28-09-2015, 10:07 PM | #41 | ||
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Re: मेरी कलम से.....
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आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद.....आज बहुत दिनों बाद फोरम पर आना हुआ । और रजनीश जी मैं तो अभी आप सभी से सीख ही रही हूँ , महादेवी वर्मा जी की शैली अपना सकूँ इस लायक भी नहीं बनी मैं । ये तो बस थोडा बहुत प्रयास कर रही हूँ कि कुछ लिखना सीख जाऊँ ।
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28-09-2015, 10:34 PM | #42 | |
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Re: मेरी कलम से.....
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28-09-2015, 10:38 PM | #43 | |
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Re: मेरी कलम से.....
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मैं अच्छा लिख सकूँ ये तो शायद सम्भव हो जाये पर आपसे अच्छा लिख सकूँ इस पर संशय है । मेरे काव्य में अपकी गजलों का मुकाबला करने का सामर्थ्य नहीं है ......
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28-09-2015, 10:43 PM | #44 |
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Re: मेरी कलम से.....
ईस औपचारिकता की कोई जरुरत नहीं है। आप ने वाकई बहुत ही बढिया लिखा है...जो सबके सामने है! आशा है आपकी आगे आपकी ओर रचनाएं हमें पढने को मिलती रहेंगी।
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28-09-2015, 10:49 PM | #45 | |
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Re: मेरी कलम से.....
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LOL.... Amen
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31-10-2015, 02:49 PM | #46 |
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Re: मेरी कलम से.....
एक प्राण दो देह कृष्ण - राधा, मैं तुम्हारे लिये ये पुष्प लाया हूँ...तुम पर बहुत सुन्दर लगेंगे .... राधा - इसकी क्या आवश्यकता थी ….. कृष्ण - अरे! क्यों नहीं थी आवश्यकता…… प्रेम में उपहारों का आदान-प्रदान तो चलता ही रहता है राधा - अच्छा ….आज तुम्हें प्रेम याद आ रहा है…. तो ये प्रेम तब कहाँ था जब मुझे छोड के चले गये थे तुम….. जब एक बार भी कभी वापस आने के लिये भी नहीं सोचा …ये भी नहीं सोचा कि मैं तुम्हारे बिना कैसे रह रही होंगी? मुझमें प्राण शेष हैं भी या नहीं ये भी विचार ना आया तुम्हारे मन में और अब प्रेम की बातें कर रहे हो….. कृष्ण - मैं तुम्हें कब छोड के गया राधा ?? राधा - अब इतने भी भोले ना बनो कृष्ण ……तुम अच्छे से जानते हो कि तुम मुझे छोड के कब गये…. कृष्ण - नहीं जानता राधा….तुम बताओ तो मुझे याद आ जायेगा….. राधा - ११ बरस की आयु में अपने कर्तव्यों का बहाना दे नहीं छोड गये थे तुम मुझे ? कृष्ण - मैं तुम्हें छोड गया था ? ये तो सम्भव ही नहीं है राधा …… तुम्हें ठीक से याद नहीं है …..याद करो मैं तो तुम्हारे साथ ही था …..सदैव…. राधा - अच्छा….मुझे तो याद नहीं …तुम याद दिलाओ जरा…. कृष्ण - ठीक है……बताओ जिस काल की तुम बात कर रही हो …उस समय विशेष में जब तुम श्रृंगार करती थीं तो सत्य कहना क्या दर्पण में तुम्हें मेरा मुख नहीं दिखता था? क्या तुम भ्रमित नहीं होती थीं कि तुम अपना श्रृंगार कर रही हो या मेरा ? ……जब तुम अपनी सखियों के साथ यमुना किनारे पानी भरने जाती थीं तो क्या तुम्हें समस्त गोपियाँ कृष्ण-कृष्ण कह कर नहीं पुकारती थीं …… क्या तुम्हें मेरे माँ और बाबा ने कान्हा समझ कभी दुलार नहीं किया? मेरे वियोग में समस्त बृजवासी , समस्त गोपियाँ व्याकुल रहते थे …..पर क्या तुम्हें उस विरह अग्नि की पीडा हुई कभी ? नहीं न…. क्योंकि जब विरह ही नहीं हुआ तो पीडा किस बात की …… राधा - बस कृष्ण …… वो तो मेरा प्रेम था , जिसमें कृष्ण-कृष्ण करते हुए मैं स्वयं ही कृष्ण हो गयी थी ……. उसमें तुम्हारा कोई योगदान नहीं था…… कृष्ण - जब तुम स्वयं ही कृष्ण हो गयी राधा तो फिर खुद ही बताओ कि मैंने तुम्हें छोडा कैसे ? मैं तुमसे अलग कब हुआ? मैं तो तुम में ही था न……. शिकायत तो मुझे तुमसे करनी चाहिये राधा कि तुमने मुझे छोड दिया था …. राधा - नहीं कृष्ण …मैं तुम्हें कैसे छोड सकती हूँ …..मैं तो सदैव तुम्हारे साथ ही थी , तुम्हारी शक्ति बन कर …. और उससे ज्यादा साथ देना ना तुम्हारे लिये उचित था और ना ही मेरे लिये …… तुम्हारे ज्ञान की , कर्मयोग की समस्त संसार को आवश्यकता थी कृष्ण …… इस धरा पर धर्म की उपस्थिति के लिये सम्पूर्ण भू-मंडल को तुम्हारी आवश्यकता थी ……. प्रेम में पास रहना आवश्यक नहीं होता….साथ रहना आवश्यक होता है …….हम पास अवश्य नहीं थे , पर सदैव एक-दूसरे के साथ थे । प्रेम का अर्थ मात्र एक-दूसरे को देखते रहना भर नहीं होता कृष्ण , अपितु एक ही दिशा में देखना होता है …… और मैंने तो सदैव उसी दिशा में देखा है जिस दिशा में तुम्हारी दृष्टि रही है । जिस कर्तव्य पथ पर तुम्हें चलना था , वो मात्र तुम्हारा नहीं था , मेरा भी था । तुम अपने कर्तव्यों को भली प्रकार से पूर्ण कर सको यही एक मात्र उद्देश्य रहा है मेरे जीवन का । कृष्ण - क्या बात हुई राधा तुम स्वयं ही आरोप लगाती हो और स्वयं ही मेरा पक्ष लेकर तर्क भी दे देती हो…. राधा - ये आरोप तो हास्य-विनोद की बात है कृष्ण …… तुम्हारे प्रेम ने इतना अधिकार तो दिया है न मुझे….. कृष्ण - मेरे प्रेम के सारे अधिकार तुम्हारे ही पास हैं राधा…… जिस प्रकार जलधि जब अत्यधिक ऊष्मा से तपित होता है तो वाष्प बन कर ऊपर उठता है अपने कर्तव्य पथ पर चलने के लिये , फिर मेघ का रूप ले इस धरा प्यास बुझाता है , नदियों का रूप ले इस धरा को सींचता है , जहाँ-जहाँ से निकलता है वहाँ-वहाँ लोगों को आनंदित करता है , शीतलता देता है…और अंत में वापस उसी जलधि में समाहित हो जाता है । ठीक इसी प्रकार तुम्हारा प्रेम ही मुझमें प्राण बन कर उपस्थित है , अपने कर्तव्यों के कारण जो भौतिक विरह हुआ हमारा उसकी अग्नि में तप कर ही मैं अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ सका , इन सांसारिक मोह-बन्धनों से ऊपर उठ सका , जो सांसारिक कार्य एक मनुष्य के रूप में आवश्यक थे , उन्हें पूर्ण किया । तुम्हारा प्रेम ही था जो मेरे भक्तों पर कृपा बन कर बरसा , जिसने इस धरा को गीता का ज्ञान दिया , धर्म और सत्य का महत्व बताया और अंत में तुम में ही आकर समाहित हो गया । हमारे देह चाहे दो हों पर हमारे प्राण एक ही हैं राधा …….. ये तुम्हारे प्रेम का ही प्रताप है राधा कि मेरे नाम से पहले तुम्हारा नाम आता है , मैं मन्दिरों में तुम्हारे साथ ही पूजा जाता हूँ । मेरा अस्तित्व तुम्हारे प्रेम से ही है और सदैव तुम्हारे प्रेम से ही रहेगा ।
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31-10-2015, 05:07 PM | #47 |
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Re: मेरी कलम से.....
सही तो है...राधा और कृष्ण का प्रेम सात्विक है और सर्वोच्च है! धन्यवाद!
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31-10-2015, 05:28 PM | #48 | |
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Re: मेरी कलम से.....
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वाह क्या बात है! आज पद्य की जगह गद्य चल रहा है!!
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31-10-2015, 11:57 PM | #49 | |
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Re: मेरी कलम से.....
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01-11-2015, 11:40 AM | #50 |
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Re: मेरी कलम से.....
[[कृष्ण - मैं तुम्हें छोड गया था ? ये तो सम्भव ही नहीं है राधा …… तुम्हें ठीक से याद नहीं है …..याद करो मैं तो तुम्हारे साथ ही था …..सदैव….वाह ... पवित्रा जी. आपने राधा-कृष्ण के इस प्रश्नोत्तर प्रसंग में जैसे एक अलौकिक वातावरण की रचना कर दी है. यह प्रेम का सर्वोत्तम रूप है और सुंदर लेखन का अनुपम उदाहरण. आपकी इस रचना में वह सभी तत्व प्राप्त होते हैं जो एक श्रेष्ठ काव्य की पहचान हैं. मैं आपकी इस लेखन शैली से बहुत प्रभावित हुआ हूँ. आपसे अनुरोध है कि आप भविष्य में भी इस शैली की रचनायें शेयर करते रहें. आपका बहुत बहुत धन्यवाद.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) Last edited by rajnish manga; 01-11-2015 at 11:55 AM. |
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