23-06-2014, 11:37 AM | #31 |
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Re: कथा-लघुकथा
जाड़े का मौसम था l मृदु की पहली डिलीवरी के लिए उसे नर्सिंग होम में भर्ती किया गया था l उसका पति सज्ञान छुट्टी लेकर दो दिन पहले ही उसके पास के पास पहुँच गया था l तय हुआ था की पहली डिलीवरी मायके में ही होगी l घर में पहला बच्चा आने वाला था l सभी को इस बात से काफी उत्सुकता थी l उसकी माँ तो हर समय उसका पूरा-पूरा ख्याल रखती l माँ की छत्रछाया में वह भी चिंता रहित हो गई थी l डॉक्टर के सुझाए निर्धारित तारीख पर उसे दाखिल कर दिया गया l मृदु आपरेशन थियेटर के अन्दर थी और बाहर घरवाले दुआ के साथ प्रतीक्षारत…………lमाँ का अपनत्व कुछ क्षण पश्चात तौलिये में लिपटा हुआ नवजात शिशु के साथ नर्स आकर बोली – “बधाई हो लड़का हुआ हैं l ” यह सुन कर परिवार वाले बहुत खुश हुए l नर्स के हाथो से नवजाद शिशु को लेते हुए बारी-बारी से सभी बच्चे को गोद में उठाकर खुशियाँ जाहिर करने में व्यस्त हो गए l पर इस घडी में उस कुल गौरव को जन्म देने वाली माँ को जैसे वे भूल गए थे l उधर उसे बेड में लिटाया गया था और वह ठण्ड से कांप रही थी l ऐसा लग रहा था जैसे उसकी किसी को कोई परवाह नहीं हैं l परन्तु एक माँ भला अपनी बेटी को कैसे भूल सकती थी ? वह अब भी अपनी बेटी के पास खड़ी थी l क्यों न हो वह एक बेटी की माँ थी जिनकी बेटी ने आज एक कुल गौरव को जन्म दिया था l वह माँ ही होती हैं जो अपने बच्चे का हरसमय ख्याल रख सकती हैं बिना किसी स्वार्थ के l तभी तो बेड पर पड़ी ठिठुर रही अपनी बेटी को देखकर मृदु की माँ ने कहा था “अरे कोई तो बच्ची के लिए कम्बल लाओ l देखो तो कैसे ठिठुर रही हैं! ” इतना क्या कहना था नर्स ने भी तत्परता दिखाई और कम्बल लाकर मृदु को ओढ़ा दिया l माँ ने प्रेम से उसके माथे पर हाथ फेरा l
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23-06-2014, 11:55 AM | #32 |
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Re: कथा-लघुकथा
रमेश ज़रूरी काम से गांव जाने के लिये सपत्नीक स्टेशन पहुँचा तो पाया कि पहले से ही मुसाफिरों की लंबी लाइन टिकट खिडकी पर लगी थी। पत्नी बोली,” हे राम! टिकट कैसे मिलेगा, गाड़ी की रवानगी में बीस मिनट ही बचे हैं”।
रमेश मुस्करा कर बोला,” अभी मिलता है”। और वह कुली के पास जा पंहुचा,” भाई! टिकट का इंतज़ाम हो जायगा क्या?” “हाँ साब, सौ रुपये अधिक लगेंगे”। “कोई बात नहीं यार! तू टिकट तो दिला”। यह बेईमानी की जीत थी! …. पत्नी की बहुत मिन्नत के बाद रमेश सिनेमाघर गया था। टिकट खरीदारों की लंबी लाइन आगे सरक ही नहीं रही थी। बीच-बीच में एक दबंग टिकट खिडकी पर पहुँच कर इकट्ठे बहुत सारे टिकट लेता और वापिस भीड़ में टिकट ब्लैक करने आ जाता। कतार तोड़ कर लोग स्वयं ही उसके साथ हो रहे थे। रमेश सोच रहा था कैसे लोग हैं, जरा भी सब्र नहीं कर रहे। यूँ ही तो बेईमानी को बढ़ावा मिलाता है। अचानक भडाक की आवाज़ के साथ टिकट खिडकी बंद हो गयी और दबंग की आवाज़ का सुर और भी तेज हो गया। पत्नी बोली,” कुछ ही रुपये और लगेंगे, ले लो न टिकट” कुछ तो टिकट नहीं मिलने की खीज थी और कुछ पत्नी द्वारा बेईमानी कराने की सलाह पर गुस्सा। रमेश पत्नी का हाथ पकड कर घसीटता सा सिनेमाहॉल के बाहर निकल आया। कारण कोई भी रहा हो पर यह ईमानदारी की तरफ उठा एक कदम था!
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23-06-2014, 12:05 PM | #33 |
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Re: कथा-लघुकथा
गुरु किसी कारण दोनों लड़कों का मूड ऑफ था। दोनों ही अपने अपने विचारों में खोये हुये पैदल चलते रहे। बाहर से खामोश थे पर दोनों के ही अंदर तरह तरह के विचार उमड़ रहे थे। जब उनकी तन्द्रा भंग हुयी तो वे कालेज से दूर चिड़ियाघर तक आ चुके थे। उन्होने सड़क किनारे खड़े फलों के ठेलेवाले से केले खरीदे और चिड़ियाघर की ओर सड़क किनारे बनी रेलिंग पर बैठकर केले खाते हुये इधर-उधर आते जाते लोगों को देखने लगे। कुछ समय बाद उनका मूड कुछ ठीक हुआ तो एक लड़के ने कहा,” चलो यार हॉस्टल चला जाये”। उन्होने सामने से गुजरते हुये एक अधेड़ उम्र के रिक्शे वाले को आवाज देकर रोका,” क्यों भैया, गुरुदेव पैलेस के पास चलोगे क्या”। “चलेंगे, बाबू भैया, दस रुपये लगेंगे”। “चलो”। दोनों लड़के रिक्शा में बैठ गये। रिक्शा चली तो चलती हवा सुहानी प्रतीत हुयी। अक्टूबर के माह में बादलों भरा दिन अच्छा लग रहा था। लड़कों का मूड दुरुस्त हो चला था। रिक्शा चिड़ियाघर के सामने वाली सड़क से गुरुदेव पैलेस जाने वाली सड़क पर मुड़ने लगी तो पहले से उस मुख्य सड़क पर चल रही एक रिक्शा उनके सामने से गुजरी। रिक्शा चालक एक जवान युवक था और रिक्शे में दो लड़कियाँ बैठी हुयी थीं और आपस में हंसी ठिठोली करने में व्यस्त थीं। पहले कभी भी लड़कियों को देखकर छींटाकशी न करने वाले लड़कों को न जाने आज क्या चंचलता सूझी कि एक लड़के ने सीटी बजा दी। सीटी तेज नहीं बजायी गयी थी पर इतनी हल्की भी नहीं थी कि आगे चल रही रिक्शे में बैठी लड़कियां न सुन पायें। सीटी की आवाज सुनकर लड़कियों ने पीछे मुड़कर देखा और वापस हंसते हुये अपनी बातों में मशगूल हो गयीं। लड़कों पर आज असामान्य व्यवहार हावी था। एक लड़के ने रिक्शे वाले से कहा,” भैया, ज़रा तेज चलाओ, उस आगे वाले रिक्शे के बराबर में ले चलो”। रिक्शे वाले ने कहा,” बाबू भैया, एक बात कहूँ”। “हाँ, कहो”। “आप लोग भले घरों के हो। अच्छे पढ़े लिखे हो। कल को बड़े आदमी बनोगे। ये सब छोटी हरकतें आपको शोभा नहीं देतीं।” लड़कों को चुप पाकर रिक्शे वाले ने आगे कहा,” आप लोगों के पिता, चाचा वगैरहा मेरी ही उम्र के होंगे। उसी बुजुर्गियत के नाते कह रहा हूँ। और अपने जीवन के अनुभव से कहता हूँ बेटा कि समय बहुत बड़ा न्याय करने वाला होता है। यह सूद समेत वापस करता है। आज आप किसी की बेटी को छेड़ोगे, कल कोई आपकी बेटी को छेड़ेगा। समय ऐसा करेगा ही करेगा।” रिक्शे वाले की नसीहत सुनकर लड़कों की सोच, जो इधर-उधर हिल गयी थी वापस अपनी नैसर्गिक स्थिति में आ गयी। वे भीतर ही भीतर शर्मिंदा महसूस करने लगे। रिक्शे वाले ने कहा,” आप भले लगे इसलिये कह देने की इच्छा हो गयी।” “आपने ठीक कहा, शुक्रिया”। लड़कों ने कहा। उनका हॉस्टल भी आ गया था। वे रिक्शे से उतर गये। उन्होने रिक्शे वाले को पचास का नोट दिया। उसके पास खुले नहीं थे, लड़कों ने कहा कि फिर किसी और दिन हिसाब हो जायेगा। हॉस्टल की ओर बढ़ते हुये एक लड़के ने अपने साथी से कहा,” यार, ज़िंदगी पता नहीं कैसे कैसे सिखा देती है और कहीं से भी गुरु ले आती है शिक्षा देने के लिये”।
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23-06-2014, 09:14 PM | #34 |
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Re: कथा-लघुकथा
यह एक बहुत अच्छी लघुकथा - जिसमे जीवन सुधार का महामंत्र छुपा है. धन्यवाद.
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24-06-2014, 05:15 PM | #35 |
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Re: कथा-लघुकथा
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
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25-06-2014, 11:53 AM | #36 |
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Re: कथा-लघुकथा
रोज शाम बगीचे में घूमने जाना मेरी आदत में शामिल था | फाटक के पास ही शर्माजी मिल गए |ईमानदार वहां रुक कर कुछ देर उनसे बतियाने लगा | सावन का पहला सोमवार था | आज कुछ विशेष रौनक थी | कुछ एक गुब्बारे-कुल्फी वाले भी आ जुटे थे | शर्माजी से जैरामजी कर आगे बढ़ने लगा तो पास में खड़े कुल्फी वाले ने कुरते की बाह पकड़ कर कहा : "बाबूजी पैसे" ? मैं हतप्रभ: "कैसे पैसे" ? उसने पास खड़े कुल्फी खाते एक बच्चे की तरफ़ इशारा कर के कहा : "आपका नाम ले कुल्फी ले गया है, पैसे तो आपको देने ही पड़ेंगे" | मुझे गुस्सा आ गया बच्चे के पास गया और दो थप्पड़ जड़ दिए और कहा "मुफ्त की कुल्फी खाते शर्म नही आती" ? वह बोला : "मुफ्त की कहाँ ? इसके बदले थप्पड़ खाने के लिए तो आपके पास खड़ा था वरना भाग ना जाता"?
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26-06-2014, 09:41 AM | #37 |
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Re: कथा-लघुकथा
एक जहाज समुद्र में डूब गया – उसमे से एक आदमी किसी तरह तैर कर एक छोटे से द्वीप पर पहुँच गया | वह इश्वर से प्रार्थने करता रहा की कोई उसे बचाने आये पर कुछ हुआ नहीं …
बेचारे ने किसी तरह लकड़ियाँ जोड़ कर धूप और बारिश से बचने के लिए एक छोटी सी झोपडी बना ली | लेकिन एक दिन वह जब खाने के लिए कुछ कुछ ढूंढ कर लौटा – तो उसकी झोपडी जल रही थी …. वह रो पड़ा और उसने इश्वर से कहा की तू मेरे साथ ऐसा कैसे कर सका? जब अगले दिन की सुबह उसकी नींद खुली – तो एक जहाज की आवाज़ से – जो उसे बचाने आया था - उसने पूछा – तुम्हे कैसे पता चला की मैं यहाँ हूँ? जवाब मिला – तुम्हारे धुंए के संकेत से ….. इसलिए – विश्वास रखो – कैसी भी परीक्षा की घडी क्यों न हो – उसे भगवान् का कोई संकेत समझो ….
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26-06-2014, 09:48 AM | #38 |
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Re: कथा-लघुकथा
एक आदमी रोज़ नदी से पानी भर कर साहेब के घर तक ले जाया करता था. कन्धों पर एक लम्बी लकड़ी होती, जिसके दोनों सिरों पर एक एक घड़ा बंधा होता | उनमे से एक घड़ा थोडा सा क्रैक्ड था, तो सारे रास्ते उसमे से पानी रिसता रहता | तो मंजिल तक आते आते – एक घड़ा पूरा भरा होता, तो दूसरा सिर्फ आधा रह जाता | पहला घड़ा तो अपने पर्फोमेंस से काफी खुश था लेकिन यह घड़ा हमेशा हीन भावना में घिरा रहता |
एक दिन इस घड़े ने आदमी से कहा – तुम मुझे फेंक दो – और दूसरा घड़ा ले आओ – क्योंकि मैं अपना काम ठीक से नहीं कर पाता हूँ | तुम इतना भार उठा कर शुरू करते हो लेकिन पहुँचने तक मैं आधा खाली होता हूँ ….| इस पर आदमी ने उसे कहा – की आज जाते हुए तुम नीचे पगडण्डी को देखते चलना | घड़े ने ऐसा ही किया – रस्ते भर रंग बिरंगे फूलों से भरे पौधे थे | लेकिन मंजिल आते आते वह फिर आधा खाली हो जाने से दुखी था – उसने बोलना शुरू ही किया था की आदमी ने कहा – अभी कुछ मत कहो – लौटने के समय रास्ते की दूसरी तरफ भी देखते जाना | और लौटते हुए घड़े ने यह भी किया – लेकिन इस तरफ कोई फूल न थे…. नदी के किनारे अपने घर लौट कर उस आदमी ने घड़े को समझाया – मैं पहले से जानता हूँ की तुमसे पानी नहीं संभल पाता – पर यह बुरा ही हो ऐसा ज़रूरी तो नहीं !!! मैंने तुम्हारी और फूलों के पौधे रोप दिए थे – जिनमे तुम्हारे द्वारा रोज़ पानी पड़ता रहा – और वे खिलते रहे …. | इसीलिए – हमें समझना है की जीवन में हर चीज़ परफेक्ट हो ऐसा कोई आवश्यक तो नहीं – ज़रुरत इस बात की है की हम हर कमी को पोजिटिव बना पाते हैं – या नहीं ….. | तो अब से हम – किसी को क्रैक्ड पोट कहने या- कोई हमें कहे तो हर्ट होने – से पहले यह कहानी याद करें ….
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03-07-2014, 10:34 AM | #39 |
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Re: कथा-लघुकथा
सभी लघुकथाएं प्रेरणा देने वाली और शिक्षाप्रद हैं. अच्छा प्रस्तुतीकरण. धन्यवाद.
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04-07-2014, 05:01 PM | #40 |
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Re: कथा-लघुकथा
प्रतिक्रिया करने के आपका हार्दिक आभार
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