने इनका विवाह बरेली के पास नबाव गंज कस्बे के निवासी श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कर दिया, जो उस समय दसवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। महादेवी जी का विवाह उस उम्र में हुआ जब वे विवाह का मतलब भी नहीं समझती थीं। उन्हीं के अनुसार- "दादा ने पुण्य लाभ से विवाह रच दिया, पिता जी विरोध नहीं कर सके। बरात आयी तो बाहर भाग कर हम सबके बीच खड़े होकर बरात देखने लगे। व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई वाले कमरे में बैठ कर खूब मिठाई खाई। रात को सोते समय नाइन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाये होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रात: आँख खुली तो कपड़े में गाँठ लगी देखी तो उसे खोल कर भाग गए।"

महादेवी वर्मा पति-पत्नी सम्बंध को स्वीकार न कर सकीं। कारण आज भी रहस्य बना हुआ है। आलोचकों और विद्वानों ने अपने-अपने ढँग से अनेक प्रकार की अटकलें लगायी हैं। गंगा प्रसाद पाण्डेय के अनुसार- "ससुराल पहुँच कर महादेवी जी ने जो उत्पात मचाया, उसे ससुराल वाले ही जानते हैं।.. रोना बस रोना। नई बालिका बहू के स्वागत समारोह का उत्सव फीका पड़ गया और घर में एक आतंक छा गया। फलत: ससुर महोदय दूसरे ही दिन उन्हें वापस लौटा गए।" पिता जी की मृत्यु के बाद श्री स्वरूप नारायण वर्मा कुछ समय तक अपने ससुर के पास ही रहे, पर पुत्री की मनोवृत्ति को देखकर उनके बाबू जी ने श्री वर्मा को इण्टर करवा कर लखनऊ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलाकर वहीं बोर्डिंग हाउस में रहने की व्यवस्था कर दी। जब महादेवी इलाहाबाद में पढ़ने लगीं तो श्री वर्मा उनसे मिलने वहाँ भी आते थे। किन्तु महादेवी वर्मा उदासीन ही बनी रहीं। विवाहित जीवन के प्रति उनमें विरक्ति उत्पन्न हो गई थी। इस सबके बावजूद श्री स्वरूप नारायण वर्मा से कोई वैमनस्य नहीं था। सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उनके सम्बंध मधुर ही रहे। दोनों में कभी-कभी पत्राचार भी होता था। यदा-कदा श्री वर्मा इलाहाबाद में उनसे मिलने भी आते थे। एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि श्री वर्मा ने महादेवी जी के कहने पर भी दूसरा विवाह नहीं किया। महादेवी जी का जीवन तो एक संन्यासिनी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भर श्वेत वस्त्र पहना, तख्त पर सोया और कभी शीशा नहीं देखा। 1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय एम.ए. करने के बाद से उनकी प्रसिद्धि का एक नया युग प्रारंभ हुआ। भगवान बुद्ध के प्रति गहन भक्तिमय अनुराग होने के कारण और अपने बाल-विवाह के अवसाद को झेलने वाली महादेवी बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थीं। कुछ समय बाद महात्मा गांधी के सम्पर्क और प्रेरणा से उनका मन सामाजिक कार्यों की ओर उन्मुख हो गया। प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में एम० ए० करने के बाद प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या का पद संभाला और चाँद का निःशुल्क संपादन किया। प्रयाग में ही उनकी भेंट रवीन्द्रनाथ ठाकुर से हुई और यहीं पर 'मीरा जयंती' का शुभारम्भ किया। कलकत्ता में जापानी कवि योन नागूची के स्वागत समारोह में भाग लिया और शान्ति निकेतन में गुरुदेव के दर्शन किये। यायावरी की इच्छा से बद्रीनाथ की पैदल यात्रा की और रामगढ़, नैनीताल में 'मीरा मंदिर' नाम की कुटीर का निर्माण किया। एक अवसर ऐसा भी आया कि विश्ववाणी के बुद्ध अंक का संपादन किया और 'साहित्यकार संसद' की स्थापना की। भारतीय रचनाकारों को आपस में जोड़ने के लिये 'अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन' का आयोजन किया और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से 'वाणी मंदिर' का शिलान्यास कराया।


इंदिरा गांधी के साथ
स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात इलाचंद्र जोशी और दिनकर जी के साथ दक्षिण की साहित्यिक यात्रा की। निराला की काव्य-कृतियों से कविताएँ लेकर 'साहित्यकार संसद' द्वारा अपरा शीर्षक से काव्य-संग्रह प्रकाशित किया। 'साहित्यकार संसद' के मुख-पत्र साहित्यकार का प्रकाशन और संपादन इलाचंद्र जोशी के साथ किया। प्रयाग में नाट्य संस्थान 'रंगवाणी' की स्थापना की और उद्घाटन मराठी के प्रसिद्ध नाटककार मामा वरेरकर ने किया। इस अवसर पर भारतेंदु के जीवन पर आधारित नाटक का मंचन किया गया। अपने समय के सभी साहित्यकारों पर पथ के साथी में संस्मरण-रेखाचित्र- कहानी-निबंध-आलोचना सभी को घोलकर लेखन किया। १९५४ में वे दिल्ली में स्थापित साहित्य अकादमी की सदस्या चुनी गईं तथा १९८१ में सम्मानित सदस्या। इस प्रकार महादेवी का संपूर्ण कार्यकाल राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की सेवा में समर्पित रहा।
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Default Re: जीवन परिचय

महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व में संवेदना दृढ़ता और आक्रोश का अद्भुत संतुलन मिलता है। वे अध्यापक, कवि, गद्यकार, कलाकार, समाजसेवी और विदुषी के बहुरंगे मिलन का जीता जागता उदाहरण थीं। वे इन सबके साथ-साथ एक प्रभावशाली व्याख्याता भी थीं। उनकी भाव चेतना गंभीर, मार्मिक और संवेदनशील थी। उनकी अभिव्यक्ति का प्रत्येक रूप नितान्त मौलिक और हृदयग्राही था। वे मंचीय सफलता के लिए नारे, आवेशों और सस्ती उत्तेजना के प्रयासों का सहारा नहीं लेतीं। गंभीरता और धैर्य के साथ सुनने वालों के लिए विषय को संवेदनशील बना देती थीं, तथा शब्दों को अपनी संवेदना में मिला कर परम आत्मीय भाव प्रवाहित करती थीं। इलाचंद्र जोशी उनकी वक्तृत्व शक्ति के संदर्भ में कहते हैं - 'जीवन और जगत से संबंधित महानतम विषयों पर जैसा भाषण महादेवी जी देती हैं वह विश्व नारी इतिहास में अभूतपूर्व है। विशुद्ध वाणी का ऐसा विलास नारियों में तो क्या पुरुषों में भी एक रवीन्द्रनाथ को छोड़ कर कहीं नहीं सुना।' महादेवी जी विधान परिषद की माननीय सदस्या थीं। वे विधान परिषद में बहुत ही कम बोलती थीं, परंतु जब कभी महादेवी जी अपना भाषण देती थीं तब पं.कमलापति त्रिपाठी के कथनानुसार- सारा हाउस विमुग्ध होकर महादेवी के भाषणामृत का रसपान किया करता था। रोकने-टोकने का तो प्रश्न ही नहीं, किसी को यह पता ही नहीं चल पाता था कि कितना समय निर्धारित था और अपने निर्धारित समय से कितनी अधिक देर तक महादेवी ने भाषण किया।
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Default Re: जीवन परिचय

ज़िया फ़तेहाबादी

ज़िया फ़तेहाबादी (१९१३ - १९८६) उर्दू लेखक एवं कवि थे | ज़िया फ़तेहाबादी, फ़तेहाबाद (ज़िला: तरन तारन) निवासी मेहर लाल सोनी का उपनाम था |

ज़िया फ़तेहाबादी, जिनका जन्म नाम मेहर लाल सोनी था और जो ९ फ़रवरी १९१३ को भारत में पंजाब प्रान्त के नगर कपूरथला में पैदा हुए थे, उर्दू भाषा के कवि थे | उनका सम्बन्ध मिर्ज़ा खाँ दाग़ देहलवी के अदबी खानदान से था | उनके उस्ताद आगरा निवासी सीमाब अकबराबादी मिर्ज़ा खाँ दाग़ के शिष्य थे | ज़िया, जिन्हों ने १९२५ में कवितायेँ लिखना आरम्भ कर दी थीं, १९३० में सीमाब के शिष्य बन गए थे | उर्दू ग़ज़ल के अतिरिक्त सीमाब की दिखाई हुई राह पर चलते हुए ज़िया ने भी क़ता, रुबाई और नज्में लिखीं जिन में सानेट और गीत भी शामिल हैं जो कि अब भारतीय साहित्य का एक अटूट अंग हैं | उनके पिता, मुंशी राम सोनी, हिन्दुस्तानी गायकी में रूचि रखते थे और यूँ माना जाता है कि इनका यह शौक़ ज़िया को शायर बनाने में मददगार साबित हुआ | ज़िया ने जयपुर के महाराजा हाई स्कूल (१९२३ से १९२९ तक) और लाहोर के फोर्मन क्रिस्चियन कालेज (१९३० से १९३५ तक) में पढ़ते शिक्षा प्राप्त की थी | लाहोर उर्दू अदब का मर्क़ज़ था यहीं उनका सम्बन्ध पहले कृष्ण चन्द्र और मीरा जी के साथ और बाद में साग़र निज़ामी और जोश मलीहाबादी के साथ हुआ था |

शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात ज़िया फ़तेहाबादी १९३६ में रिज़र्व बैंक आफ़ इंडिया में भर्ती हो गए थे जहां उन्हों ने १९७१ तक नौकरी की और अवकाश ग्रहण किया | १९४२ में आपका विवाह लाहोर निवासी मुरली राम बरेरा की सुपुत्री राज कुमारी (देहांत : २००३) के साथ हुआ था |

ज़िया फ़तेहाबादी की कविताओं का प्रथम संग्रह " तुल्लू " नाम से १९३३ में साग़र निज़ामी ने मेरठ से छापा था, दूसरा संग्रह " नूर ए मशरिक़ " १९३७ में दिल्ली से छपा जिस के छपने के बाद ज़िया को उर्दू दुनिया ने उस वक़्त के नवीन रचनाकारों में प्रथम श्रेणी का कवि माना | अब तक उनके कुल ग्यारह संग्रह छप चुके हैं | उनकी अधिकांश कविताएँ आम बोल-चाल की हिन्दुस्तानी सरल भाषा में लिखी गई हैं जिन में रस और घुलावट व इंसानियत के दर्द का नर्म नर्म अहसास झलकता है | ज़िया फ़तेहाबादी ने अपनी कविताओं द्वारा अपनी सोच से जन्मी रोशन किरणों से रात के अँधकार को कम करने का प्रय्तन किया और दबी हुई अनेक आशाओं को दोबारा जाग्रत करने का भी प्रयास किया था | वह आशावादी थे और उनकी रचनाएँ उनकी शख्सियत का आईनादार हैं|

ग़ौर तलब है कि ज़िया फ़तेहाबादी की जीवनी और शायरी पर नागपुर की डाक्टर ज़रीना सानी M.A.Ph.D. का एक रिसर्च १९७९ में " बूढा दरख़्त " के नाम से प्रकाशित हुआ था | इस से पहले १९७७ में मालिक राम द्वारा किया रिसर्च " ज़िया फ़तेहाबादी - शख्स और शायर " इल्मी मजलिस, दिल्ली, द्वारा प्रकाशित हो चुका था | इस के बाद १९८९ में धुलिया के शब्बीर इक़बाल ने मुंबई यूनिवर्सिटी से अपनी थीसिस - " आनजहानी मेहर लाल सोनी ज़िया फ़तेहाबादी - हयात और कारनामे " पर पीएच.डी. की डिग्री हासिल की थी |

ज़िया फ़तेहाबादी का देहांत १९ अगस्त १९८६ दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में हुआ था, तब वह ७३ बरस के थे |
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Default Re: जीवन परिचय

प्रकाशित काव्य संग्रह
तुल्लू
नूर ए मशरिक़
ज़िया के सौ शेअर
नई सुबह
गर्द ए राह
हुस्न ए ग़ज़ल
धुप और चाँदनी
रंग ओ नूर
सोच का सफ़र
नर्म नर्म गर्म हवाएं
मेरी तस्वीर
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Default Re: जीवन परिचय

बातें
छोडो ये दुनिया की बातें - आओ प्यार की बातें कर लें
खाली है मुद्दत से झोली - उसको आस उम्मीद से भर लें
आस उम्मीद न हो तो इन्सां - जीते जी ही मर जाता है
टक्कर क्या तूफ़ान से लेगा - जो इक मौज से डर जाता है
डर कर जीना मौत से बदतर - चलती फिरती ज़िंदा लाशें
सोई हुई जज़्बात की हलचल - कुचले हुए ज़हनों के सुकूँ में
ज़हन अगर बेदार न होंगे - खौफ़ दिलों पर तारी होगा
आगाज़ ओ अंजाम ए हस्ती - मजबूरी, लाचारी होगा
इन मजबूर फ़िज़ाओं में हम - प्रीत और प्यार का रंग मिला दें
सहराओं और वीरानों को - सेराबी का भेद बता दें
चेहरों से हो दूर उदासी - उनवान ए मज़मून ए हस्ती
राहें नई खुल जाएं सब पर - कुल दुनिया का नक्शा बदले
होश ओ ख़िरद के दीवाने भी - कायल हों दिल की अज़मत के
मुफ़लिस की नादारी में भी - अंदाज़ ए शाही पैदा हो
इश्क़ में लोच इतना आ जाए - हुस्न की महबूबी पैदा हो
माह ए मुहब्बत की किरणों से - रोशन अपनी रातें कर लें
छोडो ये दुनिया की बातें - आओ प्यार की बातें कर लें
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Default Re: जीवन परिचय

कुंजंग चोदेन

कुंजंग चोदेन (अँग्रेजी: Kunzang Choden, जन्म: 1952) एक भूटानी लेखिका हैं और अँग्रेजी भाषा में उपन्यास लिखने वाली प्रथम भूटानी महिला हैं। उनका जन्म भूटान के बूमथंग जिला के एक सामंती परिवार में हुआ। मात्र नौ वर्ष की आयु में उनके पिता ने उन्हें अँग्रेजी भाषा की तालिम दिलाई और शिक्षा-दीक्षा हेतु भारत भेज दिया। उन्होने दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक प्रतिष्ठा की शिक्षा ली और संयुक्त राज्य अमेरिका के नेब्रास्का लिंकन विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र से स्नातक किया। 2005 में प्रकाशित अपने पहले अँग्रेजी उपन्यास 'दि सर्किल ऑफ कर्मा' से वे चर्चा में आयीं, जो 1950 के दशक में एक भूटानी महिला की परंपरिक प्रतिबंधात्मक विवशता पर आधारित है। इसमें मुख्य चरित्र के रूप में एक भूटानी महिला को रेखांकित किया गया है, जो पेशे से सड़क बिल्डर है और पुरुषों को प्राप्त आर्थिक स्वतन्त्रता तथा लिंग भिन्नता का शिकार हो जाती है।

प्रमुख कृतियाँ
'फ़ौकटेल्स ऑफ भूटान' (हिन्दी शीर्षक: भूटान की लोककथाएँ, 1994) आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 974-8495-96-5
'भूटानीज़ टेल्स ऑफ दि येती' (हिन्दी शीर्षक: यति के भूटानी किस्से, 1997) आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 1-879155-83-4
'दावा: दि स्टोरी ऑफ ए स्ट्रे डॉग ऑफ भूटान' (हिन्दी शीर्षक: दावा- भूटान के एक आवारा कुत्ते की कहानी, 2004) आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 99936-644-0-5
'दि सर्किल ऑफ कर्मा'(हिन्दी शीर्षक: कर्म चक्र, 2005)आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-86706-79-8
'चिली एंड चीज- फूड एंड सीसाइटी ऑफ भूटान' (हिन्दी शीर्षक: चिली और पनीर- भूटान का खाद्य और समाज, 2008)आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-974-480-118-0
'टेल्स इन कलर एंड अदर स्टोरी' (हिन्दी शीर्षक:रंग के किस्से और अन्य कहानियाँ, 2009)आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-89884-62-8
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अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम (१९१९-२००५) पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थी। पंजाब (भारत) के गुजराँवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल मिलाकर लगभग १०० पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था।[1]

अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब (भारत) में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया: कविता, कहानी और निबंध। प्रकाशित पुस्तकें पचास से अधिक। महत्त्वपूर्ण रचनाएं अनेक देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित।

१९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत, १९८८ में बल्गारिया वैरोव पुरस्कार;(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८२ में भारत के सर्वोच्च साहित्त्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित। उन्हें अपनी पंजाबी कविता अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ के लिए बहुत प्रसिद्धी प्राप्त हुई। इस कविता में भारत विभाजन के समय पंजाब में हुई भयानक घटनाओं का अत्यंत दुखद वर्णन है और यह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में सराही गयी।

चर्चित कृतियाँ
उपन्यास- पांच बरस लंबी सड़क, पिंजर, अदालत, कोरे कागज़, उन्चास दिन, सागर और सीपियां
आत्मकथा-रसीदी टिकट
कहानी संग्रह- कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में
संस्मरण- कच्चा आंगन, एक थी सारा
उपन्यास
डॉक्टर देव (१९४९)- (हिन्दी, गुजराती, मलयालम और अंग्रेज़ी में अनूदित),
पिंजर (१९५०) - (हिन्दी, उर्दू, गुजराती, मलयालम, मराठी, अंग्रेज़ी और सर्बोकरोट में अनूदित),
आह्लणा (१९५२) (हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में अनूदित),
आशू (१९५८) - हिन्दी और उर्दू में अनूदित,
इक सिनोही (१९५९) हिन्दी और उर्दू में अनूदित,
बुलावा (१९६०) हिन्दी और उर्दू में अनूदित,
बंद दरवाज़ा (१९६१) हिन्दी, कन्नड़, सिंधी, मराठी और उर्दू में अनूदित,
रंग दा पत्ता (१९६३) हिन्दी और उर्दू में अनूदित,
इक सी अनीता (१९६४) हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू में अनूदित,
चक्क नम्बर छत्ती (१९६४) हिन्दी, अंग्रेजी, सिंधी और उर्दू में अनूदित,
धरती सागर ते सीपियाँ (१९६५) हिन्दी और उर्दू में अनूदित,
दिल्ली दियाँ गलियाँ (१९६८) हिन्दी में अनूदित,
एकते एरियल (१९६९) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित,
जलावतन (१९७०)- हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित,
यात्री (१९७१) हिन्दी, कन्नड़, अंग्रेज़ी बांग्ला और सर्बोकरोट में अनूदित,
जेबकतरे (१९७१), हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी, मलयालम और कन्नड़ में अनूदित,
अग दा बूटा (१९७२) हिन्दी, कन्नड़ और अंग्रेज़ी में अनूदित
पक्की हवेली (१९७२) हिन्दी में अनूदित,
अग दी लकीर (१९७४) हिन्दी में अनूदित,
कच्ची सड़क (१९७५) हिन्दी में अनूदित,
कोई नहीं जानदाँ (१९७५) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित,
उनहाँ दी कहानी (१९७६) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित,
इह सच है (१९७७) हिन्दी, बुल्गारियन और अंग्रेज़ी में अनूदित,
दूसरी मंज़िल (१९७७) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित,
तेहरवाँ सूरज (१९७८) हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी में अनूदित,
उनींजा दिन (१९७९) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित,
कोरे कागज़ (१९८२) हिन्दी में अनूदित,
हरदत्त दा ज़िंदगीनामा (१९८२) हिन्दी और अंग्रेज़ी में अनूदित
आत्मकथा:
रसीदी टिकट (१९७६)
कहानी संग्रह:
हीरे दी कनी, लातियाँ दी छोकरी, पंज वरा लंबी सड़क, इक शहर दी मौत, तीसरी औरत सभी हिन्दी में अनूदित
कविता संग्रह:
लोक पीड़ (१९४४), मैं जमा तू (१९७७), लामियाँ वतन, कस्तूरी, सुनहुड़े (साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कविता संग्रह तथा कागज़ ते कैनवस ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कविता संग्रह सहित १८ कविता संग्रह।
गद्य कृतियाँ
किरमिची लकीरें, काला गुलाब,
अग दियाँ लकीराँ (१९६९),
इकी पत्तियाँ दा गुलाब, सफ़रनामा (१९७३),
औरतः इक दृष्टिकोण (१९७५), इक उदास किताब (१९७६),
अपने-अपने चार वरे (१९७८), केड़ी ज़िंदगी केड़ा साहित्य (१९७९),
कच्चे अखर (१९७९), इक हथ मेहन्दी इक हथ छल्ला (१९८०),
मुहब्बतनामा (१९८०), मेरे काल मुकट समकाली (१९८०),
शौक़ सुरेही (१९८१), कड़ी धुप्प दा सफ़र (१९८२),
अज्ज दे काफ़िर (१९८२) सभी हिन्दी में अनूदित।
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अरुंधति राय

अरुंधति राय (जन्म: 24 नवंबर, 1961) अंग्रेजी की सुप्रसिद्ध लेखिका और समाजसेवी हैं। अरुंधति राय अंग्रेजी की सुप्रसिद्ध लेखिका हैं, जिन्होंने कुछेक फ़िल्मों में भी काम किया है। "द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स" के लिये बुकर पुरस्कार प्राप्त अरुंधति राय ने लेखन के अलावा नर्मदा बचाओ आंदोलन समेत भारत के दूसरे जनांदोलनों में भी हिस्सा लिया है। कश्मीर को लेकर उनके विवादास्पद बयानों के कारण वे पिछले कुछ समय से चर्चा में हैं।

शिलौंग में 24 नवम्बर 1961 को जन्मी अरुंधति राय ने अपने जीवन के शुरुवाती दिन केरल में गुज़ारे। उसके बाद उन्होंने आर्किटेक्ट की पढ़ाई दिल्ली से की। अपने करियर की शुरुवात उन्होंने अभिनय से की। मैसी साहब फिल्म में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई। इसके अलावा कई फिल्मों के लिये पटकथायों भी उन्होंने लिखीं। जिनमें In Which Annie Gives It Those Ones (1989), Electric Moon (1992) को खासी सराहना मिली। १९९७ में जब उन्हें उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के लिये बुकर पुरस्कार मिला तो साहित्य जगत का ध्यान उनकी ओर गया।

अमरीकी साम्राज्यवाद से लेकर, परमाणु हथियारों की होड़, नर्मदा पर बाँध निर्माण आदि कई स्थानीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करती रही हैं अरुंधति राय. लेकिन अब उनका मानना है कि कम से कम भारत में अहिंसक विरोध प्रदर्शनों और नागरिक अवज्ञा आंदोलनों से बात नहीं बन रही है।

संसदीय व्यवस्था का अंग बने साम्यवादियों और हिंसक प्रतिरोध में भरोसा रखने वाले माओवादियों की विचारधाराओं में फंसी अरुंधति स्वीकार करती हैं कि वो गांधी की अंधभक्त नहीं हैं। उन्हीं के शब्दों में- "आख़िर गांधी एक सुपरस्टार थे। जब वे भूख-हड़ताल करते थे, तो वह भूख-हड़ताल पर बैठे सुपरस्टार थे। लेकिन मैं सुपरस्टार राजनीति में यक़ीन नहीं करती. यदि किसी झुग्गी की जनता भूख-हड़ताल करती है तो कोई इसकी परवाह नहीं करता."

अरुंधति का मानना है कि बाज़ारवाद के प्रवाह में बहते चले जा रहे भारत में विरोध के स्वरों को अनसुना किया जा रहा है। जनविरोधी व्यवस्था के ख़िलाफ़ न्यायपालिका और मीडिया को प्रभावित करने के प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। उन्होंने कहा, "मैं समझती हूँ हमारे लिए ये विचार करना बड़ा ही महत्वपूर्ण है कि हम कहाँ सही रहे हैं और कहाँ ग़लत. हमने जो दलीलें दी वे सही हैं।.. लेकिन अहिंसा कारगर नहीं रही है।"

न्यायपालिका की अवमानना के आरोप में संक्षिप्त क़ैद काट चुकी अरुंधति का स्पष्ट कहना है कि वह हथियार उठाने वाले लोगों की निंदा नहीं करतीं। उन्होंने रॉयटर्स को इंटरव्यू में कहा, "मैं ये कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि हर किसी को हथियार उठा लेना चाहिए, क्योंकि मैं ख़ुद हथियार उठाने को तैयार नहीं हूँ... लेकिन साथ ही मैं उनलोगों की निंदा भी नहीं करना चाहती जो प्रभावी होने के दूसरे तरीकों का रुख़ कर रहे हैं।"

अपने इस विचार को उन्होंने गार्डियन को दिए साक्षात्कार में थोड़ा और स्पष्ट किया- "मेरे लिए किसी को हिंसा का उपदेश देना अनैतिक होगा, जब तक मैं ख़ुद हिंसा पर उतारू नहीं हो जाती। लेकिन इसी तरह, मेरे लिए विरोध प्रदर्शनों और भूख-हड़तालों की बात करना भी अनैतिक होगा, जब मैं घिनौनी हिंसा से सुरक्षित हूँ। मैं निश्चय ही इराक़ियों, कश्मीरियों या फ़लस्तीनियों को ये नहीं कह सकती कि वे सामूहिक भूख-हड़ताल करें तो उन्हें सैन्य क़ब्ज़े से मुक्ति मिल जाएगी. नागरिक अवज्ञा आंदोलन सफल होते नहीं दिख रहे।"

रविवार को दिये साक्षात्कार में वे कहती हैं-"हमारी जो संसदीय राजनीति है, उसमें अभी हर पार्टी के दस-दस पंद्रह-पंद्रह सिर है। जो बंगाल में वामपंथ बोलते हैं, वही नंदीग्राम में लोगों को अपने घरों से भगा रहे हैं, महाराष्ट्र वाले आदिवासी का साथ दे रहे हैं। वही भाजपा, जो यहां एसईजेड बनाना चाहती है, पश्चिम बंगाल में उसके खिलाफ बोलती है। हम सब एक ऐसे पागलखाने में घूम रहे हैं, जहां किसी की एक ही शक्ल नहीं है।"

अरुंधति को सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा अहिंसक जनांदोलनों को नज़रअंदाज़ किए जाने का व्यक्तिगत अनुभव नर्मदा आंदोलन से जुड़ कर हुआ। उनका कहना है कि नर्मदा आंदोलन एक गांधीवादी आंदोलन है जिसने वर्षों तक हर लोकतांत्रिक संस्थान के दरवाज़े पर दस्तक दी, लेकिन इससे जुड़े कार्यकर्ताओं को हमेशा अपमानित होना पड़ा। किसी भी बाँध को नहीं रोका गया, उल्टे बाँध निर्माण सेक्टर में नई तेज़ी आई।

1997 में द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग के लिए बुकर पुरस्कार।
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अलेक्सांद्र पूश्किन

अलेक्सांद्र सेर्गेयेविच पूश्किन (रूसी: Алекса́ндр Серге́евич Пу́шкин (6 जून [o.s. मई 26] 1799 – 10 फरवरी [o.s. जनवरी 29] 1837) रूसी भाषा के छायावादी कवियों में से एक थे जिन्हें रूसी का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है।

पूश्किन के 38 वर्ष के छोटे जीवनकाल को हम 5 खंडों में बाँटकर समझ सकते हैं। 26 मई 1799 को उनके जन्म से 1820 तक का समय बाल्यकाल और प्रारंभिक साहित्य रचना को समेटता है। 1820 से 1824 का समय निर्वासन काल है। 1824 से 1826 के बीच वे मिखायेलोव्स्कोये में रहे। 1826-1831 में वे ज़ार के करीब आकर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचे। 1831 से उनकी मृत्यु (29 जनवरी 1837) तक का काल उनके लिए बड़ा दुःखदायी रहा।

बारह साल की उम्र में पूश्किन को त्सारस्कोयेस्येलो के बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया। सन्* 1817 में पूश्किन पढ़ाई पूरी कर सेंट पीटर्सबर्ग आ गए और विदेश मंत्रालय के कार्यों के अतिरिक्त उनका सारा समय कविता करने और मौज उड़ाने में बीता, इसी दौरान सेना के नौजवान अफसरों द्वारा बनाई गई साहित्यिक संस्था ग्रीनलैंप में भी उन्होंने जाना शुरू कर दिया था, जहाँ उनकी कविता का स्वागत हुआ। मुक्त माहौल में अपने विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए पूश्किन ने ओड टू लिबर्टी (मुक्ति के लिए गीत, 1817), चादायेव के लिए (1818) और देश में (1819) जैसी कविताएँ लिखीं। दक्षिण में येकातेरीनोस्लाव, काकेशस और क्रीमिया की अपनी यात्राओं के दौरान उन्होंने खूब पढ़ा और खूब लिखा, इसी बीच वे बीमार भी पड़े और जनरल रायेव्स्की के परिवार के साथ काकेशस और क्रीमिया गए। पूश्किन के जीवन में यह यात्रा यादगार बनकर रह गई। काकेशस की खूबसूरत वादियों में वे रोमांटिक कवि बायरन की कविता से परिचित हुए। सन्* 1823 में उन्हें ओद्देसा भेज दिया गया। ओद्देसा में जिन दो स्त्रियों से उनकी नजदीकीयाँ रहीं उनमें एक थी एक सर्ब व्यापारी की इटालियन पत्नी एमिलिया रिजनिच और दूसरी थी प्रांत के गवर्नर जनरल की पत्नी काउंटेस वोरोन्त्सोव। इन दोनों महिलाओं ने पूश्किन के जीवन में गहरी छाप छोड़ी। पूश्किन ने भी दोनों से समान भाव से प्रेम किया और अपनी कविताएँ भी उन्हें समर्पित कीं। किंतु दूसरी ओर काउंटेस से बढ़ी नजदीकी उनके हित में नहीं रही। उन्हें अपनी माँ की जागीर मिखायेलोव्स्कोये में निर्वासित कर दिया गया। रूस के इस सुदूर उत्तरी कोने पर पूश्किन ने जो दो साल बिताए, उनमें वे ज्यादातर अकेले रहे। पर यही समय था जब उन्होंने येव्गेनी अनेगिन और बोरिस गोदुनोव जैसी विख्यात रचनाएँ पूरी कीं तथा अनेक सुंदर कविताएँ लिखीं। अंततः सन्* 1826 में 27 वर्ष की आयु में पूश्किन को ज़ार निकोलस ने निर्वासन से वापस सेंट पीटर्सबर्ग बुला लिया। मुलाकात के दौरान जार ने पूश्किन से उस कथित षड्यंत्र की बाबत पूछा भी जिसकी बदौलत उन्हें निर्वासन भोगना पड़ा था। सत्ता की नजरों में वे संदेहास्पद बने रहे और उनकी रचनाओं को भी सेंसर का शिकार होना पड़ा, पर पूश्किन का स्वतंत्रता के प्रति प्रेम सदा बरकरार रहा। सन्* 1828 में मास्को में एक नृत्य के दौरान पूश्किन की भेंट नाताल्या गोंचारोवा से हुई। 1829 के बसंत में उन्होंने नाताल्या से विवाह का प्रस्ताव किया। अनेक बाधाओं के बावजूद सन 1831 में पूश्किन का विवाह नाताल्या के साथ हो गया।

पूश्किन का विवाहित जीवन सुखी नहीं रहा। इसकी झलक उनके लिखे पत्रों में मिलती है, पूश्किन का टकराव नाताल्या गोंचारोवा के एक दीवाने फ्रांसीसी द'आंतेस से हुआ जो जार निकोलस का दरबारी था। कहा जाता है कि द'आंतेस नाताल्या से प्रेम करने लगा था। द'आंतेस ने नाताल्या की बहन कैथरीन से विवाह का प्रस्ताव रखा। फिर वह और नाताल्या छुपकर मिले, स्थितियाँ और बिगड़ीं। यह पूश्किन को सहन नहीं हुई और वह द'आंतेस को द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण दे बैठा। 27 जनवरी 1837 को हुए द्वंद्व युद्ध में पूश्किन द'आंतेस की गोलियों से बुरी तरह घायल हुए और दो दिनों बाद 29 जनवरी 1837 को मात्र 38 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। पूश्किन की अचानक हुई मौत से सनसनी फैल गई। तत्कालीन रूसी समाज के तथाकथित कुलीनों को छो़ड़कर छात्रों, कामगारों और बुद्धिजीवियों सहित लगभग पचास हजार लोगों की भीड़ कवि को श्रद्धांजलि अर्पित करने सेंट पीटर्सबर्ग में जमा हुई थी।

केवल 37 साल जीकर पूश्किन ने संसार में अपना ऐसा स्थान बना लिया जिसे उन्होंने अपने शब्दों में कुछ इस तरह व्यक्त किया है-

मैंने स्थापित किया है

अपना अलौकिक स्मारक

उसे अनदेखा नहीं कर सकेगी

जनसामान्य की कोई भी राह...

गरिमा प्राप्त होती रहेगी

मुझे इस धरा पर

जब तक जीवित रहेगा

रचनाशील कवि एक भी!
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