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Old 27-09-2014, 10:49 PM   #131
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

इसी कशमकश के बीच खेत-खंधो में जाकर चुपचाप बैठा रहता या फिर शाम को बुढ़ा बरगद की गोद का सहारा लेता। आज भी उसी बुढ़े बरगद की गोद में बैठ जिंदगी को रास्ते पर लाने का जददोजहद कर रहा था। मन में रह रह कर बाबा के श्राद्धकर्म में घटी घटनाऐं याद आ जाती। खास कर असमानता और भेद-भाव मुझे उद्वेलित कर रहे थे। समाज के पिछडेपन का मुझे यह भेद-भाव सबसे बड़ा कारण लगा। श्राद्धकर्म के विध-विधानों से लेकर भोज-भात तक, हर जगह मुझे इसकी झलक मिलती रही और मैं अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहा। खास कर कई मौकों पर तो मैं उलझ ही गया। वह दिन एकादशा का था। मैं घर में था कि तभी एकदशा स्थल पीपल तर जोर जोर से चिल्लाने की आवाज आने लगी। यह सीताराम नाई की आवाज थी। वह अक्सर इस तरह के काज में पंडित जी से उलझ जाया करता था। हक की खातिर। मौके पर पहूंचा तो बहस चल रही थी।

‘‘कौन बात के सब समान और रूपया तोर हो जइतो, खटे कोई, खाई कोई। मेहनत मशक्त हम कलिए और सब समनमा तों काहे ले जइभो।’’सीताराम ने जब यह बात कही तो पंडित जी को नागवार गुजरी और वे शास्त्रों से लेकर धर्म तक की बात जोर जोर से कहने लगे।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
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Old 27-09-2014, 10:51 PM   #132
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

‘‘इहे परम्परे है तो तोरा कहला से बदल जइते। आखिर हम बुद्वि के खा ही और तों परिश्रम कें।’’ पंडित जी ने तर्क दिया। दरअसल यह लड़ाई कर्मकांडों में दिए गए दान इत्यादि के वर्तनों और फिर अंत में सभी कर्मकांडों को खत्म करने की फीस को लेकर हो रही थी। परंपरा यही थी। पंडित जी जो मर्जी दें वहीं नाई का होता है जबकि मेहनत का सारा काम नाई ही करते है। सीताराम जी इसी को लेकर झगड़ रहे है।

‘‘सब काम दौड़ दौड़ कर करी हम और खाई घरी पंडित जी, वाह रे परंपरा।’’ सीताराम नाई कप्युनिष्ट पार्टी का मेमबर था और वह सामंतबाद से लेकर वर्गसंधर्ष की बात अक्सर किया करता और इसी को लेकर वह उलझ रहा था। गांव के चौक चौराहे पर यह बाजार मे धूम धूम कर वह बाल दाढ़ी बनाता था। उसके हाथ में एक एक फिट का काठ का वक्सा रहता था जिसमें अस्तुरा से लेकर सब समान रखे होते।

खैर, फिर काफी हील-हुज्जत के बाद पंडित जी ने अपने दान के समानों में से सीताराम को कुछ दिया। दान और श्राद्धकर्म की भी अजीब परंपरा है और इस अनुभव ने मेरे मन में नकारात्मक विचार भर दिया है। एकादशा के दिन दान को लेकर मान्यता है कि पंडित जी को दान करने से मृतक को उस सामानों का सुख मिलता है। इसी को लेकर एक एक सामान जुटाया जाता है। वर्तन-बासन, फोल्डींग, चादर, छाता, धोती इत्यादी। बाबा खैनी खाते थे और खैनी नहीं होने पर रामू को बजारा दौड़ाया गया खैनी लाने। इन सामानों का अपना एक नेटवर्क है और दान के सामान का सुख पंडित जी नही उठा पाते।
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Old 27-09-2014, 10:55 PM   #133
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

इसी को लेकर मैने पूछ लिया-‘‘आं पंडित जी एतना एतना समान मिलो हो कहां रखो हो सब।’’

‘‘कहां रखबै जजमान, सब जाके जौन दुकान से लइलहो है ओकरे यहां बेच देबै।’’ पंडित जी का जबाब सुन झटका लगा।’’ बाद में इस कौतुहल को शांत किया गांव के उमा सिंह ने।

‘‘अरे की कहथुन पंडित जी। सब दुकान से इनकर फिटिंग है। दस परसेंट कम पर सब समनमा वापस ले ले है।’’

दान से होने वाले पुण्य की एक कड़बी सच्चाई सामने थी। पंडित जी के लिए इन सामानों का कोई औचित्य नहीं था और देने वालों के द्वारा बाजार से एक एक समान खरीदी जाती है कि मृतक इसका प्रयोग करता था इसलिए उपर कष्ट न हो।


सबसे बड़ा दुख तो मुझे उस दिन हुआ जब भोज पर सब लोगों को न्यौता गया। भोज की तैयारी करते करते रात के एक बज गए और इतनी रात को सबको भोज खाने के लिए बुलाने के लिए तीन चार नैजवानों का जत्था बिज्जे के लिए निकला। लोग जुटे। इनमें बच्चों की संख्या अधिक थी। घर के आगे की सड़क ही इसका मुख्य साधन बना। समुचे गांव को एक साथ न्यौत दिया गया। सब जुटे और बैठने लगे। तभी देखा कि गोरे बाबू जोर से चिल्लाए।
‘‘

‘‘अरे लेमुआ, ओने कने जा रहलीं हें रे। जना हौ नै कि ओने बाभन बैठल है, जो करीगी मे जाके बैठ।’’
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Old 27-09-2014, 10:56 PM   #134
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

‘‘काहे मालिक, आज हमरा से छुआ जइभो। और मरला पर हमहीं काम दे हिओ’’ लेमुआ भी पी के फलाड था सो जबाब दे दिया। फिर सभी मुसहर टोली के लोगो ने उसे पकड़ कर एक अलग जगह पर ले गए। एक साथ पंगत में वे नहीं बैठ सकते। दलितो के साथ इस तरह का भेदभाव में मुझे खला। पर देखा कि जब भोज शुरू हो गया तो वहीं गोरेबाबू परोसने वालों को एक एक समान ध्यान से मुसहर टोली के लोगों की तरफ भेजबा रहे थे। भोज मे बच्चों की पत्तलों पर खास नजर होती है क्योंकि चाहे जो हो जाए वे भोज मे चोरी करेगें ही। भोज का अंतिम समय आ गया और इसकी सूचना बच्चों को दही परोसे जाने के बाद लग जाती है और वे साथ लाए लोटा में बुनिया और जलेबी भरना प्रारंभ कर देते है। यही परंपरा है। कोई इनको टोकता नहीं, अरे बुतरू है।

वहीं भोज खत्म होने के बाद लेमुआ डोम बाले-बच्चे जूठा पत्तल उठाने में भीड़ जाता है। बड़ी ही उत्साह से। जिस पत्तल पर मिठाई या बुनिया हो उसे देख उसके बांझे खिल जाते और नहीं होने पर चेहरा मुर्झा जाता। मुझसे रहा नहीं गया तो मैने पूछ लिया।


‘‘की हो लेमू कहे खिसिया रहली है।’’

‘‘की करीओ मालीक, पत्तला पर कुछ रहो है तो बाल बच्चा के कई दिन खाना मिलो है।’’

‘‘कैसे’’ मैने कौतुहलबश पूछ लिया।
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Old 30-09-2014, 10:19 PM   #135
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

‘‘इहे सब पुरीया जिलेबिया घरा ले जाके सुखा दे ही मालिक और फिर कई दिन तक बाल बच्चा के पेट भरो है।’’

‘‘हे भगवान’’

दो तीन दिन बाद देखा तो उसके घर के पास सभी तरह के खाने के समानो को धूप में सुखया जा रहा है। इसमें पूरी और भात भी शामील था। पता चला की इसे सुखा कर रख दिया जाता है और फिर इसी को यह खाते है। जुठन भी किसी की जीवीका का आधार हो सकता है, जानकर झटका लगा। यह इस समाज का एक और पहलू था। मुसहरटोली में गरीबी का यह एक वानगी थी जिसे नजदीक से देखने का मौका मिला और फिर मन भर गया। इसी सबमें खोया था कि तीन चार लोग आकर घेर लिया।

‘‘की रे बड़की बाबा बनो हीं, गांव के लड़की पर नीयत खराब करो हीं।’’ यह अवाज नरेश सिंह के गुर्गे नेपाली दुसाध की थी। उसके साथ दो तीन और थे। बगल में नरेश सिंह के बेटा पहलवाना थी खड़ा था।

‘‘की होलै नेपाली जी, काहे ले गरम हो।’’ मैने हल्के से जबाब दिया।

‘‘की होलै से तोरा नै पता है, गांव के लड़की पर नजर डालो ही और गांव में राजनीति भी करो ही। दुनू गोटी एक साथ नै चलतै।’’ पहलवाना ने कड़कती आवाज में कहा। मैं समझ गया कि यह चुनावी रंजीश को इसी बहाने सधाने की साजीश है। और फिर दे दना दन मेरी धुनाई कर दी गई। मैं किसी तरह से वहां से भाग कर घर आ गया। किसी को इस बात का पता नहीं चला। और फिर मैं इस गांव को छोड़ने का फैसला कर लिया।
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Old 30-09-2014, 10:22 PM   #136
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

रात एक बज रहे थे और मैं ने अपने हाथ की एक अंगुली पर ब्लेड से हल्का प्रहार कर दिया। खून का हल्का रिसाव होने लगा और फिर एक तिनके के सहारे खून से खत लिखने लगा। ज्यादा कुछ नहीं, बस ‘‘मुझे भूल जाओ।’’ खत को उसतक पहूंचाने का एक ब्रहम्सत्र था उसका चचेरा भाई। उसके पटाया और दोस्ती का हवाला देकर खत उस तक पहूंच जाएगा। और अगली सुबह सूरज के उगने से पहले मैं अपने गांव में था।

जीवन और प्रेम के बीच प्रारंभ हुआ संधर्ष प्रेम की अग्निपरीक्षा थी और इसमें आग के जिस दरिया की बात किसी शायर ने की थी शायद वह इसी संदर्भ में कही होगी, मैं ऐसा सोंच रहा था। रीना के गांव से अपने गांव चला तो आया पर जीवन को पटरी पर न ला सका। अपने पैतृक घर आये हुए एक सप्ताह से अधिक हो गया था पर किसी तरह का काम नहीं कर सका। रोजगार मिले इस कोशिश में अपनी सारी शक्ति लगा दी पर अन्ततोगत्वा कुछ हाथ न आ सका और खाली हाथ शाम में बैठ कर उदासी के साथ बार्ता करता रहता।

शाम ढलते ही सूरज की सिंदूरी किरण प्रियतम की छवि धर कर प्रेम के डूबते जाने का एहसास कराता और निराशा में डूबा मन उगते सूरज की सुखद अनुभुति से बंचित रह जाता। दिन बीतते गए
, रात आंखों में कटती गई। नींद आंखों से उसी प्रकार दूर हो गई थी जिस प्रकार मैं रीना से दूर था।
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Old 30-09-2014, 10:23 PM   #137
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कहीं खेत खलिहान में बैठे हुए देर शाम झिंगुर की करकश अवाज भी डरावनी नहीं लगती और न ही सियार के हुआं हुआं मुझे कुछ सुनाई देता। अजीब सी तन्हाई और नैराश्य ने आकर अपनी आगोश में मुझे जकड़ लिया था।

जीवन की तल्ख जमीन पर पांव रखते ही सपनों की सच्चाई सामने आने लगी। मन में किसी तरह का रोजगार कर कमा खा लेने की विचार ख्याली बन गए। पहली कोशीश ट्युशन पढ़ाने की सोंची पर इसमें जितनी कठोर बात सुनने को मिली उससे यही लगा की शायद जीवन की जमीन इतनी ही कठोर मिलेगी। गांव के मास्टर साहब शहर में जाकर ट्युशन पढ़ाने का काम करते थे और मुझे पहली झलक के रूप में उनसे मदद की उम्मीद जगी और रास्ते में जब वे साईकिल से जा रहे थे तभी हमने उन्हें रूकवाया। शिष्टाचार निभाते हुए प्रणाम किया और फिर सकुचाते हुए बोला-

‘‘सर हमरो एकागो टीशन धरा देथो हल त कुछ रोजी रोजगार हो जइतै हल।’’

‘‘काहे हो, कहां तो डाक्टर बने बाला हलहीं, की होलऔ। मइया तो बड़ी बड़ाई करो हलौ।’’

‘‘की होलई मास्टर साहब इ ता तो जनबे करो हो, मदद कर सको हो ता कर हो और एकागो ट्यूशन पकड़ा दहो।’’

‘‘ट्यूशन की पढ़इमीं हो, ओकरा से अच्छा कटोरा ले के भीख मांग।’’

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Old 30-09-2014, 10:26 PM   #138
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स्तब्ध रह गया। इतना कह कर वे साईकिल से निकल गए और मुझे बेरोजगार होने की सजा के तौर पर जलती हुई आग में ढकेल गए। सच में आज से पहले जिंदगी को इतने नजदीक से नहीं देखा था और पता ही नहीं था कि यह इतनी कठोर और निर्मम होती है।

छोटे किसान परिवार होने की वजह से खेत भी अधिक नहीं थी जिससे खेतीबारी करके गुजारा कर सकता था। गांव में मुख्य रूप से सब्जी की खेती की जाती थी जिसमें बैगन की खेती प्रमुखता और प्रचुरता से होती थी और इसी वजह से मेरे गांव को लोग ‘‘बैगन-बेचबा’’ गांव के रूप में जानते थे और अक्सर जब कहीं कुटूम-नाता के यहां जाता था तो यह सुनना पड़ता था, शेरपर, अच्छा बैगन-बेचबा गांव के। कहीं कहीं बड़े बुजुर्ग जहां मजाक का रिस्ता होता वहां एक कहानी सुनाते हुए कहते-

शेरपर में बैगन के खेत में काम कर रहे किसान से जब हाल चाल पुछो तो वह इस प्रकार बताते है।

‘‘ की हाल चाल हई बाबा।’’

‘‘हां कुटूम, बैगन कनाहा (कीड़ा लगने से सड़ना) हो गेलो।’’

‘‘और घर में सब ठीक ठाक।’’

‘‘की बताईओ, केतना दबाई देलिओ पर फायदा नै करो हो।’’

‘‘बाल-बच्चा सब ठीक हो।’’

‘‘की कहीओ कुंजरा (व्यापारी) ई साल बहुत कम पैसा दे हलो त अपने से बजार में जाके बेचो हिओ बैगन।’’
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Old 30-09-2014, 10:28 PM   #139
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ऐसा था मेरा गांव। कम खेत बाले किसान भी बाजार नजदीक होने की वजह से सब्जी की खेती करते पर किसान को बहुत अधिक फायदा नहीं होता। इसका एक प्रमुख कारण किसान का बाजार जाकर सब्जी को नहीं बेचना था और गांव में ही आकर सब्जी के व्यापारी (कुंजरा) खेत की फसल को खरीद लेते, औने पौने दाम पर, पर जो किसान मेहनती और होशियार होते वह बाजार में जाकर सब्जी की टोकरी लेकर बैठ जाते और अच्छी आमदनी करते। सब्जी की खेती के लिए गांव से सटे भीठ्ठा की जमीन चाहिए जहां सिंचाई की सुविधा हो। गांव से थोड़ी दूर पर दस कट्ठा का एक खेत थी जिसमें अरहर की खेती होती थी। अरहर की खेती उसी खेत में होती थी जो सबसे खराब हो पर मैने उसमें सब्जी की खेती करने का निर्णय लिया। घर मे प्रस्ताव रखा, विरोध हुआ पर मुझ पर कुछ करने का जुनून सवार था। सो हल-बैल लेकर निकल गया। हल चलाना फूफा से ही सीखा था। खैर अकेले दम पर उस खेत में बैगन की फसल लगा दिया। कई दिन बीत गए और मेरा एक सुत्री काम था बैगन की फसल की देख रेख करना जैसे यह मेरे लिए एक चुनौती थी अपने आप को अपने ही नजर में साबीत करने की, और कर दिया।
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Old 05-10-2014, 11:34 PM   #140
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देर शाम जब घर लौटा तो बाबूजी का कोहराम मचा हुआ था। रोज की तरह दारू की भभका देने बाली गंध घर के बाहर तक महक रही थी। मां रो ही थी। खामोश। चुपचाप। बाबूजी बे-बात कुछ से कुछ बोले जा रहे थे। पिछले अनुभवों को देखते हुए मैं किसी प्रकार का प्रतिवाद नहीं कर रहा था। हर बार सुबह नशा टूटने पर बात करने की सोंचता पर कभी जब बाबूजी नशा में नहीं होते तो बात करने की हिम्मत नहीं होती और कभी सुबह उठकर ही निकल जाते और फिर पीकर ही लौटते। मुझे इस तरह के माहौल को झेलने की आदत नहीं थी। गुस्सैल स्वभाव का होने की वजह से शुरूआत के कुछ दिन जबरदस्त प्रतिबाद किया और बाबूजी को मारने भी दौड़ा पर मां बीच में आकर इस तरह खड़ी हो जाती जैसे...मां अपने बच्चे को कोई बड़ा पाप करने से रोक रही हो।

‘‘की कहतै समाज बेटा।’’

आज फिर वही माहौल था। घर में सभी उदास थे, बाबा दरबाजे पर बैठे बाबूजी को गलिया रहे थे। भाई चुप था और मां रो रही थी। मैं और दिनों को याद कर मां पर ही गुस्सा किया-

‘‘तोरे बजह से यह सब हो रहलौ हें, बिगाड़ देलहीं हें ता भोगहीं।’’

‘‘की करीये बेटा, ई बाधा के कुछ सुझबे नै करो है तब।’’ मां ने फिर प्रतिवाद किया। मैं बगल में पड़े खटीया पर लेट गया। अभी कुछ ही क्षण हुआ कि बाबूजी उठे और मां को एक झापड़ लगा दिया।

मन में आग का गुब्बार सा उठा-फक्काक। हे भोला। बगल में रखी लाठी उठाया और फटाक फटाक, कई लाठी बाबूजी के देह पर। वे गिर पड़े। मां मुझे पीट रही थी और मेरे आंख से अविरल आंश्रू की धारा बह रही थी। हे भोला। मैं आत्मग्लानी से गड़ा जा रहा था और गुस्से से माथे से आग की लपट सी निकल रही थी।
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