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Old 13-06-2012, 04:31 AM   #41
Dark Saint Alaick
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सबसे बड़ी कला

अगर कोई प्रतिभावान हैं और उसे वे सभी कलाएं आती हैं, जो एक प्रतिभावान के पास होनी चाहिए; तो उस प्रतिभावान को कभी अपनी प्रतिभा पर घमंड करना या इतराना नहीं चाहिए, वरना उसकी प्रतिभा के कोई मायने नहीं होते। एक युवा ब्रह्मचारी था। वह बहुत ही प्रतिभावान था। उसने मन लगाकर शास्त्रों का अध्ययन किया था। वह प्रसिद्धि पाने के लिए नई-नई कलाएं सीखता रहता था। विभिन्न कलाएं सीखने के लिए वह अनेक देशों की यात्रा भी करता था। एक व्यक्ति को उसने बाण बनाते देखा, तो उससे बाण बनाने की कला सीख ली। किसी को मूर्ति बनाते देखा, तो उससे मूर्ति बनाने की कला सीख ली। इसी तरह कहीं से उसने सुंदर नक्काशी करने की कला को भी सीख लिया। वह लगभग पंद्रह-बीस देशों में गया और वहां से कुछ न कुछ सीख कर लौटा। इस बार जब वह अपने देश लौटा, तो अभिमान से भरा हुआ था। अहंकारवश वह सबका मजाक उड़ाते हुए कहता, भला पृथ्वी पर है कोई मुझ जैसा अनोखा कलाविद्। मेरे जैसा महान कलाकार भला कहां मिलेगा। बुद्ध को उस युवा ब्रह्मचारी के बारे में पता चला, तो वह उसका अहंकार तोड़ने के लिए एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास आए और बोले - युवक, मैं अपने आप को जानने की कला जानता हूं। क्या तुम्हें यह कला भी आती है? वृद्ध ब्राह्मण का रूप धरे बुद्ध को युवक नहीं पहचान पाया और बोला - बाबा, भला अपने आप को जानना भी कोई कला है? इस पर बुद्ध बोले - जो बाण बना लेता है, मूर्ति बना लेता है, सुंदर नक्काशी कर लेता है अथवा घर बना लेता है वह तो मात्र कलाकार होता है। यह काम तो कोई भी सीख सकता है। पर इस जीवन में महान कलाकार वह होता है, जो अपने शरीर और मन को नियंत्रित करना सीख जाता है। अब बताओ, ये कलाएं सीखना ज्यादा बड़ी बात है या अपने जीवन को महान बनाना। बुद्ध की बातों का अर्थ समझकर युवक का अभिमान चूर-चूर हो गया और वह उनके चरणों में गिर पड़ा। वह उस दिन से उनका शिष्य बन गया।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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Old 13-06-2012, 08:38 AM   #42
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इस जीवन में महान कलाकार वह होता है, जो अपने शरीर और मन को नियंत्रित करना सीख जाता है।

sahi kaha hai vo hi vyakti mahaan hai jisne apne aap par kaabu pa liya hai !
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Old 14-06-2012, 11:07 AM   #43
Dark Saint Alaick
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संत की भिक्षा याचना

एक गांव में एक संत रहा करते थे। संत की आदत थी कि वह रोज एक प्रतिमा के सामने खड़े हो जाते थे तथा उस प्रतिमा से ही हाथ जोड़ कर भिक्षा की याचना करते थे। नियमित रूप से उन्हें ऐसा करते कई लोगों ने देखा, पर किसी को उनसे यह पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी कि आखिर रोज-रोज प्रतिमा के आगे खड़े होकर भिक्षा मांगने की उनकी इस हरकत का औचित्य क्या है? एक दिन एक युवा साधु ने हिम्मत जुटाई और आखिरकार उनसे पूछ ही लिया कि गुरुदेव एक जिज्ञासा है। आप प्रत्येक दिन प्रतिमा के आगे हाथ फैलाते हैं और उससे भिक्षा की याचना करते हैं, जबकि आप तो जानते ही होंगें कि पत्थर की प्रतिमा के आगे रोज-रोज इस तरह हाथ पसारने से कुछ भी नहीं मिल सकता। फिर आप व्यर्थ कष्ट क्यों करते हैं? युवा साधु की इस जिज्ञासा पर पहले ते संत कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होने कहा - बालक, तुम्हारी यह जिज्ञासा एकदम उचित है कि मैं रोज रोज ऐसा क्यों करता हूं। मैं यह भली भांति जानता हूं कि यह प्रतिमा मुझे कुछ भी नहीं देने वाली है, फिर भी मैं उससे कुछ मांगता रहता हूं। मैं किसी आशा से इस प्रतिमा से कुछ नहीं मांगता। यह मेरा नित्य का अभ्यास कर्म है। मांगने से कुछ नहीं मिलता, यह सोचकर ही मेरे भीतर एक खास तरह का धैर्य पैदा होता है। इस धैर्य के दम पर ही मैं किसी घर में याचना करूं और मुट्ठी भर अन्न न मिले, तो मेरे मन में किसी भी तरह की निराशा नहीं पैदा होगी। मेरे मन की शांति भंग न हो, इस प्रयास के कारण ही मैं रोज इस प्रतिमा के आगे खड़ा होकर इससे कुछ मांगता हूं। यह सुनकर युवा साधु ने कहा - यह तो अद्भुत बात है। मैं तो सोच भी नहीं सकता था। सच कहूं, तो मुझे और लोगों की तरह आपकी मानसिक दशा पर संदेह होता था। क्षमा करें। वास्तव में आपने मुझे साधना का एक और तरीका बता दिया। मैं भी अब इस तरह से अभ्यास करने का प्रयत्न करूंगा। युवा साधु ने उस संत को प्रणाम किया और वहां से चला गया।
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Old 14-06-2012, 11:16 AM   #44
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खुद बनाएं अपना भाग्य

स्वामी विवेकानंद ने एक बार कुछ युवाओं से कहा, 'तुम अपनी गलतियों के लिए दूसरों को दोष क्यों देते हो? असल में तो तुम जो बोते हो वही काटते हो। दूसरों पर दोषारोपण हमें दुर्बल बनाता है। अपनी दुर्बलताओं के लिए किसी और को दोष मत दो। सारी जिम्मेदारी अपने कंधे पर लो। जानो कि अपने भाग्य के निर्माता तुम स्वयं हो। कोई भी देवता आकर हमारा बोझ उठाने वाला नहीं है।' जब हम यह समझ लेते हैं कि किसी कार्य के लिए स्वयं हम ही जिम्मेदार हैं, तब हम अपने श्रेष्ठतम रूप में सामने आते हैं। सारी शक्तियां और सफलताएं असल में इंसान के निकट ही होती हैं। ऐन्द्रिक सुखों एवं भोगों की इस दौड़ का कोई अंत नहीं होता, लेकिन जैसे बुरे विचार और बुरे कर्म हमेशा इंसान को नष्ट करने के लिए आतुर रहते हैं, वैसे ही अच्छे विचार और कर्म भी हजार देवदूतों के समान उसकी रक्षा के लिए सदैव तैयार होते हैं। इसलिए कोल्हू के बैल की तरह कुछ पाए बिना सिर्फ एक ही गोल घेरे में भटकने से कोई लाभ नहीं है। इंसान को स्वयं ही इस चक्र से बाहर निकलना होगा। जीवन के इस संग्राम में धूल -मिट्टी उड़ना स्वाभाविक है। जो इस धूल को सहन नहीं कर सकता, वह आगे कैसे बढ़ सकेगा? ये विफलताएं ही सफलता के मार्ग की अनिवार्य सीढ़ियां हैं। यदि कोई व्यक्ति आदर्श के साथ एक हजार गलतियां करता है, तो बिना आदर्श के वह पचास हजार गलतियां करेगा। इसलिए हर व्यक्ति के जीवन में अपना एक आदर्श होना आवश्यक है। इसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। इस पर डटे रहने से हम कई जगह फिसलने से बच जाते हैं। व्यक्ति का चरित्र और कुछ नहीं, उसी की आदतों और वृत्तियों का ही सार है। हमारी आदतें और व्यवहार ही हमारे चरित्र का स्वरूप निश्चित करती हैं। चित्त की विशेष अवस्था उसकी श्रेष्ठता और निकृष्टता के अनुरूप ही हमारे चरित्र की सफलता और निर्बलता सुनिश्चित होती है। अच्छे चिंतन और आचरण के रूप में जिस चरित्र गठन होता है, वही बाद में साधना का रूप ले लेता है।
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Old 17-06-2012, 10:31 AM   #45
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संत के सवाल

यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने हित के लिए अक्सर प्रकृति से भी आमना- सामना कर बैठता है, जो बाद में उसी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। इसलिए मनुष्य को प्रकृति का उतना ही दोहन करना चाहिए जितनी उसे जरूरत है। आज मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए निरन्तर पेड़ों की कटाई कर रहा है, जो आने वाले समय के लिए उचित नहीं है। एक गांव में एक संत सदानंद का प्रवचन चल रहा था। प्रवचन के बीच में सवाल-जवाब का दौर चलता, तो कभी हंसी-मजाक का भी। एक छोटे बच्चे को संत ने बुलाया । खाने को उसे लड्डू भी दिया। फिर पूजा की थाली में रखा दीपक जलाया और लोगों को सुनाते हुए बच्चे से ठिठोली के अंदाज में पूछा - बताओ बेटा। दीपक में यह ज्योति कहां से आई? सभा में उपस्थित लोग प्रवचन का आनंद ले रहे थे। सभी इस सवाल पर विचारमग्न हो गए कि दीपक में प्रकाश आया कहां से? लेकिन इस सवाल का जवाब वह बच्चा भला कैसे दे पाएगा? तभी वह बच्चा उठा और उसने फूंक मारकर दीपक को बुझा दिया। फिर उसने संत से पूछा - महाराज, अब आप बताइए, दीपक का प्रकाश कहां गया? संत को इस प्रश्न की आशा नहीं थी। वह सोच में पड़ गए। सारी सभा में सन्नाटा छा गया। तभी संत ने उस बच्चे को गले लगाते हुए कहा - बेटा एक गूढ़ प्रश्न का गूढ़ उत्तर देकर तुमने मुझे निरुत्तर कर दिया और इससे मेरा अभिमान भी पिघला दिया। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम एक दिन दिव्यात्मा बनोगे। संत ने फिर मामले को संभालते हुए प्रवचन शुरू किया और कहा - देखा आपने? इस बच्चे ने मासूमियत में ही सही, एक बड़े तथ्य की ओर इशारा कर दिया कि जो रोशनी प्रकृति से आती है, वह वहीं चली भी जाती है। ऊर्जा अपना रूप बदलती रहती है। उसके विभिन्न रूपों का हम हमेशा सार्थक प्रयोग करें। हम सब बहुत सी चीजों को समझते हैं, पर उस समझ पर लालच और अहंकार का आवरण चढ़ जाता है। यह कदापि उचित नहीं है। संत के कथन का मर्म उपस्थित लोगों के हृदय तक उतर गया।
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Old 17-06-2012, 10:35 AM   #46
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कभी स्थिर न बैंठें

ज्यादातर लोग हर दिन जब दफ्तर जाते हैं, तो उनके दिमाग में सिर्फ एक ही विचार होता है - घर लौटने तक का समय गुजारना। उस जादुई समय तक पहुंचने के लिए वे दिनभर में जैसे-तैसे उतने ही काम करते हैं, जिन्हें किए बिना काम नहीं चल सकता, लेकिन आप ऐसा नहीं करेंगे। आप स्थिर नहीं बैठेंगे। नौकरी मिल जाने के बाद ज्यादातर लोगों को यही पर्याप्त लगता है कि वे लगातार वहीं काम करते रहें और हमेशा स्थिर बने रहें, लेकिन काम करना आपका अंतिम लक्ष्य नहीं है। यह तो सिर्फ लक्ष्य तक पहुंचने का साधन है। आपका असल लक्ष्य तो प्रमोशन, ज्यादा पैसा, सफलता, ऊपर का पायदान, बेहतर संपर्क बनाना और अनुभव हासिल करना है, ताकि आप कंपनी के शिखर पर पहुंच सकें। अपना स्वतंत्र बिजनस शुरू कर सकें। एक तरह से नौकरी तो अप्रासंगिक है। हां, आपको काम निपटाना होता है और हां, आपको इसे बहुत अच्छी तरह से करना होता है, लेकिन आपकी निगाह हमेशा अगले पायदान पर होनी चाहिए। नौकरी में आपका हर काम आपकी प्रगतिशील योजना में एक पड़ाव जैसा होना चाहिए। बाक़ी कर्मचारी अगले टी ब्रेक के बारे में सोच रहे हैं। शेष कर्मचारी सचमुच काम किए बिना शाम ढलने की राह देख रहे हैं, लेकिन आप नहीं। आप तो अपने अगले दांव की योजना बनाने और उस पर अमल करने में व्यस्त हैं। आदर्श स्थिति में नियमों का खिलाड़ी अपना हर काम लंच से पहले निपटा लेता है। फिर लंच के बाद शाम तक वह अपने अगले प्रमोशन के लिए अध्ययन करता है, करीबी सहयोगियों से मिल रही प्रतिस्पर्धा का मूल्यांकन करता है, हर कर्मचारी के लिए काम की प्रक्रिया को बेहतर बनाने के तरीकों पर शोध करता है, कंपनी के इतिहास और उसकी नीतियों के बारे में अपना ज्ञान बढ़ाता है। आप अपना काम लंच तक पूरा नहीं कर पाते हैं, तो आपको इसके लिए कोई ऐसा तरीका खोजना ही होगा कि जिससे आप इन सभी चीजों को दिन में कभी कर सकें और फिर लगातार आगे बढ़ते रहें।
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Old 17-06-2012, 11:25 AM   #47
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आदर्श स्थिति में नियमों का खिलाड़ी अपना हर काम लंच से पहले निपटा लेता है। फिर लंच के बाद शाम तक वह अपने अगले प्रमोशन के लिए अध्ययन करता है, करीबी सहयोगियों से मिल रही प्रतिस्पर्धा का मूल्यांकन करता है, हर कर्मचारी के लिए काम की प्रक्रिया को बेहतर बनाने के तरीकों पर शोध करता है,
ek dum sahi baat hai srimaan ji
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Old 25-06-2012, 08:02 AM   #48
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साबुन और शब्द

विख्यात लेखक अर्नेस्ट हेमिंग्वे को अपने घर के बेहतरीन वातावरण से बहुत कुछ सीखने को मिला। बचपन से ही उन्हें यह सिखाया गया था कि जीवन में कभी गलत शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। हमेशा अच्छे शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। अच्छे और सकारात्मक शब्द विफलता के दौर में भी प्रेरक बन कर सही राह दिखाते हैं। किसी से लड़ाई-झगड़ा हो जाने पर भी अनुचित भाषा व शब्दों का प्रयोग व्यक्ति की गरिमा के खिलाफ है। जब वे छोटे थे, तो घर के बड़े-बुजुर्गों ने ऐसा नियम बना दिया था कि अगर घर में कोई भी गलत शब्द बोलेगा, तो उसे साबुन के पानी से कुल्ला करके मुंह धोना पड़ेगा। नियमानुसार बचपन में जब भी अर्नेस्ट हेमिंग्वे के मुंह से कोई गलत शब्द निकल जाता, तो उन्हें साबुन से कुल्ला करके मुंह धोना पड़ता था। इसके अलावा घर के सदस्यों के अपशब्दों की एक सूची भी बनाई जाती थी। इस तरह हिसाब रखा जाता था कि किसने कितने गलत शब्द कहे। धीर-धीरे अर्नेस्ट के गलत और अनुचित शब्दों की संख्या बढ़ती जा रही थी और उन्हें हर बार साबुन से कुल्ला करना पड़ता था। यह बड़ा ही कटु अनुभव था। अपशब्द कहने के कारण बार-बार साबुन से कुल्ला करने से उनकी हालत खराब होती जा रही थी। आखिर उन्होंने निश्चय किया कि साबुन और शब्दों की इस लड़ाई में जीत शब्दों की होनी चाहिए, साबुन की नहीं। अब वे यब भरपूर कोशिश करेंगे कि गलत शब्द न बोलें। ऐसा करते-करते वे शब्दों के ही महारथी बन गए और उनकी लेखन पर भी पकड़ मजबूत होती गई। बाद में उन्होंने अपने पुराने और नए अनुभव के आधार पर एक लेख लिखा - इन डिफेंस ऑफ़ डर्टी वर्ड्स। उनका वह लेख काफी सराहा गया। अनेक लोगों ने उनके लेख को पढ़ा और उससे सीख लेकर अपने व्यक्तित्व में और बोलने की भाषा में सुधार किया। इस प्रकार घर के स्वच्छ वातावरण ने अर्नेस्ट हेमिंग्वे को एक महान लेखक बनाकर पूरे विश्व के सामने प्रस्तुत किया।
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Old 25-06-2012, 08:06 AM   #49
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समर्पण के साथ करें काम

अगर आपको बहुत तेजी से तरक्की करनी है, तो आपको अपने काम में सौ फीसदी समर्पित होना होगा। आप एक पल के लिए भी अपने दीर्घकालीन लक्ष्य से नजरें नहीं हटा सकते। आपके लिए कोई छुट्टी नहीं है। वक्त बर्बाद करने की इजाजत नहीं है, गलतियां करने की गुंजाइश नहीं है, योजना से भटकने की अनुमति नहीं है। आपको अपराध जगत के निष्णात खिलाड़ियों जैसा बनना होगा - वे अपने जीवन में क़ानून का बहुत सख्ती से पालन करते हैं, क्योंकि वे छोटा सा कानून तोड़ने का जोखिम भी नहीं ले सकते वरना लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो जाएगा और उनके बड़े अपराध जाहिर हो जाएंगे। आपको अपने काम में सचमुच उत्कृष्ट बनना और दिखना होगा। आपको चौकस, समर्पित, जागरूक, उत्साही, तैयार, सतर्क और लगनशील बनना होगा। वैसे यह बहुत बड़ा काम है। आप तो यह मान कर चलें कि आपके शहर में सब आंख बंद कर चल रहे हैं। सिर्फ आपकी ही दोनों आंखें खुली हैं और आप ही देख पाने में सक्षम हैं। तय मानिए, आप पाएंगे कि जब आप गौर से देखने लगते हैं, तो आपको ज्यादा कुछ नहीं करना होता। लोगों की दिशा बदलने के लिए आपको बहुत तेज धक्का देने की जरूरत नहीं होती, सिर्फ हल्के धक्के से भी काम चल जाता है। आपका व्यवहार अविश्वसनीय रूप से संवेदनशील और नरम बन जाएगा, लेकिन इसके लिए आपको समर्पित तो रहना ही होगा। अगर आप समर्पण के बिना ही कोई काम करने की कोशिश करेंगे, तो वह ऐसा ही होगा; जैसे आप मामूली हथियारों के साथ युद्ध में उतरे हैं। समर्पण के बिना काम करने पर न तो आपमें आत्मविश्वास होगा और न ही खुद पर कोई नियंत्रण। पूरे समर्पण से काम में जुटने के बाद आपको आगे-पीछे देखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। आप अपना रास्ता खुद अच्छी तरह से जान जाएंगे। सौ प्रतिशत समर्पण का निर्णय अपने आप लिया जा सकता है। यह बहुत आसान है। लेकर तो देखिए।
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Old 25-06-2012, 08:43 AM   #50
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बेकार की बातें

सुकरात अपनी विद्वता और विनम्रता के कारण काफी मशहूर थे। वे हर बात को पहले पूरी तरह से समझ लेते थे और उसके वजन के हिसाब से ही उसका जवाब दिया करते थे। बेवजह की बातों पर वे न तो गौर करते थे और न ही उसका जवाब देने की जरूरत महसूस करते थे। एक बार वे बाजार से गुजर रहे थे। उसी बाजार से उनका एक परिचित भी जा रहा था। उसने पहले तो सुकरात को नमस्कार किया फिर कहा - जानते हैं, कल आपका मित्र आपके बारे में क्या कह रहा था। वह मित्र आगे अपनी बात कहता उससे पहले ही सुकरात ने उसे बीच में ही टोका और बोले - मित्र, मैं तुम्हारी बात जरूर सुनूंगा, पर पहले मेरे तीन छोटे-छोटे प्रश्नों के उत्तर दो। उनके उस परिचित ने उन्हें हैरत से देखा कि मेरे कुछ कहने से पहले ही सुकरात मुझसे क्या पूछने वाले हैं। फिर इशारे से मित्र ने सुकरात को प्रश्न पूछने की अनुमति दी। सुकरात बोले - पहला प्रश्न यह है कि जो बात तुम मुझे बताने जा रहे हो क्या वह पूरी तरह सही है? उस मित्र ने पहले तो कुछ सोचा फिर कहा - नहीं । मैंने यह बात सुनी है। इस पर सुकरात बोले - इसका मतलब तुम्हें पता ही नहीं कि वह सही है। खैर, अब क्या तुम जो बात मुझे बताने जा रहे हो, वह मेरे लिए अच्छी है? उस मित्र ने बिना सोच विचार के तत्काल कहा - नहीं, वह आपके लिए अच्छी तो नहीं ही है। आपको उसे सुनकर दुख ही होगा। इस पर सुकरात ने कहा - अब तीसरा प्रश्न, तुम जो बताने जा रहे हो क्या वह मेरे किसी काम की है? उस मित्र ने कहा - नहीं तो ...। उस बात से आपका कोई काम नहीं निकलने वाला। तीनों उत्तर सुनने के बाद सुकरात बोले - ऐसी बात जो सच नहीं है, जिससे मेरा कोई भला नहीं होने वाला ... उसे सुनने से मुझे क्या फायदा ! और एक बात तुम भी सुनो। जिस बात से तुम्हारा भी कोई फायदा नहीं होने वाला हो, वैसी बात तुम क्यों करते हो। यह सुनकर सुकरात का मित्र बेहद लज्जित हो गया और बिना कोई सवाल जवाब किए चुपचाप वहां से चला गया।
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