25-02-2012, 02:48 PM | #41 |
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Re: दोहावली
पूर्ण करो निर्विघ्न प्रभु ! सकल हमारे काम। |
25-02-2012, 02:48 PM | #42 |
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Re: दोहावली
मेरे विषय-विकार जो, बने हृदय के शूल
हे प्रभु मुझ पर कृपा कर, करो उन्हें निर्मूल। |
25-02-2012, 02:48 PM | #43 |
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Re: दोहावली
गणपति महिमा आपकी, सचमुच बहुत उदार
तुम्हें डुबोते हर बरस, उनको करते पार। |
25-02-2012, 02:48 PM | #44 |
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Re: दोहावली
मातु शारदे दो हमें, ऐसा कुछ वरदान
जो भी गाऊँ गीत मैं, बन जाये युग-गान। |
25-02-2012, 02:49 PM | #45 |
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Re: दोहावली
शंकर की महिमा अमित, कौन भला कह पाय
जय शिव-जय शिव बोलते, शव भी शिव बन जाय। |
25-02-2012, 02:49 PM | #46 |
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Re: दोहावली
मैं भी तो गोपाल हूँ, तुम भी हो गोपाल
कंठ लगाते क्यों नहीं, फिर मुझको नंदलाल। |
25-02-2012, 02:50 PM | #47 |
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Re: दोहावली
स्वयं दीप जो बन गया, उसे मिला निर्वाण
इसी सूत्र को वरण कर, बुद्ध बने भगवान। गुरु ग्रन्थ के श्रवण से, मिटें सकल त्रयताप ये मन्त्रों का मन्त्र है, हैं ये शब्द अमाप। नानक और कबीर-सा, सन्त न जन्मा कोय दोयम, त्रेयम, चतुर्थम, सब हो गए अदोय। |
25-02-2012, 02:51 PM | #48 |
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Re: दोहावली
मीरा ने संसार को, दिया नाचता धर्म
उसके स्वर में है छुपा, वंशीधर का मर्म। भक्तों में कोई नहीं, बड़ा सूर से नाम उसने आँखों के बिना, देख लिये घनश्याम तुलसी का तन धारकर, भक्ति हुई साकार उनको पाकर राममय, हुआ सकल संसार। मर्यादा और त्याग का, एक नाम है राम उसमें जो मन रम गया, रहा सदा निष्काम। अपना ही हित साधते, सारे देश विशेष सर्व-भूत-हित-रत सदा, वो है भारत देश। |
25-02-2012, 02:51 PM | #49 |
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Re: दोहावली
जो प्रकाश की साधना, करता आठो याम
आभा रत को जोड़कर, बनता भारत नाम। हमने इक परिवार ही, माना सब संसार सदा सदा से हम रहे, सभी द्वैत के पार। आत्मा के सौन्दर्य का, शब्द रूप है काव्य मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य। दोहा वर है और है, कविता वधू कुलीन जब इनकी भाँवर पड़ी, जन्मे अर्थ नवीन। निर्धन और असहाय थे, जब सब भाव-विचार दोहे ने आकर किया, उन सबका श्रृंगार। |
25-02-2012, 02:52 PM | #50 |
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Re: दोहावली
गागर में सागर भरे, मुँदरी में नवरत्न
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न। जो जन जन के होंठ पर, बसे और रम जाय ऐसा सुन्दर दोहरा, क्यों न सभी को भाय। झूठी वो अनुभूति है, हुआ न जिसका भोग बिन इसके कवि-कर्म तो, है बस क्षय का रोग। दिल अपना दरवेश है, धर गीतों का भेष अलख जगाता फिर रहा, जा-जा देस विदेश। ना तो मैं भवभूत हूँ, ना मैं कालीदास सिर्फ प्रकाशित कर रहा, उनका काव्य प्रकाश। |
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