15-08-2013, 10:32 AM | #1 |
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आजादी : 15 अगस्त
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
15-08-2013, 10:33 AM | #2 |
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Re: आजादी : 15 अगस्*त
भारत आज 67वां स्*वतंत्रता दिवस मना रहा है। इस मौके पर देशभर में आजादी का जश्*न मनाया जा रहा है। यहां यह जानना बेहद दिलचस्*प होगा कि आखिर 15 अगस्*त को ही भारत की आजादी का दिन क्*यों चुना गया। एक दिन पहले यानी 14 अगस्*त को पाकिस्*तान का स्*वतंत्रता दिवस मनाया जाता है।
कहा जाता है कि द्वितीय विश्*वयुद्ध के दौरान शत्रु देशों की सेनाओं ने इसी दिन सरेंडर किया था। ऐसे में लॉर्ड माउंटबेटन ने निश्चय किया कि 15 अगस्*त को भारत का स्*वतंत्रता दिवस होगा। इस दिन के बारे में एक और तथ्*य है कि भारत-पाकिस्*तान बंटवारे के बाद 14 अगस्*त को कराची में झंडा में फहराया गया। इसके बाद माउंटबेटन को यहां आने में एक दिन लगा और 15 अगस्*त को भारत का स्*वतंत्रता दिवस मनाने का फैसला किया गया। स्वाधीनता संग्राम जितना महान् था, उतना ही प्रेरक। उस अथक संघर्ष में कई विराट चरित्र संसार के सामने आए। उनके योगदान और बलिदान बेमिसाल हैं। समूचा राष्ट्र सदैव कृतज्ञ है। इस बार भास्कर ने जुटाए हैं, उस दौर के ऐसे ही कुछ पल, कुछ पहल, कुछ घटनाएं, कुछ फैसले और कुछ किरदार। योद्धा क्रांतिकारियों, समर्पित सेनानियों और संघर्षशील नेताओं के बेजोड़ व्यक्तित्व और कृतित्व से जुड़े अनछुए पहलू। ऐसे प्रेरक प्रसंग, जिन्हें पाठक जीवन में सीधे-सीधे अपना भी सकें।
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15-08-2013, 10:33 AM | #3 |
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Re: आजादी : 15 अगस्*त
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15-08-2013, 10:35 AM | #4 |
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Re: आजादी : 15 अगस्*त
आजादी का भाषण, एक शब्द पर संघर्ष
वह एक ऐतिहासिक अवसर था। आजाद भारत की पहली सुबह होने को थी। मगर पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने कमरे में बेचैन थे। उनका भाषण तैयार था। एक-एक शब्द दिमाग में गूंज रहा था। बस शीर्षक को लेकर कुछ उलझन थी। उन्होंने लिखा था-‘डेट विद डेस्टिनी।’ मगर हर शब्द के प्रति संवेदनशील नेहरूजी को ‘डेट’ शब्द इस महान् अवसर के अनुकूल नहीं लगा। नेहरू के निजी सहायक एमओ मथाई ने सुझाया-रेंदेव्यू विद डेस्टिनी। लेकिन 1936 में फ्रेंकलिन रूजवेल्ट अपने भाषण में इसका इस्तेमाल कर चुके थे। इसलिए यह फौरन खारिज हो गया। शीर्षक के लिए शब्द नया ही चाहिए था। एक गरिमामय शब्द। अचानक पंडितजी कलम लेकर बैठे। लिखा-‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी।’ नियति के साथ मुलाकात। पंडित नेहरू का यह भाषण दुनिया के मशहूर भाषणों में शुमार हुआ।
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15-08-2013, 10:35 AM | #5 |
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Re: आजादी : 15 अगस्*त
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15-08-2013, 10:36 AM | #6 |
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Re: आजादी : 15 अगस्*त
टैगोर हुए आहत और बापू ने दिया उत्तर
1921 का वाकया है। गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर लंदन में थे। उन्हें यह जानकर दुख हुआ कि भारतीय छात्र पश्चिमी शिक्षा के बहिष्कार में जुटे हैं। उसी समय लंदन में उनके अंग्रेज मित्र पियर्सन का एक जगह भाषण हुआ। वहां कुछ भारतीय छात्रों ने अपमानजनक व्यवहार किया। पियर्सन ने गुस्से में शांति निकेतन के प्राचार्य को एक चिट्ठी लिखी-यह असहयोग आंदोलन का परिणाम है। गुरुदेव ने भी छात्रों की अनुशाासनहीनता पर सहमति जताते हुए कहा, ‘राष्ट्र की समस्त शक्तियां आपस में सहयोग करें, यही काफी नहीं है। उन्हें विश्व शक्ति के साथ भी सहयोग करना पड़ेगा।’ गुरुदेव को चिंतित देख महात्मा गांधी फौरन सक्रिय हुए। बापू ने उन्हें इन शब्दों में आश्वस्त किया, ‘मैं भी बिल्कुल नहीं चाहता कि अपने घर के चारों ओर दीवार उठा लूं। मैं तो चाहता हूं कि घर में सभी संस्कृतियों की हवाएं बेरोकटोक आएं। मेरा धर्म कारागार का धर्म नहीं है।’
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15-08-2013, 10:36 AM | #7 |
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Re: आजादी : 15 अगस्*त
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15-08-2013, 10:37 AM | #8 |
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Re: आजादी : 15 अगस्*त
आवाज ऊंची नहीं थी, मगर मुद्दे स्पष्ट थे
ब्रिटिश गवर्नर की एक रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के आंदोलन में लोकमान्य तिलक ही सबसे बड़े षड्यंत्रकारी थे। गणेश उत्सव और शिवाजी उत्सव के जलसे हों, कांग्रेस का मंच या कोई जनसभा। तिलक अगर कहीं वक्ता हैं तो आग बरसना तय है। लेकिन तिलक के बारे में कम ही लोगों को पता है कि वे अच्छे वक्ता बिल्कुल नहीं थे। उनकी आवाज में घरघराहट थी। वह बहुत ऊंचाई तक नहीं जा सकती थी। लेकिन, वे बोलते असरदार ढंग से थे। भाषण एकदम स्पष्ट। जिस बात पर जोर देना चाहते, उससे इधर-उधर कभी नहीं होते। मूल विषय से भटकते कभी नहीं थे। बात सीधी श्रोताओं के भीतर उतरती।
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15-08-2013, 10:37 AM | #9 |
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Re: आजादी : 15 अगस्*त
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15-08-2013, 10:38 AM | #10 |
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Re: आजादी : 15 अगस्*त
पिता को लिखा: आपने मेरी पीठ में छुरा भोंका
सात अक्टूबर 1930। लाहौर षडय़ंत्र कांड में अदालत का फैसला आया। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी। भगतसिंह की सजा माफी के लिए उनके पिता ने जज को पत्र लिखा था। सफाई दी कि सैंडर्स की हत्या के समय भगतसिंह कलकत्ता में थे। यह पता चलने पर भगतसिंह ने पिता को चिट्ठी लिखी- ‘आपका वह पत्र भेजना मेरे लिए इतना दुखदायी है कि मैं शांत नहीं रह सकता। यह एक परीक्षा की घड़ी थी। आप असफल रहे। सच तो यह है कि आपने मेरी पीठ में छुरा भोंका है। मेरा जीवन उतना मूल्यवान नहीं है, जितना आप समझते हैं। आप एक देशद्रोही से कम नहीं, मेरे सिद्धांत मेरे जीवन से बड़े हैं।’
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