13-02-2013, 06:12 PM | #81 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
फैशन बापू, हम कब मनाएंगे त्यौहार ? मज़दूर दीनू के बेटे ने ललचाई नज़रों से पड़ोस के अमीर बच्चों को दीवाली के दिन नए कपड़े पहने, मिठाइयां खाते और पटाखे छोड़ते देख मायूस स्वर में पूछा । बस्स... बेटा । दो चार दिन की और बात है, फिर चुनाव होने वाले हैं और चुनाव के दिनों में तो नेताजी को हम जैसे गरीबों की याद आती है और वे हमें राशन-पानी, मिठाइयां, कपड़े लत्ते आदि देते हैं ताकि हम खुश होकर उन्हें वोट दें । बस्स... तब ही हम त्यौहार मनाएंगे । दीनू ने उम्मीद भरे स्वर में कहा ।
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
13-02-2013, 06:14 PM | #82 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
हकदार गेहूँ की ढेरी सामनने थी, मेरे और मेरे हलवाहे के सामने । उन्हीं आँखों में गेहूँ की ढेरी सपनों की ढेरी में बदल गयी थी। मैं घोर स्वार्थी होकर सोचने लगा था, काश ! यह ढेरी सिर्फ मेरी होती, सिर्फ मेरी...हालाँकि मैं अच्छी चरह जानता था कि मेरी सिर्फ जमीन थी और सारीमेहनत मेरे हलवाहे की । कैसा साँझा था, हमारा आपस में । मेरी किस्मत थी जो मैं जमीदार के घर पैदा हुआ था और उसका हल था जिसकी मूठ उसके बापू ने होश सँभालते ही उसे थमा दी थी । मैंने किस्मत थी जो मैं जमींदार के घर पैदा हुआ था और उसका हल था जिसकी मूठ उसके बापू ने होश सँभालते ही उसे थमा दी थी। मैंने इंजन भर लगवाया था जिससे फसलों को पानी सींचते-सींचत मेरा लवाहा पसीना भी सीचता जाता था । मैं जिन खेतों मैं मेरा हलवाहा नंगे पैरों, फटी हुई चादर ओढे, ठिठुरती हुई रातों में रखवाली करने जाता था । ऐसे मममें भी गेहूँ की ढेरी देखकर मैं ललचा गया था...कि ...सारे-के-सारे गेहूँ पर मेरा हक हो जाये तो कैसा रहे ! शायद मेरा हलवाहा अभी इस लायक नहीं हुआ...कहीं वह मेरी तरह सोचने लगे तो ....! इस तल्पना मात्र से मैं कांप उठा ! मेरे बेईमान मन की तरह बेईमान मौसम उसी समय बूंदें बरसाने लगा और मैं गेहूँ को अच्छी तरह ढँकने का, सँभालने का हुक्म सुनाता हुआ छत के नीचे पहुंच गया । किसी असली माँ की तरह, जिसने अपने बच्चे की जान के बदले अपनी जान देने की पेशकश कीथी , मेरा हलवाहा भी भगने की परवाह किये बगैर गेहूँ सँभाव रहाथा। मैं खुद से पूछ रहा था-बताओ, गेहूँ का असली हकदार कौन है ?
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13-02-2013, 06:15 PM | #83 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
टक्कर ‘हाय मार डाला मुझ’ सड़क पर करुण रुदन के साथ गूंजने वाली इस आवाज ने आसपास वालों का ध्यान आकर्षित किया और थोड़ी ही देर में वहाँ पर्याप्त भीड़ एकत्रित हो गयी ।अभी-अभी सुखराम की साईकिल को सेठ दीनानाथ की गाड़ी ने टक्कर दे मारी थी। दीनानाथजी ने अपना कुसूर मानते हुए सुखराम को मरह्म-पट्टी के लिए दो सौ रुपये देने चाहे । हालांकि चोट कोई खास नहीं थी । मगर रुपये देखते ही सुखराम बिफर गया और आँय-बाँय बकने लगा,’गाड़ी में बैठकर आँखें खो देते हैं । गरीब की जान की कीमत कागज के टुकड़ों से लगाते हैं । अरे, तुम्हें अन्दर नहीं करवाया तो मेरा भी नाम सुखराम नहीं ।’ दीनानाथजी पैसे बढाते-बढाते पाँच हजार रुपयों तक आ पहुँते, मगर सुखराम न माना । हारकर सेठजी ने अपना विजिटिंग कार्ड जेब से निकाला और सुखराम को पकड़ाते हुए बोले, ‘आज शाम को मेरे यहाँ पार्टी है । तुम भी आ जाना । वहीं तुमसे बातें हो जायेंगी । गाड़ी का नम्बर तो तुम्हारे पास है ही।’ यह कहकर दीनानाथजी गाड़ी में बैठकर सर्र से निकल गये । जो दो-तीन पुलिसवाले तमाशा देख रहे थे वे पहले ही खिसक चुके थे। शाम को जब सुखराम सेठजी के यहाँ पहुँचा तो सेठजी उसे आमन्त्रित मेहमानों से मिलवान लगे-ये हैं हाई कोर्ट के जज श्री.... अगर तुम चाहों तो अपने साथ घटी दुर्घटना की रिपोर्ट यहाँ कर सकते हो । पुलिस भी है, वकील भी हैं और जज भी हैं । दीनानाथ के यह कहने के साथ ही सभी ठठाकर हँस पड़े। सुखराम को काटों तो खून नहीं। उसे अपने सामने खड़े चट्टान नजर आ रहे थे जिससे वो आज टकराते-टकराते बचा था।
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13-02-2013, 06:15 PM | #84 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
बजट रमेश बाबू ने छाता एक कोने में रखा और रसोई में पत्नी के सम्मुख आसन पर जाकर बैठ गये । ‘बड़े खुश लग रहे हैं आज, क्या बात है?’ रमा बैंगन की तरकारी पतीली में छोड़ते हुए मुस्करायी । छनन्......छनन्....छन्न ....पील पट्ट उसने सब्जी में पानी डाल दिया ।रमा के अधरों पर क्लिक ध्वनि पैदा कर पुनः आसन पर बैठते हुए रमेश बोले – ‘बढ़ी हुई पे के आँडर्स आ गये ।’ अच्छा ! एरिअर कब से मिलगा ?’ ‘जनवरी से....’ ‘इस बार कपड़े जरूर बनवा लेना ।’ ‘हाँ,मैं भी यही सोच रहा हूँ, लोग यूँ ही मजाक उड़ाते हैं ।’ ‘एरिअर मिल गया शायद, कितना मिला है ?’ ‘तीस रुपया’ खुशी के छाये बादल बरस पड़े । ‘चलो अच्छा हुआ, मैं बड़ी चिन्तित थी,सोच रही थी, मुन्ने की तबीयत ज्यादा खराब है, क्या होगा ? देखो शायद निमोनियाँ है, साँसें कितनी जोरों से ले रहा है ।‘ अरे, इसे तो बुखार भी है।‘ ‘हाँ, थोड़ी देर पहले102 डिग्री था ।‘ ‘चलो,प्राइवेट डॉक्टर को दिखा दें, सीरियस लगता है।‘ लेकिन डॉक्टर पन्द्रह रुपये तो....’ ‘तुम यह सब छोड़ो, चलो जल्दी। ‘ रमेश बाबू ने उपेक्षित कुर्ता-पाजामा को चूमा तथा पहनते हुए पत्नी को पुनः पुकार लगायी ।
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13-02-2013, 06:20 PM | #85 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
सही नाप एक मजिस्ट्रेट ने दर्जी से उनकी नाप का सूट सिलने को कहा। दर्जी ने निवेदन किया - "महोदय, पहले तो आप मुझे यह बतायें कि आप किसी स्तर के अधिकारी हैं? आप हाल ही में अधिकारी बने हैं, या आप नए पद पर नियुक्त हुए हैं या काफी समय से अधिकारी हैं?" असमंजस में पड़े मजिस्ट्रेट ने दर्जी से पूछा - "इस बात का सूट की सिलाई से क्या लेना-देना है?" दर्जी ने उत्तर दिया - "सूट की सिलाई का इससे सीधा संबंध है। यदि आप नए - नए अधिकारी बने हैं तो आपको ज्यादातर समय कोर्ट में खड़ा रहना पड़ेगा। इस स्थिति में आपके सूट का अगला और पिछला भाग एक समान रखना होगा। यदि आप नए पद पर पदोन्नत हुए हैं तो आपके सूट का अगला हिस्सा लंबा एवं पिछला हिस्सा छोटा करना होगा क्योंकि पदोन्नत अधिकारी का सिर गर्व से ऊंचा और सीना फूला होता है। यदि आप काफी लंबे समय से अधिकारी हैं तो आपको प्रायः उच्च अधिकारियों से डाँट - फटकार खाने एवं उनके समक्ष घुटने टेकने की आदत होगी। ऐसी स्थिति में आपके सूट का अगला हिस्सा छोटा और पिछला हिस्सा लंबा रखना होगा। यदि मुझे आपके स्तर का सही-सही जानकारी नहीं होगी तो सही नाप का सूट कैसे बना सकूंगा?"
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13-02-2013, 06:20 PM | #86 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
कैप्टन और मेजर एक युवा कैप्टन गलती से कुएं में गिर गया. सिपाहियों ने जब यह देखा तो वे दौड़े और तत्काल कुएं में रस्सी फेंकी और कैप्टन को कुएं से बाहर खींचने लगे. पर जैसे ही कैप्टन कुएं के मुहाने पर पहुँचे, सिपाहियों ने आदतन और दी गई ट्रेनिंग के हिसाब से सावधान होकर कैप्टन को सलाम ठोंका. नतीजा यह हुआ कि सिपाहियों के हाथ से रस्सी छूट गई और कैप्टन वापस नीचे. इस भाग दौड़ में यूनिट का मेजर भी वहाँ पहुंच चुका था. यह नजारा देख कर उसने सिपाहियों को पीछे किया और खुद रस्सी थामी और बड़ी मेहनत से कैप्टन को ऊपर खींचा. मुहाने पर पहुंचते ही कैप्टन ने देखा कि उसका मेजर वहाँ है. उसने आदतन सैल्यूट ठोंका. और उसके हाथ से रस्सी छूट गई और वो वापस कुएं में जा गिरा. प्रोटोकॉल व्यवस्था के लिए बनाए जाते हैं. परंतु इसका अतिरेक व्यवस्था को खा जाती है
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13-02-2013, 06:22 PM | #87 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
थोड़ा तो ठहर जाओ! वैज्ञानिक रदरफ़ोर्ड ने ध्यान दिया कि उनके लैब में उनका एक विद्यार्थी देर रात में भी काम करता रहता है. एक दिन रदरफ़ोर्ड ने उस विद्यार्थी से पूछा – “तुम देर रात काम करते रहते हो, क्या सुबह से काम नहीं करते?” “मैं सुबह भी काम करता हूँ.” विद्यार्थी ने गर्व से कहा. “ओह, पर फिर तुम सोचते कब हो?” रदरफ़ोर्ड ने आश्चर्य से पूछा.
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13-02-2013, 06:22 PM | #88 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
पसंद अपनी अपनी
पशु चिकित्सक ने दिनेश को टॉमी को कॉड लिवर आइल पिलाने की सलाह दी. दिनेश दवाई की दुकान से कॉड लिवर आइल ले आया. वह पहले भी अपने प्रिय कुत्ते को दवाइयाँ पिलाता रहा था. उसका कुत्ता दवाइयाँ पीने में बहुत विरोध करता था और हर बार दिनेश कुत्ते को पकड़ कर उसका मुंह अपने घुटने में दबा कर दवाई कुत्ते के गले के भीतर डालता था. दिनेश कुत्ते को कॉड लिवर आइल इसी तरह पिलाता रहा. एक दिन इसी मारामारी में थोड़ा सा कॉड लिवर आइल नीचे बिखर गया. और दिनेश ने आश्चर्य से देखा कि टॉमी उस बिखरे कॉड लिवर आइल को प्रेम से चाट रहा है! पिछले दो हफ्ते से दिनेश और टॉमी के बीच कॉड लिवर आइल पिलाने के लिए जंग होती रही थी, परंतु यह दवाई के लिए नहीं थी, बल्कि उसे पिलाने की विधि के लिए थी! आप चीजों को अपने मुताबिक और अपनी विधि से करने के लिए जंग लड़ते हैं. इसके बजाए उन्हें प्यार से और प्राकृतिक रूप से होने दें तो कहीं ज्यादा अच्छा होगा. --
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13-02-2013, 06:22 PM | #89 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
जल्दी चलो
एक भुलक्कड़ व्याख्याता को व्याख्यान के लिए एक जगह जाना था. वह पहले ही लेट हो गया था. उसने एक टैक्सी को रोका और बैठते हुए बोला – चलो जल्दी चलो. टैक्सी वाला टॉप स्पीड में चलने लगा. थोड़ी देर बाद व्याख्याता को याद आया कि उसने तो टैक्सी ड्राइवर को कहाँ जाना है यह तो बताया ही नहीं. उसने टैक्सी ड्राइवर से पूछा – “तुम्हें पता है कि मुझे जाना कहाँ है?” “नहीं सर,” टैक्सी ड्राइवर ने जवाब दिया – “पर, मैं जल्दी चल रहा हूँ, जैसा कि आपने कहा था.”
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13-02-2013, 06:23 PM | #90 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
दुर्योधन की समझ
महाभारत युद्ध के दौरान एक दिन दुर्योधन भीष्म के पास पहुंचे और उनके सामने अपनी गलती स्वीकारी और कहा कि राज्य के लालच से उनसे यह भूल हो गई और इतना बड़ा संग्राम हो गया. और इस संग्राम की बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी इसका भी उन्हें अंदाजा है. परंतु इस स्वीकारोक्ति के बाद भी दुर्योधन ने अपना लड़ाई झगड़े का व्यवहार छोड़ा नहीं और पांडवों से युद्ध करते रहे. आपकी सोच, समझ और स्वीकारोक्ति की कोई कीमत नहीं यदि आपके कार्य उस अनुरूप न हों.
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