01-06-2013, 05:51 PM | #1 |
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मूवी रिव्यू
ये जवानी है दीवानी कलाकार : रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण, आदित्य रॉय कपूर, कल्कि कोचलीन, नवीन कौशिक, पूनम जगन्नाथन, फारूख शेख, माधुरी दीक्षित (गेस्ट रोल) निर्माता : करण जौहर, हीरू यश जौहर निर्देशक : अयान मुखर्जी गीत : प्रीतम चक्रवर्ती अवधि : 147mins मूवी टाइप : Romance नई दिल्ली।। सत्तर के दशक से हमारे फिल्मकारों को दर्शकों को दुनिया की सैर कराने का जुनून सवार रहा है। इसी दौर में राज कपूर- राजश्री स्टारर 'अराउंड द वर्ल्ड' में पहली बार दर्शकों को दुनिया के कई देशों को बडे़ पर्दे पर देखने का मौका मिला। इस फिल्म को समीक्षकों ने बुरी तरह से धोया, लेकिन दर्शकों में दुनिया देखने के जबर्दस्त क्रेज के चलते फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रही। फिलहाल, मल्टिप्लेक्स कल्चर के इस दौर में हर दूसरा मेकर मोटे बजट में ऐसी कहानी पर फिल्म बनाना पसंद करता है, जिस फिल्म में उसे विदेशी लोकेशन पर ज्यादा से ज्यादा शूटिंग करने का मौका मिल सके। अयान ने ऐसा सब्जेक्ट चुना जिसमें उन्हें ज्यादा से ज्यादा विदेशी लोकेशन पर फिल्म शूट करने का मौका मिल सके। कहानीः बन्नी (रणबीर कपूर) बेहद खुशमिजाज जिंदादिल युवक है। अपने पापा (फारूख शेख) और स्टेप मॉम के साथ रह रहा बन्नी अपने बनाए कायदे कानूनों पर जीता है। बन्नी का मानना है कि शादी बेकार का झंझट है, इसलिए उसे खूबसूरत लड़कियों से सिर्फ दोस्ती करना पसंद है। बन्नी एक ट्रैवल शो में बतौर विडियोग्राफर जुड़ा है। बन्नी को अभी भी अपने स्कूली दोस्त अदिति (कल्कि कोचलीन) और अवि (आदित्य राय कपूर) के साथ वक्त गुजारना और मौजमस्ती करना पसंद है। तीनों दोस्त मनाली में एक अडवेंचर ट्रिप पर जाने का प्रोग्राम बनाते हैं। ट्रिप की शुरुआत में बन्नी मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर नैना तलवार (दीपिका पादुकोण) से मिलता है, जो अवि, अदिति और उसके साथ स्कूल में पढ़ती थी। नैना की ममी का सपना अपनी इकलौती बेटी को डॉक्टर बनाना है। ममी नहीं चाहती कि नैना स्टडी के अलावा कहीं और अपना ध्यान और वक्त लगाए। नैना अपने ऊपर लगे ममी के प्रतिबंधों से परेशान है, जो उसकी आजादी छीनते हैं। बन्नी से मिलने के बाद नैना को लगता है कि हर वक्त दूसरों के सपनों को पूरा करने के लिए भागने की बजाए उसे अपने लिए वक्त निकालना चाहिए। इस ट्रिप में नैना लंबे अरसे बाद अपनी फ्रेंड अदिति के साथ वक्त गुजारती है, जो बेहद मुंहफट और बिंदास है। अदिति का बेस्ट फ्रेंड अवि उसकी इस आदत को जानते हुए भी उसके साथ वक्त गुजारना पसंद करता है। विस्की और क्रिकेट मैच पर दांव लगाने वाले अवि, अदिति और बन्नी के साथ पहली बार गई नैना को इस ट्रिप में अपनी लाइफ एक बार फिर से इन्जॉय करने का मौका मिलता है। इस ट्रिप के दौरान बन्नी और नैना एक दूसरे के नजदीक आते हैं, लेकिन फिर लंबे अरसे के लिए बिछुड़ जाते है। इस ट्रिप से लौटने के बाद बन्नी अपने अधूरे सपनों को साकार करने यूरोप चला जाता है। बन्नी और नैना की जिंदगी में उस वक्त टर्न आता है जब अदिति अपनी शादी के कार्यक्रमों में शामिल होने का न्योता उन्हें भेजती है। ऐक्टिंगः स्टार्ट टू लास्ट रणबीर-दीपिका की जोड़ी खूब जमी है। इनके बीच की केमिस्ट्री का जवाब नहीं। आंखों पर मोटा चश्मा लगाए दीपिका का लुक खूब निखरा है। इंटरवल के बाद रणबीर कई सीन्स में दीपिका पर भारी नजर आते हैं। आदित्य और कल्कि दोनों अपने किरदारों में फिट हैं। डायरेक्शनः अयान ने विदेशी लोकेशन के अलावा हिमाचल की खूबसूरती को अपने कैमरामैन से बखूबी शूट कराया है। अयान की यह फिल्म दो हिस्सों में बंटी है, इंटरवल से पहले मनाली की अडवेंचर ट्रिप है। सेकंड हाफ उदयपुर में कल्कि की शादी का पार्ट कुछ ज्यादा ही खींचा गया लगता है। मैरिज फंक्शन को बेवजह लंबा किया गया है। संगीतः प्रीतम चक्रवर्ती का संगीत फिल्म की खास बात है। फिल्म के तीन गाने बदतमीज दिल, कबीरा, बलम पिचकारी म्यूजिक लवर्स की जुबान पर हैं। बरसों बाद होली पर प्रीतम ने ऐसा बेहतरीन गाना तैयार किया है जो कई साल तक होली की मस्ती में सुनाई देगा। क्यों देखें: एंटरटेनमेंट का मजेदार तड़का, सुरीला संगीत, रणबीर-दीपिका की गजब केमिस्ट्री, हिमाचल और यूरोप की बेहतरीन लोकेशन फिल्म का प्लस पॉइंट है। इंटरवल के बाद फिल्म की धीमी गति अखरती है।
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15-06-2013, 07:59 PM | #2 |
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Re: मूवी रिव्यू
रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण की फिल्म ये जवानी है दीवानी कमाई के मामले में बॉलीवुड के सितारे आमिर खान और सलमान खान को पीछे छोड़ती हुई दिख रही है। पहले ही हफ्ते में 100 करोड़ की कमाई करने वाली यह फिल्*म अब 150 करोड़ के आंकड़े को पार कर गई है। इस वीकंड और बाद के शोज की संभावित कमाई को जोड़ दिया जाय तो यह संभवत: 200 करोड़ रुपये के क्*लब के नजदीक या फिर उसके पार जाती दिख रही है। राजकुमार हिरानी के निर्देशन में बनी 3 इंडियट्स ने 202 करोड़ रुपये की कमाई की थी जो किसी भारतीय फिल्*म की सबसे अधिक कमाई है। इसके बाद सलमान खान की फिल्*म एक था टाइगर ने कलेक्शन के मामले में बराबर की टक्कर दी, लेकिन यह फिल्*म 199 करोड़ रुपये की कमाई कर थम गई। बॉलीवुड के जाने माने ट्रेड एक्सपर्ट तरन आदर्श ने ट्वीट किया है कि भारत में ये जवानी है दीवानी जिस तरह से बिजनेस कर रही है उसे देखकर लगता है कि आमिर खान की 3इडियट्स और सलमान खान की एक था टाइगर फिल्म के बाद ये सबसे ज्यादा कलेक्शन करने वाली तीसरी फिल्म होगी।
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21-06-2013, 07:58 AM | #3 |
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Re: मूवी रिव्यू
मूवी रिव्यूः रांझना डायरेक्टर आनंद एल. राय ने जब अपनी पिछली सुपर हिट फिल्म 'तनु वेड्स मनु' का सीक्वल बनाने के बजाए रांझना बनाने का फैसला किया, तभी साफ हो गया था इस बार आनंद कुछ नया करने की फिराक में हैं। इन दिनों जब बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी का क्रेडिट टॉप हीरो के नाम रहता है तो आनंद की दोनों फिल्मों को नायिकाओं के इर्दगिर्द घूमती फिल्में कहा जा सकता है। स्क्रिप्ट की डिमांड पर आनंद ने तमिल ऐक्टर धनुष को लीड किरदार में लेकर कहानी को मुंबइया चॉकलेटी हीरो से कोसों दूर ऐसी जमीन पर शुरू किया जो फिल्म को वास्तविकता के और ज्यादा नजदीक ले जाती है। कहानी: बनारस की तंग गलियों में बने घाटों के बीच एक मंदिर में कुंदन (धनुष) की फैमिली तमिलनाडु से आकर सेटल हो चुकी है। इन्हीं तंग गालियों में नन्हा कुंदन अपने सबसे खास दोस्त मुरली (जीशान) और हवलदार की बेटी बिंदिया के साथ दिन भर मौज मस्ती करता है। 10 साल के कुंदन ने पहली बार जब जोया (सोनम कपूर) को देखा तो वह नमाज अता कर रही थी। पहली नजर में उसका दिल जोया पर ऐसा अटका कि स्कूल जाने से लेकर घर आने तक कभी उसने जोया का पीछा नहीं छोड़ा। उसका नाम जानने के लिए ही कुंदन ने मुहल्ले में जोया से पंद्रह थप्पड़ खाए। जोया के अब्बा को जब इस बारे में पता लगा तो उन्होंने उसे आगे की स्टडी के लिए अपने रिश्तेदार के पास अलीगढ़ भेज दिया। अलीगढ़ से आगे की स्टडी दिल्ली में पूरी करने के बाद जोया जब बनारस पहुंची तो बचपन में उसके प्यार की खातिर अपनी कलई तक काट चुके कुंदन को लगा इस बार उसे अपने दिल की बात बता ही दी जाए। अपने खास दोस्त मुरली की सलाह मानकर कुंदन जोया से अपने प्यार का इजहार करने पहुंचा। कुंदन कुछ कह पाता, इससे पहले ही जोया ने उसे बता दिया कि दिल्ली में स्टडी के दौरान उसे अकरम (अभय देओल) से प्यार हो गया है। जोया चाहती है कि अकरम से निकाह कराने के लिए कुंदन उसकी फैमिली को राजी करे। बचपन के बाद एक बार फिर जवानी में प्यार में मात खाकर कुंदन ने इस बार फिर कलई तो काट ली लेकिन इस बार उसे अब लग गया कि जोया उसे बस अपना दोस्त मानती है और उसे भी एक अच्छे दोस्त की तरह जोया की मदद करनी चाहिए। कुंदन अपने मकसद में कामयाब भी हो जाता है। जोया की फैमिली अकरम और जोया के निकाह के लिए राजी हो जाती है, लेकिन इसी बीच ऐसा कुछ होता है कि कुंदन जोया की नजरों में नायक से खलनायक बन जाता है। ऐक्टिंग : साउथ से आए तमिल एक्टर धनुष ने ठेठ बनारसी छोरे के किरदार के लिए जबर्दस्त मेहनत की है। धनुष ने हिंदी और बनारस की गालियां सीखने के लिए वहीं के लोगों के बीच कई दिन गुजारे। अभय को बेशक फुटेज कम मिली है लेकिन अपनी बेहतरीन ऐक्टिंग से उन्होंने अपने किरदार में जान डाल दी है। सोनम ने स्कूल की लड़की के किरदार से लेकर नुक्कड़ नाटक करने वाली जोया के किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है। इंटरवल से पहले सोनम का किरदार कुछ दबा सा लगता है, लेकिन इंटरवल के बाद सोनम ने अच्छा काम किया। मोहम्मद जीशान ने कुंदन के दोस्त मुरारी के किरदार में जान डाल दी है। थिएटर ग्रुप अस्मिता की शिल्पी मारवाह और अरविंद गौड़ फिल्म में नजर आए। डायरेक्शन : आनंद एल. राय की स्क्रिप्ट पर अच्छी पकड़ है। बनारस की रियल लोकेशन पर उन्होंने हर किरदार के साथ अच्छी मेहनत की है। इंटरवल के बाद कहानी की रफ्तार सुस्त पड़ती है, लेकिन आखिरी 10 मिनट की फिल्म का जवाब नहीं। आनंद की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने हर किरदार को अच्छी फुटेज दी। संगीत: ए. आर. रहमान का संगीत फिल्म का प्लस पॉइंट है। 'तुम तक' और 'टाइटल ट्रैक' पहले ही हिट हो चुके हैं। क्यों देखें : एक ऐसी लव स्टोरी जो शुरू से आखिर तक आपको बांधे रखती है। दिल्ली और बनारस की लोकेशन, धनुष और मोहम्मद अयूब की बेहतरीन ऐक्टिंग। इंटरवल के बाद इकतरफा चलती इस लव स्टोरी में राजनीति का पुट अखरता है। -चंद्रमोहन शर्मा |
26-06-2013, 04:22 PM | #4 |
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Re: मूवी रिव्यू
प्रेम कहानी वाली फिल्म 'रांझणा' ने बॉक्स ऑफिस पर बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए विश्व स्तर पर पहले सप्ताहांत पर 31.5 करोड़ रुपयों की कमाई की. आनंद एल. राय द्वारा निर्देशित इस फिल्म के निर्माण पर 35 करोड़ का लागत आने की बात कही गई है. शुक्रवार को इस फिल्म को देश में 1,400 सिनेमाघरों में तथा देश से बाहर 220 से अधिक सिनेमाघरों में रिलीज किया गया. पहले सप्ताहांत में फिल्म ने भारत के बॉक्स ऑफिस पर 26.5 करोड़ रुपयों की तथा भारत से बाहर पांच करोड़ रुपयों की कमाई की. फिल्म में आकर्षण के प्रमुख बिंदु इसमें बनारस की पृष्ठभूमि, ए. आर. रहमान द्वारा दिया गया कर्णप्रिय संगीत, धनुष द्वारा निभाया गया पूजा-पाठ प्रेमी का जीवंत किरदार तथा जमीन से जुड़ी वास्तविक सी लगतीं सोनम कपूर हैं. फिल्म में सोनम के अभिनय की भी खूब तारीफ की जा रही है. |
27-06-2013, 11:48 AM | #5 |
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Re: मूवी रिव्यू
हिट है वोस
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
27-06-2013, 03:11 PM | #6 |
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Re: मूवी रिव्यू
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14-07-2013, 12:15 PM | #7 |
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Re: मूवी रिव्यू
'भाग मिल्खा भाग'
महानतम भारतीय महात्मा गांधी के जीवन पर आधारित फिल्म गांधी (१९८२) की ही तरह यह फिल्म भी अपने त्रासद अंत से शुरू होती है। निश्चित ही मिल्खा सिंह अभी हमारे बीच हैं और माशाअल्ला चुस्त -दुरूस्त हैं, लेकिन फिल्म १९६० के रोम ओलिंपिक्स् की उस ४०० मीटर दौड़ से शुरू होती है, जब मिल्खा ने पलभर के लिए पीछे पलटकर देखा था और ऐसा लगा कि इसी के साथ वे एक महत्वापूर्ण पदक जीतने से चूक गए। जैसा कि सभी जानते हैं, मिल्खा उस दौड़ में चौथे क्रम पर आए थे और एक पल के बहुत छोटे-से अंतराल से कांस्य् पदक चूक गए थे। दक्षिण अफ्रीका के मैल्कपम स्पेंस ने उन्हें पछाड़ दिया था, जबकि अमेरिका के ओटिस डेविस स्व्र्ण पदक जीतने में कामयाब रहे थे। लेकिन इस फिल्म में हमें ये नाम सुनाई नहीं देते, क्योंरकि जाहिर है यह फिल्म केवल और केवल मिल्खा सिंह के बारे में है। फिल्म का शीर्षक जरूर हमें फ़ॉरेस्टह गम्प की उस यादगार पंक्ति की याद दिलाता है : रन फ़ॉरेस्टट रन। निश्चित ही, फिल्मं के परदे पर सभी के आकर्षण के केंद्र में ३९ वर्षीय अभिनेता फरहान अख्तचर हैं, जो मिल्खा सरीखे लंबे बालों, दाढ़ी, कद-काठी और फिटनेस के चलते बिल्कुल किसी पेशेवर एथलीट की तरह नजर आते हैं। फिल्मा के परदे पर उन्हें इतनी बार दिखाया जाता है कि हम समझ जाते हैं कि फिल्मकार उनके इस हुलिये पर इतना ही फिदा है, जितनी वह दर्शकों से भी फिदा होने की उम्मीद करता है। डॉन २ का निर्देशन करने के बाद से ही फरहान महीनों से प्रशिक्षण ले रहे थे, ताकि इस फ्लाइंग सिख के जैसे नजर आ सकें। निश्चित ही फरहान की देहयष्टि मैदान में दौड़ लगाने वाले किसी एथलीट के बजाय जिम में तैयार की हुई है, इसके बावजूद इस भूमिका के लिए उनका समर्पण उनके समकालीन अभिनेताओं के साथ ही दर्शकों के लिए भी प्रेरक होना चाहिए। ऐसा कम ही होता है कि कोई अभिनेता किसी भूमिका के लिए खुद को इस तरह बदल डाले। और फिर ऐसे किरदार भी तो कम ही हैं, जो किसी अभिनेता से ऐसे समर्पण की मांग करें। अलबत्ता फिल्म गांधी के उलट यह फिल्मै वहां खत्म नहीं होती, जहां वह शुरू हुई थी। फिल्म के प्रारंभ में दिखाई गई त्रासद घटना वास्तव में उनके जीवन में एक के बाद आने वाली मुसीबतों की ही एक कड़ी है, फिर चाहे वह देश के बंटवारे के दौरान अपने माता-पिता को गंवा देना हो, शुरुआती दौर में गरीबी का दंश झेलना हो, जवानी के दौरान भटकाव हो, सच्ची मोहब्बत की नाकाम तलाश हो या कॅरियर के ही सवालात हों। यदि इस कहानी को अधिक सरलता के साथ सुनाया जाता तो यह फरहान द्वारा ही निर्देशित फिल्म लक्ष्यथ की तरह होती, जिसमें एक लक्ष्यॅहीन नौजवान आखिरकार अपनी जिंदगी का एक मकसद खोज लेता है। लेकिन इस फिल्मह की कहानी टुकड़ों-टुकड़ों में सुनाई गई है। मिल्खा के प्रारंभिक मेंटर (लाजवाब अभिनेता पवन मलहोत्रा) यह कहानी सुनाते हैं। मिल्खाल खुद अपनी जिंदगी के कुछ हिस्सों को फिर से याद करते हैं, जिससे फ्लैशबैक के भीतर फ्लैशबैक की एक श्रंखला निर्मित हो जाती है। इससे यह फिल्मे न तो पूरी तरह से एक स्पोर्ट्स फिल्म बन पाती है, जिसमें एक बिखरा हुआ आखिरकार इंसान बुलंदियों को छूने में क़ामयाब हो जाता है, और न ही यह एक मानवीय दस्तावेज़ बन पाती है, जिसमें शरणार्थी शिविरों में पल रहा एक यतीम बच्चा इस दुनिया में अपनी एक जगह खोज निकालता है। यदि हम यह जानना चाहते हैं कि मिल्खा तमाम मुश्किल हालात के बावजूद भारत के सबसे तेज़ धावक कैसे बने, तो इसमें भी फिल्मा की गुंथी हुई कहानियां हमारी ज्यादा मदद नहीं करतीं। हमें इस कहानी को सुनाए जाने के बजाय खुद उसे घटित होते हुए देखने की जरूरत थी। मिल्खा चाकू चलाने वाले लफंगे बच्चों की तरह दिखाए जाते हैं। स्लमडॉग मिलियनेअर के बच्चों की तरह वे ट्रेन में ही बच्चे से जवान होते हैं। यह उनकी जिंदगी का एक दिलचस्प आयाम था, लेकिन इसे जल्दी् में निपटा दिया जाता है। यकीनन, इस फिल्म* का अंतिम लक्ष्य हमें यह दिखाना है कि मिल्खा एक चैंपियन धावक कैसे बनते हैं। उनके रास्ते में रूकावटें आती रहती हैं और मंजिलें दूर खिसकती रहती हैं। लेकिन जब मिल्खो अपने रनिंग टाइम पर नजर रखे होते हैं, तभी हम सुनते हैं कि युवाओं का एक समूह गाना गाने लगा है और इसी के साथ हम इस फिल्म को एक दूसरी ही दिशा में जाते देखते हैं। इसकी तुलना में तिग्मांशु धुलिया की पान सिंह तोमर कहीं बेहतर फिल्म थी। चूंकि ये दोनों ही फिल्में एक धावक की जिंदगी की असल कहानी बयां करती हैं इसलिए इनकी तुलना से बचा नहीं जा सकता। पान सिंह तोमर की तुलना में यह फिल्मी कहीं बड़े पैमाने पर बनाई गई है, लेकिन इसमें उस जैसी धार नहीं है। फिल्म का दृश्यल विधान अद्भुत है, लेकिन उसे नाहक ही लंबा और बोझिल बनाया गया है। जहां तीन तमाचों की दरकार थी, वहां दस तमाचे मारे जाते हैं, सीक्वेंस को अकारण लंबा खींचा जाता है, आप जानते हैं मैं क्या कहना चाह रहा हूं! पता नहीं इसका कारण कहीं यह तो नहीं कि यह फिल्म एक जीवित व्यक्ति के बारे में है। फिल्म के पटकथा लेखक प्रसून जोशी इस कहानी को चाहे जो रचनात्मक पुट दें, उसके वास्तमविक लेखक तो मिल्खा सिंह ही रहेंगे। फिर यह फिल्मा किसी किताब पर भी आधारित नहीं है, जैसे मिसाल के तौर पर शेखर कपूर की लाजवाब फिल्म बैंडिट क्वीन थी, जो फूलन देवी के जीवनकाल में ही प्रदर्शित की गई थी। लेकिन इन तमाम कारणों के बावजूद मिल्खा सिंह की जिंदगी की कहानी में जो दम है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हम बचपन से ही यह जोक सुनते आ रहे हैं कि १९५६ के मेलबोर्न ओलिंपिक में जब मिल्खा सिंह से एक खूबसूरत लड़की ने पूछा था कि इज़ ही रिलैक्सिंग तो मिल्खा ने जवाब दिया था, नो, ही इज़ मिल्खा। लेकिन अब इस मजाक का कोई वजूद नहीं रह गया है। सालों से मिल्खा सिंह का नाम एक ऐसे भारतीय की कहानी के रूप में किंवदंतियों का हिस्सा् बन गया है, जो अपनी बदकिस्*मती के कारण एक वैश्विक जीत हासिल करने से चूक गया था, उड़नपरी पी टी उषा की ही तरह, जो १९८४ के एलए ओलिंपिक में महज़ ०.१ सेकंड से कांस्य पदक चूक गई थीं, या फिल्म मदर इंडिया की तरह, जो महज़ एक वोट से ऑस्कर की दौड़ में पिछड़ गई थी, या हमारे उन फुटबॉलरों की तरह, जो क्वावलिफाई करने के बावजूद १९५० में ब्राजील में हुए विश्व कप में शरीक नहीं हो सके थे. यह फिल्म रोम ओलिंपिक तक पहुंचने की मिल्खा की उस कहानी को बयां करती है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। साथ ही यह हमें बंटवारे की भयावह तस्वीरें भी दिखाती है और मिल्खा की जमीनी-आत्मविश्वभस्ती शख्सियत के चलते हमारा मन भी बहलाती है। इसमें कोई शक नहीं कि यह इस साल की सबसे बहुप्रतीक्षित फिल्मों में से एक थी और लोगों को इससे महानता से किसी भी तरह की कमतरी की उम्मीद नहीं थी। तो क्या चूक हमसे ही हुई है? क्या यह हमारी ही भूल है कि हम किसी फिल्म से इतनी ज्यादा उम्मीदें पाल लेते हैं? लेकिन क्या हमारे साथ ऐसा बार-बार नहीं होता?
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20-07-2013, 04:37 PM | #8 |
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Re: मूवी रिव्यू
फिल्म ‘डी-डे’
‘डी डे’ दाउद जिसकी आखिरी पब्लिक तस्वीर 20 साल पहले की है वो आज भी एक दिलचस्प किरदार बना हुआ है। खासकर फिल्ममेकर्स के लिए जिनके पास इस मोस्टवांटेड टेररिस्ट को लेकर स्क्रिप्ट की कोई कमी नहीं है। इनमें लेटेस्ट निखिल आडवाणी की डी डे। ये एक अच्छी थ्रिलर फिल्म है जो 1993 ब्लास्ट के दोषी दाउद को पकड़ने की मुहिम पर है। दाउद का किरदार फिल्म में इकबाल शेख के नाम से चर्चित है। हम सबसे पहले उनको देखते हैं गोल्डमेन जिसके किरदार में है बड़ी मुछों और गुलाबी रंग के चश्मे पहने ऋषि कपूर। हम सबसे पहले उनको देखते हैं फिल्म के शानदार ओपनिंग सीक्वेंस में जहां वो कराची के होटल में हो रही शादी में आता है, और कड़ी सुरक्षा के बावजूद उसे पकड़ने का प्लान जारी है। फिल्म का क्रिस्पी फर्स्ट हाफ खुलता है फ्लैश बैक में जो इस ड्रामा को बहुत ही अच्छे से सेट करता है, इंडिया की रिसर्च और एनालिसिस विंग यानी रॉ के अध्यक्ष ऑपरेशन गोल्डमन शुरू करते है। इंडिया में हुए एक और ब्लास्ट के बाद जिसे अंजाम देने वाले मास्टरमाइंड टेररिस्ट पाकिस्तान में छुपा हुआ है। अंडरकवर एजेंट्स की टीम इकबाल को ढूढ़ने निकली है जो अपने बेटे की शादी में जाने के लिए तैयार हो रहा है। इस अंडरकवर एजेंट्स की टीम में शामिल हैं वाली यानी इरफ़ान खान, रूद्र यानी अर्जुन रामपाल, जोया यानी हुमा कुरेशी और असलम यानी आकाश दहिया ।फैक्ट्स और फिक्शन के साथ खेलती हुई ये फिल्म थ्रिल्स के लिए लॉजिक को भुला देती है, तेज़ गति से आगे बढ़ रही स्क्रिप्ट कहीं पर धीमी पड़ जाती है वो एजेंट्स को अपनी फैमिली और अपने लवर्स के साथ टाइम बिताती हुए दिखाते हैं। रूद्र की मुलाकात होती है रेड लाइट डिस्ट्रीक्ट की एक खुबसूरत लड़की से इस किरदार में श्रुति हासन पूरी तरह से कमिटेड हैं। डी डे अपने कड़क एक्शन, हैंड हेल्ड कैमरा वर्क और शार्प एडिटिंग के बावजूद ‘एक था टाइगर’, और ‘एजेंट विनोद’ की टोन को ज्यादा मैच करती है बजाय ‘जीरो डार्क थर्टी’ के फिल्म ट्रैप्स से बच नहीं पाती और रियल तिलिस्म से ज्यादा फ़िल्मी हेरोइस्म दिखाने से नहीं हटती। इसकी कमियों के बावजूद फिल्म का सेकंड हाफ थोड़ा दिलचस्प है, जिसमें शामिल हैं। यहां फिल्म के डायरेक्टर इस इम्पोर्टेंट पॉइंट को भी छूते है की कैसे सरकार अक्सर अपने सीक्रेट एजेंट्स को लेकर अपने हाथ खड़े कर देती है, जब मिशन फ़ेल हो जाता है। ये कुछ ऐसे मोमेंट्स हैं जो फिल्म को थोड़ा हट कर बनाती है। फिल्म का काफी क्रेडिट जाता है इसकी कमिटेड कास्ट को भी। परिवार और मिशन के बीच फंसने वाली की जतोजहद को इरफ़ान खान बहुत ही खूबी से दर्शाते हैं।और बागी और हमेशा गुस्से से भरे अर्जुन रामपाल अपना सबसे बेहतरीन परफॉरमेंस देते हैं। टैलेंटेड हुमा कुरैशी को यहां पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं किया गया है। पर वो अपना हिस्सा बहुत ही अच्छे से निभाती हैं। और यहां पर मैं नाम लेना चाहूंगा चंदन रॉय संयल का भी जो इकबाल के सनकी भांजे और राईट हैंड मैन के किरदार में बेहतरीन है। और गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले ऋषि कपूर की जितनी तारीफ की जाए कम है, जो फिल्म की दो अलग-अलग टोंस में खुद को बहुत बेहतरीन तरीके से एडाप्ट करते है। डी डे एक परफेक्ट फिल्म से बहुत दूर है, पर एक बॉलीवुड एक्शन थ्रिलर के तौर पर ये पैसा वसूल है, मैं इसे पांच में से तीन स्टार देता हूं। ये देखने लायक है।
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02-08-2013, 06:51 PM | #9 |
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Re: मूवी रिव्यू
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