30-08-2013, 03:12 PM | #141 |
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Re: इधर-उधर से
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31-08-2013, 01:54 PM | #142 |
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Re: इधर-उधर से
beautiful sir i like your post..
for more hindi poems ..visit - http://poemsonnature.blogspot.in/201...ove-poems.html |
01-09-2013, 11:53 AM | #143 | |
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Re: इधर-उधर से
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दीपू जी तथा भाई ओम प्रकाश जी का हार्दिक धन्यवाद. |
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01-09-2013, 10:22 PM | #144 |
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Re: इधर-उधर से
वह शक्ति हमें दो दयानिधे वह शक्ति हमें दो दयानिधे, आदरणीय सदस्यगण,वह शक्ति हमें दो द्यानिधे कर्तव्यमार्ग पर डट जावेंपर सेवा पर उपकार में हम निज जीवन सफल बना जावें.... लम्बी प्रार्थना है । हम इसे अपने स्कूल के दिनों में दैनिक प्रार्थना में गाते थे लेकिन कभी इसके रचयिता की ओर ध्यान नहीं गया। आज इसके बायह लम्बी प्रार्थना है । हम इसे अपने स्कूल के दिनों में दैनिक प्रार्थना में गाते थे लेकिन कभी इसके रचयिता की ओर ध्यान नहीं गया। आज इसके बारे में कुछ लोगों से चर्चा के क्रम में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। एक मित्र ने कहा कि यह पं० राम नरेश त्रिपाठी की रचना है लेकिन मेरे मन में संशय था। ई-कविता के सद्स्य सज्जन जी से पूछा तो उन्होनें श्रीमान गूगल की मदद से बताया कि इसके रचयिता रीवा के पं० परशुराम पाण्डेय जी हैं लेकिन उसी लेख में यह भी लिखा है कि उक्त प्रार्थना के रचयिता कोई मुरारीलाल शर्मा ’बालबन्धु’ जी हैं। पुनः दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। आप के समक्ष यह समस्या शोधार्थ एवं समाधानार्थ रख रहा हूँ। प्रामाणिक और असन्दिग्ध जानकारी की अपेक्षा है। (प्रस्तुति:अमिताभ त्रिपाठी) |
14-09-2013, 03:00 PM | #145 |
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Re: इधर-उधर से
घायल सैनिक की सेवा सुश्रुषा द्वितीय विश्वयुद्ध की बात है। जर्मनी ने बेल्जियम को पराजित कर दिया था। इसकेबाद जर्मन सैनिकों ने बेल्जियम के सैनिकों के साथ अत्यंत क्रूरतापूर्ण व्यवहारकिया। यह सब देखकर बेल्जियम के लोगों में जर्मनों के प्रति घोर घृणा का भाव आ गया।बेल्जियम की प्रसिद्ध समाजसेविका श्रीमती माग्दा यूरस भी इन लोगों में से एक थीं।वे युद्ध की प्रबल विरोधी और शांति की समर्थक थीं। अपने देशवासियों पर जर्मनों के अत्याचार देखकर वे बहुत दु:खी होती थीं। घायलसैनिकों के लिए वे यथाशक्ति मदद पहुंचाती थीं। एक दिन उन्होंने एक घायल जर्मन सैनिकको देखा। श्रीमती यूरस को उस पर दया आई, किंतु वे यह सोचते हुए आगे बढ़ गईं- ‘यहनाजी है। इसे ऐसे ही मरना चाहिए।’ श्रीमती यूरस आगे तो बढ़ गईं, किंतु उनका मन उस घायल सिपाही में अटक गया। उन्हेंऐसा लगा मानो उनकी आत्मा उन्हें धिक्कार रही है। उस घायल मनुष्य की मदद इंसानियत कीदृष्टि से करनी चाहिए। तभी उस घायल सिपाही का आर्त स्वर फिर उनके कानों से टकराया।अंतत: करुणा ने घृणा पर विजय प्राप्त कर ली। वे उस सैनिक के पास लौटीं और वहीं बैठकर उसे देखने लगीं कि उसे कैसी मदद कीआवश्यकता है? जर्मन सैनिक उनकी सहानुभूति देखकर चकित हो उठा। वह बोला- ‘आप यहां? मेरे पास?’ उन्होंने उसका सिर स्नेह से सहलाते हुए कहा- मैं तुम्हें अभी अस्पतालपहुंचाने की व्यवस्था करती हूं। तब तक आओ, जरा तुम्हें पट्टी बांध दूं।’ यह कहतेहुए श्रीमती यूरस उसके उपचार में लग गईं। पीड़ित मानवता की सेवा के लिएमित्र-शत्रु, अपना-पराया, जाति-विजातीय का भेद नहीं करना चाहिए। समदृष्टि रखने वालाही सच्चा समाजसेवक होता है। |
14-09-2013, 03:08 PM | #146 |
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Re: इधर-उधर से
नाटक ‘पहला राजा’ में पृथु का समाज-बोध
“पहला राजा” जगदीशचंद्र माथुर का अंतिम नाटक है। यह अपनी प्रयोगधर्मिता तथा युगीन समस्याओं के विन्यास के लिए प्रसिद्ध है। पहला राजा में नेहरूयुगीन लोकतंत्र की समस्याओं को लिया गया है, जो आज और अधिक जटिल हो गई हैं। बच्चनसिंह के अनुसार इस नाटक में “जवाहरलाल नेहरू लक्षणावृत्ति से स्वतंत्र भारत के पहले राजा कहे जा सकते हैं। पृथु की अनेक विषेशताएं नेहरू से मिलती-जुलती हैं। अत: पृथु का कथानक नेहरूयुगीन समस्याओं को उठाने के लिए वस्तुनिष्ठ समीकरणबन जाता है। पहला राजा के केन्द्रीय पात्र पृथु की कथा महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व से ली गई है। इसके कथानक का ताना-बाना बुनने के लिए वेद, भागवत पुराण, हड़प्पा मोहन जोदड़ो की सभ्यता से अपेक्षित सूत्रों को भी लिया गया है। पृथु का मिथक, जिसमें पृथ्वी के दुहे जाने की कथा है, से सिद्ध होता है कि वह नियमों में बंधा हुआ प्रथम प्रजा वत्सल राजा था।“ इंद्रनाथ मदान के अनुसार इसके “माध्यम से नेहरू युग की आधुनिकता का पहला दौर उजागर होने लगता है। योजनाओं का प्रारंभ, भारत, चीन-युद्ध, मंत्रियों के षड़यंत्र, घाटे का बजट, पिछड़ी जातियों की समस्याएं, संविधान, पूंजीवाद, जनता का शोषण और अन्य नेहरू युगीन समस्याओं की अनुगूंजें नाटक में आरंभ से अंत तक मिलती है।“यह कहा गया है कि पृथु की कथा पर आधुनिकता का प्रक्षेपण इतना गहरा है कि पृथु अतीत का पृथु नहीं मालूम पड़ता। पहले ही कहा गया है कि पृथु-कथा माथुर के भीतर उमड़ती हुई समस्याओं के लिए वस्तुनिष्ठ समीकरण है। पृथु कुलूत देश से चलकर ब्रह्मावर्त पहुंचता है। उसके साथ अनार्य मित्र कवश भी है। ऋषियों-मुनियों ने बेन के शरीर मंथन का नाटक कर पृथु को भुजा पुत्र ठहराया और कवश को जंघापुत्र अर्थात एक को क्षत्रिय और दूसरे को शूद्र। पृथु के पूर्ववर्ती राजा का वध ऋषियों ने ही किया था। इससे पता चलता है कि ब्राह्मण उस समय अत्यधिक शक्तिशाली थे। ऋषियों ने संविधान बनाया और पृथु उससे प्रतिबद्ध था। वह ऋषि-मुनियों के यज्ञ की रक्षा करता था। माथुर ऋषियों की पवित्रता और सदाचार का मिथक तोड़ते हैं। नाटककार पृथु के महिमामंडित व्यक्तित्व की जगह पृथ्वी को समतल करने तथा उत्पादन बढ़ाने वाले व्यक्तित्व पर अधिक बल देता है। कृषि और सिंचाई व्यवस्था पर नेहरू ने भी जोर दिया था। आरंभ में नाटककार ने लिखा भी है-``लेकिन नाटक में पृथु कुछ और भी है। वह विभिन्न दुविधाओं को खिंचावों का बिंदु है। हिमालय का पुत्र, जो प्रकृति की निष्छल क्रोड़ में खो जाना चाहता है, आर्य युवक जो पुरुशार्थ और शौर्य का पुंज है, निशाद किन्नर एवं अन्य आर्येतर जातियों का बंधु, जो एक समीकृत संस्कृति का स्वप्न देखता है, दारिद्र्य का शत्रु और निर्माण का नियोजक, जिसे चकवर्ती और अवतार बनने के लिए मजबूर किया जाता है--- और संकेत नहीं दूंगा कि वह कौन है?´´ आशय स्पष्ट है कि नेहरू ने एक मिली-जुली संस्कृति के निर्माण का सपना देखा था, गरीबी दूर करने का संकल्प किया था, नदियों से नहरें निकाली थीं, बांध बनवाए थे। लेकिन पृथु का अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी है। उसकी महत्वाकांक्षा कवश और उर्वी को अलग कर देती है। |
26-09-2013, 09:48 PM | #147 |
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Re: इधर-उधर से
हिम्मत और चाहत
(साभार: अमिताभ बच्चन का ब्लॉग) इंसान क्या चाहता है और उसे पाने के लिए जो करना है उसके लिए कितनी हिम्मत रखता है उसी से फैसला होता है कि उसे जो चाहिए वह मिलेगा या नहीं। कितनी बार मन करता है कि बस अब घर पर रहें, काम पर न जाएँ, लेकिन मजबूर हो कर जाना ही पड़ता है। सोचना पड़ता है कि क्या यही चाहते थे हम, या कुछ और? पैसा, शोहरत, या चैन की साँस? उन दिनों तो लगता ही नहीं कि पैसा और शोहरत पाने के लिए चैन की साँस खोनी पड़ेगी। लेकिन खोनी पड़ती है और उसके बाद भी चढ़ाई बस चढ़ते जाओ, चढ़ते जाओ, कभी खतम नहीं होती। कहीं रुक गए तो डर लगता है कि दूसरे आगे निकल जाएँगे। जीत तो सकते ही नहीं। चाहत खत्म क्यों नहीं होती? साइकिल मिल गई तो कार चाहिए, एक कार मिल गई तो दो, कभी भी खत्म नहीं होती। |
26-09-2013, 09:54 PM | #148 |
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Re: इधर-उधर से
ठोकर नहीं खायी तो क्या किया?
पुराने दोस्तों की जब बात हो रही है, तो पुराने दोस्त मिलने पर जब बात करते हैं, और सवालात पूछते हैं तो ऐसा लगता है जैसे वह पुराने वाले अमिताभ से बात करने की कोशिश कर रहे हैं, साथ ही वह कहते हैं, बाल सफेद हो गए हैं, पतले हो गए हो, वगैरह। इंसान बदल जाता है फिर भी वह, वह ही रहता है, कोई और नहीं होता। क्या इंसान इस तरह अपने आप को धोखा देता है, वह एक जैसा हमेशा क्यों नहीं रहता, बदल क्यों जाता है, छोटा बदलाव ही सही। कभी कभी आप वही होते हैं, पर दोस्त बदल जाते हैं या उनका नजरिया बदल जाता है। कुछ लोग बड़े हो कर भी बड़े नहीं होते। जिंदगी भर स्क्रिप्ट ही पढ़ते हैं, वही स्क्रिप्ट जो उनकी माँ, उनके बाप और उनके बच्चे या पति या पत्नी उन्हें देते हैं। ऐसी जिंदगी से तो मरना ही अच्छा है। अपने आप से अगर कुछ किया नहीं, लुढ़के नहीं, ठोकर नहीं खाई तो जिंदगी में किया क्या? (अमित जी का ब्लॉग) |
26-09-2013, 09:57 PM | #149 |
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Re: इधर-उधर से
अजीब दास्तान
मेरी जिंदगी एक अजीब दास्तान है जिसमें खुशी है लेकिन खुश होने से डर भी है। खुल कर हँस नहीं सकता और खुल कर रो नहीं सकता। सबसे मिलने और बात करने का मन करता है पर हिचकिचाहट भी होती है। एक जमाना था जब ऐसा लगता था कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ। अब सीख गया हूँ कि ऐसा नहीं है, इसलिए अपनी औकात में रहता हूँ। पर दुःख होता है कि उस तरह ऊँचाइयों को छूने और बुलंदियों को पाने के लिए ऊँची कुलाची अब कभी नहीं मारूँगा क्योंकि मुझे पता है कि मैं वहाँ तक पहुँच नहीं पाऊँगा। अब ऐसा नहीं है। कई बार कुलाची मार कर मुँह के बल गिर चुका हूँ। अपनी जिंदगी के वाकयों को याद कर रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि क्या भूलूँ और क्या याद करूँ। कालेज में एक लड़की की कापी में लिखा देखा था मैं, मेरा मुझे। स्वयं अपने आप से लिपटे हुए शब्द। शायद उसने ऐसे ही कुछ सोचते हुए लिखा होगा। लेकिन हिम्मत नहीं हुई उससे इसके बारे में कभी कुछ पूछने की। अगर वह इसे पढ़ रही हो तो शायद उसे पता चल जाएगा कि उसके बारे में बात हो रही है और शायद उसे यह याद भी न होगा कि कभी उसने ऐसा लिखा था। लेकिन उससे क्या है। शुरू शुरू में जब कुछ भी लिखता था तो लगता था कि मैं कुछ भी लिखूँगा मजेदार होगा लेकिन अब ऐसा नहीं लगता है। अब लगता है जीवन के दुःखों के बारे में लिखना जरूरी है। क्योंकि अक्सर मैं खुद दुःखी होता हूँ। मैं अपनी जात खुद नहीं जानता था पंद्रह साल की उमर तक। लेकिन फिर दुनिया ने अहसास दिला दिया कि मेरी भी एक जात है। और बहुत गंदी जात है। लेकिन मैं अपने आप को उस गंदी जात का हिस्सा नहीं मानता हूँ। मैं, मैं हूँ। स्वयं अपने आप से लिपटा हुआ और दुनिया जहान से बेखबर। यही मेरी खूबी भी है और कमी भी. (अमित जी का ब्लॉग – 24 अगस्त 2006) |
26-09-2013, 09:59 PM | #150 |
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Re: इधर-उधर से
ग़ ज़ ल |
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