26-10-2015, 03:05 AM | #1 |
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निस्तब्ध
शब्द बनकर मन में आ जाए, जब हिरदय इस सृष्टि पर एक विहंगम दृष्टि कर जाये भीगी पलके लिए नैनो में रैना निकल जाये विचार पुष्प पल्लवित हो मन को मगन कर जाये दूर गगन छाई तारों की लड़ी जो रह रह कर मन को ललचाये ललक उठे है एक ,मन में मेरे बचपन का भोलापन फिर से मिल जाये मीठे सपने मीठी बातें था मीठा जीवन तबका क्लेश कलुष बर्बरता का न था कोई स्थान वहां थे निर्मल, निलिप्त द्वन्दो से, छल का नामो निशा ना था निस्तब्ध निशा कह रही मानो मुझसे , तू शांति के दीप जला इंसा जूझ रहा जीवन से हर पल उसको तू धाडस बंधवा निर्मल कर्मी बनकर इंसा के जीवन को फिर से बचपन दे दे जरा |
26-10-2015, 01:52 PM | #2 |
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Re: निस्तब्ध
बहुत सुंदर कविता, बहन पुष्पा जी. प्रकृति का ऐसा मनोरम चित्र... वाह!! रात की निस्तब्धता ओर कवि मन की एकाग्रता दोनों मिल कर एक जादुई वातावरण का सृजन करते हैं. ऐसा वातावरण जहाँ मानवता अपने मूल रूप को पहचान सके. वहाँ बर्बरता, द्वेष और क्लेश-कष्ट का कोई स्थान न हो. केवल निर्मल मन, निर्मल जीवन हो, मनुष्य मनुष्य में आपसी भाईचारा हो. कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ:
बचपन का भोलापन फिर से मिल जाये क्लेश कलुष बर्बरता का न था कोई स्थान वहां.... थे निर्मल, निलिप्त द्वन्दो से, छल का नामो निशा ना था निस्तब्ध निशा कह रही मानो मुझसे
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26-10-2015, 10:09 PM | #3 | |
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Re: निस्तब्ध
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हार्दिक आभार सह बहुत बहुत धन्यवाद भाई सही कहा आपने जब जब एइसा वातावरण मिलता है अपने आप शब्द चले आते हैं और कविता के रूप में अवतरित हो जाते हैं किन्तु इस भावना को समझने वाले विरले मिलते हैं .आपने इसे समझा और सराहा भाई जिससे आगे लिखने का प्रोत्साहन मिला है मुझे ... |
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27-10-2015, 10:00 AM | #4 |
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Re: निस्तब्ध
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28-10-2015, 12:38 AM | #5 |
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Re: निस्तब्ध
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30-10-2015, 04:39 PM | #6 |
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Re: निस्तब्ध
Bahot hi sundar rachna pushpaji......jis Tarah se Aapne present kiya hai ise very very very niceeeeee.......
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30-10-2015, 06:35 PM | #7 | |
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Re: निस्तब्ध
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hardik abhar sah bahut bahut dhanywad |
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03-11-2015, 09:01 PM | #8 | |
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Re: निस्तब्ध
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06-11-2015, 02:00 PM | #9 |
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Re: निस्तब्ध
बहुत बहुत धन्यवाद सूरज शाह जी ....
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