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Old 08-12-2010, 12:35 PM   #21
ABHAY
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Post Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~

सातवां बयान
अहमद के पकड़े जाने से नाजिम बहुत उदास हो गया और क्रूरसिंह को तो अपनी ही फिक्र पड़ गई कि कहीं तेजसिंह मुझको भी न पकड़ ले जाये ! इस खौफ से वह हरदम चौकन्ना रहता था, मगर महाराज जयसिंह के दरबार में रोज आता और वीरेन्द्रसिंह के प्रति उनको भड़काया करता।

एक दिन नाजिम ने क्रूरसिंह को यह सलाह दी कि जिस तरह हो सके अपने बाप कुपथसिंह को मार डालो, उसके मरने के बाद जयसिंह जरूर तुमको मंत्री (वजीर) बनायेंगे, उस वक्त तुम्हारी हुकूमत हो जाने से सब काम बहुत जल्द होगा।

आखिर क्रूरसिंह ने जहर दिलवाकर अपने बाप को मरवा डाला। महाराज ने कुपथसिंह के मरने पर अफसोस किया और कई दिन तक दरबार में न आये। शहर में भी कुपथसिंह के मरने का गम छा गया।

क्रूरसिंह ने जाहिर में अपने बाप के मरने का भारी मातम (गम) किया और बारह रोज के वास्ते अलग बिस्तर जमाया। दिन भर तो अपने बाप को रोता पर रात को नाजिम के साथ बैठकर चन्द्रकान्ता से मिलने तथा तेजसिंह और वीरेन्द्रसिंह को गिरफ्तार करने की फिक्र करता। इन्हीं दिनों वीरेन्द्रसिंह ने भी शिकार के बहाने विजयगढ़ की सरहद पर खेमा डाल दिया था, जिसकी खबर नाजिम ने क्रूरसिंह को पहुंचाई और कहा, -‘‘वीरेन्द्रसिंह जरूर चन्द्रकान्ता की फिक्र में आया है, अफसोस ! इस समय अहमद न हुआ नहीं तो बड़ा काम निकलता। खैर, देखा जाएगा। ’’ वह कह क्रूरसिंह से बिदा हो बालादवी* के वास्ते चला गया।

तेजसिंह वीरेन्द्रसिंह से रुखसत हो विजयगढ़ पहुंचे और मंत्री के मरने तथा शहर भर में गम छाने का हाल लेकर वीरेन्द्रसिंह के पास लौट आये। यह भी खबर लाये कि दो दिन बाद सूतक निकल जाने पर महाराज जयसिंह क्रूर को अपना दीवान बनायेंगे।
वीरेन्द्रसिंहः देखो, क्रूर ने चन्द्रकान्ता के बाप को मार डाला। अगर राजा को भी मार डाले तो ऐसे आदमी का क्या ठिकाना !
तेजसिंह: सच है, वह नालायक जहाँ तक भी होगा राजा पर भी बहुत जल्द हाथ फेरेगा, अस्तु अब मैं दो दिन चन्द्रकान्ता के महल में न जाकर दरबार ही का हालचाल लूंगा, हाँ, इस बीच में अगर मौका मिल जाय तो देखा जायगा।
वीरेन्द्रसिंहः सो सब कुछ नहीं, चाहे जो हो, आज मैं चन्द्रकान्ता से जरूर मुलाकात करूँगा।
तेजसिंह: आप जल्दी न करें, जल्दी ही सब कामों को बिगाड़ती है।
वीरेन्द्रः जो भी हो, मैं तो जरूर जाऊंगा।

तेजसिंह ने बहुत समझाया मगर चन्द्रकान्ता की जुदाई में उनको भला-बुरा क्या सूझता था ! एक न मानी और चलने के लिए तैयार हो ही गये। आखिर तेजसिंह ने कहा, ‘‘खैर, नहीं मानते तो चलिए, जब आपकी ऐसी मर्जी है तो हम क्या करें ! जो कुछ होगा देखा जायगा।’’

शाम के वक्त ये दोनों टहलने के लिए खेमे के बाहर निकले और अपने प्यादों से कह गये कि अगर हम लोगों के आने में देर हो तो घबराना मत। टहलते हुए दोनों विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

कुछ रात गई होगी जब चन्द्रकान्ता के उसी नजरबाग के पास पहुँचे जिसका हाल पहले लिख चुके हैं।
रात अंधेरी थी इसलिए इन दोनों को बाग में जाने के लिए कोई तरद्दुद न करना पड़ा, पहरे वालों को बचाकर कमन्द फेंका और उसके जरिए बाग के अन्दर एक घने पेड़ के नीचे खड़े हो इधर उधर- निगाह दौड़ा कर देखने लगे।
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Old 08-12-2010, 12:37 PM   #22
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Post Re: ~!!चन्द्रकान्ता!!~

बाग के बीचोबीच संगमरमर के एक साफ चिकने चबूतरे पर मोमी शमादान जल रहा था चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी बातें कर रही थीं। चपला बातें भी करती जाती थी और इधर-उधर तेजी के साथ निगाह भी दौड़ा रही थी।
चन्द्रकान्ता को देखते ही वीरेन्द्रसिंह का अजब हाल हो गया, बदन में कंपकंपी होने लगी, यहाँ तक कि बेहोश होकर गिर पड़े। मगर वीरेन्द्रसिंह की यह हालत देख तेजसिंह पर कोई प्रभाव न हुआ, झट अपने ऐयारी बटुए से लखलखा निकाल सुंघा दिया और होश में लाकर कहा, ‘‘देखिए, दूसरे के मकान में आपको इस तरह बेसुध न होना चाहिए। अब आप अपने को सम्हालिए और इसी जगह ठहरिए, मैं जाकर बात कर आऊं तब आपको ले चलूं।’’ यह कह उन्हें उसी पेड़ के नीचे छोड़ उस जगह गये जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी थीं। तेजसिंह को देखते ही चन्द्रकान्ता बोली, ‘‘क्यों जी इतने दिन कहाँ रहे ? क्या इसी का नाम मुरव्वत है ? अबकी आये तो अकेले ही आये। वाह, ऐसा ही था तो हाथ में चूड़ी पहन लेते, जवांमर्दी की डींग क्यों मारते हैं! जब उनकी मुहब्बत का यही हाल है तो मैं जीकर क्या करूंगी ?’’ कहकर चन्द्रकान्ता रोने लगी, यहाँ तक कि हिचकी बंध गई। तेजसिंह उसकी हालत देख बहुत घबराये और बोले, ‘‘बस, इसी को नादानी कहते हैं ! अच्छी तरह हाल भी न पूछा और लगीं रोने, ऐसा ही है तो उनको लिये आता हूँ !’’
यह कहकर तेजसिंह वहाँ गये जहाँ वीरेन्द्रसिंह को छोड़ा था और उनको अपने साथ ले चन्द्रकान्ता के पास लौटे। चन्द्रकान्ता वीरेन्द्रसिंह के मिलने से बड़ी खुश हुई, दोनों मिलकर खूब रोए, यहाँ तक कि बेहोश हो गये मगर थोड़ी देर बाद होश में आ गये और आपस में शिकायत मिली मुहब्बत की बात करने लगे।
अब जमाने का उलट-फेर देखिए। घूमता-फिरता टोह लगाता नाजिम भी उसी जगह आ पहुँचा और दूर से इन सबों की खुशी भरी मजलिस देखकर जल मरा। तुरन्त ही लौटकर क्रूरसिंह के पास पहुंचा। क्रूरसिंह ने नाजिम को घबराया हुआ देखा और पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात है जो तुम इतना घबराये हुए हो ?’’
नाजिमः है क्या, जो मैं सोचता था वही हुआ ! यही वक्त चालाकी का है, अगर अब भी कुछ न बन पड़ा तो बस तुम्हारी किस्मत फूट गई, ऐसा ही समझना पड़ेगा।
क्रूरसिंहः तुम्हारी बातें तो कुछ समझ में नहीं आतीं, खुलासा कहो, क्या बात है ?
नाजिमः खुलासा बस यही है कि वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता के पास पहुंच गया और इस समय बाग में हंसी के कहकहे उड़ रहे हैं।
यह सुनते ही क्रूरसिंह की आंखों के आगे अन्धेरा छा गया, दुनिया उदास मालूम होने लगी, कहीं तो बाप के जाहिरी गम में वह सर मुड़ाए बरसाती मेंढक बना बैठा था, तेरह रोज कहीं बाहर जाना हो ही नहीं सकता था, मगर इस खबर ने उसको अपने आपे में न रहने दिया, फौरन उठ खड़ा हुआ और उसी तरह नंग-धड़ंग औंधी हाँडी-सा सिर लिए महाराज जयसिंह के पास पहुंचा। जयसिंह क्रूरसिंह को इस तरह आया देख हैरान हो बोले, ‘‘क्रूरसिंह, सूतक और बाप का गम छोड़ कर तुम्हारा इस तरह आना मुझको हैरानी में डाल रहा है।
क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘महाराज, हमारे बाप तो आप हैं, उन्होंने तो पैदा किया, परवरिश आप की बदौलत होती है। जब आपकी इज्जत में बट्टा लगा तो मेरी जिन्दगी किस काम की है और मैं किस लायक गिना जाऊंगा ?’’
जयसिंह : (गुस्से में आकर) क्रूरसिंह ! ऐसा कौन है जो हमारी इज्जत बिगाड़े ?
क्रूरसिंहः एक अदना आदमी।
जयसिंह : (दांत पीसकर) जल्दी बताओ, वह कौन है, जिसके सिर पर मौत सवार हुई है ?
क्रूरसिंहः वीरेन्द्रसिंह !
जयसिंह : उसकी क्या मजाल जो मेरा मुकाबला करे, इज्जत बिगाड़ना तो दूर की बात है ! तुम्हारी बात कुछ समझ में नहीं आती, साफ-साफ जल्द बताओ, क्या बात है ? वीरेन्द्रसिंह कहाँ हैं ?
क्रूरसिंहः आपके चोर महल के बाग में !

* बालादवी-टोह लेने के लिए गश्त करना।
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Old 08-12-2010, 12:38 PM   #23
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आठवां बयान
वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता से मीठी-मीठी बातें कर रहे हैं, चपला से तेजसिंह उलझ रहे हैं, चम्पा बेचारी इन लोगों का मुंह ताक रही है। अचानक एक काला कलूटा आदमी सिर से पैर तक आबनूस का कुन्दा, लाल-लाल आंखें, लंगोटा कसे, उछलता-कूदता इस सबके बीच में आ खड़ा हुआ। पहले तो ऊपर नीचे दांत खोल तेजसिंह की तरफ दिखाया, तब बोला, ‘‘खबरी भई राजा को तुमरी सुनो गुरुजी मेरे।’’ इसके बाद उछलता कूदता चला गया। जाती बार चम्पा की टांग पकड़ थोड़ी दूर घसीटता ले गया, आखिर छोड़ दिया। यह देख सब हैरान हो गये और डरे कि यह पिशाच कहां से आ गया, चम्पा बेचारी तो चिल्ला उठी मगर तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह का हाथ पकड़ के बोले, ‘‘चलो, जल्दी उठो, अब बैठने का मौका नहीं !’’ चन्द्रकान्ता की तरफ देखकर बोले, ‘‘हम लोगों के जल्दी चले जाने का रंज तुम मत करना और जब तक महाराज यहां न आयें इसी तरह सब-की-सब बैठी रहना।’’

चन्द्रकान्ता: इतनी जल्दी करने का सबब क्या है और यह कौन था जिसकी बात सुनकर भागना पड़ा ?
तेजः (जल्दी से) अब बात करने का मौका नहीं रहा।
यह कहकर वीरेन्द्रसिंह को जबरदस्ती उठाया और साथ ले कमन्द के जरिए बाग के बाहर हो गये।

चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह का इस तरह चला जाना बहुत बुरा मालूम हुआ ! आंखों में आंसू पर चपला से बोली, ‘‘यह क्या तमाशा हो गया, कुछ समझ में नहीं आता। उस पिशाच को देखकर मैं कैसी डरी, मेरे कलेजे पर हाथ रखकर देखो, अभी तक धड़धड़ा रहा है ! तुमने क्या खयाल किया ?’’

चपला ने कहा, ‘‘कुछ ठीक समझ में नहीं आता, हाँ, इतना जरूर है कि इस समय वीरेन्द्रसिंह के यहाँ आने की खबर महाराज को हो गई है, वे जरूर आते होंगे।’’ चम्पा बोली, ‘‘ न मालूम मुए को मुझसे क्या दुश्मनी थी ?’’

चम्पा की बात पर चपला को हंसी आ गई मगर हैरान थी कि यह क्या खेल हो गया ? थोड़ी देर तक इसी तरह की ताज्जुब भरी बातें होती रहीं, इतने में ही बाग के चारों तरफ शोरगुल की आवाजें आने लगीं। चपला ने कहा, ‘‘रंग बुरे नजर आने लगे, मालूम होता है बाग को सिपाहियों ने घेर लिया।’’ बात पूरी भी न होने पाई थी कि सामने महाराज आते हुए दिखाई पड़े।

देखते ही सब-की-सब उठ खड़ी हुईं। चन्द्रकान्ता ने बढ़कर पिता के आगे सिर झुकाया और कहा, ‘‘इस समय आपके एकाएक आने...!’’ इतना कहकर चुप हो रही। जयसिंह ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, तुम्हें देखने को जी चाहा इसी से चले आये। अब तुम भी महल में जाओ, यहाँ क्यों बैठी हो ? ओस पड़ती है, तुम्हारी तबीयत खराब हो जायगी।’’ यह कहकर महल की तरफ रवाना हुए।
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Old 08-12-2010, 12:39 PM   #24
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चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा भी महाराज के पीछे-पीछे महल में गईं। जयसिंह अपने कमरे में आये और मन में बहुत शर्मिन्दा होकर कहने लगे, ‘‘देखो, हमारी भोली-भाली लड़की को क्रूरसिंह झूठ-मूठ बदनाम करता है। न मालूम इस नालायक के जी में क्या समाई है, बेधड़क उस बेचारी को ऐब लगा दिया, अगर लड़की सुनेगी तो क्या कहेगी ? ऐसे शैतान का तो मुंह न देखना चाहिए, बल्कि सजा देनी चाहिए, जिससे फिर ऐसा कमीनापन न करे।’’ यह सोच हरीसिंह नामी एक चोबदार को हुक्म दिया कि बहुत जल्द क्रूर को हाजिर करे।

हरीसिंह क्रूरसिंह को खोजता हुआ और पता लगाता हूआ बाग के पास पहुंचा जहां वह बहुत से आदमियों के साथ खुशी-खुशी बाग को घेरे हुए था। हरीसिंह ने कहा, ‘‘चलिए, महाराज ने बुलाया है।’’क्रूरसिंह घबरा उठा कि महाराज ने क्यों बुलाया ? क्या चोर नहीं मिला ? महाराज तो मेरे सामने महल में चले गये थे। हरीसिंह से पूछा, ‘‘महाराज क्या कह रहे हैं ?’’ उसने कहा, ‘‘अभी महल से आये हैं, गुस्से से भरे बैठे हैं, आपको जल्दी बुलाया है।’’ यह सुनते ही क्रूरसिंह की नानी मर गई। डरता कांपता हरीसिंह महाराज के पास पहुंचा।

महाराज ने क्रूरसिंह को देखते ही कहा, ‘‘क्यों बे क्रूर ! बेचारी चन्द्रकान्ता को इस तरह झूठ-मूठ बदनाम करना और हमारी इज्जत में बट्टा लगाना, यही तेरा काम है ? यह इतने आदमी जो बाग को घेरे हुए हैं अपने जी में क्या कहते होंगे ? नालायक, गधा, पाजी, तूने कैसे कहा कि महल में वीरेन्द्र है !’’

मारे गुस्से के महाराज जयसिंह के होंठ काँप रहे थे, आंखें लाल हो रही थीं। यह कैफियत देख क्रूरसिंह की तो जान सूख गई, घबरा कर बोला, ‘‘मुझको तो यह खबर नाजिम ने पहुंचाई थी जो आजकल महल के पहरे पर मुकर्रर है।’’ यह सुनते ही महाराज ने हुक्म दिया, ‘‘ बुलाओ नाजिम को।’’ थोड़ी देर में नाजिम भी हाजिर किया गया। गुस्से से भरे हुए महाराज के मुंह से साफ आवाज नहीं निकलती थी। टूटे-फूटे शब्दों में नाजिम से पूछा, ‘‘क्यों बे, तूने कैसी खबर पहुंचाई ?’’ उस वक्त डर के मारे उसकी क्या हालत थी, वही जानता होगा, जीने से नाउम्मीद हो चुका था, डरता हुआ बोला, ‘‘मैंने तो अपनी आंखों से देखा था हुजूर, शायद किसी तरह भाग गया होगा।’’

जयसिंह से गुस्सा बर्दाश्त न हो सका, हुक्म दिया, ‘‘पचास कोड़े क्रूर को और दो सौ कोड़े नाजिम को लगाए जायें ! बस इतने ही पर छोड़ देता हूँ, आगे फिर कभी ऐसा होगा तो सिर उतार लिया जायेगा। क्रूर तू वजीर होने लायक नहीं है।’’
अब क्या था, लगे दो तर्फी कोड़े पड़ने। उन लोगों के चिल्लाने से महल गूंज उठा मगर महाराज का गुस्सा न गया। जब दोनों पर कोड़े पड़ चुके तो उनको महल के बाहर निकलवा दिया और महाराज आराम करने चले गये, मगर मारे गुस्से के रात भर उन्हें नींद न आई।

क्रूरसिंह और नाजिम दोनों घर आये और एक जगह बैठकर लगे झगड़ने। क्रूर नाजिम से कहने लगा, ‘‘तेरी बदौलत आज मेरी इज्जत मिट्टी में मिल गई ! कल दीवान होंगे यह उम्मीद भी न रही, मार खाई उसकी तकलीफ मैं ही जानता हूँ, यह तेरी ही बदौलत हुआ !’’ नाजिम कहता था-‘‘मैं तुम्हारी बदौलत मारा गया, नहीं तो मुझको क्या काम था ? जहन्नुम में जाती चन्द्रकान्ता और वीरेन्द्र, मुझे क्या पड़ी थी जो जूते खाता !’’ ये दोनों आपस में यूं ही पहरों झगड़ते रहे।
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Old 08-12-2010, 12:40 PM   #25
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अन्त में क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘हम तुम दोनों पर लानत है अगर इतनी सजा पाने पर भी वीरेन्द्र को गिरफ्तार न किया।’’
नाजिम ने कहा, ‘‘इसमें तो कोई शक नहीं कि वीरेन्द्र अब रोज महल में आया करेगा क्योंकि इसी वास्ते वह अपना डेरा सरहद पार ले आया है, मगर अब कोई काम करने का हौसला नहीं पड़ता, कहीं फिर मैं देखूं और खबर करने पर वह दुबारा निकल जाय तो अबकी जरूर ही जान से मारा जाऊंगा।’’

क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘तब तो कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिससे जान भी बचे और वीरेन्द्रसिंह को अपनी आंखों से महाराज जयसिंह महल में देख भी लें।’’

बहुत देर सोचने के बाद नाजिम ने कहा, ‘‘चुनारगढ़ महाराज शिवदत्तसिंह के दरबार में एक पण्डित जगन्नाथ नामी ज्योतिषी हैं जो रमल भी बहुत अच्छा जानते हैं। उनके रमल फेंकने में इतनी तेजी है कि जब चाहो पूछ लो कि फलां आदमी इस समय कहां है, क्या कर रहा है या कैसे पकड़ा जायेगा ? वह फौरन बतला देते हैं। उनको अगर मिलाया जाये और वे यहाँ आकर और कुछ दिन रहकर तुम्हारी मदद करें तो सब काम ठीक हो जाय। चुनारगढ़ यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है, कुल तेईस कोस है, चलो हम तुम चलें और जिस तरह बन पड़े उन्हें ले आवें।’’

आखिर क्रूरसिंह ने बहुत कुछ जवाहरात अपने कमर में बांध दो तेज घोड़े मंगवा नाजिम के साथ सवार हो उसी समय चुनार की तरफ रवाना हो गया और घर में सबसे कह गया कि अगर महाराज के यहाँ से कोई आये तो कह देना कि क्रूरसिंह बहुत बीमार हैं।
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Old 08-12-2010, 12:42 PM   #26
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नौवां बयान

वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह बाग के बाहर से अपने खेमे की तरफ रवाना हुए। जब खेमे में पहुंचे तो आधी रात बीत चुकी थी, मगर तेजसिंह को कब चैन पड़ता था, वीरेन्द्रसिंह को पहुंचाकर फिर लौटे और अहमद की सूरत बना क्रूरसिंह के मकान पर पहुंचे। क्रूरसिंह चुनार की तरफ रवाना हो चुका था, जिन आदमियों को घर में हिफाजत के लिए छोड़ गया था और कह गया था कि अगर महाराज पूछें तो कह देना बीमार है, उन लोगों ने एकाएक अहमद को देखा तो ताज्जुब से पूछा, ‘‘कहो अहमद, तुम कहाँ थे अब तक?’’ नकली अहमद ने कहा, ‘‘मैं जहन्नुम की सैर करने गया था, अब लौटकर आया हूँ। यह बताओ कि क्रूरसिंह कहाँ है?’’ सभी ने उसको पूरा-पूरा हाल सुनाया और कहा, ‘‘अब चुनार गये हैं, तुम भी वहीं जाते तो अच्छा होता !’’

अहमद ने कहा, ‘‘हाँ मैं भी जाता हूँ, अब घर न जाऊंगा। सीधे चुनार ही पहुंचता हूँ।’’ यह कह वहाँ से रवाना हो अपने खेमे में आये और वीरेन्द्रसिंह से सब हाल कहा। बाकी रात आराम किया, सवेरा होते ही नहा-धो, कुछ भोजन कर, सूरत बदल, विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। नंगे सिर, हाथ-पैर, मुंह पर धूल डाले, रोते-पीटते महाराज जयसिंह के दरबार में पहुँचे। इनकी हालत देखकर सब हैरान हो गये। महाराज ने मुंशी से कहा, ‘‘पूछो, कौन है और क्या कहता है ?’’

तेजसिंह ने कहा-‘‘हुजूर मैं क्रूरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम रामलाल है। महाराज से बागी होकर क्रूरसिंह चुनारगढ़ के राजा के पास चला गया है। मैंने मना किया कि महाराज का नमक खाकर ऐसा न करना चाहिए, जिस पर मुझको खूब मारा और जो कुछ मेरे पास था सब छीन लिया। हाय रे, मैं बिल्कुल लुट गया, एक कौड़ी भी नहीं रही, अब क्या खाऊंगा, घर कैसे पहुंचूंगा, लड़के-बच्चे तीन बरस की कमाई खोजेंगे, कहेंगे कि रजवाड़े की क्या कमाई लाये हो ? उनको क्या दूंगा ! दुहाई महाराज की, दुहाई ! दुहाई !!’’

बड़ी मुश्किल से सभी ने उसे चुप कराया। महाराज को बड़ा गुस्सा आया, हुक्म दिया, ‘‘क्रूरसिंह कहाँ है ?’’ चोबदार खबर लाया-‘‘बहुत बीमार हैं, उठ नहीं सकते।’’ रामलाल (तेजसिंह) दुहाई महाराज की ! यह भी उन्हीं की तरफ मिल गया, झूठ बोलता है ! मुसलमान सब उसके दोस्त हैं ; दुहाई महाराज की ! खूब तहकीकात की जाय !’’ महाराज ने मुंशी से कहा, ‘‘तुम जाकर पता लगाओ कि क्या मामला है ?’’ थोड़ी देर बाद मुंशी वापस आये औऱ बोले, ‘‘महाराज क्रूरसिंह घर पर नहीं है, और घरवाले कुछ बताते नहीं कि कहाँ गये हैं।’’ महाराज ने कहा, ‘‘जरूर चुनारगढ़ गया होगा। अच्छा, उसके यहाँ के किसी प्य़ादे को बुलाओ।’’ हुक्म पाते ही चोबदार गया और बदकिस्मत प्यादे को पकड़ लाया। महाराज ने पूछा, ‘‘क्रूरसिंह कहाँ गया है ?’’ प्यादे ने ठीक पता नहीं दिया। राम लाल ने फिर कहा, ‘‘दुहाई महाराज की, बिना मार खाये न बताएगा !’’ महाराज ने मारने का हुक्म दिया। पिटने के पहले ही उस बदनसीब ने बतला दिया कि चुनार गये हैं।
महाराज जयसिंह को क्रूर का हाल सुनकर जितना गुस्सा आया बयान के बाहर है। हुक्म दिया-

(1) क्रूरसिंह के घर के सब औरत-मर्द घण्टे भर के अन्दर जान बचाकर हमारी सरहद के बाहर हो जायें।
(2) उसका मकान लूट लिया जाये।
(3) उसकी दौलत में से जितना रुपया रामलाल उठा ले जा सके, ले जाये, बाकी सरकारी खजाने में दाखिल किया जाये।
(4) रामलाल अगर नौकरी कबूल करे तो दी जाये।
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हुक्म पाते ही सबसे पहले रामलाल क्रूरसिंह के घर पहुंचा। महाराज के मुंशी को जो हुक्म तामील करने गया था, रामलाल ने कहा, ‘‘ पहले मुझको रुपये दे दो कि उठा ले जाऊं और महाराज को आशीर्वाद करूं। बस, जल्दी दो, मुझ गरीब को मत सताओ!’’ मुंशी ने कहा, ‘‘अजब आदमी है, इसको अपनी ही पड़ी है ! ठहर जा, जल्दी क्यों करता है !’’ नकली रामलाल ने चिल्लाकर कहना शुरू किया, ‘‘दुहाई महाराज की, मेरे रुपये मुंशी नहीं देता।’’कहता हुआ महाराज की तरफ चला। मुंशी ने कहा, ‘‘ले लो, जाते कहाँ हो, भाई पहले इसको दे दो !’’

रामलाल ने कहा, ‘‘हत्त तेरे की, मैं चिल्लाता नहीं तो सभी रुपये डकार जाता !’’ उइस पर सब हंस पड़े। मुंशी ने दो हजार रुपये आगे रखवा दिया और कहा, ‘‘ले, ले जा !’’ रामलाल ने कहा, ‘‘वाह, कुछ याद है ! महाराज ने क्या हुक्म दिया है ? इतना तो मेरी जेब में आ जायेगा, मैं उठा के क्या ले जाऊंगा ?’’ मुंशी झुंझला उठा, नकली रामलाल को खजाने के सन्दूक के पास ले जाकर खड़ा कर दिया और कहा, ‘‘उठा, देखें कितना उठाता है ?’’ देखते-देखते उसने दस हजार रुपये उठा लिये। सिर पर, बटुए में, कमर में, जेब में, यहां तक कि मुंह में भी कुछ रुपये भर लिये और रास्ता लिया। सब हँसने और कहने लगे, ‘‘आदमी नहीं, इसे राक्षस समझना चाहिए !’’

महाराज के हुक्म की तामील की गई, घर लूट लिया गया, औरत-मर्द सभी ने रोते-पीटते चुनार का रास्ता पकड़ा।
तेजसिंह रुपया लिये हुए वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे औऱ बोले, ‘‘आज तो मुनाफा कमा लाये, मगर यार माल शैतान का है, इसमें कुछ आप भी मिला दीजिए जिससे पाक हो जाये ! वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘यह तो बताओ कि लाये कहाँ से ?’’ उन्होंने सब हाल कहा। वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘जो कुछ मेरे पास यहाँ है मैंने सब दिया !’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘मगर शर्त यह है कि उससे कम न हो, क्योंकि आपका रुतबा उससे कहीं ज्यादा है।’’ वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘तो इस वक्त कहाँ से लायें ?’’तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘तमस्सुक लिख दो !’’ कुमार हंस पड़े और उंगली से हीरे की अंगजी उतारकर दे दी। तेजसिंह ने खुश होकर ले ली औऱ कहा, ‘‘परमेश्वर आपकी मुराद पूरी करे। अब हम लोगों को भी यहाँ से अपने घर चले चलना चाहिए क्योंकि अब मैं चुनार जाऊंगा, देखूं शैतान का बच्चा वहाँ क्या बन्दोबस्त कर रहा है।’’
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Old 08-12-2010, 12:46 PM   #28
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दसवां बयान
क्रूरसिंह की तबाही का हाल शहर भर में फैल गया। महारानी ऱत्नगर्भा (चन्द्रकान्ता की माँ) और चन्द्रकान्ता इन सभी ने भी सुना। कुमारी और चपला को बड़ी खुशी हुई। जब महाराज महल में गये तो हंसी-हंसी में महारानी ने क्रूरसिंह का हाल पूछा। महाराज ने कहा, वह बड़ा बदमाश तथा झूठा था, मुफ्त में लड़की को बदनाम करता था।’’

महारानी ने बात छेड़कर कहा, ‘‘आपने क्या सोचकर वीरेन्द्र का आना-जाना बन्द कर दिया ! देखिए यह वही वीरेन्द्र है जो लड़कपन से, जब चन्द्रकान्ता पैदा भी नहीं हुई थी, यहीं आता और कई-कई दिनों तक रहा करता था। जब यह पैदा हुई तो दोनों बराबर खेला करते और इसी से इन दोनों की आपस की मुहब्बत भी बढ़ गई। उस वक्त यह भी नहीं मालूम होता था कि आप और राजा सुरेन्द्रसिंह कोई दो हैं या नौगढ़ या विजयगढ़ दो रजवाड़े हैं। सुरेन्द्रसिंह भी बराबर आप ही के कहे मुताबिक चला करते थे। कई बार आप कह भी चुके थे कि चन्द्रकान्ता की शादी वीरेन्द्र के साथ कर देनी चाहिए। ऐसे मेल-मुहब्बत और आपस के बनाव को उस दुष्ट क्रूर ने बिगाड़ दिया और दोनों के चित्त में मैल पैदा कर दिया !’’

महाराज ने कहा, ‘‘मैं हैरान हूँ कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया था। मेरी समझ पर पत्थर पड़ गये ! कौन-सी बात ऐसी हुई जिसके सबब से मेरे दिल से वीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत जाती रही। हाय, इस क्रूरसिंह ने तो गजब ही किया। इसके निकल जाने पर अब मुझे मालूम होता है।’’ महारानी ने कहा, ‘‘देखें, अब वह चुनार में जाकर क्या करता है ?’’ जरूर महाराज शिवदत्त को भड़ाकायेगा और कोई नया बखेड़ा पैदा करेगा। महाराज ने कहा, ‘‘खैर, देखा जायेगा, परमेश्वर मालिक है, उस नालायक ने तो अपनी भरसक बुराई में कुछ भी कमी नहीं की।’’

यह कह कर महाराज महल के बाहर चले गये। अब उनको यह फिक्र हुई कि किसी को दीवान बनाना चाहिए नहीं तो काम न चलेगा। कई दिन तक सोच-विचारकर हरदयालसिंह नामी नायब दीवान को मंत्री की पदवी और खिलअत दी। यह शख्स बड़ा ईमानदार, नेकबख्त, रहमदिल और साफ तबीयत का था, कभी किसी का दिल उसने नहीं दुखाया।
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Old 08-12-2010, 12:47 PM   #29
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ग्यारहवां बयान
क्रूरसिंह को बस एक यही फिक्र लगी हुई थी कि जिस तरह बने वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को मार डालना ही नहीं चाहिए, बल्कि नौगढ़ का राज्य ही गारत कर देना चाहिए। नाजिम को साथ लिए चुनार पहुँचा और शिवदत्त के दरबार में हाजिर होकर नजर दिया। महाराज इसे बखूबी जानते थे इसलिए नजर लेकर हाल पूछा। क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘महाराज, जो कुछ हाल है मैं एकान्त में कहूंगा।’’

दरबार बर्खास्त हुआ, शाम को तखलिए (एकान्त) में महाराज ने क्रूर को बुलाया और हाल पूछा। उसने जितनी शिकायत महाराज जयसिंह की करते बनी, की, और यह भी कहा कि-‘‘लश्कर का इन्तजाम आजकल बहुत खराब है, मुसलमान सब हमारे मेल में हैं, अगर आप चाहें तो इस समय विजयगढ़ को फतह कर लेना कोई मुश्किल बात नहीं है। चन्द्रकान्ता महाराज जयसिंह की लड़की भी जो खूबसूरती में अपना कोई सानी नहीं रखती, आप ही के हाथ लगेगी।’’
ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें कह उसने महाराज शिवदत्त को उसने पूरे तौर से भड़काया। आखिर महाराज ने कहा, ‘‘हमको लड़ने की अभी कोई जरूरत नहीं, पहले हम अपने ऐयारों से काम लेंगे फिर जैसा होगा देखा जाएगा। मेरे यहाँ छः ऐयार हैं जिनमें से चारों ऐयारों के साथ पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी को तुम्हारे साथ कर देते हैं। इन सभी को लेकर तुम जाओ, देखो तो ये लोग क्या करते हैं। पीछे जब मौका होगा हम भी लश्कर लेकर पहुंच जायेंगे।’’

उन ऐयारों के नाम थे- पण्डित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण, भगवानदत्त और घसीटासिंह। महाराज ने पण्डित बद्रीनाथ, रामनारायण, और भगवान दत्त इन चारों को जो मुनासिब था कहा और इन लोगों को क्रूरसिंह के हवाले किया।
अभी ये लोग बैठे ही थे कि एक चोबदार ने आकर अर्ज किया, ‘‘महाराज ड्योढ़ी पर कई आदमी फरियादी खड़े हैं, कहते हैं हम लोग क्रूरसिंह के रिश्तेदार हैं, इनके चुनार जाने का हाल सुनकर महाराज जयसिंह ने घर-बार लूट लिया और हम लोगों को निकाल दिया। उन लोगों के लिए क्या हुक्म होता है ?’’

यह सुनकर क्रूरसिंह के होश उड़ गये। महाराज शिवदत्त ने सभी को अन्दर बुलाया और हाल पूछा। जो कुछ हुआ था उन्होंने बयान किया ! इसके बाद क्रूरसिंह और नाजिम की तरफ देखकर कहा, ‘‘अहमद भी तो आपके पास आया है !’’ नाजिम ने पूछा, अहमद ! वह कहाँ है ? यहाँ तो नहीं आया ! ’’ सभी ने कहा, ‘‘वाह, वहाँ तो घर पर गया था और यह कहकर चला गया कि मैं भी चुनार जाता हूँ !’’

नाजिम ने कहा, ‘‘बस मैं समझ गया, वह जरूर तेजसिंह होगा इसमें कोई शक नहीं ! उसी ने महाराज को भी खबर पहुंचाई होगी, यह सब फसाद उसी का है !’’ यह सुन क्रूरसिंह रोने लगा। महाराज शिवदत्त ने कहा, ‘‘जो होना था सो हो गया, सोच मत करो। देखो इसका बदला जयसिंह से मैं लेता हूँ। तुम इसी शहर में रहो, हमाम के सामने वाला मकान तुम्हें दिया जाता है, उसी में अपने कुटुम्ब को रक्खो, रुपये की मदद सरकार से हो जायेगी। क्रूरसिंह ने महाराज के हुक्म के मुताबिक उसी मकान में डेरा जमाया।’’

कई दिन बाद दरबार में हाजिर होकर क्रूरसिंह ने महाराज से विजयगढ़ जाने के लिए अर्ज किया। सब इन्तजाम हो ही चुका था, महाराज ने मय चारों ऐयार और पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ क्रूरसिंह और नाजिम को विदा किया। ऐयार लोग भी अपने-अपने सामान से लैस हो गये। कई तरह के कपड़े लिए। बटुआ ऐयारी का अपने-अपने कन्धे से लटका लिया, खंजर बगल में लिया। ज्योतिषीजी ने भी पोथी-पत्रा आदि और कुछ ऐयारी का सामान ले लिया क्योंकि वह थोड़ी-बहुत ऐयारी भी जानते थे। अब यह शैतान का झुण्ड विजयगढ़ की तरफ रवाना हुआ। इन लोगों का इरादा नौगढ़ जाने का भी था। देखिए कहाँ जाते हैं और क्या करते हैं ?
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Old 08-12-2010, 12:48 PM   #30
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बारहवां बयान
वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह नौगढ़ के किले के बाहर निकल बहुत से आदमियों को साथ लिये चन्द्रप्रभा नदी के किनारे बैठ शोभा देख रहे थे। एक तरफ से चन्द्रप्रभा दूसरी तरफ से करमनाशा नदी बहती हुई आई है और किले के नीचे दोनों का संगम हो गया है। जहाँ कुमार और तेजसिंह बैठे हैं, नदी बहुत चौड़ी है और उस पर साखू का बड़ा भारी जंगल है जिसमें हजारों मोर तथा लंगूर अपनी-अपनी बोलियों और किलकारियों से जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं। कुंवर वीरेन्द्रसिंह उदास बैठे हैं, चन्द्रकान्ता के बिरह में मोरों की आवाज तीर-सी लगती है, लंगूरों की किलकारी वज्र-सी मालूम होती है, शाम की धीमी-धीमी ठंडी हवा लू का काम करती है। चुपचाप बैठे नदी की तरफ देख ऊंची सांस ले रहे हैं।

इतने में एक साधु रामरज से रंगी हुई कफनी पहने, रामनन्दी तिलक लगाये हाथ में खंजरी लिए कुछ दूर नदी के किनारे बैठा यह गाता हुआ दिखाई पड़ा-

‘‘गये चुनार क्रूर बहुरंगी लाये चारचितारी*।
संग में उनके पण्डित देवता, जो हैं सगुन बिचारी।।
इनसे रहना बहुत संभल के रमल चले अति कारी।
क्या बैठे हो तुम बेफिकरे, काम करो कोई भारी।।

यह आवाज कान में पड़ते ही तेजसिंह ने गौर से उस तरफ देखा। वह साधु भी इन्हीं की तरफ मुंह करके गा रहा था। तेजसिंह को अपनी तरफ देखते दांत निकालकर दिखला दिये और उठ के चलता बना।

वीरेन्द्रसिंह अपनी चन्द्रकान्ता के ध्यान में डूबे हैं, उनको इन सब बातों की कोई खबर नहीं। वे नहीं जानते कि कौन गा रहा है या किधर से आवाज आ रही है। एकटक नदी की तरफ देख रहे हैं। तेजसिंह ने बाजू पकड़ कर हिलाया। कुमार चौंक पड़े। तेजसिंह ने धीरे से पूछा, ‘‘कुछ सुना ?’’ कुमार ने कहा, ‘‘क्या ? नहीं तो कहो !’’ ‘‘उठिए अपनी जगह पर चलिए, जो कुछ कहना है वहीं एकान्त में कहेंगे !’’ वीरेन्द्रसिंह सम्हल गये और उठ खड़े हुए। दोनों आदमी धीरे-धीरे किले में आये और अपने कमरे में जाकर बैठे।
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