19-04-2013, 11:15 PM | #61 |
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Re: इधर-उधर से
(विलियम हायिनमन लि. लंदन का प्रकाशन / 1952 / पृष्ठ सं. 121 से अनूदित) “I grieved to think how brief the dream of human intellect had been …. …. a huge variety od needs and dangers” “आदमी की प्रज्ञा ने जो स्वप्न देखा था वह कितनी जल्दी ध्वस्त हो गया, यह देख कर मुझे बड़ा कष्ट हुआ. इसने वस्तुतः आत्म-हत्या कर ली थी. इसने खुद को आराम और सुविधाओं से इस कदर लैस कर लिया था जिसमे समाज पूर्णतः संतुलित था जिसमे दीर्घकालीन सुरक्षा एक सचेतक शब्द बन चुका था, इसने अपनी सारी आकांक्षाएं हासिल कर ली थी – किस मकसद के लिए? एक बार जीवन और सम्पदा को तकरीबन परम सुरक्षा मिल गई ... ऐसी परम दुनिया में जहाँ कोई शंका बाकी नहीं रही, रोजगार की समस्या नहीं, समाज में कोई अन-सुलझा प्रश्न नहीं बचा. और एक व्यापक शांति की स्थापना हो गई थी. यह प्रकृति का एक नियम है जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं, कि बहुमुखी बौद्धिक प्रतिभा एक मुआवजा है – बदलाव का, खतरों का, कठिनाई का. एक पशु जो अपने वातावरण के साथ एकाकार हो चुका है, मशीनता का सर्वोत्तम उदाहरण है. प्रकृति तब तक बुद्धि को आवाज़ नहीं देती जब तक कि आदत तथा सहज-प्रवृत्ति नाकाम न हो जायें. जहाँ किसी प्रकार का कोई बदलाव नहीं है, वहां बुद्धि का काम भी नहीं है. केवल वे प्राणी ही बौद्धिक उपायों का लाभ उठा पाते हैं जिन्हें जीवन में अनेक प्रकार की जरूरतों और खतरों का सामना करना पड़ता है.” |
21-04-2013, 11:24 PM | #62 |
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Re: इधर-उधर से
नज़्म / मेरे हक़ में दुआ करना / परवीन शाकिर Last edited by rajnish manga; 21-04-2013 at 11:27 PM. |
21-04-2013, 11:26 PM | #63 |
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Re: इधर-उधर से
नज़्म / ख्वाहिश / सीमा स्वधा |
22-04-2013, 07:04 PM | #64 |
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Re: इधर-उधर से
धीरे से सरकती है रात, उसके आँचल की तरह
उसका चेहरा नज़र आता है झील में कँवल की तरह बाद मुद्दत उसको देखा तो जिस्मोजान को यूँ लगा प्यासी ज़मीं पे जैसे कोई बरस गया बादल की तरह रोज कहता है सीने पे सर रख के रात भर जगाऊँगा सरेशाम ही मुझे आज फिर सुला गया वो कल की तरह मेरे ही दिल का निवासी निकला वो शख्स "वासी" और मैं शहर भर में ढूँढता रहा उसे किसी पागल की तरह --वासी शाह
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
22-04-2013, 11:44 PM | #65 | |
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Re: इधर-उधर से
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25-04-2013, 12:12 AM | #66 |
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Re: इधर-उधर से
कॉलेज का अंतिम दिन
(16/5/1973 की डायरी का एक अंश) कल फाईनल एग्जाम के बाद प्रेक्टिकल भी समाप्त हो गए. लगा कि सिर से एक बोझ उतर गया है. शाम को जब त्यागी के कमरे में ब्रिज, सलाहुद्दीन, और मैं बैठे हुए थे तो मन कुछ ऐसी घाटियों में भटक गया पीछे छूटती जाने वाली राहों की याद से ही मैं आद्र हो उठा. प्रेक्टिकल्स की समाप्ति पर ऐसा न महसूस न हुआ था. आज यह सोच कर कि अब उन सभी साथियों से बिछड़ना होगा जिनके साथ मैंने विगत दो वर्ष गुज़ारे. आज लगा कि ये दो वर्ष जैसे दो दिनों में ही व्यतीत हो गए हों. कहने को कह सकता हूँ कि क्या पाया है मैंने उनसे? लेकिन सच्चाई यह है कि जो कुछ मैंने उनसे पाया है उसे सहेज पाने तक की ताकत मुझ में नहीं है. इन दो वर्षों में स्नेह, मिलन-बिछुडन, घुटन, कटूक्तियां, मुक्त-हास्य, मज़ाक आदि के इतने विविध रूप देखे हैं और इन सब का मुझ पर इतना भारी प्रभाव पड़ा है कि इन सब से अलग होकर स्वयं को देख पाना लगभग असंभव सा लगता है. लेकिन मेरे पास क्या प्रमाण है? प्रमाण है वह टीस, वह पीड़ा जो कल रात अकस्मात् मेरे नेत्रों को भिगो गई. और मैं इस मंज़र पर खड़ा खड़ा फिर से न जुड़ने वाले, पीछे छूट जाने वाले कारवाँ के बारे में सोचने लगा और अपने हमराहियों की परछइयां पकड़ने की नाकाम कोशिश करता रहा. मैं नहीं जानता कि वे सब भी उसी उद्वेलित मन:स्थिति से गुज़र रहे होंगे अथवा नहीं. देर रात तक जागता रहा. एक गीत की पंक्तियाँ बार बार याद आती रहीं – खुश रहो साथियो, तुम्हें छोड़ कर हम चले तुम्हें छोड़ कर हम चले, हमें छोड़ कर तुम चले, खुश रहो साथियो, तुम्हें छोड़ कर हम चले आज मुझे वह दिन भी याद आया जब मैं डी.ए.वी.कॉलेज देहरादून में पढ़ने के लिए आया था. उस दिन मुझे घर की और आत्मीयों की बहुत याद आई थी. उस दिन नए माहौल की घबराहट निम्नलिखित गीत के माध्यम से स्वतः व्यक्त हो उठी थी – घर से चले थे हम तो ख़ुशी की तलाश मैं, खुशी की तलाश में, ग़म राह में खड़े थे वही साथ हो लिए ... ****** |
10-05-2013, 01:33 PM | #67 |
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Re: इधर-उधर से
निम्नलिखित शे’र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं:
भूला नहीं मैं आज भी आदाबे जवानी मैं आज भी औरों को नसीहत नहीं करता. (शायर: क़तील शिफ़ाई) या तो दीवाना हँसे या तू जिसे तौफीक़ दे वरना इस दुनिया में आके मुस्कुराता कौन है. (शायर: ज्ञात नहीं) कल वो कश्ती भी था, पतवार भी था माझी भी आज एक एक से कहता है बचा लो मुझको . (शायर: ज्ञात नहीं) |
10-05-2013, 01:36 PM | #68 |
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Re: इधर-उधर से
निम्नलिखित शे’र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं:
सरे महशर हमारा खून ‘बिस्मिल’ रंग लाएगा अगर दो चार धब्बे रह गए कातिल के दामन पर (शायर: बिस्मिल) आज अगर रास भी आ जाये तो होता क्या है कल बदल जायेगी दुनिया का भरोसा क्या है. (शायर: मुज़तर इंदौरी) मैं उनकी महफिले इशरत से कांप जाता हूँ जो घर को फूंक के दुनिया में नाम करते हैं. (शायर: इक़बाल) |
10-05-2013, 01:39 PM | #69 |
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Re: इधर-उधर से
राजस्थानी लोक कथा
ईमानदार डकैत यह उस ज़माने की बात है जब बलजी-भुर्जी के नाम से राजस्थान का ज़र्रा ज़र्रा खौफ खाता था. बलजी-भुर्जी का गिरोह डकैती के लिए जितना कुख्यात था, उससे कहीं ज्यादा अपने नियमों के लिए जाना जाता था. बलजी भुर्जी की इस धाक को देख कर एक अन्य डकैत नानिया के मन में उससे फ़ायदा उठाने की इच्छा पैदा हुयी. वह जब तब किसी असहाय को लूट लेता और खुद को बलजी बताता. भय से लोग चुप रह जाते ... पर चौंकते अवश्य कि आखिर बलजी भुर्जी की मति को क्या हो गया है ! सेठ खेतसीदास पौद्दार बेहद सज्जन और दयालु प्रवृत्ति के इंसान थे. इधर एक बढ़िया नस्ल का ऊंट सेठ जी खरीद कर लाये थे. एक दिन सेठ जी अकेले ही ऊँट की सवारी कर रहे थे. सर्दी के सिहरन भरे दिनों में एक गरीब बूढ़े को देख कर जो उनसे रुकने की प्रार्थना कर रहा था सेठ जी रूक गए. सेठ जी ने ऊँट को बैठने का संकेत किया. उन्होंने उस व्यक्ति को भी ऊँट पर बिठा लिया. कुछ दूर ही आगे चले होंगे कि सेठ जी को जोर का धक्का लगा और वे जमीन पर आ गिरे. क्षण भर को सेठ जी चौंके लेकिन यह देख कर उन्हें हैरानी और डर भी लगा कि जिसे उन्होंने दया कर के अपने साथ बिठाया था वह एक डाकू था. अब वे क्या करते. उन्होंने स्वर का नाम पूछा तो उसने कहा कि वह बालजी-भुर्जी का आदमी है. सेठ जी ने उस व्यक्ति से प्रार्थना की कि वह इस घटना का ज़िक्र किसी से न करे वरना लोग किसी पर भरोसा नहीं करेंगे और गरीबों की मदद के लिए आगे नहीं आयेंगे. बात को दबाये रकने की कोशिश सेठ जी ने तो बहुत की लेकिन किसी प्रकार इस घटना की जानकारी बालजी-भुर्जी को लग गई कि सेठ जी का ऊँट नानिया रूंगा के पास है. धीरे धीरे सेठ जी के दिमाग़ से यह घटना निकल गई. पर एक रोज वह चौंक गए. घर के दालान में ऊँट बंधा दिखाई दिया, वही ऊँट जिसे डाकू ले गया था. पास जा कर देखा तो उसके गले में एक तख्ती बढ़ी थी और लिखा हुआ था, “सेठ खेतसी दास को बलजी-भूरजी की भेंट .. हम डाकू हैं पर धोखेबाज कतई नहीं!” चौंकाने वाली बात तो यह थी कि जो आदमी ऊँट ले गया था वह बालजी भूरजी का आदमी नहीं था. सेठ जी इसी सोच में डूबे थे कि किसी ने बताया, “झूंझनू के के पास की पहाड़ी की तलहटी में नानिया रूंगा की लाश पड़ी है!” सभी समझ गए कि असली डकैत कौन था. ** |
10-05-2013, 01:41 PM | #70 |
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Re: इधर-उधर से
मिसिज़ चार्ल्स डिकन्स का पहला खत
(अमृता प्रीतम की कहानी ‘मैं कैथरीन’ से) चार्ल्स ! तुम्हारी मौत की खबर सुन कर आज मलिका विक्टोरिया ने मुझे अफ़सोस का तार भेजा है – मुझे मिसिज़ चार्ल्स डिकिन्स को – अगर मलिका विक्टोरिया तुम्हारे जीवित रहते ‘बेरोनेट’ की पद्वी दे देती, जैसी कि हवा में यह खबर थी, तो मैं लेडी डिकिन्स भी कहला सकती थी ... पर कुछ भी कहने से या कहलवाने से क्या होता है ... मैं जानती हूँ चार्ल्स ! मेरा विवाह कभी तुमसे नहीं हुआ था. मैं गिरजे के उस पादरी को झुठलाती नहीं जिसने विवाह की रस्म निबाही थी, मैं केवल यह कहना चाहती हूँ कि मेरा विवाह तुम्हारे एक हाथ की तीसरी ऊँगली से हुआ था ... तुम्हारे हाथ की तीसरी ऊँगली ... जिस पर सारी उमर वह अंगूठी पड़ी रही, जो मेरी बहन ‘मेरी’ ने मरते समय तुम्हें दी थी. मर चुकी बहन के जिंदा इश्क को मैंने अपना लिया था और तुम्हारी तीसरी ऊँगली को, समेत उस अंगूठी के, अपनी ज़िन्दगी का साथी माँ, मैंने अपनी कोख में से दस बच्चों को जन्म दिया ... छोटे छोटे डिकन्स ... छोटे छोटे ब्याज ... हर ब्याज का कोई मूलधन होता है, यह मूलधन अगर मर्द और औरत के आपसी प्रेम का हो, तो वर्षों इस्तेमाल करने के बाद भी ख़त्म नहीं होता. पर यह धन अगर किसी के एक पक्षीय प्रेम का हो ? ... ** |
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