03-04-2011, 11:18 AM | #11 |
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Re: रामचरित मानस से सीख
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( वैचारिक मतभेद संभव है ) ''म्रत्युशैया पर आप यही कहेंगे की वास्तव में जीवन जीने के कोई एक नियम नहीं है'' |
03-04-2011, 04:40 PM | #12 |
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Re: रामचरित मानस से सीख
नायक जी सुत्र भ्रमण और उत्साह वर्धन के लिये धन्यावाद, नही ये क्रम में नही मै कुछ चुनी हुई चौपाईयो को ही यहा पर डाल रहा हूं जिनका अपने जीवन में अनुकरण करना चाहिये ।
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03-04-2011, 07:48 PM | #13 |
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Re: रामचरित मानस से सीख
प्रभु श्री राम ने संतो के यह लक्षण लक्ष्मण जी को अरण्यकाण्ड में बतलाए-
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥ सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥ भावार्थ:- कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्याय का कभी त्याग नहीं करते। सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं॥
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03-04-2011, 08:16 PM | #15 |
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Re: रामचरित मानस से सीख
सीताराम हमसफ़र जी, कैसे है आप? मुझे तो लगा आप मुझे भूल गये है ।
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03-04-2011, 08:32 PM | #16 |
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Re: रामचरित मानस से सीख
प्रभु श्री राम द्बारा वर्षा और शरद ऋतू का वर्णन पढना चाहिए l इन चौपाईयों में अत्यधिक सुन्दर उपमाएं दी गई हैं -
दामिनि दमक रह नघन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥ भावार्थ: बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती॥ बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ। बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥ भावार्थ: बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान्* नम्र हो जाते हैं।बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं॥ छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥ भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥ भावार्थ:-छोटी नदियाँ भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। (मर्यादा का त्याग कर देते हैं)। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो॥
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04-04-2011, 10:34 PM | #17 |
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Re: रामचरित मानस से सीख
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥ हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात्* अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥
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04-04-2011, 10:36 PM | #18 |
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Re: रामचरित मानस से सीख
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥ भावार्थ:-संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तंतु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वंदनीय यश प्राप्त किया है॥3॥
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07-04-2011, 10:26 PM | #19 |
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Re: रामचरित मानस से सीख
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥ भावार्थ:-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥ सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥ बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥ भावार्थ:-दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुंदर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात्* जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।)॥5॥
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