11-01-2011, 09:28 AM | #11 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34 |
Re: ~!!निर्मला!!~
भाल- है तो यही बात। छूत-छात सब ढकोसला है। मैं स्वयं नहीं मानता। अरे, अभी तक कोई नहीं आया? छकौड़ी, भवानी, गुरुदीन, रामगुलाम, कोई तो बोले! अबकी भी वही बूढ़ा कहार खांसता हुआ आकर खड़ा हो गया और बोला-सरकार, मोर तलब दै दीन जाय। ऐसी नौकरी मोसे न होई। कहां लो दौरी दौरत-दौरत गोड़ पिराय लागत है। भाल-काम कुछ करो या न करो, पर तलब पहिले चहिए! दिन भर पड़े-पड़े खांसा करो, तलब तो तुम्हारी चढ़ रही है। जाकर बाजार से एक आने की ताजी मिठाई ला। दौड़ता हुआ जा। कहार को यह हुक्म देकर बाबू साहब घर में गये और स्त्री से बोले-वहां से एक पंडितजी आये हैं। यह खत लाये हैं, जरा पढ़ो तो। पत्नी जी का नाम रंगीलीबाई था। गोरे रंग की प्रसन्न-मुख महिला थीं। रूप और यौवन उनसे विदा हो रहे थे, पर किसी प्रेमी मित्र की भांति मचल-मचल कर तीस साल तक जिसके गले से लगे रहे, उसे छोड़ते न बनता था। रंगीलीबाई बैठी पान लगा रही थीं। बोली-कह दिया न कि हमें वहां ब्याह करना मंजूर नहीं। भाल-हां, कह तो दिया, पर मारे संकोच के मुंह से शब्द न निकलता था। झूठ-मूठ का होला करना पड़ता। रंगीली-साफ बात करने में संकोच क्या? हमारी इच्छा है, नहीं करते। किसी का कुछ लिया तो नहीं है? जब दूसरी जगह दस हजार नगद मिल रहे हैं; तो वहां क्यों न करूं? उनकी लड़की कोई सोने की थोड़े ही है। वकील साहब जीते होते तो शरमाते-शमाते पन्द्रह-बीस हजार दे मरते। अब वहां क्या रखा है? भाल- एक दफा जबान देकर मुकर जाना अच्छी बात नहीं। कोई मुख से कुछ न कह, पर बदनामी हुए बिना नहीं रहती। मगर तुम्हारी जिद से मजबूर हूं। रंगीलीबाई ने पान खाकर खत खोला और पढ़ने लगीं। हिन्दी का अभ्यास बाबू साहब को तो बिल्कुल न था और यद्यपि रंगीलीबाई भी शायद ही कभी किताब पढ़ती हों, पर खत-वत पढ़ लेती थीं। पहली ही पांति पढ़कर उनकी आंखें सजल हो गयीं और पत्र समाप्त किया। तो उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे-एक-एक शब्द करूणा के रस में डूबा हुआ था। एक-एक अक्षर से दीनता टपक रही थी। रंगीलीबाई की कठोरता पत्थर की नहीं, लाख की थी, जो एक ही आंच से पिघल जाती है। कल्याणी के करूणोत्पादक शब्दों ने उनके स्वार्थ-मंडित हृदय को पिघला दिया। रूंधे हुए कंठ से बोली-अभी ब्राह्मण बैठा है न? भालचन्द्र पत्नी के आंसुओं को देख-देखकर सूखे जाते थे। अपने ऊपर झल्ला रहे थे कि नाहक मैंने यह खत इसे दिखाया। इसकी जरूरत क्या थी? इतनी बड़ी भूल उनसे कभी न हुई थी। संदिग्ध भाव से बोले-शायद बैठा हो, मैंने तो जाने को कह दिया था। रंगीली ने खिड़की से झांककर देखा। पंडित मोटेराम जी बगुले की तरह ध्यान लगाये बाजार के रास्ते की ओर ताक रहे थे। लालसा में व्यग्र होकर कभी यह पहलू बदलते, कभी वह पहलू। ‘एक आने की मिठाई’ ने तो आशा की कमर ही तोड़ दी थी, उसमें भी यह विलम्ब, दारूण दशा थी। उन्हें बैठे देखकर रंगीलीबाई बोली-है-है अभी है, जाकर कह दो, हम विवाह करेंगे, जरूर करेंगे। बेचारी बड़ी मुसीबत में है। भाल- तुम कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती हो, अभी उससे कह आया हूं कि मुझे विवाह करना मंजूर नहीं। एक लम्बी-चौड़ी भूमिका बांधनी पड़ी। अब जाकर यह संदेश कहूंगा, तो वह अपने दिल में क्या कहेगा, जरा सोचो तो? यह शादी-विवाह का मामला है। लड़कों का खेल नहीं कि अभी एक बात तय की, अभी पलट गये। भले आदमी की बात न हुई, दिल्लगी हुई। |
11-01-2011, 09:28 AM | #12 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34 |
Re: ~!!निर्मला!!~
रंगीली- अच्छा, तुम अपने मुंह से न कहो, उस ब्राह्मण को मेरे पास भेज दो। मैं इस तरह समझा दूंगी कि तुम्हारी बात भी रह जाये और मेरी भी। इसमें तो तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है।
भाल-तुम अपने सिवा सारी दुनिया को नादान समझती हो। तुम कहो या मैं कहूं, बात एक ही है। जो बात तय हो गयी, वह हो गई, अब मैं उसे फिर नहीं उठाना चाहता। तुम्हीं तो बार-बार कहती थीं कि मैं वहां न करूंगी। तुम्हारे ही कारण मुझे अपनी बात खोनी पड़ी। अब तुम फिर रंग बदलती हो। यह तो मेरी छाती पर मूंग दलना है। आखिर तुम्हें कुछ तो मेरे मान-अपमान का विचार करना चाहिए। रंगीली- तो मुझे क्या मालूम था कि विधवा की दशा इतनी हीन हो गया है? तुम्हीं ने तो कहा था कि उसने पति की सारी सम्पत्ति छिपा रखी है और अपनी गरीबी का ढोंग रचकर काम निकालना चाहती है। एक ही छंटी औरत है। तुमने जो कहा, वह मैंने मान लिया। भलाई करके बुराई करने में तो लज्जा और संकोच है। बुराई करके भलाई करने मे कोई संकोच नहीं। अगर तुम ‘हां’ कर आये होते और मैं ‘नहीं’ करने को कहती, तो तुम्हारा संकोच उचित था। ‘नहीं’ करने के बाद ‘हां’ करने में तो अपना बड़प्पन है। भाल- तुम्हें बड़प्पन मालूम होता हो, मुझे तो लुच्चापन ही मालूम होता है। फिर तुमने यह कैसे मान लिया कि मैंने वकीलाइन में विषय में जो बात कही थी, वह झूठी थी! क्या वह पत्र देखकर? तुम जैसी खुद सरल हो, वैसे ही दूसरे को भी सरल समझती हो। रंगीली- इस पत्र में बनावट नहीं मालूम होती। बनावट की बात दिल में चुभती नहीं। उसमें बनावट की गन्ध अवश्य रहती है। भाल- बनावट की बात तो ऐसी चुभती है कि सच्ची बात उसके सामने बिल्कुल फीकी मालूम होती है। यह किस्से-कहानियां लिखने वाले जिनकी किताबें पढ़-पढ़कर तुम घण्टों रोती हो, क्या सच्ची बातें लिखते है? सरासर झूठ का तूमार बांधते हैं। यह भी एक कला है। रंगीली- क्यों जी, तुम मुझसे भी उड़ते हो! दाई से पेट छिपाते हो? मैं तुम्हारी बातें मान जाती हूं, तो तुम समझते हो, इसे चकमा दिया। मगर मैं तुम्हारी एक-एक नस पहचानती हूं। तुम अपना ऐब मेरे सिर मढ़कर खुद बेदाग बचना चहाते हो। बोलो, कुछ झूठ कहती हूं, जब वकील साहब जीते थे, जो तुमने सोचा था कि ठहराव की जरूरत ही कया है, वे खुद ही जितना उचित समेझेंगे देंगे, बल्कि बिना ठहराव के और भी ज्यादा मिलने की आशा होगी। अब जो वकील साहब का देहान्त हो गया, तो तरह-तरह के हीले-हवाले करने लगे। यह भलमनसी नहीं, छोटापन है, इसका इलजाम भी तुम्हारे सिर है। मै। अब शादी-ब्याह के नगीच न जाऊंगी। तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो। ढोंगी आदमियों से मुझे चिढ़ है। जो बात करो, सफाई से करो, बुरा हो या अच्छा। ‘हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और’ वाली नीति पर चलना तुम्हें शोभा नहीं देता। बोला आब भी वहां शादी करते हो या नहीं? भाला- जब मैं बेईमान, दगाबाज और झूठा ठहरा, तो मुझसे पूछना ही क्या! मगर खूब पहचानती हो आदमियों को! क्या कहना है, तुम्हारी इस सूझ-बूझ की, बलैया ले लें! रंगीली- हो बड़े हयादार, ब भी नहीं शरमाते। ईमान से कहा, मैंने बात ताड़ ली कि नहीं? भाल-अजी जाओ, वह दूसरी औरतें होती हैं जो मर्दों को पहचानती हैं। अब तक मैं यही समझता था कि औरतों की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म होती है, पर आज यह विश्वास उठ गया और महात्माओं ने औरतों के विषय में जो तत्व की बाते कही है, उनको मानना पड़ा। रंगीली- जरा आईने में अपनी सूरत तो देख आओं, तुम्हें मेरी कमस है। जरा देख लो, कितना झेंपे हुए हो। भाल- सच कहना, कितना झेंपा हुआ हूं? रंगीली- इतना ही, जितना कोई भलामानस चोर चोरी खुल जाने पर झेंपता है। भाल- खैर, मैं झेंपा ही सही, पर शादी वहां न होगी। रंगीली- मेरी बला से, जहां चाहो करो। क्यों, भुवन से एक बार क्यों नहीं पूछ लेते? भाल- अच्छी बात है, उसी पर फैसला रहा। रंगीली- जरा भी इशारा न करना! भाल- अजी, मैं उसकी तरफ ताकूंगा भी नहीं। |
11-01-2011, 09:29 AM | #13 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34 |
Re: ~!!निर्मला!!~
संयोग से ठीक इसी वक्त भुवनमोहन भी आ पहुंचा। ऐसे सुन्दर, सुडौल, बलिष्ठ युवक कालेजों में बहुत कम देखने में आते हैं। बिल्कुल मां को पड़ा था, वही गोरा-चिट्टा रंग, वही पतले-पतले गुलाब की पत्ती के-से ओंठ, वही चौड़ा, माथा, वही बड़ी-बड़ी आंखें, डील-डौल बाप का-सा था। ऊंचा कोट, ब्रीचेज, टाई, बूट, हैट उस पर खूब ल रहे थे। हाथ में एक हाकी-स्टिक थी। चाल में जवानी का गरूर था, आंखों में आमत्मगौरव।
रंगीली ने कहा-आज बड़ी देर लगाई तुमने? यह देखो, तुम्हारी ससुराल से यह खत आया है। तुम्हारी सास ने लिखा है। साफ-साफ बतला दो, अभी सबेरा है। तुम्हें वहां शादी करना मंजूर है या नहीं? भुवन- शादी करनी तो चाहिए अम्मां, पर मैं करूंगा नहीं। रंगीली- क्यों? भुवन- कहीं ऐसी जगह शादी करवाइये कि खूब रूपये मिलें। और न सही एक लाख का तो डौल हो। वहां अब क्या रखा है? वकील साहब रहे ही नहीं, बुढ़िया के पास अब क्या होगा? रंगीली- तुम्हें ऐसी बातें मुंह से निकालते शर्म नहीं आती? भुवन- इसमें शर्म की कौन-सी बात है? रूपये किसे काटते हैं? लाख रूपये तो लाख जन्म में भी न जमा कर पाऊंगा। इस साल पास भी हो गया, तो कम-से-कम पांच साल तक रूपये से सूरत नजर न आयेगी। फिर सौ-दो-सौ रूपये महीने कमाने लगूंगा। पांच-छ: तक पहुंचते-पहुंचते उम्र के तीन भाग बीत जायेंगे। रूपये जमा करने की नौबत ही न आयेगी। दुनिया का कुछ मजा न उठा सकूंग। किसी धनी की लड़की से शादी हो जाती, तो चैन से कटती। मैं ज्यादा नहीं चाहता, बस एक लाख हो या फिर कोई ऐसी जायदादवाली बेवा मिले, जिसके एक ही लड़की हो। रंगीली- चाहे औरत कैसे ही मिले। भूवन- धन सारे ऐबों को छिपा देगा। मुझे वह गालियां भी सुनाये, तो भी चूं न करूं। दुधारू गाय की लात किसे बुरी मालूम होती है? बाबू साहब ने प्रशंसा-सूचक भाव से कहा-हमें उन लोगों के साथ सहानुभति है और दु:खी है कि ईश्वर ने उन्हें विपत्ति में डाला, लेकिन बुद्धि से काम लेकर ही कोई निश्चय करना चहिए। हम कितने ही फटे-हालों जायें, फिर भी अच्छी-खासी बारात हो जायेगी। वहां भोजन का भी ठिकाना नहीं। सिवा इसके कि लोग हंसें और कोई नतीजा न निकलेगा। रंगीली- तुम बाप-पूत दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो। दोनों उस गरीब लड़की के गले पर छुरी फेरना चाहते हो। भुवन-जो गरीब है, उसे गरीबों ही के यहां सम्बन्ध करना चहिए। अपनी हैसियत से बढ़कर…..। रंगीली- चुप भी रह, आया है वहां से हैसियत लेकर। तुम कहां के धन्ना-सेठ हो? कोई आदमी द्वारा पर आ जाये, तो एक लोटे पानी को तरस जाये। बड़े हैसियतवाले बने हो! यह कहकर रंगीली वहां से उठकर रसोई का प्रबन्ध करने चली गयी। भुवनमोहन मुस्कराता हुआ अपने कमरे में चला गया और बाबू साहब मूछों पर ताव देते हुए बाहर आये कि मोटेराम को अन्तिम निश्चय सुना दें। पर उनका कहीं पता न था। मोटेरामजी कुछ देर तक तो कहार की राह देखते रहे, जब उसके आने में बहुत देर हुई, तो उनसे बैठा न गया। सोचा यहां बैठे-बैठे काम न चलेगा, कुछ उद्योग करना चाहिए। भाग्य के भरोसे यहां अड़ी किये बैठे रहें, तो भूखों मर जायेंगे। यहां तुम्हारी दाल नहीं गलने की। चुपके से लकड़ी उठायी और जिधर वह कहार गया था, उसी तरफ चले। बाजार थोड़ी ही दूर पर था, एक क्षण में जा पहुंचे। देखा, तो बुड्ढा एक हलवाई की दूकान पर बैठा चिलम पी रहा था। उसे देखते ही आपने बड़ी बेतकल्लुफी से कहा-अभी कुछ तैयार नहीं है क्या महरा? सरकार वहां बैठे बिगड़ रहे हैं कि जाकर सो गया या ताड़ी पीने लगा। मैंने कहा-‘सरकार यह बात नहीं, बुढ्डा आदमी है, आते ही आते तो आयेगा।’ बड़े विचित्र जीव हैं। न जाने इनके यहां कैसे नौकर टिकते हैं। कहार-मुझे छोड़कर आज तक दूसरा कोई टिका नहीं, और न टिकेगा। साल-भर से तलब नहीं मिली। किसी को तलब नहीं देते। जहां किसी ने तलब मांगी और लगे डांटने। बेचारा नौकरी छोड़कर भाग जाता है। वे दोनों आदमी, जो पंखा झल रहे थे, सरकारी नौकर हैं। सरकार से दो अर्दली मिले हैं न! इसी से पड़े हुए हैं। मैं भी सोचता हूं, जैसा तेरा ताना-बाना वैसे मेरी भरनी! इस साल कट गये हैं, साल दो साल और इसी तरह कट जायेंगे। |
11-01-2011, 09:30 AM | #14 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34 |
Re: ~!!निर्मला!!~
मोटेराम- तो तुम्हीं अकेले हो? नाम तो कई कहारों का लेते है।
कहार- वह सब इन दो-तीन महीनों के अन्दर आये और छोड़-छोड़ कर चले गये। यह अपना रोब जमाने को अभी तक उनका नाम जपा करते हैं। कहीं नौकरी दिलाइएगा, चलूं? मोटेराम- अजी, बहुत नौकरी है। कहार तो आजकल ढूंढे नहीं मिलते। तुम तो पुराने आदमी हो, तुम्हारे लिए नौकरी की क्या कमी है। यहां कोई ताजी चीज? मुझसे कहने लगे, खिचड़ी बनाइएगा या बाटी लगाइएगा? मैंने कह दिया-सरकार, बुढ्डा आदमी है, रात को उसे मेरा भोजन बनाने में कष्ट होगा, मैं कुछ बाजार ही से खा लूंगा। इसकी आप चिन्ता न करें। बोले, अच्छी बात है, कहार आपको दुकान पर मिलेगा। बोलो साहजी, कुछ तर माल तैयार है? लड्डू तो ताजे मालूम होते हैं तौल दो एक सेर भर। आ जाऊं वहीं ऊपर न? यह कहकर मोटेरामजी हलवाई की दूकान पर जा बैठे और तर माल चखने लगे। खूब छककर खाया। ढाई-तीन सेर चट कर गये। खाते जाते थे और हलवाई की तारीफ करते जाते थे- शाहजी, तुम्हारी दूकान का जैसा नाम सुना था, वैसा ही माल भी पाया। बनारसवाले ऐसे रसगुल्ले नहीं बना पाते, कलाकन्द अच्छी बनाते हैं, पर तुम्हारी उनसे बुरी नहीं, माल डालने से अच्छी चीज नहीं बन जाती, विद्या चहिए। हलवाई-कुछ और लीजिए महाराज! थोड़ी-सी रबड़ी मेरी तरफ से लीजिए। मोटेराम-इच्छा तो नहीं है, लेकिन दे दो पाव-भर। हलवाई-पाव-भर क्या लीजिएगा? चीज अच्छी है, आध सेर तो लीजिए। खूब इच्छापूर्ण भोजन करके पंडितजी ने थोड़ी देर तक बाजार की सैर की और नौ बजते-बजते मकान पर आये। यहां सन्नाटा-सा छाया हुआ था। एक लालटेन जल रही थी। अपने चबूतरे पर बिस्तर जमाया और सो गये। सबेरे अपने नियमानुसार कोई आठ बजे उठे, तो देखा कि बाबूसाहब टहल रहे हैं। इन्हें जगा देखकर वह पालागन कर बोले-महाराज, आज रात कहां चले गये? मैं बड़ी रात तक आपकी राह देखता रहा। भोजन का सब सामान बड़ी देर तक रखा रहा। जब आज न आये, तो रखवा दिया गया। आपने कुछ भोजन किया था। या नहीं? मोटे- हलवाई की दूकान में कुछ खा आया था। भाल- अजी पूरी-मिठाई में वह आनन्द कहां, जो बाटी और दाल में है। दस-बारह आने खर्च हो गये होंगे, फिर भी पेट न भरा होगा, आप मेरे मेहमान हैं, जितने पैसे लगे हों ले लीजिएगा। मोटे- आप ही के हलवाई की दूकान पर खाया था, वह जो नुक्कड़ पर बैठता है। भाल- कितने पैसे देने पड़े? मोटे- आपके हिसाब में लिखा दिये हैं। भाल- जितनी मिठाइयां ली हों, मुझे बता दीजिए, नहीं तो पीछे से बेईमानी करने लगेगा। एक ही ठग है। मोटे- कोई ढाई सेर मिठाई थी और आधा सेर रबड़ी। बाबू साहब ने विस्फरित नेत्रों से पंडितजी को देखा, मानो कोई अचम्भे की बात सुनी हो। तीन सेर तो कभी यहां महीने भर का टोटल भी न होता था और यह महाशय एक ही बार में कोई चार रूपये का माल उड़ा गये। अगर एक आध दिन और रह गये, तो या बैठ जायेगी। पेट है या शैतान की कब्र? तीन सेर! कुछ ठिकाना है! उद्विग्न दशा में दौड़े हुए अन्दर गये और रंगीली से बोल-कुछ सुनती हो, यह महाशय कल तीन सेर मिठाई उड़ा गये। तीन सेर पक्की तौल! रंगीलीबाई ने विस्मित होकर कहा-अजी नहीं, तीन सेर भला क्या खा जायेगा! आदमी है या बैल? भाल- तीन सेर तो अपने मुंह से कह रहा है। चार सेर से कम न होगा, पक्की तौल! |
11-01-2011, 09:31 AM | #15 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34 |
Re: ~!!निर्मला!!~
रंगीली- पेट में सनीचर है क्या?
भाल- आज और रह गया तो छ: सेर पर हाथ फेरेगा। रंगीली- तो आज रहे ही क्यों, खत का जवाब जो देना देकर विदा करो। अगर रहे तो साफ कह देना कि हमारे यहां मिठाई मुफ्त नहीं आती। खिचड़ी बनाना हो, बनावे, नहीं तो अपनी राह ले। जिन्हें ऐसे पेटुओं को खिलाने से मुक्ति मिलती हो, वे खिलायें हमें ऐसी मुक्ति न चाहिये! मगर पंडित विदा होने को तैयार बैठे थे, इसलिए बाबूसाहब को कौशल से काम लेने की जरूरत न पड़ी। पूछा- क्या तैयारी कर दी महाराज? मोटे- हां सरकार, अब चलूंगा। नौ बजे की गाड़ी मिलेगी न? भाल- भला आज तो और रहिए। यह कहते-कहते बाबूजी को भय हुआ कि कहीं यह महाराज सचमुच न रह जायें, इसलिये वाक्य को यों पूरा किया- हां, वहां भी लोग आपका इन्तजार कर रहे होंगे। मोटे- एक-दो दिन की तो कोई बात न थी और विचार भी यही था कि त्रिवेणी का स्नान करूंगा, पर बुरा न मानिए तो कहूं, आप लोगों में ब्राह्राणों के प्रति लेशमात्र भी श्रद्धा नहीं है। हमारे जजमान हैं, जो हमारा मुंह जोहते रहते हैं कि पंडितजी कोई आज्ञा दें, तो उसका पालन करें। हम उनके द्वारा पहुंच जाते हैं, तो वे अपना धन्य भाग्य समझते हैं और सारा घर-छोटे से बड़े तक हमारी सेवा-सत्कार में मग्न हो जाते हैं। जहां अपना आदर नहीं, वहां एक क्षण भी ठहरना असह्राय है। जहां ब्रह्राण का आदर नहीं, वहां कल्याण नहीं हो सकता। भाल- महाराज, हमसे तो ऐसा अपराध नहीं हुआ। मोटे- अपराध नहीं हुआ! और अपराध कहते किसे हैं? अभी आप ही ने घर में जाकर कहा कि यह महाशय तीन सेर मिठाई चट कर गये, पक्की तौल। आपने अभी खानेवाले देखे कहां? एक बार खिलाइये तो आंखें खुल जायें। ऐसे-ऐसे महान पुरूष पड़े हैं, जो पसेरी भर मिठाई खा जायें और डकार तक न लें। एक-एक मिठाई खाने के लिए हमारी चिरौरी की जाती है, रूपये दिये जाते हैं। हम भिक्षुक ब्राह्राण नहीं हैं, जो आपके द्वार पर पड़े रहें। आपका नाम सुनकर आये थे, यह न जानते थे कि यहां मेरे भोजन के भी लाले पड़ेंगे। जाइये, भगवान् आपका कल्याण करें! बाबू साहब ऐसा झेंपे कि मुंह से बात न निकली। जिन्दगी भर में उन पर कभी ऐसी फटकार न पड़ी थी। बहुत बातें बनायीं-आपकी चर्चा न थी, एक दूसरे ही महाशय की बात थी, लेकिन पंडितजी का क्रोध शान्त न हुआ। वह सब कुछ सह सकते थे, पर अपने पेट की निन्दा न सह सकते थे। औरतों को रूप की निन्दा जितनी प्रिय लगती है, उससे कहीं अधिक अप्रिय पुरूषों को अपने पेट की निन्दा लगती है। बाबू साहब मनाते तो थे; पर धड़का भी समाया हुआ था कि यह टिक न जायें। उनकी कृपणता का परदा खुल गया था, अब इसमें सन्देह न था। उस पर्दे को ढांकना जरूरी था। अपनी कृपणता को छिपाने के लिए उन्होंने कोई बात उठा न रखी पर होनेवाली बात होकर रही। पछता रहे थे कि कहां से घर में इसकी बात कहने गया और कहा भी तो उच्च स्वर में। यह दुष्ट भी कान लगाये सुनता रहा, किन्तु अब पछताने से क्या हो सकता था? न जाने किस मनहूस की सूरत देखी थी यह विपत्ति गले पड़ी। अगर इस वक्त यहां से रूष्ट होकर चला गया; तो वहां जाकर बदनाम करेगा और मेरा सारा कौशल खुल जायेगा। अब तो इसका मुंह बन्द कर देना ही पड़ेगा। यह सोच-विचार करते हुए वह घर में जाकर रंगीलीबाई से बोले-इस दुष्ट ने हमारी-तुम्हारी बातें सुन ली। रूठकर चला जा रहा है। रंगीली-जब तुम जानते थे कि द्वार पर खड़ा है, तो धीरे से क्यों न बोले? भाल-विपत्ति आती है; तो अकेले नहीं आती। यह क्या जानता था कि वह द्वार पर कान लगाये खड़ा है। रंगीली- न जाने किसका मुंह देख था? भाल-वही दुष्ट सामने लेटा हुआ था। जानता तो उधर ताकता ही नहीं। अब तो इसे कुछ दे-दिलाकर राजी करना पड़ेगा। रंगीली- ऊंह, जाने भी दो। जब तुम्हें वहां विवाह ही नहीं करना है, तो क्या परवाह है? जो चाहे समझे, जो चाहे कहे। भाल-यों जान न बचेगी। आओं दस रूपये विदाई के बहाने दे दूं। ईश्वर फिर इस मनहूस की सूरत न दिखाये। रंगीली ने बहुत अछताते-पछताते दस रुपये निकाले और बाबू साहब ने उन्हें ले जाकर पंडितजी के चरणों पर रख दिया। पंडितजी ने दिल में कहा-धत्तैरे मक्खीचूस की! ऐसा रगड़ा कि याद करोगे। तुम समझते होगे कि दस रुपये देकर इसे उल्लू बना लूंगा। इस फेर में न रहना। यहां तुम्हारी नस-नस पहचानते हैं। रुपये जेब में रख लिये और आशीर्वाद देकर अपनी राह ली। बाबू साहब बड़ी देकर तक खड़े सोच रहे थे-मालूम नहीं, अब भी मुझे कृपण ही समझ रहा है या परदा ढंक गया। कहीं ये रुपये भी तो पानी में नहीं गिर पड़े। |
11-01-2011, 09:32 AM | #16 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34 |
Re: ~!!निर्मला!!~
निर्मला 04
कल्याणी के सामने अब एक विषम समस्या आ खड़ी हुई। पति के देहान्त के बाद उसे अपनी दुरवस्था का यह पहला और बहुत ही कड़वा अनुभव हुआ। दरिद्र विधवा के लिए इससे बड़ी और क्या विपत्ति हो सकती है कि जवान बेटी सिर पर सवार हो? लड़के नंगे पांव पढ़ने जा सकते हैं, चौका-बर्त्तन भी अपने हाथ से किया जा सकता है, रूखा-सूखा खाकर निर्वाह किया जा सकता है, झोपड़े में दिन काटे जा सकते हैं, लेकिन युवती कन्या घर में नहीं बैठाई जा सकती। कल्याणी को भालचन्द्र पर ऐसा क्रोध आता था कि स्वयं जाकर उसके मुंह में कालिख लगाऊं, सिर के बाल नोच लूं, कहूं कि तू अपनी बात से फिर गया, तू अपने बाप का बेटा नहीं। पंडित मोटेराम ने उनकी कपट-लीला का नग्न वृत्तान्त सुना दिया था। वह इसी क्रोध में भरी बैठी थी कि कृष्णा खेलती हुई आयी और बोली-कै दिन में बारात आयेगी अम्मां? पंडित तो आ गये। कल्याणी- बारात का सपना देख रही है क्या? कृष्णा-वही चन्दर तो कह रहा है कि-दो-तीन दिन में बारात आयेगी, क्या न जायेगी अम्मां? कल्याणी-एक बार तो कह दिया, सिर क्यों खाती है? कृष्णा-सबके घर तो बारात आ रही है, हमारे यहां क्यों नहीं आती? कल्याणी-तेरे यहां जो बारात लाने वाला था, उसके घर में आग लग गई। कृष्णा-सच, अम्मां! तब तो सारा घर जल गया होगा। कहां रहते होंगे? बहन कहां जाकर रहेगी? कल्याणी-अरे पगली! तू तो बात ही नहीं समझती। आग नहीं लगी। वह हमारे यहां ब्याह न करेगा। कृष्णा-यह क्यों अम्मां? पहले तो वहीं ठीक हो गया था न? कल्याणी-बहुत से रुपये मांगता है। मेरे पास उसे देने को रुपये नहीं हैं। कृष्णा-क्या बड़े लालची हैं, अम्मां? कल्याणी-लालची नहीं तो और क्या है। पूरा कसाई निर्दयी, दगाबाज। कृष्णा-तब तो अम्मां, बहुत अच्छा हुआ कि उसके घर बहन का ब्याह नहीं हुआ। बहन उसके साथ कैसे रहती? यह तो खुश होने की बात है अम्मां, तुम रंज क्यों करती हो? कल्याणी ने पुत्री को स्नेहमयी दृष्टि से देखा। इनका कथन कितना सत्य है? भोले शब्दों में समस्या का कितना मार्मिक निरूपण है? सचमुच यह ते प्रसन्न होने की बात है कि ऐसे कुपात्रों से सम्बन्ध नहीं हुआ, रंज की कोई बात नहीं। ऐसे कुमानुसों के बीच में बेचारी निर्मला की न जाने क्या गति होती अपने नसीबों को रोती। जरा सा घी दाल में अधिक पड़ जाता, तो सारे घर में शोर मच जाता, जरा खाना ज्यादा पक जाता, तो सास दनिया सिर पर उठा लेती। लड़का भी ऐसा लोभी है। बड़ी अच्छी बात हुई, नहीं, बेचारी को उम्र भर रोना पड़ता। कल्याणी यहां से उठी, तो उसका हृदय हल्का हो गया था। |
11-01-2011, 09:33 AM | #17 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34 |
Re: ~!!निर्मला!!~
लेकिन विवाह तो करना ही था और हो सके तो इसी साल, नहीं तो दूसरे साल फिर नये सिरे से तैयारियां करनी पडेगी। अब अच्छे घर की जरूरत न थी। अच्छे वर की जरूरत न थी। अभागिनी को अच्छा घर-वर कहां मिलता! अब तो किसी भांति सिर का बोझा उतारना था, किसी भांति लड़की को पार लगाना था, उसे कुएं में झोंकना था। यह रूपवती है, गुणशीला है, चतुर है, कुलीन है, तो हुआ करें, दहेज नहीं तो उसके सारे गुण दोष हैं, दहेज हो तो सारे दोष गुण हैं। प्राणी का कोई मूल्य नहीं, केवल देहज का मूल्य है। कितनी विषम भग्यलीला है!
कल्याणी का दोष कुछ कम न था। अबला और विधवा होना ही उसे दोषों से मुक्त नहीं कर सकता। उसे अपने लड़के अपनी लड़कियों से कहीं ज्यादा प्यारे थे। लड़के हल के बैल हैं, भूसे खली पर पहला हक उनका है, उनके खाने से जो बचे वह गायों का! मकान था, कुछ नकद था, कई हजार के गहने थे, लेकिन उसे अभी दो लड़कों का पालन-पोषण करना था, उन्हें पढ़ाना-लिखाना था। एक कन्या और भी चार-पांच साल में विवाह करने योग्य हो जायेगी। इसलिए वह कोई बड़ी रकम दहेज में न दे सकती थी, आखिर लड़कों को भी तो कुछ चाहिए। वे क्या समझेंगे कि हमारा भी कोई बाप था। पंडित मोटेराम को लखनऊ से लौटे पन्द्रह दिन बीत चुके थे। लौटने के बाद दूसरे ही दिन से वह वर की खोज में निकले थे। उन्होंने प्रण किया था कि मैं लखनऊ वालों को दिखा दूंगा कि संसार में तुम्हीं अकेले नहीं हो, तुम्हारे ऐसे और भी कितने पड़े हुए हैं। कल्याणी रोज दिन गिना करती थी। आज उसने उन्हें पत्र लिखने का निश्चय किया और कलम-दवात लेकर बैठी ही थी कि पंडित मोटेराम ने पदार्पण किया। कल्याणी-आइये पंड़ितजी, मैं तो आपको खत लिखने जा रही थी, कब लौटे? मोटेराम-लौटा तो प्रात:काल ही था, पर इसी समय एक सेठ के यहां से निमन्त्रण आ गया। कई दिन से तर माल न मिले थे। मैंने कहा कि लगे हाथ यह भी काम निपटाता चलूं। अभी उधर ही से लौटा आ रहा हूं, कोई पांच सौ ब्रह्राणों को पंगत थी। कल्याणी-कुछ कार्य भी सिद्ध हुआ या रास्ता ही नापना पड़ा। मोटेराम- कार्य क्यों न सिद्ध होगा? भला, यह भी कोई बात है? पांच जगह बातचीत कर आया हूं। पांचों की नकल लाया हूं। उनमें से आप चाहे जिसे पसन्द करें। यह देखिए इस लड़के का बाप डाक के सीगे में सौ रूपये महीने का नौकर है। लड़का अभी कालेज में पढ़ रहा है। मगर नौकरी का भरोसा है, घर में कोई जायदाद नहीं। लड़का होनहार मालूम होता है। खानदान भी अच्छा है दो हजार में बात तय हो जायेगी। मांगते तो यह तीन हजार हैं। कल्याणी- लड़के के कोई भाई है? मोटे-नहीं, मगर तीन बहनें हैं और तीनों क्वांरी। माता जीवित है। अच्छा अब दूसरी नकल दिये। यह लड़का रेल के सीगे में पचास रूपये महीना पाता है। मां-बाप नहीं हैं। बहुत ही रूपवान् सुशील और शरीर से खूब हृष्ट-पुष्ट कसरती जवान है। मगर खानदान अच्छा नहीं, कोई कहता है, मां नाइन थी, कोई कहता है, ठकुराइन थी। बाप किसी रियासत में मुख्तार थे। घर पर थोड़ी सी जमींदारी है, मगर उस पर कई हजार का कर्ज है। वहां कुछ लेना-देना न पडेगा। उम्र कोई बीस साल होगी। कल्याणी-खानदान में दाग न होता, तो मंजूर कर लेती। देखकर तो मक्खी नहीं निगली जाती। मोटे-तीसरी नकल देखिए। एक जमींदार का लड़का है, कोई एक हजार सालाना नफा है। कुछ खेती-बारी भी होती है। लड़का पढ़-लिखा तो थोड़ा ही है, कचहरी-अदालत के काम में चतुर है। दुहाजू है, पहली स्त्री को मरे दो साल हुए। उससे कोई संतान नहीं, लेकिन रहना-सहन, मोटा है। पीसना-कूटना घर ही में होता है। कल्याणी- कुछ देहज मांगते हैं? |
11-01-2011, 09:35 AM | #18 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34 |
Re: ~!!निर्मला!!~
मोटे-इसकी कुछ न पूछिए। चार हजार सुनाते हैं। अच्छा यह चौथी नकल दिये। लड़का वकील है, उम्र कोई पैंतीस साल होगी। तीन-चार सौ की आमदनी है। पहली स्त्री मर चुकी है उससे तीन लड़के भी हैं। अपना घर बनवाया है। कुछ जायदाद भी खरीदी है। यहां भी लेन-देन का झगड़ा नहीं है।
कल्याणी- खानदान कैसा है? मोटे-बहुत ही उत्तम, पुराने रईस हैं। अच्छा, यह पांचवीं नकल दिए। बाप का छापाखाना है। लड़का पढ़ा तो बी. ए. तक है, पर उस छापेखाने में काम करता है। उम्र अठारह साल की होगी। घर में प्रेस के सिवाय कोई जायदाद नहीं है, मगर किसी का कर्ज सिर पर नहीं। खानदान न बहुत अच्छा है, न बुरा। लड़का बहुत सुन्दर और सच्चरित्र है। मगर एक हजार से कम में मामला तय न होगा, मांगते तो वह तीन हजार हैं। अब बताइए, आप कौन-सा वर पसन्द करती हैं? कल्याणी-आपकों सबों में कौन पसन्द है? मोटे-मुझे तो दो वर पसन्द हैं। एक वह जो रेलवई में है और दूसरा जो छापेखाने में काम करता है। कल्याणी-मगर पहले के तो खानदान में आप दोष बताते हैं? मोटे-हां, यह दोष तो है। छापेखाने वाले को ही रहने दीजिये। कल्याणी-यहां एक हजार देने को कहां से आयेगा? एक हजार तो आपका अनुमान है, शायद वह और मुंह फैलाये। आप तो इस घर की दशा देख ही रहे हैं, भोजन मिलता जाये, यही गनीमत है। रूपये कहां से आयेंगे? जमींदार साहब चार हजार सुनाते हैं, डाक बाबू भी दो हजार का सवाल करते हैं। इनको जाने दीजिए। बस, वकील साहब ही बच सकते हैं। पैंतीस साल की उम्र भी कोई ज्यादा नहीं। इन्हीं को क्यों न रखिए। मोटेराम-आप खूब सोच-विचार लें। मैं यों आपकी मर्जी का ताबेदार हूं। जहां कहिएगा वहां जाकर टीका कर आऊंगा। मगर हजार का मुंह न देखिए, छापेखाने वाला लड़का रत्न है। उसके साथ कन्या का जीवन सफल हो जाएगा। जैसी यह रूप और गुण की पूरी है, वैसा ही लड़का भी सुन्दर और सुशील है। कल्याणी-पसन्द तो मुझे भी यही है महाराज, पर रुपये किसके घर से आयें! कौन देने वाला है! है कोई दानी? खानेवाले खा-पीकर चंपत हुए। अब किसी की भी सूरत नहीं दिखाई देती, बल्कि और मुझसे बुरा मानते हैं कि हमें निकाल दिया। जो बात अपने बस के बाहर है, उसके लिए हाथ ही क्यों फैलाऊं? सन्तान किसको प्यारी नहीं होती? कौन उसे सुखी नहीं देखना चाहता? पर जब अपना काबू भी हो। आप ईश्वर का नाम लेकर वकील साहब को टीका कर आइये। आयु कुछ अधिक है, लेकिन मरना-जीना विधि के हाथ है। पैंतीस साल का आदमी बुढ्डा नहीं कहलाता। अगर लड़की के भाग्य में सुख भोगना बदा है, तो जहां जायेगी सुखी रहेगी, दु:ख भोगना है, तो जहां जायेगी दु:ख झेलेगी। हमारी निर्मला को बच्चों से प्रेम है। उनके बच्चों को अपना समझेगी। आप शुभ मुहूर्त देखकर टीका कर आयें। |
11-01-2011, 09:37 AM | #19 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34 |
Re: ~!!निर्मला!!~
निर्मला 05
निर्मला का विवाह हो गया। ससुराल आ गयी। वकील साहब का नाम था मुंशी तोताराम। सांवले रंग के मोटे-ताजे आदमी थे। उम्र तो अभी चालीस से अधिक न थी, पर वकालत के कठिन परिश्रम ने सिर के बाल पका दिये थे। व्यायाम करने का उन्हें अवकाश न मिलता था। वहां तक कि कभी कहीं घूमने भी न जाते, इसलिए तोंद निकल आई थी। देह के स्थून होते हुए भी आये दिन कोई-न-कोई शिकायत रहती थी। मंदग्नि और बवासीर से तो उनका चिरस्थायी सम्बन्ध था। अतएव बहुत फूंक-फूंककर कदम रखते थे। उनके तीन लड़के थे। बड़ा मंसाराम सोहल वर्ष का था, मंझला जियाराम बारह और सियाराम सात वर्ष का। तीनों अंग्रेजी पढ़ते थे। घर में वकील साहब की विधवा बहिन के सिवा और कोई औरत न थी। वही घर की मालकिन थी। उनका नाम था रुकमिणी और अवस्था पचास के ऊपर थी। ससुराल में कोई न था। स्थायी रीति से यहीं रहती थीं। तोताराम दम्पति-विज्ञान में कुशल थे। निर्मला के प्रसन्न रखने के लिए उनमें जो स्वाभाविक कमी थी, उसे वह उपहारों से पूरी करना चाहते थे। यद्यपि वह बहु ही मितव्ययी पुरूष थे, पर निर्मला के लिए कोई-न-कोई तोहफा रोज लाया करते। मौके पर धन की परवाइ न करते थे। लड़के के लिए थोड़ा दूध आता था, पर निर्मला के लिए मेवे, मुरब्बे, मिठाइयां-किसी चीज की कमी न थी। अपनी जिन्दगी में कभी सैर-तमाशे देखने न गये थे, पर अब छुट्टियों में निर्मला को सिनेमा, सरकस, एटर, दिखाने ले जाते थे। अपने बहुमूल्य समय का थोडा-सा हिस्सा उसके साथ बैंठकर ग्रामोफोन बजाने में व्यतीत किया करते थे। लेकिन निर्मला को न जाने क्यों तोताराम के पास बैठने और हंसने-बोलने में संकोच होता था। इसका कदाचित् यह कारण था कि अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका पिता था, जिसके सामने वह सिर-झुकाकर, देह चुराकर निकलती थी, अब उनकी अवस्था का एक आदमी उसका पति था। वह उसे प्रेम की वस्तु नहीं सम्मान की वस्तु समझती थी। उनसे भागती फिरती, उनको देखते ही उसकी प्रफुल्लता पलायन कर जाती थी। वकील साहब को नके दम्पत्ति-विज्ञान न सिखाया था कि युवती के सामने खूब प्रेम की बातें करनी चाहिये। दिल निकालकर रख देना चहिये, यही उसके वशीकरण का मुख्य मंत्र है। इसलिए वकील साहब अपने प्रेम-प्रदर्शन में कोई कसर न रखते थे, लेकिन निर्मला को इन बातों से घृणा होती थी। वही बातें, जिन्हें किसी युवक के मुख से सुनकर उनका हृदय प्रेम से उन्मत्त हो जाता, वकील साहब के मुंह से निकलकर उसके हृदय पर शर के समान आघात करती थीं। उनमें रस न था उल्लास न था, उन्माद न था, हृदय न था, केवल बनावट थी, घोखा था और शुष्क, नीरस शब्दाडम्बर। उसे इत्र और तेल बुरा न लगता, सैर-तमाशे बुरे न लगते, बनाव-सिंगार भी बुरा न लगता था, बुरा लगता था, तो केवल तोताराम के पास बैठना। वह अपना रूप और यौवन उन्हें न दिखाना चाहती थी, क्योंकि वहां देखने वाली आंखें न थीं। वह उन्हें इन रसों का आस्वादन लेने योग्य न समझती थी। कली प्रभात-समीर ही के सपर्श से खिलती है। दोनों में समान सारस्य है। निर्मला के लिए वह प्रभात समीर कहां था? पहला महीना गुजरते ही तोताराम ने निर्मला को अपना खजांची बना लिया। कचहरी से आकर दिन-भर की कमाई उसे दे देते। उनका ख्याल था कि निर्मला इन रूपयों को देखकर फूली न समाएगी। निर्मला बड़े शौक से इस पद का काम अंजाम देती। एक-एक पैसे का हिसाब लिखती, अगर कभी रूपये कम मिलते, तो पूछती आज कम क्यों हैं। गृहस्थी के सम्बन्ध में उनसे खूब बातें करती। इन्हीं बातों के लायक वह उनको समझती थी। ज्योंही कोई विनोद की बात उनके मुंह से निकल जाती, उसका मुख लिन हो जाता था। निर्मला जब वस्त्राभूष्णों से अलंकृत होकर आइने के सामने खड़ी होती और उसमें अपने सौंन्दर्य की सुषमापूर्ण आभा देखती, तो उसका हृदय एक सतृष्ण कामना से तड़प उठता था। उस वक्त उसके हृदय में एक ज्वाला-सी उठती। मन में आता इस घर में आग लगा दूं। अपनी माता पर क्रोध आता, पर सबसे अधिक क्रोध बेचारे निरपराध तोताराम पर आता। वह सदैव इस ताप से जला करती। बांका सवार लद्रदू-टट्टू पर सवार होना कब पसन्द करेगा, चाहे उसे पैदल ही क्यों न चलना पड़े? निर्मला की दशा उसी बांके सवार की-सी थी। वह उस पर सवार होकर उड़ना चाहती थी, उस उल्लासमयी |
11-01-2011, 09:39 AM | #20 |
Exclusive Member
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,259
Rep Power: 34 |
Re: ~!!निर्मला!!~
विद्यत् गति का आनन्द उठाना चाहती थी, टट्टू के हिनहिनाने और कनौतियां खड़ी करने से क्या आशा होती? संभव था कि बच्चों के साथ हंसने-खेलने से वह अपनी दशा को थोड़ी देर के लिए भूल जाती, कुछ मन हरा हो जाता, लेकिन रुकमिणी देवी लड़कों को उसके पास फटकने तक न देतीं, मानो वह कोई पिशाचिनी है, जो उन्हें निगल जायेगी। रुकमिणी देवी का स्वभाव सारे संसार से निराला था, यह पता लगाना कठिन था कि वह किस बात से खुश होती थीं और किस बात से नाराज। एक बार जिस बात से खुश हो जाती थीं, दूसरी बार उसी बात से जल जाती थी। अगर निर्मला अपने कमरे में बैठी रहती, तो कहतीं कि न जाने कहां की मनहूसिन है! अगर वह कोठे पर चढ़ जाती या महरियों से बातें करती, तो छाती पीटने लगतीं-न लाज है, न शरम, निगोड़ी ने हया भून खाई! अब क्या कुछ दिनों में बाजार में नाचेगी! जब से वकील साहब ने निर्मला के हाथ में रुपये-पैसे देने शुरू किये, रुकमिणी उसकी आलोचना करने पर आरूढ़ हो गयी। उन्हें मालूम होता था। कि अब प्रलय होने में बहुत थोड़ी कसर रह गयी है। लड़कों को बार-बार पैसों की जरूरत पड़ती। जब तक खुद स्वामिनी थीं, उन्हें बहला दिया करती थीं। अब सीधे निर्मला के पास भेज देतीं। निर्मला को लड़कों के चटोरापन अच्छा न लगता था। कभी-कभी पैसे देने से इन्कार कर देती। रुकमिणी को अपने वाग्बाण सर करने का अवसर मिल जाता-अब तो मालकिन हुई है, लड़के काहे को जियेंगे। बिना मां के बच्चे को कौन पूछे? रूपयों की मिठाइयां खा जाते थे, अब धेले-धेले को तरसते हैं। निर्मला अगर चिढ़कर किसी दिन बिना कुछ पूछे-ताछे पैसे दे देती, तो देवीजी उसकी दूसरी ही आलोचना करतीं-इन्हें क्या, लड़के मरे या जियें, इनकी बला से, मां के बिना कौन समझाये कि बेटा, बहुत मिठाइयां मत खाओ। आयी-गयी तो मेरे सिर जायेगी, इन्हें क्या? यहीं तक होता, तो निर्मला शायद जब्त कर जाती, पर देवीजी तो खुफिया पुलिस से सिपाही की भांति निर्मला का पीछा करती रहती थीं। अगर वह कोठे पर खड़ी है, तो अवश्य ही किसी पर निगाह डाल रही होगी, महरी से बातें करती है, तो अवश्य ही उनकी निन्दा करती होगी। बाजार से कुछ मंगवाती है, तो अवश्य कोई विलास वस्तु होगी। यह बराबर उसके पत्र पढ़ने की चेष्टा किया करती। छिप-छिपकर बातें सुना करती। निर्मला उनकी दोधरी तलवार से कांपती रहती थी। यहां तक कि उसने एक दिन पति से कहा-आप जरा जीजी को समझा दीजिए, क्यों मेरे पीछे पड़ रहती हैं?
तोताराम ने तेज होकर कह- तुम्हें कुछ कहा है, क्या? ‘रोज ही कहती हैं। बात मुंह से निकालना मुश्किल है। अगर उन्हें इस बात की जलन हो कि यह मालकिन क्यों बनी हुई है, तो आप उन्हीं को रूपये-पैसे दीजिये, मुझे न चाहिये, यही मालकिन बनी रहें। मैं तो केवल इतना चाहती हूं कि कोई मुझे ताने-मेहने न दिया करे।’ यह कहते-कहते निर्मला की आंखों से आंसू बहने लगे। तोताराम को अपना प्रेम दिखाने का यह बहुत ही अच्छा मौका मिला। बोले-मैं आज ही उनकी खबर लूंगा। साफ कह दूंगा, मुंह बन्द करके रहना है, तो रहो, नहीं तो अपनी राह लो। इस घर की स्वामिनी वह नहीं है, तुम हो। वह केवल तुम्हारी सहायता के लिए हैं। अगर सहायता करने के बदले तुम्हें दिक करती हैं, तो उनके यहां रहने की जरूरत नहीं। मैंने सोचा था कि विधवा हैं, अनाथ हैं, पाव भर आटा खायेंगी, पड़ी रहेंगी। जब और नौकर-चाकर खा रहे हैं, तो वह तो अपनी बहिन ही है। लड़कों की देखभाल के लिए एक औरत की जरूरत भी थी, रख लिया, लेकिन इसके यह माने नहीं कि वह तुम्हारे ऊपर शासन करें। निर्मला ने फिर कहा-लड़कों को सिखा देती हैं कि जाकर मां से पैसे मांगे, कभी कुछ-कभी कुछ। लड़के आकर मेरी जान खाते हैं। घड़ी भर लेटना मुश्किल हो जाता है। डांटती हूं, तो वह आखें लाल-पीली करके दौड़ती हैं। मुझे समझती हैं कि लड़कों को देखकर जलती है। ईश्वर जानते होंगे कि मैं बच्चों को कितना प्यार करती हूं। आखिर मेरे ही बच्चे तो हैं। मुझे उनसे क्यों जलन होने लगी? तोताराम क्रोध से कांप उठे। बोल-तुम्हें जो लड़का दिक करे, उसे पीट दिया करो। मैं भी देखता हूं कि लौंडे शरीर हो गये हैं। मंसाराम को तो में बोर्डिंग हाउस में भेज दूंगा। बाकी दोनों को तो आज ही ठीक किये देता हूं। उस वक्त तोताराम कचहरी जा रहे थे, डांट-डपट करने का मौका न था, लेकिन कचहरी से लौटते ही उन्होंने घर में रुक्मिणी से कहा-क्यों बहिन, तुम्हें इस घर में रहना है या नहीं? अगर रहना है, शान्त होकर रहो। यह क्या कि दूसरों का रहना मुश्किल कर दो। |
Bookmarks |
|
|