11-01-2011, 10:59 AM | #34 |
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Re: ~!!निर्मला!!~
पका रही हो? रुक्मिणी- कौन पकावे? बहू के सिर में दर्द हो रहा है। आखिरइस वक्त कहां जा रहे हो? सबेरे न चले जाना। मुंशीजी- इसी तरह टालते-टालते तो आज तीन दिन हो गये। इधर-इधर घूम-घामकर देखूं, शायद कहीं सियाराम का पता मिल जाये। कुछ लोग कहते हैं कि एक साधु के साथ बातें कर रहा था। शायद वह कहीं बहका ले गया हो। रुक्मिणी- तो लौटोगे कब तक? मुंशीजी- कह नहीं सकता। हफ्ता भर लग जाये महीना भर लग जाये। क्या ठिकाना है? रुक्मिणी- आज कौन दिन है? किसी पंडित से पूछ लिया है कि नहीं? मुंशीजी भोजन करने बैठे। निर्मला को इस वक्त उन पर बड़ी दया आयी। उसका सारा क्रोध शान्त हो गया। खुद तो न बोली, बच्ची को जगाकर चुमकारती हुई बोली- देख, तेरे बाबूजी कहां जो रहे हैं? पूछ तो? बच्ची ने द्वार से झांककर पूछा- बाबू दी, तहां दाते हो? मुंशीजी- बड़ी दूर जाता हूं बेटी, तुम्हारे भैया को खोजने जाता हूं। बच्ची ने वहीं से खड़े-खड़े कहा- अम बी तलेंगे। मुंशीजी- बड़ी दूर जाते हैं बच्ची, तुम्हारे वास्ते चीजें लायेंगे। यहां क्यों नहीं आती? बच्ची मुस्कराकर छिप गयी और एक क्षण में फिर किवाड़ से सिर निकालकर बोली- अम बी तलेंगे। मुंशीजी ने उसी स्वर में कहा- तुमको नर्ह ले तलेंगे। बच्ची- हमको क्यों नई ले तलोगे? मुंशीजी- तुम तो हमारे पास आती नहीं हो। लड़की ठुमकती हुई आकर पिता की गोद में बैठ गयी। थोड़ी देर के लिए मुंशीजी उसकी बाल-क्रीड़ा में अपनी अन्तर्वेदना भूल गये। भोजन करके मुंशीजी बाहर चले गये। निर्मला खडेक़ी ताकती रही। कहना चाहती थी- व्यर्थ जो रहे हो, पर कह न सकती थी। कुछ रुपये निकाल कर देने का विचार करती थी, पर दे न सकती थी। अंत को न रहा गया, रुक्मिणी से बोली- दीदीजी जरा समझा दीजिए, कहां जा रहे हैं! मेरी जबान पकड़ी जायेगी, पर बिना बोले रहा नहीं जाता। बिना ठिकाने कहां खोजेंगे? व्यर्थ की हैरानी होगी। रुक्मिणी ने करुणा-सूचक नेत्रों से देखा और अपने कमरे में चली गईं। निर्मला बच्ची को गोद में लिए सोच रही थी कि शायद जाने के पहले बच्ची को देखने या मुझसे मिलने के लिए आवें, पर उसकी आशा विफल हो गई? मुंशीजी ने बिस्तर उठाया और तांगे पर जा बैठे। उसी वक्त निर्मला का कलेजा मसोसने लगा। उसे ऐसा जान पड़ा कि इनसे भेंट न होगी। वह अधीर होकर द्वार पर आई कि मुंशीजी को रोक ले, पर तांगा चल चुका था।
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