15-01-2012, 10:30 PM | #21 |
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Re: दोहावली
जियत कंज तजि अनत बसि, कहा भौंर को भाय ॥ धन दारा अरु सुतन सों, लग्यों रहै नित चित्त । नहि रहीम कोऊ लख्यो, गाढ़े दिन को मित्त ॥ दोनों रहिमन एक से, जौलों बोलत नाहिं । जान परत है काक पिक, ॠतु बसन्त के भांहि ॥ नात नेह दूरी भली, जो रहीम जिय जानि । निकट निरादर होत है, ज्यों गड़ही को पानि ॥ धूर धरत नित सीस पर, कहु रहीम केहि काज । जेहि रज मुनि पतनी तरी, सो ढ़ूंढ़त गजराज ॥ |
15-01-2012, 10:32 PM | #22 |
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Re: दोहावली
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन देत समेत ।
ते रहिमन पसु ते अधिक, रीझेहुं कछु न देत ॥ नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग । देसी स्वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग ॥ निज कर क्रिया रहीम कहि, सिधि भावी के हाथ । पांसे अपने हाथ में, दांव न अपने हाथ ॥ परि रहिबो मरिबो भलो, सहिबो कठिन कलेम । बामन हवैं बलि को छल्लो, दियो भलो उपदेश ॥ नैन सलोने अधर मधु, कहु रहीम घटि कौन । मीठो भावे लोन पर, अरु मीठे पर लौन ॥ पन्नगबेलि पतिव्रता, रति सम सुनो सुजान । हिम रहीम बेली दही, सत जोजन दहियान ॥ पसिर पत्र झंपहि पिटहिं, सकुचि देत ससि सीत । कहु रहीम कुल कमल के, को बेरी को मीत ॥ पात-पात को सीचिबों, बरी बरी को लौन । रहिमन ऐसी बुद्धि को, कहो बैरगो कौन ॥ बड़ माया को दोष यह, जो कबहूं घटि जाय । तो रहीम गरिबो भलो, दुख सहि जिए बलाय ॥ 1 पुरुष पूजै देवरा, तिय पूजै रघूनाथ । कहि रहीम दोउन बने, पड़ो बैल के साथ ॥ |
15-01-2012, 10:32 PM | #23 |
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Re: दोहावली
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन ।
अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन ॥ प्रीतम छवि नैनन बसि, पर छवि कहां समाय । भरी सराय रहीम लखि, आपु पथिक फिरि जाय ॥ 117 ॥ बड़े दीन को दुख सुने, लेत दया उर आनि । हरि हाथी सों कब हुती, कहु रहीम पहिचानि ॥ बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ । राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ ॥ बड़े पेट के भरन को, है रहीम दुख बाढ़ि । यातें हाथी हहरि कै, दयो दांत द्वै काढ़ि ॥ |
15-01-2012, 10:33 PM | #24 |
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Re: दोहावली
बढ़त रहीम धनाढय धन, धनौं धनी को जाई ।
धटै बढ़ै वाको कहा, भीख मांगि जो खाई ॥ बड़े बड़ाई ना करें, बड़ो न बोलें बोल । रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका है मोल ॥ रहीम कानन बसिय, असन करिय फल तोय । बन्धु मध्य गति दीन हवै, बसिबो उचित न होय ॥ बिपति भए धन ना रहै, रहै जो लाख करोर । नभ तारे छिपि जात हैं, ज्यों रहीम ये भोर ॥ बांकी चितवनि चित चढ़ी, सूधी तौ कछु धीम । गांसी ते बढ़ि होत दुख, काढ़ि न कढ़त रहीम ॥ |
15-01-2012, 10:35 PM | #25 |
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Re: दोहावली
विरह रूप धन तम भए, अवधि आस उधोत ।
ज्यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्दोत ॥ बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस । महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस ॥ बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय । रहिमन बिगरै दूध को, मथे न माखन होय ॥ भावी काहू न दही, दही एक भगवान । भावी ऐसा प्रबल है, कहि रहीम यह जानि ॥ भीत गिरी पाखान की, अररानी वहि ठाम । अब रहीम धोखो यहै, को लागै केहि काम ॥ भजौं तो काको मैं भजौं, तजौं तो काको आन । भजन तजन ते बिलग हैं, तेहिं रहीम जू जान ॥ भावी या उनमान की, पांडव बनहिं रहीम । तदपि गौरि सुनि बांझ, बरू है संभु अजीम ॥ भलो भयो घर ते छुटयो, हस्यो सीस परिखेत । काके काके नवत हम, अपत पेट के हेत ॥ भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गुनत लघु भुप । रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखौ तौ एकै रुप ॥ महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष । सो अर्जुन बैराट घर, रहे नारि के भेष ॥ |
15-01-2012, 10:35 PM | #26 |
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Re: दोहावली
मनसिज माली कै उपज, कहि रहीम नहिं जाय ।
फल श्यामा के उर लगे, फूल श्याम उर जाय ॥ मथत मथत माखन रहै, दही मही विलगाय । रहिमन सोई मीत है, भीत परे ठहराय ॥ मन से कहां रहीम प्रभु, दृग सों कहा दिवान । देखि दृगन जो आदरैं, मन तोहि हाथ बिकान ॥ माह मास लहि टेसुआ, मीन परे थल और । त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपने ठौर ॥ मांगे मुकरिन को गयो, केहि न त्यागियो साथ । मांगत आगे सुख लहयो, ते रहीम रघुनाथ ॥ |
15-01-2012, 10:37 PM | #27 |
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Re: दोहावली
मान सरोवर ही मिलैं, हंसनि मुक्ता भोग ।
सफरिन भरे रहीम सर, बक बालक नहिं जोग ॥ मान सहित विष खाय के, संभु भए जगदीस । बिना मान अमृत पिए, राहु कटायो सीस ॥ मांगे घटत रहीम पद, कितौ करो बड़ काम । तीन पैग वसुधा करी, तऊ बावने नाम ॥ मूढ़ मंडली में सुजन, ठहरत नहीं विसेख । स्याम कंचन में सेत ज्यों, दूरि कीजिअत देख ॥ यद्धपि अवनि अनेक हैं, कूपवन्त सर ताल । रहिमन मान सरोवरहिं, मनसा करत मराल ॥ मुनि नारी पाषान ही, कपि पसु गुह मातंग । तीनों तारे रामजु तीनो मेरे अंग ॥ मंदन के मरिहू, अवगुन गुन न सराहि । ज्यों रहीम बांधहू बंधै, मरवा हवै अधिकाहि ॥ मुक्ता कर करपूर कर, चातक-जीवन जोय । एतो बड़ो रहीम जल, ब्याल बदन बिस होय ॥ ॥ यह रहीम मानै नहीं, दिन से नवा जो होय । चीता चोर कमान के, नए ते अवगुन होय ॥ यों रहीम सुख दु:ख सहत, बड़े लोग सह सांति । उदत चंद चोहि भांति सों, अथवत ताहि भांति ॥ |
21-01-2012, 10:32 PM | #28 |
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Re: दोहावली
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ ॥ कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय । अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥ कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय । दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥ कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय । दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥ कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय । होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥ को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय । ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥ काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं । साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥ काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ । काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ |
21-01-2012, 10:33 PM | #29 |
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Re: दोहावली
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय । इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार । साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥ कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय । सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥ कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय । जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर । ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥ कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह । देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय । बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं । ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार । एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ |
21-01-2012, 10:34 PM | #30 |
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Re: दोहावली
कागा काको घन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर । जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि । विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ । काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय । आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव । कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय । चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार । वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ |
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