15-11-2015, 12:53 AM | #1 |
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कुछ सपने सजा लें
हम तुम एक नया जहाँ बना लें आ जाओ न मितवा कभी डगर हमारी तुमसे बतियाकर अपना मन बहला लें भर ले सांसो में महक खुशियों की, और कुछ नाचे कुछ गाएँ कुछ झूमे और खुशियाँ मना लें मन की उमंगे संजोये और एक अलख जगा लें मिटा धरती से दुःख, दर्द की पीड़ा हर किसी के दामन को खुशियों से सजा लें चलो न मितरा सोये को जगा लें चलो न मितरा भूखों को खिला दें खा लें कसम कुछ एईसी की हर आँख से दुःख के आंसू मिटा दें कर लें मन अपना सागर सा जग की खाराश ( क्षार ) को खुद में समा लें बुलंदियां हों हिमालय के जैसी हमारी पर मानव के मन से रेगिस्तान को हटा दें खुशियों के बीज बोकर इस, नए वर्ष को और नया बना दें |
15-11-2015, 08:34 PM | #2 |
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Re: कुछ सपने सजा लें
Naye varsh men abhi der hai, fir bhi ati sundar prastuti.
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15-11-2015, 10:42 PM | #3 |
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Re: कुछ सपने सजा लें
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16-11-2015, 10:08 PM | #4 | |
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Re: कुछ सपने सजा लें
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17-11-2015, 10:57 AM | #5 | |
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Re: कुछ सपने सजा लें
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हार्दिक आभार सह बहुत बहुत धन्यवाद भाई , आपने कविता को लिखने के मर्म को समझा और सराहा यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात है .. इंग्लिश न्यू इयर के लिए देर है है किन्तु हिन्दू नए वर्ष के आने के बाद के मन मे उठते भावों को बस जरा शब्दों में ढाल दिया था मैंने भाई .. पता नहीं था की लोक गीत सी बन गई कविता आपकी दी टिपण्णी से ये ज्ञात हुआ मुझे . प्रेरणादायक टिपण्णी .. |
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