09-11-2015, 01:34 PM | #1 |
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सुख दुःख की अनुभूति
(स्व. वजू कोटक) उनके चरणों में जैसे ही मैंने अपना सर रखा, मेरी आँखों से अविरल आँसुओं की धारा बह निकली. चाँदनी रात में जैसे हिमालय मधुर स्वर में बोला हो, ठीक उसी तरह आप मिठास भरे स्वरों में बोलते हुए महसूस हुए. ‘वत्स, लगता है जैसे पैरों पर मोती गिर रहे हों.’ ‘हाँ, ये मेरे आँसू हैं.’ ‘मुझसे मिलकर तुझे इतनी ख़ुशी हुई?’ ‘कृपानाथ, ये आँसू ख़ुशी के नहीं दुःख के हैं.’
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) Last edited by rajnish manga; 09-11-2015 at 10:54 PM. |
09-11-2015, 01:41 PM | #2 |
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Re: सुख दुःख की अनुभूति
दुःख सुख की अनुभूति
‘दुःख?’ आपने आश्चर्य से पूछा, ‘क्या मैंने तुझे देने मैं कोई कमीं बरती है?’ ‘जी नहीं, हर तरह की सुख समृद्धि है. फिर भी दुःख होता है. हृदय दुखी होता है. आपने दुःख क्यों पैदा किये. जवाब दीजिये.’ यह सुन कर आपने मेरे हाथ पकड़ कर मुझे उठाया और पूछा, ‘दूर पूर्व की ओर क्या दिखाई देता है?’ ‘सूर्य.’ ‘सूर्य अँधेरे को पहचानता है? उसे अँधेरा क्या है, यह भी पता नहीं, वह तो शाश्वत प्रकाश है. उसके अंत होने पर अँधेरा होता है. इसका अर्थ यह नहीं कि अँधेरा सूर्य से प्रगट हुआ है. तू मुझे क्या कह कर संबोधित करता है?’ ‘परम आनंद.’
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
09-11-2015, 01:44 PM | #3 |
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Re: सुख दुःख की अनुभूति
सुख दुःख की अनुभूति
>>> बस, जब तू कहता है कि मैं सम्पूर्ण आनंद हूँ तो मैं दुःख का कैसे निर्माण कर सकता हूँ? इस पृथ्वी के कण कण में मैंने सुख समृद्धि फैला रखी है. तेरी आवश्यकता की पूर्ति के लिए पृथ्वी पर अनाज के भण्डार भरे हुए हैं. पक्षियों के कंठ में संगीत रखा है और ऐसी व्यवस्था की है कि मीठे फल पक कर तैयार हों. आकाश में अद्भुत सौन्दर्य फैला रखा है. मैंने चारों ओर सुख और आनंद निर्माण करके रखा है. मगर यह सुख तो पचा नहीं पाया. इसलिए तूने ही दुःख पैदा किया. मुझे तो दुःख नाम का शब्द पता ही नहीं. यह सुन कर मेरी आँखों से सुख के आँसू बहने लगे और सृष्टि में चारों और सौंदर्य ही सौंदर्य नज़र आने लगा.
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