22-11-2012, 07:40 PM | #1 |
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~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
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22-11-2012, 07:43 PM | #2 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
गुंडा........
वह पचास वर्ष सेऊपर था। तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमीकिनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीपकी मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर सुनहले पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता।ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गँड़ासा, यह भी उसकी धज! पंजों के बल जब वह चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं। वह गुंडा था। ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वही काशी नहीं रह गयी थी, जिसमें उपनिषद् के अजातशत्रु की परिषद् में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान ब्रह्मचारी आते थे। गौतम बुद्ध औरशंकराचार्य के धर्म-दर्शन के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, प्राय: बन्द-से हो गये थे। यहाँ तक कि पवित्रता और छुआछूत में कट्टर वैष्णव-धर्म भी उसविशृंखलता में, नवागन्तुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देखकर काशी में अघोर रूप धारण कर रहा था। उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर, काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिक जीवन ने, एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था। अपनी बात पर मिटना, सिंह-वृत्ति से जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षा माँगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी पर शस्त्र न उठाना, सताये निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिये घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे। जीवन की किसी अलभ्य अभिलाषा से वञ्चित होकर जैसे प्राय: लोग विरक्तहो जाते हैं, ठीक उसी तरह किसी मानसिक चोट से घायल होकर, एक प्रतिष्ठित जमींदार का पुत्र होने पर भी, नन्हकूसिंह गुंडा हो गया था। दोनों हाथों से उसने अपनी सम्पत्ति लुटायी। नन्हकूसिंह ने बहुत-सा रुपया खर्च करके जैसा स्वाँग खेला था, उसे काशी वाले बहुत दिनों तक नहीं भूल सके। वसन्त ऋतु में यह प्रहसनपूर्ण अभिनय खेलने के लिए उन दिनों प्रचुर धन, बल, निर्भीकता और उच्छृंखलता की आवश्यकता होती थी। एक बार नन्हकूसिंह ने भी एक पैर में नूपुर, एक हाथ में तोड़ा, एक आँख में काजल, एक कान में हजारोंके मोती तथा दूसरेकान में फटे हुए जूते का तल्ला लटकाकर, एक जड़ाऊ मूठ की तलवार, दूसरा हाथ आभूषणों से लदी हुई अभिनय करनेवाली प्रेमिका के कन्धे पर रखकर गाया था- ‘‘कहीं बैगनवालीमिले तो बुला देना।’’ प्राय: बनारस केबाहर की हरियालियों में, अच्छे पानीवाले कुओं पर, गंगा की धारा में मचलती हुई डोंगी पर वह दिखलाई पड़ता था। कभी-कभी जूआखाने से निकलकर जब वह चौक में आ जाता, तो काशी की रँगीली वेश्याएँ मुस्कराकर उसका स्वागत करतीं और उसके दृढ़ शरीर कोसस्पृह देखतीं। वह तमोली की ही दूकान पर बैठकर उनके गीत सुनता, ऊपर कभी नहीं जाताथा। जूए की जीत का रुपया मुठ्ठियों में भर-भरकर, उनकी खिडक़ी में वह इस तरह उछालता कि कभी-कभी समाजी लोगअपना सिर सहलाने लगते, तब वह ठठाकर हँस देता। जब कभी लोग कोठे के ऊपर चलने के लिए कहते, तो वह उदासी की साँस खींचकर चुप हो जाता। वह अभी वंशी के जूआखाने से निकला था। आज उसकी कौड़ीने साथ न दिया। सोलह परियों के नृत्य में उसका मनन लगा। मन्नू तमोली की दूकान परबैठते हुए उसने कहा-‘‘आज सायत अच्छी नहीं रही, मन्नू!’’ ‘‘क्यों मालिक! चिन्ता किस बात कीहै। हम लोग किस दिन के लिए हैं। सब आप ही का तो है।’’ ‘‘अरे, बुद्धू ही रहे तुम! नन्हकूसिंह जिस दिन किसी से लेकर जूआ खेलने लगे उसीदिन समझना वह मर गये। तुम जानते नहीं कि मैं जूआ खेलने कब जाता हूँ। जब मेरे पास एक पैसा नहीं रहता; उसी दिन नाल पर पहुँचते ही जिधर बड़ी ढेरी रहती है, उसी को बदता हूँ और फिर वही दाँव आता भी है। बाबा कीनाराम का यह बरदान है!’’ ‘‘तब आज क्यों, मालिक?’’ ‘‘पहला दाँव तो आया ही, फिर दो-चार हाथ बदने पर सब निकल गया। तब भी लो, यह पाँच रुपये बचे हैं। एक रुपयातो पान के लिए रख लो और चार दे दो मलूकी कथक को, कह दो कि दुलारी से गाने के लिए कह दे। हाँ, वही एक गीत- ‘‘विलमि विदेश रहे।’’ नन्हकूसिंह की बात सुनते ही मलूकी, जो अभी गाँजे की चिलम पर रखने के लिए अँगारा चूर कर रहाथा, घबराकर उठ खड़ा हुआ। वह सीढिय़ों पर दौड़ता हुआ चढ़ गया। चिलम को देखता ही ऊपर चढ़ा, इसलिए उसे चोट भी लगी; पर नन्हकूसिंह की भृकुटी देखने की शक्ति उसमें कहाँ। उसे नन्हकूसिंह की वह मूर्ति न भूली थी, जब इसी पान की दूकान पर जूएखाने से जीता हुआ, रुपये से भरा तोड़ा लिये वह बैठा था। दूर से बोधीसिंह की बारात का बाजा बजता हुआ आ रहा था। नन्हकू ने पूछा-‘‘यह किसकी बारात है?’’ |
22-11-2012, 09:15 PM | #3 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
अलेक्स जी, सर्वप्रथम आपको इस बात के लिये तहे दिल धन्यवाद और बधाई देता हूँ कि आपने देवनागरी लिपि में अपने पोस्ट भेजने के लिये मेरे निवेदन को स्वीकार कर लिया. इस कहानी में कोशिश अच्छी की है. कहीं कहीं पर दो शब्दों के बीच स्पेस नहीं दिया गया जैसे ‘मन न’ लिखने की बजाय ‘मनन’ लिखा गया. कोई बात नहीं. अभ्यास से यह भी ठीक हो जाएगा. कहानी बहुत उम्दा है. लगता है अगली किश्त बकाया है. कृपया जल्द प्रेषित करें.
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22-11-2012, 09:55 PM | #4 | |
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Re: ~~1Ï61Ñ51Ò21Í01Î91Ñ6 1Ñ01Ô51Ñ61Ò41Ó01Ð6 1Î91Ó2 1Î91Ò51Ó01Ð81Ó11Ñ51Ó01Ì9!! !
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23-11-2012, 04:55 PM | #5 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
गुंडा...........
. नन्हकू ने पूछा-‘‘यह किसकी बारात है?’’ ‘‘ठाकुर बोधीसिंह के लड़के की।’’-मन्नू के इतना कहते ही नन्हकू के ओठ फड़कने लगे। उसने कहा-‘‘मन्नू! यह नहीं हो सकता। आज इधर से बारात न जायगी। बोधीसिंह हमसे निपटकर तब बारात इधर से ले जा सकेंगे।’’ मन्नू ने कहा-‘‘तब मालिक, मैंक्या करूँ?’’ नन्हकू गँड़ासा कन्धे पर से और ऊँचा करके मलूकी से बोला-‘‘मलुकिया देखता है, अभी जा ठाकुर से कह दे, कि बाबू नन्हकूसिंह आज यहीं लगाने के लिए खड़े हैं। समझकर आवें, लड़के की बारात है।’’ मलुकिया काँपता हुआ ठाकुर बोधीसिंह के पास गया। बोधीसिंह और नन्हकू से पाँच वर्ष से सामना नहीं हुआ है। किसीदिन नाल पर कुछ बातों में ही कहा-सुनी होकर, बीच-बचाव हो गया था। फिर सामना नहीं हो सका। आज नन्हकू जान पर खेलकर अकेला खड़ा है। बोधीसिंह भी उस आन को समझते थे। उन्होंने मलूकी से कहा-‘‘जा बे, कह दे कि हमको क्या मालूम कि बाबू साहब वहाँ खड़े हैं। जब वह हैं ही, तो दो समधी जाने का क्या काम है।’’ बोधीसिंह लौट गये और मलूकी के कन्धे पर तोड़ालादकर बाजे के आगेनन्हकूसिंह बारात लेकर गये। ब्याह में जो कुछ लगा, खर्च किया। ब्याह कराकर तब, दूसरे दिन इसी दूकान तक आकर रुक गये। लड़के को और उसकी बारात को उसके घर भेज दिया। मलूकी को भी दस रुपया मिला था उस दिन। फिर नन्हकूसिंह की बात सुनकर बैठे रहना और यम को न्योता देना एक हीबात थी। उसने जाकरदुलारी से कहा-‘‘हम ठेका लगा रहे हैं, तुम गाओ, तब तक बल्लू सारंगीवाला पानी पीकर आता है।’’ ‘‘बाप रे, कोई आफतआयी है क्या बाबू साहब? सलाम!’’-कहकर दुलारी ने खिडक़ी से मुस्कराकर झाँका था कि नन्हकूसिंह उसके सलाम का जवाब देकर, दूसरे एक आनेवाले को देखने लगे। हाथ में हरौती की पतली-सी छड़ी, आँखों में सुरमा, मुँह में पान, मेंहदी लगी हुई लाल दाढ़ी, जिसकी सफेद जड़ दिखलाई पड़ रही थी, कुव्वेदार टोपी; छकलिया अँगरखा और साथ में लैसदार परतवाले दो सिपाही! कोई मौलवीसाहब हैं। नन्हकू हँस पड़ा। नन्हकू की ओर बिना देखे ही मौलवी ने एक सिपाही से कहा-‘‘जाओ, दुलारी से कह दो कि आज रेजिडेण्ट साहब की कोठी पर मुजरा करना होगा, अभी चले, देखो तब तक हम जानअली से कुछ इत्र ले रहे हैं।’’ सिपाही ऊपर चढ़ रहा था और मौलवी दूसरी ओर चले थे कि नन्हकू ने ललकारकर कहा-‘‘दुलारी! हम कबतक यहाँ बैठे रहें! क्या अभी सरंगिया नहीं आया?’’ दुलारी ने कहा-‘‘वाह बाबू साहब! आपही के लिए तो मैं यहाँ आ बैठी हूँ, सुनिए न! आप तो कभी ऊपर...’’ मौलवी जल उठा। उसने कड़ककर कहा-‘‘चोबदार! अभी वह सुअर की बच्ची उतरी नहीं। जाओ, कोतवाल के पास मेरा नाम लेकर कहोकि मौलवी अलाउद्दीन कुबरा ने बुलाया है। आकरउसकी मरम्मत करें। देखता हूँ तो जब से नवाबी गयी, इन काफिरों की मस्ती बढ़ गयी है।’’ कुबरा मौलवी! बाप रे-तमोली अपनीदूकान सम्हालने लगा। पास ही एक दूकान पर बैठकर ऊँघता हुआ बजाज चौंककर सिर में चोट खा गया! इसी मौलवी ने तो महाराज चेतसिंह से साढ़े तीन सेर चींटी के सिर का तेल माँगा था। मौलवी अलाउद्दीन कुबरा! बाजार में हलचल मच गयी। नन्हकूसिंह ने मन्नू से कहा-‘‘क्यों, चुपचाप बैठोगे नहीं!’’ दुलारी से कहा-‘‘वहीं से बाईजी! इधर-उधर हिलने का काम नहीं। तुम गाओ। हमने ऐसे घसियारे बहुत-से देखे हैं।अभी कल रमल के पासे फेंककर अधेला-अधेला माँगता था, आज चला है रोब गाँठने।’’ अब कुबरा ने घूमकर उसकी ओर देखकर कहा-‘‘कौन है यह पाजी!’’ ‘‘तुम्हारे चाचाबाबू नन्हकूसिंह!’’-के साथ ही पूरा बनारसी झापड़ पड़ा। कुबरा का सिर घूम गया। लैस के परतले वाले सिपाही दूसरी ओर भाग चले और मौलवी साहब चौंधिया कर जानअली की दूकान पर लडख़ड़ाते, गिरते-पड़ते किसी तरह पहुँच गये। जानअली ने मौलवी से कहा-‘‘मौलवी साहब! भला आप भी उस गुण्डे के मुँह लगने गये। यह तो कहिए कि उसने गँड़ासा नहीं तौल दिया।’’ कुबरा के मुँह से बोली नहींनिकल रही थी। उधर दुलारी गा रही थी’’.... विलमि विदेस रहे ....’’ गाना पूरा हुआ, कोई आया-गया नही। तब नन्हकूसिंह धीरे-धीरे टहलता हुआ, दूसरी ओर चला गया। थोड़ी देर में एक डोली रेशमीपरदे से ढँकी हुई आयी। साथ में एक चोबदार था। उसने दुलारी को राजमाता पन्ना की आज्ञा सुनायी। दुलारी चुपचाप डोली पर जा बैठी। डोली धूल और सन्ध्याकाल के धुएँ से भरी हुई बनारस की तंग गलियों से होकर शिवालय घाट की ओर चली। |
23-11-2012, 05:03 PM | #6 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
श्रावण का अन्तिम सोमवार था। राजमाता पन्ना शिवालय में बैठकर पूजन कर रहीथी। दुलारी बाहर बैठी कुछ अन्य गानेवालियों के साथ भजन गा रही थी। आरती हो जाने पर, फूलों की अञ्जलि बिखेरकर पन्ना ने भक्तिभाव से देवता के चरणों में प्रणाम किया। फिर प्रसाद लेकर बाहर आते ही उन्होंने दुलारी को देखा। उसने खड़ी होकर हाथ जोड़ते हुए कहा-‘‘मैं पहले ही पहुँच जाती। क्या करूँ, वह कुबरा मौलवी निगोड़ा आकर रेजिडेण्ट की कोठी पर ले जाने लगा। घण्टों इसी झंझट में बीत गया, सरकार!’’
‘‘कुबरा मौलवी! जहाँ सुनती हूँ, उसी का नाम। सुना है कि उसने यहाँ भी आकर कुछ....’’-फिर न जाने क्या सोचकरबात बदलते हुए पन्ना ने कहा-‘‘हाँ,तब फिर क्या हुआ? तुम कैसे यहाँ आ सकीं?’’ ‘‘बाबू नन्हकूसिंह उधर से आ गये।’’ मैंने कहा-‘‘सरकार की पूजा पर मुझे भजन गाने को जाना है। और यह जाने नहीं दे रहा है। उन्होंने मौलवी को ऐसा झापड़ लगाया कि उसकी हेकड़ी भूल गयी। और तब जाकर मुझे किसी तरह यहाँ आनेकी छुट्टी मिली।’’ ‘‘कौन बाबू नन्हकूसिंह!’’ दुलारी ने सिर नीचा करके कहा-‘‘अरे, क्या सरकार को नहीं मालूम? बाबू निरंजनसिंह के लड़के! उस दिन, जब मैं बहुत छोटी थी, आपकी बारी में झूला झूल रही थी, जब नवाब का हाथी बिगड़कर आ गया था, बाबू निरंजनसिंह के कुँवर ने ही तो उस दिन हम लोगों की रक्षा की थी।’’ राजमाता का मुख उस प्राचीन घटना को स्मरण करके न जाने क्यों विवर्ण हो गया। फिर अपने को सँभालकर उन्होंने पूछा-‘‘तो बाबू नन्हकूसिंह उधर कैसे आ गये?’’ दुलारी ने मुस्कराकर सिर नीचा कर लिया! दुलारी राजमाता पन्ना के पिता की जमींदारी में रहने वाली वेश्या की लडक़ी थी। उसके साथ ही कितनी बार झूले-हिण्डोले अपने बचपन में पन्ना झूल चुकी थी। वह बचपन से ही गाने में सुरीली थी। सुन्दरी होने पर चञ्चल भी थी। पन्ना जब काशीराज की माता थी, तब दुलारी काशी की प्रसिद्ध गानेवाली थी। राजमहल में उसका गाना-बजाना हुआ हीकरता। महाराज बलवन्तसिंह के समय से ही संगीत पन्ना के जीवन का आवश्यक अंश था। हाँ, अब प्रेम-दु:ख और दर्द-भरी विरह-कल्पना के गीत की ओर अधिक रुचि न थी। अब सात्विक भावपूर्ण भजन होता था। राजमाता पन्ना का वैधव्य से दीप्त शान्त मुखमण्डल कुछ मलिन हो गया। बड़ी रानी की सापत्न्य ज्वाला बलवन्तसिंह के मर जाने पर भी नहीं बुझी। अन्त:पुर कलह का रंगमंच बनारहता, इसी से प्राय: पन्ना काशीके राजमंदिर में आकर पूजा-पाठ में अपना मन लगाती। रामनगर में उसको चैन नहीं मिलता। नयी रानी होने के कारण बलवन्तसिंह की प्रेयसी होने का गौरव तो उसे था ही, साथ में पुत्र उत्पन्न करने का सौभाग्य भी मिला, फिर भी असवर्णता का सामाजिक दोष उसके हृदय को व्यथित किया करता। उसे अपने ब्याह की आरम्भिक चर्चा का स्मरण होआया। छोटे-से मञ्च पर बैठी, गंगा की उमड़ती हुई धारा को पन्ना अन्य-मनस्क होकर देखने लगी। उस बातको, जो अतीत में एक बार, हाथ से अनजाने में खिसक जानेवाली वस्तु की तरह गुप्त हो गयी हो; सोचने का कोई कारण नहीं। उससे कुछ बनता-बिगड़ता भी नहीं; परन्तु मानव-स्वभाव हिसाब रखने की प्रथानुसार कभी-कभी कही बैठताहै, ‘‘कि यदि वह बात हो गयी होती तो?’’ ठीक उसी तरह पन्नाभी राजा बलवन्तसिंह द्वारा बलपूर्वक रानी बनायी जाने के पहले की एक सम्भावना को सोचने लगी थी। सो भी बाबू नन्हकूसिंह का नाम सुन लेने पर। गेंदा मुँहलगी दासी थी। वह पन्नाके साथ उसी दिन से है, जिस दिन से पन्ना बलवन्तसिंह की प्रेयसी हुई। राज्य-भर का अनुसन्धान उसी के द्वारा मिला करता। और उसे न जाने कितनी जानकारी भी थी। उसने दुलारी का रंग उखाड़ने के लिएकुछ कहना आवश्यक समझा। ‘‘महारानी! नन्हकूसिंह अपनी सब जमींदारी स्वाँग, भैंसों कीलड़ाई, घुड़दौड़ और गाने-बजाने मेंउड़ाकर अब डाकू होगया है। जितने खूनहोते हैं, सब में उसी का हाथ रहता है। जितनी ....’’ उसे रोककर दुलारी ने कहा-‘‘यह झूठ है। बाबू साहब के ऐसा धर्मात्मा तो कोई है ही नहीं। कितनीविधवाएँ उनकी दी हुई धोती से अपना तन ढँकती है। कितनी लड़कियों की ब्याह-शादी होती है। कितने सताये हुए लोगों की उनके द्वारा रक्षा होती है।’’ रानी पन्ना के हृदय में एक तरलताउद्वेलित हुई। उन्होंने हँसकर कहा-‘‘दुलारी, वे तेरे यहाँ आते हैंन? इसी से तू उनकी बड़ाई....।’’ ‘‘नहीं सरकार! शपथ खाकर कह सकती हूँ कि बाबू नन्हकूसिंह ने आज तक कभी मेरे कोठे पर पैर भी नहीं रखा।’’ राजमाता न जाने क्यों इस अद्*भुत व्यक्ति को समझने के लिए चञ्चल हो उठी थीं। तब भी उन्होंने दुलारी को आगे कुछ न कहने के लिए तीखी दृष्टि से देखा। वह चुप हो गयी। पहले पहर की शहनाईबजने लगी। दुलारी छुट्टी माँगकर डोली पर बैठ गयी। तब गेंदा ने कहा-‘‘सरकार! आजकल नगर की दशा बड़ी बुरी है। दिन दहाड़े लोग लूट लिए जाते हैं। सैकड़ों जगह नाला पर जुए में लोग अपना सर्वस्व गँवाते हैं। बच्चे फुसलाये जाते हैं। गलियों में लाठियाँ और छुरा चलने के लिए टेढ़ी भौंहे कारण बन जाती हैं। उधर रेजीडेण्ट साहब से महाराजा की अनबन चल रही है।’’ राजमाता चुप रहीं। दूसरे दिन राजा चेतसिंह के पास रेजिडेण्ट मार्कहेम की चिठ्ठी आयी, जिसमें नगर की दुव्र्यवस्था की कड़ी आलोचना थी। डाकुओं और गुण्डों को पकड़ने के लिए, उन पर कड़ा नियन्त्रण रखने की सम्मति भी थी। कुबरा मौलवी वाली घटना का भी उल्लेखथा। उधर हेंस्टिग्स के आने की भी सूचना थी। शिवालयघाट और रामनगर में हलचल मच गयी! कोतवाल हिम्मतसिंह, पागल की तरह, जिसके हाथ में लाठी, लोहाँगी, गड़ाँसा,बिछुआ और करौली देखते, उसी को पकड़ने लगे। एक दिन नन्हकूसिंह सुम्भा के नाले केसंगम पर, ऊँचे-से टीले की घनी हरियाली में अपने चुने हुए साथियों के साथ दूधिया छानरहे थे। गंगा में, उनकी पतली डोंगी बड़ की जटा से बँधी थी। कथकों कागाना हो रहा था। चार उलाँकी इक्के कसे-कसाये खड़े थे। नन्हकूसिंह ने अकस्मात् कहा-‘‘मलूकी!’’ गाना जमता नहीं है। उलाँकी पर बैठकर जाओ, दुलारी को बुला लाओ।’’ मलूकी वहाँ मजीरा बजा रहा था। दौड़कर इक्के पर जा बैठा।आज नन्हकूसिंह का मन उखड़ा था। बूटीकई बार छानने पर भी नशा नहीं। एक घण्टे में दुलारी सामने आ गयी। उसनेमुस्कराकर कहा-‘‘क्या हुक्म है बाबू साहब?’’ ‘‘दुलारी! आज गाना सुनने का मन कर रहा है।’’ ‘‘इस जंगल में क्यों?-उसने सशंक हँसकर कुछ अभिप्राय से पूछा। ‘‘तुम किसी तरह का खटका न करो।’’-नन्हकूसिंहने हँसकर कहा। ‘‘यह तो मैं उस दिन महारानी से भीकह आयी हूँ।’’ ‘‘क्या, किससे?’’ ‘‘राजमाता पन्नादेवी से’’-फिर उस दिन गाना नहीं जमा। दुलारी ने आश्चर्य से देखा कि तानों मेंनन्हकू की आँखे तरहो जाती हैं। गाना-बजाना समाप्त हो गया था।वर्षा की रात में झिल्लियों का स्वर उस झुरमुट में गूँज रहा था। मंदिर के समीप ही छोटे-से कमरे में नन्हकूसिंह चिन्ता में निमग्न बैठा था। आँखों में नीद नहीं। और सब लोग तो सोने लगे थे, दुलारी जाग रही थी। वह भी कुछ सोच रही थी। आज उसे, अपने को रोकने के लिए कठिन प्रयत्न करना पड़ रहा था; किन्तु असफल होकर वह उठी और नन्हकू के समीप धीरे-धीरेचली आयी। कुछ आहट पाते ही चौंककर नन्हकूसिंह ने पास ही पड़ी हुई तलवार उठा ली। तब तक हँसकर दुलारी ने कहा-‘‘बाबू साहब,यह क्या? स्त्रियों पर भी तलवार चलायी जाती है!’’ छोटे-से दीपक के प्रकाश में वासना-भरी रमणी कामुख देखकर नन्हकू हँस पड़ा। उसने कहा-‘‘क्यों बाईजी! क्या इसी समय जानेकी पड़ी है। मौलवीने फिर बुलाया है क्या?’’ दुलारी नन्हकू के पास बैठगयी। नन्हकू ने कहा-‘‘क्या तुमको डर लग रहा है?’’ ‘‘नहीं, मैं कुछ पूछने आयी हूँ।’’ ‘‘क्या?’’ ‘‘क्या,......यही कि......कभी तुम्हारे हृदय में....’’ ‘‘उसे न पूछो दुलारी! हृदय को बेकार ही समझ कर तो उसे हाथ में लिये फिर रहा हूँ।कोई कुछ कर देता-कुचलता-चीरता-उछालता! मर जाने के लिए सब कुछ तो करता हूँ, पर मरने नहीं पाता।’’ ‘‘मरने के लिए भी कहीं खोजने जाना पड़ता है। आपको काशी का हाल क्या मालूम! न जाने घड़ी भर में क्या हो जाय। उलट-पलट होने वाला है क्या, बनारस की गलियाँ जैसे काटने को दौड़ती हैं।’’ ‘‘कोई नयी बात इधर हुई है क्या?’’ ‘‘कोई हेस्ंिटग्ज आया है। सुना है उसने शिवालयघाट पर तिलंगों की कम्पनी का पहरा बैठा दिया है। राजा चेतसिंह और राजमाता पन्ना वहीं हैं। कोई-कोईकहता है कि उनको पकड़कर कलकत्ता भेजने....’’ ‘‘क्या पन्ना भी....रनिवास भी वहीं है’’-नन्हकू अधीर हो उठा था। ‘‘क्यों बाबू साहब, आज रानी पन्ना का नाम सुनकर आपकी आँखों में आँसू क्यो आ गये?’’ सहसा नन्हकू का मुख भयानक हो उठा! उसने कहा-‘‘चुप रहो,तुम उसको जानकर क्या करोगी?’’ वह उठ खड़ा हुआ। उद्विग्न की तरह नजाने क्या खोजने लगा। फिर स्थिर होकर उसने कहा-‘‘दुलारी! जीवन में आज यह पहला ही दिन है कि एकान्त रात में एक स्त्रीमेरे पलँग पर आकर बैठ गयी है, मैं चिरकुमार! अपनी एकप्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए सैकड़ों असत्य, अपराध करताफिर रहा हूँ। क्यों? तुम जानती हो? मैं स्त्रियों का घोर विद्रोही हूँ और पन्ना! .... किन्तु उसका क्या अपराध! अत्याचारी बलवन्तसिंह के कलेजे में बिछुआ मैं न उतार सका। किन्तु पन्ना! उसेपकड़कर गोरे कलकत्ते भेज देंगे! वही ...।’’ नन्हकूसिंह उन्मत्त हो उठा था। दुलारी ने देखा, नन्हकू अन्धकार में ही वटवृक्ष के नीचे पहुँचा और गंगा कीउमड़ती हुई धारा में डोंगी खोल दी-उसी घने अन्धकार में। दुलारी का हृदय काँप उठा। |
24-11-2012, 07:13 PM | #7 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
16 अगस्त सन् 1781 को काशी डाँवाडोल हो रही थी। शिवालयघाट में राजा चेतसिंह लेफ्टिनेण्ट इस्टाकर के पहरे में थे। नगर में आतंक था। दूकानें बन्द थीं। घरों में बच्चे अपनी माँ से पूछते थे-‘माँ, आज हलुए वाला नहीं आया।’ वह कहती-‘चुप बेटे!’सडक़ें सूनी पड़ी थीं। तिलंगों की कम्पनी के आगे-आगेकुबरा मौलवी कभी-कभी, आता-जाता दिखाई पड़ता था। उस समय खुली हुई खिड़कियाँ बन्द हो जाती थीं। भय और सन्नाटे का राज्य था। चौक मेंचिथरूसिंह की हवेली अपने भीतर काशी की वीरता को बन्द किये कोतवाल का अभिनय कर रही थी। इसी समय किसी ने पुकारा-‘‘हिम्मतसिंह!’’
खिडक़ी में से सिर निकाल कर हिम्मतसिंह ने पूछा-‘‘कौन?’’ ‘‘बाबू नन्हकूसिंह!’’ ‘‘अच्छा, तुम अब तक बाहर ही हो?’’ ‘‘पागल! राजा कैद हो गये हैं। छोड़ दो इन सब बहादुरोंको! हम एक बार इनको लेकर शिवालयघाट पर जायँ।’’ ‘‘ठहरो’’-कहकर हिम्मतसिंह ने कुछ आज्ञा दी, सिपाही बाहर निकले। नन्हकू की तलवार चमक उठी। सिपाही भीतर भागे। नन्हकू ने कहा-‘‘नमकहरामों! चूडिय़ाँ पहन लो।’’ लोगों के देखते-देखते नन्हकूसिंह चला गया। कोतवाली के सामने फिर सन्नाटा हो गया। नन्हकू उन्मत्त था। उसके थोड़े-से साथी उसकी आज्ञा पर जानदेने के लिए तुले थे। वह नहीं जानताथा कि राजा चेतसिंह का क्या राजनैतिक अपराध है? उसने कुछ सोचकर अपने थोड़े-से साथियों को फाटक पर गड़बड़ मचाने के लिए भेज दिया। इधर अपनी डोंगी लेकर शिवालय की खिडक़ी के नीचे धारा काटता हुआ पहुँचा। किसी तरह निकले हुए पत्थर में रस्सी अटकाकर,उस चञ्चल डोंगी कोउसने स्थिर किया और बन्दर की तरह उछलकर खिडक़ी के भीतर हो रहा। उस समय वहाँ राजमाता पन्ना और राजा चेतसिंह से बाबू मनिहारसिंह कह रहे थे-‘‘आपके यहाँ रहने से, हम लोग क्या करें, यह समझ में नहीं आता। पूजा-पाठ समाप्त करके आप रामनगर चली गयी होतीं, तो यह ....’’ तेजस्विनी पन्ना ने कहा-‘‘अब मैं रामनगर कैसे चली जाऊँ?’’ मनिहारसिंह दुखी होकर बोले-‘‘कैसे बताऊँ?मेरे सिपाही तो बन्दी हैं।’’ इतने में फाटक पर कोलाहल मचा। राज-परिवार अपनी मन्त्रणा में डूबा था कि नन्हकूसिंह का आना उन्हें मालूम हुआ। सामने का द्वार बन्द था। नन्हकूसिंह ने एक बार गंगा की धारा को देखा-उसमें एक नाव घाट पर लगने के लिए लहरों से लड़ रही थी। वह प्रसन्न हो उठा। इसी की प्रतीक्षा में वह रुका था। उसने जैसे सबको सचेत करते हुए कहा-‘‘महारानी कहाँ है?’’ सबने घूम कर देखा-एक अपरिचित वीर-मूर्ति! शस्त्रों से लदा हुआ पूरा देव! चेतसिंह ने पूछा-‘‘तुम कौन हो?’’ ‘‘राज-परिवार का एक बिना दाम का सेवक!’’ पन्ना के मुँह से हलकी-सी एक साँस निकल रह गयी।उसने पहचान लिया। इतने वर्षों के बाद! वही नन्हकूसिंह। मनिहारसिंह ने पूछा-‘‘तुम क्या कर सकते हो?’’ ‘‘मै मर सकता हूँ!पहले महारानी को डोंगी पर बिठाइए। नीचे दूसरी डोंगी पर अच्छे मल्लाह हैं। फिर बात कीजिए।’’-मनिहारसिंह ने देखा, जनानी ड्योढ़ी का दरोगा राज की एक डोंगी पर चार मल्लाहों के साथ खिडक़ी से नाव सटाकर प्रतीक्षा में है। उन्होंने पन्ना से कहा-‘‘चलिए, मैं साथचलता हूँ।’’ ‘‘और...’’-चेतसिंह को देखकर, पुत्रवत्सला ने संकेत से एक प्रश्न किया, उसकाउत्तर किसी के पासन था। मनिहारसिंह ने कहा-‘‘तब मैं यहीं?’’ नन्हकू ने हँसकर कहा-‘‘मेरे मालिक, आप नाव पर बैठें। जब तक राजाभी नाव पर न बैठ जायँगे, तब तक सत्रह गोली खाकर भी नन्हकूसिंह जीवित रहने की प्रतिज्ञा करता है।’’ पन्ना ने नन्हकू को देखा। एक क्षण के लिए चारों आँखे मिली, जिनमें जन्म-जन्म का विश्वास ज्योति की तरह जल रहा था। फाटक बलपूर्वक खोला जा रहा था। नन्हकू नेउन्मत्त होकर कहा-‘‘मालिक! जल्दी कीजिए।’’ दूसरे क्षण पन्ना डोंगी पर थीऔर नन्हकूसिंह फाटक पर इस्टाकर के साथ। चेतराम नेआकर एक चिठ्ठी मनिहारसिंह को हाथ में दी। लेफ्टिनेण्ट ने कहा-‘‘आप के आदमी गड़बड़ मचा रहे हैं। अब मै अपने सिपाहियों को गोली चलाने से नहीं रोक सकता।’’ ‘‘मेरे सिपाही यहाँ कहाँ हैं, साहब?’’-मनिहारसिंह ने हँसकर कहा। बाहर कोलाहल बढऩे लगा। चेतराम ने कहा-‘‘पहले चेतसिंह को कैद कीजिए।’’ ‘‘कौन ऐसी हिम्मत करता है?’’ कड़ककर कहते हुए बाबू मनिहारसिंह ने तलवार खींच ली।अभी बात पूरी न हो सकी थी कि कुबरा मौलवी वहाँ पहुँचा! यहाँ मौलवी साहब की कलमनहीं चल सकती थी, और न ये बाहर ही जा सकते थे। उन्होंने कहा-‘‘देखते क्या हो चेतराम!’’ चेतराम ने राजा के ऊपर हाथ रखा ही थी कि नन्हकू के सधे हुए हाथ ने उसकी भुजा उड़ा दी। इस्टाकर आगे बढ़े, मौलवी साहब चिल्लाने लगे। नन्हकूसिंह ने देखते-देखते इस्टाकर और उसके कई साथियों को धराशायी किया। फिर मौलवी साहब कैसे बचते! नन्हकूसिंह ने कहा-‘‘क्यों, उस दिनके झापड़ ने तुमकोसमझाया नहीं? पाजी!’’-कहकर ऐसा साफ जनेवा मारा किकुबरा ढेर हो गया।कुछ ही क्षणों मेंयह भीषण घटना हो गयी, जिसके लिए अभी कोई प्रस्तुत न था। नन्हकूसिंह ने ललकार कर चेतसिंह से कहा-‘‘आप क्या देखते हैं? उतरिये डोंगी पर!’’-उसके घावों सेरक्त के फुहारे छूट रहे थे। उधर फाटक से तिलंगे भीतर आने लगे थे। चेतसिंह ने खिडक़ी से उतरते हुए देखाकि बीसों तिलंगों की संगीनों में वहअविचल खड़ा होकर तलवार चला रहा है।नन्हकू के चट्टान-सदृश शरीर से गैरिक की तरह रक्तकी धारा बह रही है। गुण्डे का एक-एक अंग कटकर वहीं गिरने लगा। वह काशी का गुंडा था! |
24-11-2012, 07:21 PM | #8 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ......(जल्द ही ) |
25-11-2012, 05:15 PM | #9 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
सिकंदर की शपथ......
भाग-1 सूर्य की चमकीली किरणों के साथ, यूनानियों केबरछे की चमक से ‘मिंगलौर’-दुर्ग घिरा हुआ है। यूनानियों के दुर्ग तोड़नेवाले यन्त्र दुर्ग की दीवालों से लगा दिये गये हैं, और वे अपना कार्य बड़ी शीघ्रता के साथ कर रहे हैं। दुर्ग की दीवाल काएक हिस्सा टूटा औरयूनानियों की सेना उसी भग्न मार्ग से जयनाद करती हुई घुसने लगी। पर वह उसी समय पहाड़ से टकराये हुए समुद्र की तरह फिरा दी गयी, और भारतीय युवक वीरों की सेना उनका पीछा करती हुई दिखाई पड़ने लगी। सिकंदर उनके प्रचण्ड अस्त्राघात को रोकता पीछे हटने लगा। अफगानिस्तान में ‘अश्वक’ वीरों के साथ भारतीय वीरकहाँ से आ गये? यह शंका हो सकती है, किन्तु पाठकगण! वेनिमन्त्रित होकर उनकी रक्षा के लिये सुदूर से आयेहैं, जो कि संख्या में केवल सात हजारहोने पर भी ग्रीकों की असंख्य सेना को बराबर पराजित कर रहे हैं। सिकंदर को उस सामान्य दुर्ग के अवरोध में तीन दिनव्यतीत हो गये। विजय की सम्भावना नहीं है, सिकंदर उदास होकर कैम्प में लौट गया, और सोचने लगा। सोचने की बात ही है। ग़ाजा और परसिपोलिस आदि के विजेता को अफगानिस्तान के एक छोटे-से दुर्ग के जीतने में इतनापरिश्रम उठाकर भी सफलता मिलती नहीं दिखाई देती, उलटे कई बार उसे अपमानित होना पड़ा। बैठे-बैठे सिकंदर को बहुत देर हो गयी। अन्धकार फैलकर संसार को छिपाने लगा, जैसे कोई कपटाचारी अपनी मन्त्रणा को छिपाता हो। केवल कभी-कभी दो-एक उल्लू उस भीषण रणभूमि में अपने भयावह शब्द को सुना देते हैं। सिकंदर ने सीटी देकर कुछ इंगित किया, एक वीर पुरुष सामने दिखाई पड़ा। सिकंदर ने उससे कुछ गुप्त बातें कीं, और वह चला गया। अन्धकार घनीभूत हो जाने परसिंकदर भी उसी ओर उठकर चला, जिधर वह पहला सैनिक जा चुका था। |
25-11-2012, 05:18 PM | #10 |
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Re: ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
अंश-2
दुर्ग के उस भागमें, जो टूट चुका था, बहुत शीघ्रता से काम लगा हुआ था, जो बहुत शीघ्र कल की लड़ाई के लिये प्रस्तुत कर दिया गया और सब लोग विश्राम करने के लिये चले गये। केवल एक मनुष्य उसी स्थान पर प्रकाश डालकर कुछ देख रहा है। वह मनुष्य कभी तो खड़ा रहता है और कभी अपनी प्रकाश फैलानेवाली मशाल को लिये हुए दूसरीओर चला जाता है। उस समय उस घोर अन्धकार में उस भयावह दुर्ग की प्रकाण्ड छाया और भी स्पष्ट हो जातीहै। उसी छाया में छिपा हुआ सिकंदर खड़ा है। उसके हाथमें धनुष और बाण है, उसके सब अस्त्र उसके पास हैं। उसका मुख यदिकोई इस समय प्रकाशमें देखता, तो अवश्य कहता कि यह कोई बड़ी भयानक बात सोच रहा है, क्योंकि उसका सुन्दर मुखमण्डल इस समय विचित्र भावों से भरा है। अकस्मात् उसके मुख से एक प्रसन्नता का चीत्कार निकल पड़ा, जिसे उसने बहुत व्यग्र होकर छिपाया। समीप की झाड़ी से एक दूसरा मनुष्य निकल पड़ा,जिसने आकर सिकंदर से कहा-देर न कीजिये, क्योंकि यह वही है। सिकंदर ने धनुष को ठीक करके एक विषमय बाण उस पर छोड़ा और उसे उसी दुर्ग पर टहलते हुए मनुष्य की ओर लक्ष्य करके छोड़ा। लक्ष्य ठीक था, वह मनुष्य लुढक़कर नीचे आ रहा। सिकंदर और उसके साथी ने झट जाकर उसे उठा लिया, किन्तु उसकेचीत्कार से दुर्ग पर का एक प्रहरी झुककर देखने लगा। उसने प्रकाश डालकर पूछा-कौन है? उत्तर मिला-मैंदुर्ग से नीचे गिरपड़ा हूँ। प्रहरी ने कहा-घबड़ाइये मत, मैं डोरी लटकाता हूँ। डोरी बहुत जल्द लटका दी गयी, अफगान वेशधारी सिकंदर उसके सहारे ऊपर चढ़ गया। ऊपर जाकर सिकंदर ने उस प्रहरी को भी नीचेगिरा दिया, जिसे उसके साथी ने मार डाला और उसका वेश आप लेकर उस सीढ़ी से ऊपर चढ़ गया। जाने के पहले उसनेअपनी छोटी-सी सेनाको भी उसी जगह बुला लिया और धीरे-धीरे उसी रस्सी की सीढ़ी सेवे सब ऊपर पहुँचा दिये गये। |
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