25-01-2013, 12:54 PM | #11 |
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Re: खुश होने के नियम
खुश होने के कई फायदे तो आपने सुने होंगे लेकिन एक सर्वे के मुताबिक ज़्यादा खुश होना नुकसानदेह साबित हो सकता है. क्या आप बेहद प्रसन्न महसूस कर रहे हैं ? यदि इसका जवाब हां तो आपको ज्यादा संतुष्ट होने की जरूरत नहीं है क्योंकि वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसी स्थिति में युवावस्था में मौत होने की आशंका बढ़ जाती है. एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने इस संबंध में कई अध्ययनों पर गौर किया कि खुशी का कोई नकारात्मक पहलू भी है. उन्होंने पाया कि जो लोग काफी खुश होते हैं, उनकी अपेक्षाकृत कम उम्र में मौत हो जाती है. यह जानकारी डेली टेलीग्रॉफ की एक रिपोर्ट सामने आयी है. शोधकर्ताओं के अनुसार स्कूलों में जो बच्चे अधिक हंसमुख होते हैं, उनकी मौत उन बच्चों की अपेक्षा जल्दी हो जाती है जो संकोची होते हैं. शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी वजह उनका लापरवाह जीवन और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाली जीवनशैली आदि हैं. उन्होंने कहा कि उनके मानसिक समस्याओं से ग्रसित होने की भी आशंका होती है. उनके अवसादग्रस्त होने की भी आशंका बनी रहती है और वे अत्यधिक हंसमुख स्वभाव से गहन उदासी में डूब सकते हैं. शोध के अनुसार अनुचित मौकों पर खुशी का इजहार किए जाने से अन्य लोगों में प्रतिक्रिया हो सकती है और वे नुकसान पहुंचा सकते हैं. अध्ययन में 1920 से ही बच्चों की रिपोर्ट को शामिल किया गया. शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन बच्चों की स्कूली रिपोर्ट में बहुत हंसमुख कहा गया था, वैसे बच्चों की अपेक्षाकृत युवा अवस्था में मौत हो गयी. अपने छात्र जीवन में संकोची स्वभाव वाले तुलनात्मक रूप से अधिक समय जीते हैं. रिपोर्ट में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले उन सुझावों की आलोचना की गयी है जिनमें खुश रहने के तरीके बताए जाते हैं. रिपोर्ट के अनुसार ऐसे तरीकों ने अवसाद को बढ़ावा दिया.
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25-01-2013, 12:55 PM | #12 |
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Re: खुश होने के नियम
दूसरों को दुखी देखकर खुश होने का सुख
हम गलाकाट ( Cut Throat ) प्रतिस्पर्धा के युग में जी रहे हैं. प्रतिस्पर्धा का मतलब है एक दूसरे से आगे निकलने की होड़. हर कोई दूसरे से आगे निकलना चाहता है. जीवन संघर्ष में विजयी होना चाहता है. सफल होना चाहता है. कहा जाता है प्रतिस्पर्धा उन्नति और विकास का मार्ग प्रशस्त करती है. इसका एक रास्ता है परिश्रम द्वारा सफलता प्राप्त करना. दूसरा सरल और आसान रास्ता है आगे वाले की टांग खीँच कर, उसे गिराकर आगे निकलना. सफलता का सुख भोगने की इच्छा हरेक की होती है. आज के युग में भौतिक उपलब्द्धियों को सफलता मान लिया गया है. उपभोक्तावादी संस्कृति नें एक नई मानसिकता को जन्म दिया है. हमारे परम्परागत नैतिक मूल्यों का भारी अवमूल्यन हुआ है. अपने प्रतिस्पर्धी, पड़ोसी को नुकसान पहुंचा कर ख़ुशी महसूस करना इस संस्कृति का महत्वपूर्ण अवयव हो गया है. बाहरी तौर पर हम पड़ोसी के दुःख में शामिल होने का कितना भी नाटक करें, औपचारिकता निभाएं , हमारी मानसिकता ऐसी हो गई है कि अंदर अंदर हम अपने पड़ोसी को दुखी देखकर ख़ुशी महसूस करने लगे हैं. यह पाखण्ड, दोमुंहा व्यवहार हमारी उपभोक्तावाद प्रदत्त संस्कृति का अभिन्न अंग बनता जा रहा है. हम खुद चाहे सफल या असफल हों, लेकिन ईर्ष्यावश पड़ोसी की सफलता में दुःख और असफलता में सुख महसूस करते हैं. पड़ोसी को दुखी देखकर हमें ख़ुशी होती है. दूसरे की कीमत पर अपना भला मुख्य उद्देश्य हो गया है. हमें इस बात पर भी विचार करना पड़ेगा कि अगर हम पड़ोसी को दुखी देखकर ख़ुशी महसूस करते हैं तो दुखी होने की अगली बारी हमारे है. ईर्ष्या हमारी मानसिकता का महत्वपूर्ण अंग बन गई है. समाज मानसिक विकृति कि ओर अग्रसर है. बौद्धिक और मानसिक विकास से हमारा कोई सरोकार नहीं रह गया है. क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया कि परस्पर सहयोग से, आपसी सूझ बूझ और समझ से, एक दूसरे के सुख दुःख में साथ खड़े हो कर हम अपना दूसरे और सभी का कल्याण कर सकते हैं. हमें इन बातों पर गहराई से विचार करना होगा.
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