28-11-2011, 10:52 PM | #31 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥२॥ अज्ञेय ब्रह्म तथापि किंचित, ज्ञेय भी अज्ञेय भी। अनभिज्ञ न ही नितांत है, नितांत न ही ज्ञेय है॥ अज्ञेय ज्ञेय की परिधि से, प्रभु सर्वथा अतिशय परे। ज्ञातव्य, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय की ज्ञात सीमा से परे॥ [2] |
28-11-2011, 10:53 PM | #32 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥३॥ अनभिज्ञ उनसे ब्रह्म है, जिसे विज्ञ है कि विज्ञ है। जिन्हें विज्ञ पर अनभिज्ञ हैं, ऋत रूप में वे विज्ञ हैं॥ ज्ञानी जो ब्रह्म विलीन हैं, उन्हें ब्रह्म ज्ञान का भान क्या ? ज्ञेय ज्ञाता ज्ञान का उन्हें ज्ञान क्या अभिमान क्या? [3] |
28-11-2011, 10:54 PM | #33 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते ।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥४॥ यह ब्रह्म का लक्षित स्वरूप ही, वास्तविक ऋत ज्ञान है। अमृत स्वरूपी ब्रह्म तो, महिमा महिम है महान है॥ जो ब्रह्म बोधक ज्ञान शक्ति, ब्रह्म से प्राप्तव्य है। उस ज्ञान से ही ब्रह्म का ऋत ज्ञान जग ज्ञातव्य है॥ [4] |
28-11-2011, 10:54 PM | #34 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥५॥ दुर्लभ दुसाध्य है मनुज जीवन, वेद वर्णित सत्य है। इसी जन्म में ब्रह्मलीन हो, अमर होने का तथ्य है॥ प्राणी मात्र में, ब्रह्म को, साक्षात जब ज्ञानी करे। अमृत्व पाकर जन्म मृत्यु, के चक्र से प्राणी तरे॥ [5] |
28-11-2011, 10:55 PM | #35 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
तृतीय खंड
ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त । त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति ॥१॥ विजयाभिमानी देवों ने माना स्वयम को ब्रह्म ही। अतिशय अहंकारी बने, होता विनाशक अहम् ही॥ केवल निमित्त थे देवता, यह ब्रह्म की ही विजय थी। माध्यम थे केवल देवता, शक्ति प्रभु की अजय थी॥ [1] |
28-11-2011, 10:55 PM | #36 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
तद्धैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति॥२॥
मिथ्याभिमानी देवताओं से, दयानिधि विज्ञ थे। भक्त वत्सल भक्त वत्सलता से भी तो कृतज्ञ थे॥ हित दर्प नाश को, दिव्य यक्ष के रूप में प्रभु आ गए। लख दिव्य रूप विराट अद्भुत देवता चकरा गए॥ [2] |
28-11-2011, 10:56 PM | #37 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद्विजानीहि किमिदं यक्षमिति तथेति ॥३॥
इन्द्र देव ने, अग्नि देव से, नम्र होकर यह कहा। भलिभांति जानिए कौन है अति दिव्य यक्ष महिम महा॥ श्री अग्नि देव को बुद्धि शक्ति का अधिक ही कुछ गर्व था। इति विदित करता हूँ अभी, है कौन मुझसे अन्यथा॥ [ ३ ] |
28-11-2011, 10:56 PM | #38 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
तदभ्यद्रवत्तमभ्य वदत्कोऽसीत्यग्निर्वा ।
अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति ॥४॥ अति दिव्य यक्ष का अग्नि देव से प्रश्न था तुम कौन हो? हे! अहम मन्यक देवता क्या तुम ही सार्वभौम हो ? "मैं तेज पुंज स्वरूप हूँ", प्रसिद्ध अग्नि हूँ अति महे। तुम कौन जो जाना नहीं, मुझे जातवेदा सब कहें॥ [4] |
28-11-2011, 10:57 PM | #39 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति ॥५॥
हे जातवेदा ! अग्नि नाम के, शक्ति क्या सामर्थ्य है? उत्तर दिया तब अग्नि ने, सगर्व जिसका अर्थ है॥ पृथ्वी में यह जो कुछ भी है, सब मेरी ही सामर्थ्य है। क्षण मात्र में करूं भस्म सब, मुझे कुछ नहीं असमर्थ है॥ [5] |
28-11-2011, 10:57 PM | #40 |
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Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति । तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक।
दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥६॥ रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने अग्नि देव के सामने। करो भस्म तो जानूँ भला, अग्नित्व कितना आपमें॥ पूर्ण दाहक शक्ति व्यर्थ थी, मौन हतप्रभ आ गए। यह दिव्य यक्ष महामहिम, अनभिज्ञ हम चकरा गए॥ [6] |
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