My Hindi Forum

Go Back   My Hindi Forum > Miscellaneous > Travel & Tourism
Home Rules Facebook Register FAQ Community

Reply
 
Thread Tools Display Modes
Old 02-07-2013, 11:08 AM   #1
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 17
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Smile यात्रा-संस्मरण

ह्वेनसांग स्मृति संग्रहालय
वास्तव में चीनी सरकार के सहयोग से निर्मित यह एक भव्य, स्वच्छ तथा सुनियोजित तरीके से निर्मित संग्रहालय है जिसके माध्यम से ह्वेनसांग को याद किया गया है। ह्वेनसांग स्मृति संग्रहालय पहुँच कर मन प्रसन्नता से भर उठा। वह एक यात्री, एक विद्यार्थी, एक शिक्षक और एक इतिहासकार जिसने हमें इतना कुछ दिया कि अकल्पनातीत है उसकी स्मृति को ठीक इसी तरह संरक्षित किये जाने की आवश्यकता थी। इस संग्रहालय के निर्माण का मूल श्रेय नव नालंदा महाविहार के पूर्वनिदेशक श्री जगदीश कश्यप को जाता है जिनकी यह संकल्पना थी। लेकिन इस संबंध में भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू तथा चीनी राष्ट्रपति चाउ इन लाई के संयुक्त प्रयासों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता जिन्होंने दो राष्ट्रों की परस्पर मैत्री भावना को इस अनुपम सूत्र ह्वेनसांग के माध्यम से आगे बढाया। इस परियोजना पर कार्य तो १९५७ में ही आरंभ हो गया था तथापि मुख्य भवन १९८४ में बन कर तैयार हो सका। वर्ष २००१ में इस निर्मित भवन को नव नालंदा महाविहार को सौंप दिया गया जबकि संग्रहालय का विधिवत उद्घाटन फरवरी २००७ में हुआ था।
संग्रहालय का विशाल मुख्यद्वार

संग्रहालय का विशाल मुख्यद्वार पूर्वाभिमुख है तथा काँसे से निर्मित है जो अपने मुख्य भवन से साम्यता रखने के उद्देश्य से उतना ही भव्य बनाया गया है। मुख्यभवन में चीनी संस्कृति और कलात्मकता की झलख दिखाई पड़ती है तथा भवन की छत का नीला रंग आँखो को सुकून पहुँचाता है। चटकीले लाल, स्वर्णिम तथा नीले रंगों के प्रयोग से द्वार तथा मुख्य भवन की दीवारों को सौन्दर्य प्रदान किया गया है; संभवत: यह माना जाता है कि लाल रंग नकारात्मक ताकतों का निवारण करता है, स्वर्णिम रंग का सम्बन्ध शुद्धता तथा समृद्धि से है एवं नीले रंग को अमरत्व की निशानी माना जाता है। मुख्यद्वार से भीतर प्रविष्ट होते ही दाहिनी ओर एक विशाल घंटा एक सफेद कलात्मक खुले भवन के नीचे लगाया गया दृष्टिगोचर होगा जिसपर भगवान बुद्ध उपदेशित कोई सूत्र चीनी भाषा, देवनागरी तथा संस्कृत में अंकित है। मुख्यद्वार से दाहिनी ओर ह्वेनसांग के सम्मान में चौकोर संगमरमर से निर्मित श्वेत स्तम्भ स्थापित
किया गया है। ठीक सामने ह्वेनसांग की काले रंग की भव्य कांस्य प्रतिमा स्थापित की गयी है जिस पर लिखा है – “ह्वेनसांग (६०३ ई – ६६४ ई.) दुनिया के विशिष्ट महापुरुषों में से एक थे जिनका महान उद्देश्य मानवजाति का कल्याण और मानव सभ्यता के उद्दात्त मूल्यों की व्याख्या करना था”। मुख्य भवन में प्रवेश से ठीक पहले एक बड़ा सा कलात्मक पात्र रखा हुआ है। सुगंधित पदार्थ जला कर वातावरण को शुद्ध रखने के लिये निर्मित इस काले रंग के पात्र पर चीनी भाषा में कुछ अंकित है।
भव्य सभागार

मुख्यभवन के भीतर एक भव्य सभागार है जिसमें सामने की ओर ध्यानस्थ ह्वेनसांग की विशाल प्रतिमा लगाई गयी है जिनके सामने काष्ठ की एक कलात्मक मेज रखी गयी है जिसे फूलों से सजा दिया जाता है। प्रतिमा के ठीक सामने भगवान बुद्ध के चरण चिह्न से अंकित एक पाषाण शिला रखी गयी है। कहते हैं कि ह्वेनसांग ने य्वीहुआ महल में बौद्ध सूत्रों का अनुवाद करते हुए स्वयं बुद्ध के चरण चिन्हों को तराशने का संचालन किया तथा लेख उत्कीर्ण करवाया। “पश्चिमी जगत के अभिलेख” के अनुसार महात्मा बुद्ध ने पाटलिपुत्र, मगध में अपने चरणचिन्ह छोड़े थे। ह्वेनसांग ने उस पवित्र पदचिन्ह की पूजा की तथा प्रतिलिपि बना कर यवीहुआ महल ले गये थे। १९९९ में यह शिला खोजी गयी।
ह्वेनसांग की मुख्य-प्रतिमा के ठीक पीछे सफेद दीवार पर मैत्रेय बुद्ध की प्रतिमा उत्कीर्ण है। दीवारों पर बडे बडे पैनल लगाये गये हैं जिनपर ह्वेनसांग का सम्पूर्ण जीवन चित्रित किया गया है। सभागार की छत पर अजंता के चित्रों के अनुकल्प अंकित हैं। सभागार में कई महत्त्वपूर्ण तैलचित्र भी लगे हुए हैं जिनमें प्रमुख हैं - ह्वेनसांग के विभिन्न कार्य, उनके भ्रमण की कठिनाइयाँ, उनकी सम्राट हर्षवर्धन से मुलाकात, प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु शीलभद्र आदि आदि।
शोध और यात्राएँ

ह्वेनसांग की यात्रा और उनके वृतांत महत्त्वपूर्ण हैं। अगर वे उपलब्ध न रहे होते तो प्राचीन भारत के इतिहास का बहुत सा कोना अँधेरे में डूबा रहता जिसमें नालंदा विश्वविद्यालय से संबंधित वृतांत भी सम्मिलित है। ह्वेनसांग एक असंतुष्ट शोधकर्ता थे इसलिये यात्री बन गये। चीन के होनान फू के पास जनमे ह्वेनसांग बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए किंतु और जानने की लालसा और उपलब्ध ज्ञान से असंतुष्टि उन्हें भारत खींच लाई। भारत यात्रा के लिये चूँकि चीनी सम्राट ने उन्हें पारपत्र जारी नहीं किया अत: वे गुप्त रूप से अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए इस भूमि में प्रविष्ट हुए। वे अपने दो साथियों के साथ लांगजू पहुँचे वहाँ से आगे बढ कर गोबी की मरुभूमि को पार किया। दुष्वारियाँ इतनी थी कि साथी लौट गये कितु ह्वेनसांग चलते रहे – हामी, काशनगर, बल्ख, बामियान, काबुल, पेशावर, तक्षशिला और सन ६३१ ई में कश्मीर जहाँ उन्होंने लगभग दो वर्षों तक अध्ययन किया। कश्मीर से पुन: यात्रा प्रारंभ हुई तो मथुरा, थानेश्वर होते हुए वे कन्नौज पहुँचे जो सम्राट हर्षवर्धन की राजधानी हुआ करती थी। सम्राट से स्वागत व सहायता प्राप्त करने के बाद यात्री पुन: चल पडा अयोध्या, प्रयाग, कौशाम्बी, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, पाटलीपुत्र, गया, राजगृह होते हुए नालंदा। नालंदा विश्वविध्यालय में ह्वेनसांग एक अध्येता रहे और कालांतर में वहाँ के शिक्षक भी नियुक्त हुए। अब भी यह यात्री नहीं थका था उत्तर भारत से सुदूर दक्षिण भारत की ओर निकल पडा। वे पल्लवों की राजधानी कांची पहुँचे जहाँ से उन्होंने स्वदेश लौटना निश्चित किया। चीन लौटने पर वहाँ सम्राट ने ह्वेनसांग का भव्य स्वागत किया। ह्वेनसांग अपने साथ ६५७ हस्तलिखित बौद्धग्रंथ घोडों पर लाद कर चीन ले गये थे। अपना शेष जीवन उन्होंने इन ग्रंथों के अनुवाद तथा यात्रावृतांत के लेखन में लगाया।

तत्कालीन भारतीय समाज का जो आईना ह्वेनसांग ने प्रस्तुत किया है वह प्रभावित करता है तथापि एक घटना ने मुझे चौंकाया भी है। बात ६४३ ई. की है जब महाराजा हर्षवर्धन ने कन्नौज में धार्मिक महोत्सव आयोजित किया था। इस आयोजन में साम्राज्य भर से बीस राजा, तीन सहस्त्र बौद्ध भिक्षु, तीन हजार ब्राम्हण, विद्वान, जैन धर्माचार्य तथा नालंदा विश्वविद्यालय के अध्यापक सम्मिलित हुए थे। ह्वेनसांग ने स्वयं इस आयोजन में महायान धर्म पर व्याख्यान व प्रवचन दिये थे तथा उन्हें यहाँ विद्वान घोषित कर सम्मानित भी किया गया था। यह आयोजन अत्यधिक विवादों में रहा। कहते हैं कि हर्षवर्धन ने अन्यधर्मावलंबियों को स्वतंत्र शास्त्रार्थ से वंचित कर दिया था। कई विद्वान लौट गये तो कुछ ने गड़बड़ी फैला दी। आयोजन के लिये निर्मित पंडाल और अस्थायी विहार में आग लगा दी गयी यहाँ तक कि सम्राट हर्षवर्धन पर प्राणघातक हमला भी किया गया। यह घटना उस युग में भी स्थित धार्मिक प्रतिद्वन्द्विता को समझने में नितांत सहायता करती है।

यह निर्विवाद है कि हमें ह्वेनसांग का कृतज्ञ होना चाहिये। नालंदा विश्वविद्यालय के पुरावशेष देखने के पश्चात हर पर्यटक और शोधार्थी को मेरी सलाह है कि एक बार ह्वेनसांग स्मृति संग्रहालय अवश्य जाएँ। इस संग्रहालय को सम्मान दे कर वस्तुत: हम अपने इतिहास की कडियों को प्रामाणिकता से जोड़ने वाले उस व्यक्ति को सम्मानित कर रहे होते हैं जिसने भारतीय होने के हमारे गर्व के कारणों का शताब्दियों पहले दस्तावेजीकरण किया था।

VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 02-07-2013, 11:12 AM   #2
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 17
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: यात्रा-संस्मरण

अनोखा आकर्षण आम्बेर
हदाकार के लिए चित्र को क्लिक करें
गणेश पोल आंबेर, आम्बेर क़िले का प्रवेशद्वार

राजस्थान का नाम वहाँ के रेगिस्तान और रेत के कारण ही नहीं जाना जाता, वहाँ की संस्कृति और धार्मिक परम्पराएं देश भर में अनोखा स्थान रखती है। वहां के स्थापत्य और किले अपने सौंदर्य और उत्कृष्ट कारीगरी के लिये विश्वभर में जाने जाते हैं। जयपुर राजस्थान की राजधानी है, जयपुर नगर से लगभग १२ किलोमीटर दूर एक छोटी सी नगरी है "आमेर", जो अपने प्रसिद्ध किले और मंदिर के प्रसंग में विश्वभर में जानी-पहचानी जाती है।
जयपुर से दिल्ली मार्ग पर अरावली की एक छोटी और सुन्दर टेकड़ी पर बसी यह नगरी "आमेर" अपने दो संदर्भों में वहाँ के लोगों की किंवदंतियों और चर्चाओं में जीवित है। कुछ लोगों को कहना है कि अम्बकेश्वर भगवान शिव के नाम पर यह नगर "आमेर" बना, परन्तु अधिकांश लोग और तार्किक अर्थ अयोध्या के राजा भक्त अम्बरीश के नाम से जोड़ते हैं। कहते हैं भक्त अम्बरीश ने दीन-दुखियों के लिए राज्य के भरे हुए कोठार और गोदाम खोल रखे थे। सब तरफ़ सुख और शांति थी परन्तु राज्य के कोठार दीन-दुखियों के लिए खाली होते रहे। भक्त अम्बरीश से जब उनके पिता ने पूछताछ की तो अम्बरीश ने सिर झुकाकर उत्तर दिया कि ये गोदाम भगवान के भक्तों के गोदाम है और उनके लिए सदैव खुले रहने चाहिए। भक्त अम्बरीश को राज्य के हितों के विरुद्ध कार्य करने के लिए आरोपी ठहराया गया और जब गोदामों में आई माल की कमी का ब्यौरा अंकित किया जाने लगा तो लोग और कर्मचारी यह देखकर दंग रह गए कि कल तक जो गोदाम और कोठार खाली पड़े थे, वहाँ अचानक रात भर में माल कैसे भर गया।

भक्त अम्बरीश ने इसे ईश्वर की कृपा कहा। चमत्कार था यह भक्त अम्बरीश का और उनकी भक्ति का। राजा नतमस्तक हो गया। उसी वक्त अम्बरीश ने अपनी भक्ति और आराधना के लिए अरावली पहाड़ी पर इस स्थान को चुना, उनके नाम से कालांतर में अपभ्रंश होता हुआ अम्बरीश से "आमेर" या "आम्बेर" बन गया।
अम्बेर किला दूसरी मंज़िल से एक विहंगम दृश्य
कहानी चाहे कुछ भी हो, आम्बेर देवी के मंदिर के कारण देश भर में विख्यात है। शीतला-माता का प्रसिद्ध यह देव-स्थल भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने, देवी चमत्कारों के कारण श्रद्धा का केन्द्र है। शीतला-माता की मूर्ति अत्यंत मनोहारी है और शाम को यहाँ धूपबत्तियों की सुगंध में जब आरती होती है तो भक्तजन किसी अलौकिक शक्ति से भक्त-गण प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। देवी की आरती और आह्वान से जैसे मंदिर का वातावरण एकदम शक्ति से भर जाता है। रोमांच हो आता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं और एक अजीब सी सिहरन सारे शरीर में दौड़ जाती है। पूरा माहौल चमत्कारी हो जाता है। निकट में ही वहाँ जगत शिरोमणि का वैष्णव मंदिर है, जिसका तोरण सफ़ेद संगमरमर का बना है और उसके दोनों ओर हाथी की विशाल प्रतिमाएँ हैं।



वृहदाकार के लिए चित्र को क्लिक करें
शीशमहल का बाहरी दृश्य
आम्बेर का किला अपने शीश महल के कारण भी प्रसिद्ध है। इसकी भीतरी दीवारों, गुम्बदों और छतों पर शीशे के टुकड़े इस प्रकार जड़े गए हैं कि केवल कुछ मोमबत्तियाँ जलाते ही शीशों का प्रतिबिम्ब पूरे कमरे को प्रकाश से जगमग कर देता है। सुख महल व किले के बाहर झील बाग का स्थापत्य अपूर्व है।
भक्ति और इतिहास के पावन संगम के रूप में स्थित आमेर नगरी अपने विशाल प्रासादों व उन पर की गई स्थापत्य कला की आकर्षक पच्चीकारी के कारण पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। पत्थर के मेहराबों की काट-छाँट देखते ही बनती है। यहाँ का विशेष आकर्षण है डोली महल, जिसका आकार उस डोली (पालकी) की तरह है, जिनमें प्राचीन काल में राजपूती महिलाएँ आया-जाया करती थीं। इन्हीं महलों में प्रवेश द्वार के अन्दर डोली महल से पूर्व एक भूल-भूलैया है, जहाँ राजे-महाराजे अपनी रानियों और पट्टरानियों के साथ आँख-मिचौनी का खेल खेला करते थे। कहते हैं महाराजा मान सिंह की कई रानियाँ थीं और जब राजा मान सिंह युद्ध से वापस लौटकर आते थे तो यह स्थिति होती थी कि वह किस रानी को सबसे पहले मिलने जाएँ। इसलिए जब भी कोई ऐसा मौका आता था तो राजा मान सिंह इस भूल-भूलैया में इधर-उधर घूमते थे और जो रानी सबसे पहले ढूँढ़ लेती थी उसे ही प्रथम मिलन का सुख प्राप्त होता था।

यह कहावत भी प्रसिद्ध है कि अकबर और मानसिंह के बीच एक गुप्त समझौता यह था कि किसी भी युद्ध से विजयी होने पर वहाँ से प्राप्त सम्पत्ति में से भूमि और हीरे-जवाहरात बादशाह अकबर के हिस्से में आएगी तथा शेष अन्य खजाना और मुद्राएँ राजा मान सिंह की सम्मति होगी। इस प्रकार की सम्पत्ति प्राप्त करके ही राजा मान सिंह ने समृद्धशाली जयपुर राज्य का संचलन किया था। आमेर के महलों के पीछे दिखाई देता है नाहरगढ़ का ऐतिहासिक किला, जहाँ अरबों रुपए की सम्पत्ति ज़मीन में गड़ी होने की संभावना और आशंका व्यक्त की जाती है।

आमेर नगरी और वहाँ के मंदिर तथा किले राजपूती कला का अद्वितीय उदाहरण है। यहाँ का प्रसिद्ध दुर्ग आज भी ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माताओं को शूटिंग के लिए आमंत्रित करता है। मुख्य द्वार गणेश पोल कहलाता है, जिसकी नक्काशी अत्यन्त आकर्षक है। यहाँ की दीवारों पर कलात्मक चित्र बनाए गए थे और कहते हैं कि उन महान कारीगरों की कला से मुगल बादशाह जहांगीर इतना नाराज़ हो गया कि उसने इन चित्रों पर प्लास्टर करवा दिया। ये चित्र धीरे-धीरे प्लास्टर उखड़ने से अब दिखाई देने लगे हैं। आमेर में ही है चालीस खम्बों वाला वह शीश महल, जहाँ माचिस की तीली जलाने पर सारे महल में दीपावलियाँ आलोकित हो उठती है। हाथी की सवारी यहाँ के विशेष आकर्षण है, जो देशी सैलानियों से अधिक विदेशी पर्यटकों के लिए कौतूहल और आनंद का विषय है।
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 02-07-2013, 11:13 AM   #3
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 17
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: यात्रा-संस्मरण

आबू की प्राकृतिक सुषमा
प्राकृतिक सुषमा और विभोर करनेवाली वनस्थली का पर्वतीय स्थल 'आबू पर्वत' स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के साथ एक परिपूर्ण पौराणिक परिवेश भी है। यहाँ वास्तुकला का हस्ताक्षरित कलात्मकता भी दृष्टव्य है। पर्यटक हैं कि खिंच चले आते हैं और आबू का आकर्षण है कि आए दिन मेला, हर समय सैलानियों की हलचल चाहे शरद हो या ग्रीष्म। आबू ग्रीष्मकालीन पर्वतीय आवास स्थल और पश्चिमी भारत का प्रमुख पर्यटन केंद्र रहा है। यह ४३० मील लंबी और विस्तृत अरावली पर्वत शृंखला में दक्षिण-पश्चिम स्थित तथा समुद्रतल से लगभग ४००० फुट की ऊँचाई पर अवस्थित है। गुरु शिखर इस पर्वत का सर्वोच्च शिखर है जो समुद्रतल से ५६५० फुट ऊँचा है।
आबू का भूगोल- दिल्ली एवं जयपुर के दक्षिण पश्चिम और बड़ौदा एवं अहमदाबाद के उत्तर में स्थित आबू का पर्वत बड़ा ही रमणीक, मनोहारी और आध्यात्मिकता का आगार है। यहाँ पहुँचने के लिए पश्चिमी रेलवे की दिल्ली-अहमदाबाद रेलवे लाइन द्वारा दिल्ली से १८ घंटे, बंबई से १६ घंटे और अहमदाबाद से ५ घंटे की आबू रोड की यात्रा तय करनी होती है। आबू रोड से आबू पर्वत जाने के लिए टैक्सियों के अतिरिक्त राजस्थान सरकार की बस सेवा भी उपलब्ध है। आबू पर्वत का पर्यटन काल में १५ मार्च से ३० जून और शरद में १५ सितंबर से १५ नवंबर है। ग़ैर पर्यटन काल (ऑफ सीजन) १ जनवरी से १४ मार्च और एक जुलाई से १४ सितंबर तथा १६ नवंबर से ३१ दिसंबर है। स्थिति यह है कि जुलाई से सितंबर तक मानसून बना रहता है और ६० से ७० इंच तक वर्षा होती है। लगभग २५ वर्ग किलोमीटर के आबू पर्वतीय क्षेत्रफल में नदी, झील, सूर्यास्त स्थल, घुड़सवारी और अनेक दर्शनीय आकर्षण हैं। राज्य सरकार द्वारा प्रतिवर्ष शरद महोत्सव मनाए जाने से यहाँ की हलचल पूर्व से कई गुनी हो गई है।
अंतर्कथाएँ- आबू पर्वत की उत्पत्ति और विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संबंध में अनेक पौराणिक कथाएँ, भौगोलिक तथ्य और आख्यायिकाएँ यहाँ प्रचलित हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार आबू पर्वत उतना ही प्राचीन है, जितना सतयुग। यह भी कि महाभारत में वर्णित सर्प सम्राट हिमालय के पुत्र अर्बुदा के नाम पर आबू पर्वत का नामकरण हुआ। एक और पौराणिक कथा के अनुसार वर्तमान में जहाँ आबू पर्वत है, किसी समय वहाँ एक बड़ा गड्ढ़ा था जिसमें एक दिन कामधेनु गाय 'नंदिनी' गिर गई। वह महर्षि वशिष्ठ को प्रिय थी और उन्होंने शिव से उसके उद्धार की प्रार्थना की थी। शिव ने कैलाश से नंदीवर्धन को गड्ढ़े को पाटने और महर्षि की पीड़ा दूर करने भेजा, किंतु उसके पहुँचने के पूर्व ही सरस्वती देवी ने अपनी एक नदी के प्रवाह को गड्ढ़े की ओर मोड़ दिया, जिससे गाय बाहर आ गई, फिर भी नंदीवर्धन के गड्ढ़े के स्थान पर पर्वत शृंखला उत्पन्न की, जो अर्बुदा कहलाई। पूर्व में आबू पर्वत आस्थिर था, अतः शिव ने पाँव के प्रहार से इसे स्थिर किया, जिससे पाँव का अगला भाग उस पर अंकित हो गया। यह भाग आज भी प्रसिद्ध अंचलेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठित है। बाद में आबू पर्वत परमार शासकों और उसके बाद देलवाड़ा चौहानों के अधीन रहा। अंग्रेज़ी शासनकाल में लगभग एक शताब्दी तक यह विकासशील रहा और रियासतों के विलीनीकरण के बाद यह बंबई राज्य की प्रशासनिक देखरेख में रहा। राजस्थान में यह भाग १९५६ से मिला दिया गया और अब आबू पर्वत राज्य के सिरोही जिले का एक उपखंड है।
नक्की झील- नक्की झील देवताओं के नाखूनों द्वारा ज़मीन को खुरचकर बनाई गई झील है, जो आबू पर्वत के मध्यस्थ है और पवित्र मानी जाती है। प्राकृतिक सौंदर्य का नैसर्गिक आनंद देनेवाली यह झील चारों ओऱ पर्वत शृंखलाओं से घिरी है। यहाँ के पहाड़ी टापू बड़े आकर्षक हैं। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा को लोग स्नान कर धर्म लाभ उठाते हैं। झील में एक टापू को ७० अश्वशक्ति से चलित विभिन्न रंगों में जल फव्वारा लगाकर आकर्षक बनाया गया है जिसकी धाराएँ ८० फुट की ऊँचाई तक जाती हैं। झील में नौका विहार की भी व्यवस्था है।
श्रीरघुनाथ मंदिर- श्रीरघुनाथ मंदिर और आश्रम नक्की झील के तट पर दक्षिण-पश्चिमी हैं। यहाँ चौदहवीं शताब्दी में जगतगुरु वैष्णवाचार्य रामानंदाचार्यजी द्वारा प्रतिष्ठित श्रीरघुनाथजी प्रतिमा है। श्वेत संगमरमर पत्थर से बने इस मंदिर के मुख्य मंडप के गुंबद में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं।
टॉड रॉक- नक्की झील के पश्चिमी तट की ओर ऊपर पर्वत पर एक ऐसी चट्टान है, जिसकी आकृति मेढ़क (टॉड) जैसी है। टॉड रॉक के नाम से प्रसिद्ध यह चट्टान अन्य चट्टानों से एकदम भिन्न और एक विशाल खंड है।
सूर्यास्त-स्थल- आबू पर्वत के पश्चिमी छोर पर आकर्षक एवं प्रकृति के बीच के स्थल को जहाँ से संध्या समय सूर्यास्त के दृश्य को देखा जा सकता है, सूर्यास्त स्थल कहा जाता है। इस स्थान तक पहुँचने के लिए सड़क मार्ग है वहाँ सीढ़ियाँ भी हैं। यहाँ सूर्यास्त दर्शन के लिए उद्यासन भी बने हुए हैं।
अर्बुदा देवी- आबू पर्वत की आवासीय बस्ती के उत्तर में अर्बुदा देवी का ऐतिहासिक एवं दर्शनीय मंदिर है जो पर्वत उपत्यकाओं के मध्य एक मनोरम स्थल है। यहाँ प्रतिष्ठित अर्बुदा देवी आबू की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूज्य है और इसे 'अधर देवी' भी कहा जाता है।
कुँवारी कन्या का मंदिर- देलवाड़ा के दक्षिण में वृक्षों एवं लताओं से आच्छादित प्रकृति के शांति निकेतन में कुँवारी कन्या का मंदिर है। इस मंदिर में कुँवारी कन्या की मूर्ति के सामने ही एक रसिया बालम की मूर्ति है।
ट्रेवर ताल- देलवाड़ा से ही कोई दो मील दूर उत्तर में राजस्थान सरकार के वन विभाग का वन्य जीव संरक्षण स्थल है, जहाँ प्राकृतिक संपदा से युक्त एक ट्रेवर ताल है। यहाँ वन्य जीव निर्भय होकर विचरते हैं। यह स्थल पर्वतों के मध्यस्थ होने के कारण रमणीक औऱ लुभावना है। ताल पर एक विश्राम गृह भी है। यह स्थान भ्रमणार्थियों के लिए आनंददायक औऱ पिकनिक की अच्छी जगह है।
गुरु शिखर- अरावली पर्वत शृंखला की यह सर्वोच्च चोटी आबू पर्वत की बस्तियों से कोई नौ मील की दूरी पर है। शिखर के लिए ओरिया नामक स्थान से लगभग तीन मील का पैदल मार्ग है। इस सर्वोच्च शिखर पर भगवान विष्णु के अवतार गुरु दत्तात्रेय एवं शिव का मंदिर है, जिसमें बड़े आकार का कलात्मक घंटा भी है। यहाँ दूसरी चोटी पर दत्तात्रेय की माता का मंदिर भी दर्शनीय है जहाँ १४वीं शताब्दी के धर्म सुधारक स्वामी रामानंद के चरण स्थापित हैं।
देलवाड़ा के जैन मंदिर- अनेक आकर्षणों के केंद्र आबू पर्वत में देलवाड़ा जैन मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। यहाँ आर्थिक पुरातत्व, शिल्प, वास्तुकला एवं पौराणिकता का ऐसा समन्वित रूप है, जिसे घंटों ही और निर्निमेष देखने पर भी आँखें नहीं थकतीं। यहाँ कला चातुर्य के साथ आध्यात्मिक आनंदानुभूतियों और आत्मानंद का जो सुख मन को मिलता है, वह दुनिया की माया से काफी हटकर है। देलवाड़ा के जैन मंदिर के कारण आबू पर्वत की ख्याति विश्व स्तर पर रही है। अन्य प्रमुख दर्शनीय स्थलों में नक्की झील एवं फव्वारा, सूर्यास्त स्थल, टॉड रॉक, श्री रघुनाथ मंदिर, धूलेश्वर मंदिर, नीलकंठ महादेव, अर्बुदा देवी का मंदिर, दूध बावड़ी, विमलसहि मंदिर, कुँवारी कन्या का मंदिर, भीम गुफ़ा, अचलगढ़ दुर्ग एवं मंदिर और गुरु शिखर आदि हैं।
अन्य दर्शनीय स्थल- आबू पर्वत के अन्य महत्वपूर्ण, दर्शनीय एवं ऐतिहासिक स्थलों में अचलेश्वर महादेव का मंदिर, नंदाकिनी कुंड, भर्तृहरि गुफा, अचलागढ़ एवं उसके जैन मंदिर लखचौरासी, राजभवन, संग्रहालय, पर्यटक विश्राम गृह, मधुमक्खी पालन केंद्र और राजाओं की कोठियाँ आदि हैं।
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 03-07-2013, 11:26 AM   #4
rajnish manga
Super Moderator
 
rajnish manga's Avatar
 
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 242
rajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond repute
Default Re: यात्रा-संस्मरण

Quote:
Originally Posted by varshney.009 View Post
आबू की प्राकृतिक सुषमा
पूरा सूत्र ही पर्यटन को बढ़ावा देने की दृष्टि से उपयोगी जानकारी से भरा हुआ है. चित्र आकर्षक हैं.
rajnish manga is offline   Reply With Quote
Old 07-07-2013, 10:55 AM   #5
dipu
VIP Member
 
dipu's Avatar
 
Join Date: May 2011
Location: Rohtak (heart of haryana)
Posts: 10,193
Rep Power: 91
dipu has a reputation beyond reputedipu has a reputation beyond reputedipu has a reputation beyond reputedipu has a reputation beyond reputedipu has a reputation beyond reputedipu has a reputation beyond reputedipu has a reputation beyond reputedipu has a reputation beyond reputedipu has a reputation beyond reputedipu has a reputation beyond reputedipu has a reputation beyond repute
Send a message via Yahoo to dipu
Default Re: यात्रा-संस्मरण

nice ..................
__________________



Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
dipu is offline   Reply With Quote
Old 07-07-2013, 06:06 PM   #6
bindujain
VIP Member
 
bindujain's Avatar
 
Join Date: Nov 2012
Location: MP INDIA
Posts: 42,448
Rep Power: 144
bindujain has a reputation beyond reputebindujain has a reputation beyond reputebindujain has a reputation beyond reputebindujain has a reputation beyond reputebindujain has a reputation beyond reputebindujain has a reputation beyond reputebindujain has a reputation beyond reputebindujain has a reputation beyond reputebindujain has a reputation beyond reputebindujain has a reputation beyond reputebindujain has a reputation beyond repute
Default Re: यात्रा-संस्मरण

Quote:
Originally Posted by varshney.009 View Post
आबू की प्राकृतिक सुषमा
प्राकृतिक सुषमा और विभोर करनेवाली वनस्थली का पर्वतीय स्थल 'आबू पर्वत' स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के साथ एक परिपूर्ण पौराणिक परिवेश भी है। यहाँ वास्तुकला का हस्ताक्षरित कलात्मकता भी दृष्टव्य है। पर्यटक हैं कि खिंच चले आते हैं और आबू का आकर्षण है कि आए दिन मेला, हर समय सैलानियों की हलचल चाहे शरद हो या ग्रीष्म। आबू ग्रीष्मकालीन पर्वतीय आवास स्थल और पश्चिमी भारत का प्रमुख पर्यटन केंद्र रहा है। यह ४३० मील लंबी और विस्तृत अरावली पर्वत शृंखला में दक्षिण-पश्चिम स्थित तथा समुद्रतल से लगभग ४००० फुट की ऊँचाई पर अवस्थित है। गुरु शिखर इस पर्वत का सर्वोच्च शिखर है जो समुद्रतल से ५६५० फुट ऊँचा है।
आबू का भूगोल- दिल्ली एवं जयपुर के दक्षिण पश्चिम और बड़ौदा एवं अहमदाबाद के उत्तर में स्थित आबू का पर्वत बड़ा ही रमणीक, मनोहारी और आध्यात्मिकता का आगार है। यहाँ पहुँचने के लिए पश्चिमी रेलवे की दिल्ली-अहमदाबाद रेलवे लाइन द्वारा दिल्ली से १८ घंटे, बंबई से १६ घंटे और अहमदाबाद से ५ घंटे की आबू रोड की यात्रा तय करनी होती है। आबू रोड से आबू पर्वत जाने के लिए टैक्सियों के अतिरिक्त राजस्थान सरकार की बस सेवा भी उपलब्ध है। आबू पर्वत का पर्यटन काल में १५ मार्च से ३० जून और शरद में १५ सितंबर से १५ नवंबर है। ग़ैर पर्यटन काल (ऑफ सीजन) १ जनवरी से १४ मार्च और एक जुलाई से १४ सितंबर तथा १६ नवंबर से ३१ दिसंबर है। स्थिति यह है कि जुलाई से सितंबर तक मानसून बना रहता है और ६० से ७० इंच तक वर्षा होती है। लगभग २५ वर्ग किलोमीटर के आबू पर्वतीय क्षेत्रफल में नदी, झील, सूर्यास्त स्थल, घुड़सवारी और अनेक दर्शनीय आकर्षण हैं। राज्य सरकार द्वारा प्रतिवर्ष शरद महोत्सव मनाए जाने से यहाँ की हलचल पूर्व से कई गुनी हो गई है।
अंतर्कथाएँ- आबू पर्वत की उत्पत्ति और विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संबंध में अनेक पौराणिक कथाएँ, भौगोलिक तथ्य और आख्यायिकाएँ यहाँ प्रचलित हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार आबू पर्वत उतना ही प्राचीन है, जितना सतयुग। यह भी कि महाभारत में वर्णित सर्प सम्राट हिमालय के पुत्र अर्बुदा के नाम पर आबू पर्वत का नामकरण हुआ। एक और पौराणिक कथा के अनुसार वर्तमान में जहाँ आबू पर्वत है, किसी समय वहाँ एक बड़ा गड्ढ़ा था जिसमें एक दिन कामधेनु गाय 'नंदिनी' गिर गई। वह महर्षि वशिष्ठ को प्रिय थी और उन्होंने शिव से उसके उद्धार की प्रार्थना की थी। शिव ने कैलाश से नंदीवर्धन को गड्ढ़े को पाटने और महर्षि की पीड़ा दूर करने भेजा, किंतु उसके पहुँचने के पूर्व ही सरस्वती देवी ने अपनी एक नदी के प्रवाह को गड्ढ़े की ओर मोड़ दिया, जिससे गाय बाहर आ गई, फिर भी नंदीवर्धन के गड्ढ़े के स्थान पर पर्वत शृंखला उत्पन्न की, जो अर्बुदा कहलाई। पूर्व में आबू पर्वत आस्थिर था, अतः शिव ने पाँव के प्रहार से इसे स्थिर किया, जिससे पाँव का अगला भाग उस पर अंकित हो गया। यह भाग आज भी प्रसिद्ध अंचलेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठित है। बाद में आबू पर्वत परमार शासकों और उसके बाद देलवाड़ा चौहानों के अधीन रहा। अंग्रेज़ी शासनकाल में लगभग एक शताब्दी तक यह विकासशील रहा और रियासतों के विलीनीकरण के बाद यह बंबई राज्य की प्रशासनिक देखरेख में रहा। राजस्थान में यह भाग १९५६ से मिला दिया गया और अब आबू पर्वत राज्य के सिरोही जिले का एक उपखंड है।
नक्की झील- नक्की झील देवताओं के नाखूनों द्वारा ज़मीन को खुरचकर बनाई गई झील है, जो आबू पर्वत के मध्यस्थ है और पवित्र मानी जाती है। प्राकृतिक सौंदर्य का नैसर्गिक आनंद देनेवाली यह झील चारों ओऱ पर्वत शृंखलाओं से घिरी है। यहाँ के पहाड़ी टापू बड़े आकर्षक हैं। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा को लोग स्नान कर धर्म लाभ उठाते हैं। झील में एक टापू को ७० अश्वशक्ति से चलित विभिन्न रंगों में जल फव्वारा लगाकर आकर्षक बनाया गया है जिसकी धाराएँ ८० फुट की ऊँचाई तक जाती हैं। झील में नौका विहार की भी व्यवस्था है।
श्रीरघुनाथ मंदिर- श्रीरघुनाथ मंदिर और आश्रम नक्की झील के तट पर दक्षिण-पश्चिमी हैं। यहाँ चौदहवीं शताब्दी में जगतगुरु वैष्णवाचार्य रामानंदाचार्यजी द्वारा प्रतिष्ठित श्रीरघुनाथजी प्रतिमा है। श्वेत संगमरमर पत्थर से बने इस मंदिर के मुख्य मंडप के गुंबद में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं।
टॉड रॉक- नक्की झील के पश्चिमी तट की ओर ऊपर पर्वत पर एक ऐसी चट्टान है, जिसकी आकृति मेढ़क (टॉड) जैसी है। टॉड रॉक के नाम से प्रसिद्ध यह चट्टान अन्य चट्टानों से एकदम भिन्न और एक विशाल खंड है।
सूर्यास्त-स्थल- आबू पर्वत के पश्चिमी छोर पर आकर्षक एवं प्रकृति के बीच के स्थल को जहाँ से संध्या समय सूर्यास्त के दृश्य को देखा जा सकता है, सूर्यास्त स्थल कहा जाता है। इस स्थान तक पहुँचने के लिए सड़क मार्ग है वहाँ सीढ़ियाँ भी हैं। यहाँ सूर्यास्त दर्शन के लिए उद्यासन भी बने हुए हैं।
अर्बुदा देवी- आबू पर्वत की आवासीय बस्ती के उत्तर में अर्बुदा देवी का ऐतिहासिक एवं दर्शनीय मंदिर है जो पर्वत उपत्यकाओं के मध्य एक मनोरम स्थल है। यहाँ प्रतिष्ठित अर्बुदा देवी आबू की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूज्य है और इसे 'अधर देवी' भी कहा जाता है।
कुँवारी कन्या का मंदिर- देलवाड़ा के दक्षिण में वृक्षों एवं लताओं से आच्छादित प्रकृति के शांति निकेतन में कुँवारी कन्या का मंदिर है। इस मंदिर में कुँवारी कन्या की मूर्ति के सामने ही एक रसिया बालम की मूर्ति है।
ट्रेवर ताल- देलवाड़ा से ही कोई दो मील दूर उत्तर में राजस्थान सरकार के वन विभाग का वन्य जीव संरक्षण स्थल है, जहाँ प्राकृतिक संपदा से युक्त एक ट्रेवर ताल है। यहाँ वन्य जीव निर्भय होकर विचरते हैं। यह स्थल पर्वतों के मध्यस्थ होने के कारण रमणीक औऱ लुभावना है। ताल पर एक विश्राम गृह भी है। यह स्थान भ्रमणार्थियों के लिए आनंददायक औऱ पिकनिक की अच्छी जगह है।
गुरु शिखर- अरावली पर्वत शृंखला की यह सर्वोच्च चोटी आबू पर्वत की बस्तियों से कोई नौ मील की दूरी पर है। शिखर के लिए ओरिया नामक स्थान से लगभग तीन मील का पैदल मार्ग है। इस सर्वोच्च शिखर पर भगवान विष्णु के अवतार गुरु दत्तात्रेय एवं शिव का मंदिर है, जिसमें बड़े आकार का कलात्मक घंटा भी है। यहाँ दूसरी चोटी पर दत्तात्रेय की माता का मंदिर भी दर्शनीय है जहाँ १४वीं शताब्दी के धर्म सुधारक स्वामी रामानंद के चरण स्थापित हैं।
देलवाड़ा के जैन मंदिर- अनेक आकर्षणों के केंद्र आबू पर्वत में देलवाड़ा जैन मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। यहाँ आर्थिक पुरातत्व, शिल्प, वास्तुकला एवं पौराणिकता का ऐसा समन्वित रूप है, जिसे घंटों ही और निर्निमेष देखने पर भी आँखें नहीं थकतीं। यहाँ कला चातुर्य के साथ आध्यात्मिक आनंदानुभूतियों और आत्मानंद का जो सुख मन को मिलता है, वह दुनिया की माया से काफी हटकर है। देलवाड़ा के जैन मंदिर के कारण आबू पर्वत की ख्याति विश्व स्तर पर रही है। अन्य प्रमुख दर्शनीय स्थलों में नक्की झील एवं फव्वारा, सूर्यास्त स्थल, टॉड रॉक, श्री रघुनाथ मंदिर, धूलेश्वर मंदिर, नीलकंठ महादेव, अर्बुदा देवी का मंदिर, दूध बावड़ी, विमलसहि मंदिर, कुँवारी कन्या का मंदिर, भीम गुफ़ा, अचलगढ़ दुर्ग एवं मंदिर और गुरु शिखर आदि हैं।
अन्य दर्शनीय स्थल- आबू पर्वत के अन्य महत्वपूर्ण, दर्शनीय एवं ऐतिहासिक स्थलों में अचलेश्वर महादेव का मंदिर, नंदाकिनी कुंड, भर्तृहरि गुफा, अचलागढ़ एवं उसके जैन मंदिर लखचौरासी, राजभवन, संग्रहालय, पर्यटक विश्राम गृह, मधुमक्खी पालन केंद्र और राजाओं की कोठियाँ आदि हैं।
अच्छा है
__________________
मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
bindujain is offline   Reply With Quote
Old 07-07-2013, 07:35 PM   #7
jai_bhardwaj
Exclusive Member
 
jai_bhardwaj's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: ययावर
Posts: 8,512
Rep Power: 100
jai_bhardwaj has disabled reputation
Default Re: यात्रा-संस्मरण

जानकारी से भरा हुआ मनोरंजक सूत्र है बन्धु ... आभार।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/
यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754
jai_bhardwaj is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 06:15 PM   #8
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 17
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: यात्रा-संस्मरण

सिक्किम के सफर पर
गर्मियाँ पूरे शबाब पर हैं। आखिर क्यों न हों, मई का महिना जो ठहरा। ऐसे में भी सूर्य देव अपना रौद्र रूप हम सबको ना दिखा पाएँ तो फिर लोग उन्हें देवताओं की श्रेणी से ही हटा दें। ऐसे दिनों में पिछले महीने तमाम ऊनी कपड़ों के बावजूद हम सर्दी से ठिठुरते रहे। हमारा पहला पड़ाव गंगतोक था।

सिलीगुड़ी से ३० किलोमीटर दूर निकलते ही सड़क के दोनों ओर का परिदृश्य बदलने लगता है, पहले आती है हरे भरे वृक्षों की कतारें खत्म होने लगती हैं और ऊपर की चढ़ाई शुरू हो जाती है। सिलीगुड़ी से निकलते ही तिस्ता हमारे साथ हो ली। तिस्ता की हरी भरी घाटी और घुमावदार रास्तों में चलते–चलते शाम हो गई और नदी के किनारे थोड़ी देर के लिए हम टहलने निकले। नीचे नदी की हल्की धारा थी तो दूर पहाड़ पर छोटे–छोटे घरों से निकलती उजले धुएँ की लकीर।

गंगतोक से अभी भी हम ६० किलोमीटर की दूरी पर थे। करीब ७ .३० बजे ऊँचाई पर बसे शहर की जगमगाहट दूर से दिखने लगी। गंगतोक पहुँचते ही हमने होटल में अपना सामान रखा। दिन भर की घुमावदार यात्रा ने पेट में हलचल मचा रखी थी। सो अपनी क्षुधा शांत करने के लिए करीब ९ बजे मुख्य बाज़ार की ओर निकले। पर ये क्या एम .जी .रोड पर तो पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ था। दुकानें तो बंद थीं ही, कोई रेस्तरां भी खुला नहीं दिख रहा था! पेट में उछल रहे चूहों ने इत्ती जल्दी सो जाने वाले इस शहर को मन ही मन लानत भेजी। मुझे मसूरी की याद आई जहाँ रात १० बजे के बाद भी बाज़ार में अच्छी खासी रौनक हुआ करती थी। खैर भगवान ने सुन ली और हमें एक बंगाली भोजनालय खुला मिला। भोजन यहाँ अन्य पर्वतीय स्थलों की तुलना में सस्ता था।

वह अनोखा स्वागत

सुबह हुई और निकल पड़े कैमरे को ले कर। होटल के ठीक बाहर जैसे ही सड़क पर कदम रखा सामने का दृश्य ऐसा था मानो कंचनजंघा की चोटियाँ बाहें खोल हमारा स्वागत कर रही हों। सुबह का गंगतोक शाम से भी ज़्यादा प्यारा था। पहाड़ों की सबसे बड़ी खासियत यही है कि यहाँ मौसम बदलते देर नहीं लगती। सुबह की कंचनजंघा १० बजे तक तक बादलों में विलुप्त हो चुकी थी। कुछ ही देर बाद हम गंगतोक के ताशी विउ प्वाइंट (समुद्र तल से ५५०० फुट) पर थे। यहाँ से दो मुख्य रास्ते कटते हैं। एक पूरब की तरफ जो नाथू ला जाता है और दूसरा उत्तर में सिक्किम की ओर, जिधर हमें जाना था।

हमने उत्तरी सिक्किम राजमार्ग की राह पकड़ी। बाप रे एक ओर खाई तो दूसरी ओर भू–स्खलन से जगह–जगह कटी–फटी सड़कें! बस एक चट्टान खिसकाने की देरी है कि सारी यात्रा का बेड़ा गर्क! और अगर इंद्र का कोप हो तो ऐसी बारिश करा दें कि चट्टान आगे खिसक भी रही हो तो भी गाड़ी की विंडस्क्रीन पर कुछ ना दिखाई दे! खैर हम लोग कबी और फेनसांग तक सड़क के हालात देख मन ही मन राम–राम जपते गए! फेनसांग के पास एक जलप्रपात मिला। यहाँ से मंगन तक का मार्ग सुगम था। इन रास्तों की विशेषता ये है कि एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ जाने के लिए पहले आपको एकदम नीचे उतरना पड़ेगा और फिर चढ़ाई चढ़नी पड़ेगी।

मंगन पहुँचते पहुँचते ये प्रक्रिया हमने कई बार दोहराई। ऐसे में तिस्ता कभी बिलकुल करीब आ जाती तो कभी पहाड़ के शिखर से एक खूबसूरत लकीर की तरह बहती दिखती। शाम के ४:३० बजे तक हम चुंगथांग में थे। लाचेन और लाचुंग की तरफ से आती जल संधियाँ यहीं मिलकर तिस्ता को जन्म देती हैं। थोड़ा विश्राम करने के लिए हम सब गाड़ी से नीचे उतरे। चुंगथांग की हसीन वादियों और चाय की चुस्कियों के साथ सफ़र की थकान जाती रही। शाम ढलने लगी थी और मौसम का मिजाज़ भी कुछ बदलता–सा दिख रहा था।

हम शीघ्र ही लाचेन के लिए निकल पड़े जो हमारा अगला रात्रि पड़ाव था। लाचेन तक के रास्ते में रिहाइशी इलाके कम ही दिखे। रास्ता सुनसान था, बीच–बीच में एक–आध गाड़ियों की आवाजाही हमें ये विश्वास दिला जाती थी कि सही मार्ग पर ही जा रहे हैं। लाचेन के करीब १० कि .मी .पहले मौसम बदल चुका था। घाटी पूरी तरह गाढ़ी सफेद धुंध की गिरफ्त में थी और वाहन की खिड़की से आती हल्की फुहारें मन को शीतल कर रहीं थीं। ६ बजने से कुछ समय पहले हम लगभग ९,००० फुट ऊँचाई पर स्थित इस गाँव में प्रवेश कर चुके थे। पर हम तो मन ही मन रोमांचित हो रहे थे उस अगली सुबह के इंतज़ार में जो शायद हमें उस नीले आकाश के और पास ले जा सके। लाचेन की वह रात हमने एक छोटे से लॉज में गुज़ारी।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 06:15 PM   #9
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 17
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: यात्रा-संस्मरण

दुर्गम रास्ते

लाचेन से आगे का रास्ता फिर थोड़ा पथरीला था। सड़क कटी–कटी सी थीं। कहीं–कहीं पहाड़ के ऊपरी हिस्से में भू–स्खलन होने की वजह से उसके ठीक नीचे के जंगल बिलकुल साफ़ हो गए थे। आगे की आबादी ना के बराबर थी। बीच–बीच में याकों का समूह ज़रूर दृष्टिगोचर हो जाता था। चढ़ाई के साथ–साथ पहाड़ों पर आक्सीजन कम होती जाती है। १४,००० फीट की ऊँचाई पर बसे थांगू में रुकना था, ताकि हम कम आक्सीज़न वाले वातावरण में अभ्यस्त हो सकें। चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों की जगह अब नुकीली पत्ती वाले पेड़ो ने ले ली थी। पर ये क्या? थांगू पहुँचते–पहुँचते तो ये भी गायब होने लगे थे। रह गए थे, तो बस छोटे–छोटे झाड़ीनुमा पौधे।

थांगू तक धूप नदारद थी। बादल के पुलिंदे अपनी मन मर्जी से इधर उधर तैर रहे थे। पर पहाड़ों के सफ़र में धूप के साथ नीला आकाश भी साथ हो तो क्या कहने! पहले तो कुछ देर धूप–छांव का खेल चलता रहा। पर आख़िरकार हमारी यह ख्वाहिश नीली छतरी वाले ने जल्द ही पूरी की। नीला आसमान, नंगे पहाड़ और बर्फ आच्छादित चोटियाँ मिलकर ऐसा मंज़र प्रस्तुत कर रहे थे जैसे हम किसी दूसरी ही दुनिया में हों। १५,००० फीट की ऊँचाई पर हमें विक्टोरिया पठारी बटालियन का चेक पोस्ट मिला। दूर–दूर तक ना कोई परिंदा दिखाई पड़ता था और ना कोई वनस्पति! सच पूछिए तो इस बर्फीले पठारी रेगिस्तान में कुछ हो–हवा जाए तो सेना ही एकमात्र सहारा थी। थोड़ी दूर और बढ़े तो अचानक एक बर्फीला पहाड़ हमारे सामने आ गया! गुनगुनी धूप, गहरा नीला गगन और इतने पास इस पहाड़ को देख के गाड़ी से बाहर निकलने की इच्छा मन में कुलबुलाने लगी। पर उस इच्छा को फलीभूत करने पर हमारी जो हालत हुई उसकी एक अलग कहानी है। वैसे भी हम गुरूडांगमार के बेहद करीब थे! यही तो था इस यात्रा का पहला लक्ष्य!

गुरूडांगमार झील
दरअसल गुरूडांगमार एक झील का नाम है जो समुद्र तल से करीब १७,३०० फुट पर है। ज़िंदगी में कितनी ही बार ऐसा होता है कि जो सामने स्पष्ट दिखता है उसका असली रंग पास जा के पता चलता है। अब इतनी बढ़िया धूप, स्वच्छ नीले आकाश को देख किसका मन बाहर विचरण करने को नहीं करता! सो निकल पड़े हम सब गाड़ी के बाहर। पर ये क्या बाहर प्रकृति का एक सेनापति तांडव मचा रहा था, सबके कदम बाहर पड़ते ही लड़खड़ा गए, बच्चे रोने लगे, कैमरे को गले में लटकाकर मैं दस्ताने और मफलर लाने दौड़ा। जी हाँ, ये कहर वो मदमस्त हवा बरसा रही थी जिसकी तीव्रता को १६००० फीट की ठंड, पैनी धार प्रदान कर रही थी। हवा का ये घमंड जायज़ भी था। दूर–दूर तक उस पठारी समतल मैदान पर उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं था, फिर वो अपने इस खुले साम्राज्य में भला क्यों ना इतराए।

खैर जल्दी–जल्दी हम सब ने कुछ तसवीरें खिंचवाई। इसके बाद नीचे उतरने की जुर्रत किसी ने नहीं की और हम गुरूडांगमार पहुँच कर ही अपनी सीट से खिसके। धार्मिक रूप से ये झील बौद्ध और सिख अनुयायियों के लिए बेहद मायने रखती है। कहते हैं कि गुरूनानक के चरण कमल इस झील पर पड़े थे जब वे तिब्बत की यात्रा पर थे। यह भी कहा जाता है कि उनके जल स्पर्श की वजह से झील का वह हिस्सा जाड़े में भी नहीं जमता। गनीमत थी कि १७,३०० फीट की ऊँचाई पर हवा तेज़ नहीं थी। झील तक पहुँच तो गए थे पर इतनी चढ़ाई बहुतों के सर में दर्द पैदा करने के लिए काफी थी। मन ही मन इस बात का उत्साह भी था कि सकुशल इस ऊँचाई पर पहुँच गए। झील का दृश्य बेहद मनमोहक था। दूर–दूर तक फैला नीला जल और पाश्र्व में बर्फ से लदी हुई श्वेत चोटियाँ गाहे–बगाहे आते जाते बादलों के झुंड से गुफ्तगू करती दिखाई पड़ रहीं थीं। दूर कोने में झील का एक हिस्सा जमा दिख रहा था। नज़दीक से देखने की इच्छा हुई, तो चल पड़े नीचे की ओर। बर्फ की परत वहाँ ज़्यादा मोटी नहीं थी। हमने देखा कि एक ओर की बर्फ तो पिघल कर टूटती जा रही है! झील के दूसरी ओर सुनहरे पत्थरों के पीछे गहरा नीला आकाश एक और खूबसूरत परिदृश्य उपस्थित कर रहा था।

वापसी की यात्रा लंबी थी इसलिए झील के किनारे दो घंटे बिताने के बाद हम वापस चल पडे.। नीचे उतरे थे तो ऊपर भी चढ़ना था पर इस बार ऊपर की ओर रखा हर कदम ज़्यादा ही भारी महसूस हो रहा था। सीढ़ी चढ़ तो गए पर तुरंत फिर गाड़ी तक जाने की हिम्मत नहीं हुई। कुछ देर विश्राम के बाद सुस्त कदमों से गाड़ी तक पहुँचे तो अचानक याद आया कि एक दवा खानी तो भूल ही गए हैं। पानी के घूंट के साथ हाथ और पैर और फिर शरीर की ताकत जाती सी लगी। कुछ ही पलों में मैं सीट पर औंधे मुंह लेटा था। शरीर में आक्सीजन की कमी कब हो जाए इसका ज़रा भी पूर्वाभास नहीं होता। खैर मेरी ये अवस्था सिर्फ २ मिनटों तक रही और फिर सब सामान्य हो गया।

वापसी में हमें चोपटा घाटी होते हुए लाचुंग तक जाना था। सुबह से ७० कि.मी. की यात्रा कर ही चुके थे। अब १२० कि .मी .की दुर्गम यात्रा के बारे में सोचकर ही मन में थकावट हो रही थी। इस पूरी यात्रा में दोपहर के बाद शायद ही कहीं धूप के दर्शन हुए थे। हवा ने फिर ज़ोर पकड़ लिया था। सामने दिख रहे एक पर्वत पर बारिश के बादलों ने अपना डेरा जमा लिया था।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Old 12-07-2013, 06:15 PM   #10
VARSHNEY.009
Special Member
 
Join Date: Jun 2013
Location: रामपुर (उत्*तर प्&#235
Posts: 2,512
Rep Power: 17
VARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really niceVARSHNEY.009 is just really nice
Default Re: यात्रा-संस्मरण

चोपटा और चुंगथांग

हम थांगू के पास चोपटा घाटी में थोड़ी देर के लिए रुके। दो विशाल पर्वतों के बीच की इस घाटी में एक पतली नदी बहती है जो जाड़ों के दिनों में पूरी जम जाती है। लाचेन पहुँचते–पहुँचते बारिश शुरू हो चुकी थी। जैसे–जैसे रोशनी कम हो रही थी वर्षा उतना ही प्रचंड रूप धारण करती जा रही थी। गज़ब का नज़ारा था...

थोड़ी–थोड़ी दूर पर उफनते जलप्रपात, गाड़ी की विंड स्क्रीन से टकराती बारिश की मोटी–मोटी बूँदे, सड़क की काली लकीर के अगल बगल चहलकदमी करते बादल और मन मोहती हरियाली ...सफ़र के कुछ अदभुत दृश्यों में से ये भी एक था। करीब ६ बजे तक हम चुंगथांग पहुँच चुके थे। यही से लाचुंग के लिए रास्ता कटता है।

चुंगथांग से लाचुंग का सफ़र डरे सहमे बीता। पूरे रास्ते चढ़ाई ही चढ़ाई थी। एक ओर बढ़ता हुआ अँधेरा तो दूसरी ओर बारिश की वजह से पैदा हुई सफेद धुंध! इन परिस्थितियों में भी हमारा कुशल चालक ६०–७० कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से अपनी महिंद्रा हाँक रहा था। रास्ते का हर एक यू–टर्न हमारे हृदय की धुकधुकी बढ़ाता जा रहा था। निगाहें मील के हर पत्थर पर अटकती थीं, आतुरता से इस बात की प्रतीक्षा करते हुए कि कब लाचुंग के नाम के साथ शून्य की संख्या दिख जाए। ७:३० बजे लाचुंग पहुँच कर हमने चैन की साँस ली। बाहर होती मूसलाधार बारिश अगले दिन के हमारे कार्यक्रम पर कुठाराघात करती प्रतीत हो रही थी। थकान इतनी ज़्यादा थी कि चुपचाप रजाई के अंदर दुबक लिए।

लाचुंग की वह सुबह अनोखी थी। दूर–दूर तक बारिश का नामोनिशान नहीं था। गहरे नीचे आकाश के नीचे लाचुंग का पहाड़ अपना सीना ताने खड़ा था। पहाड़ के बीचों–बीच पतले झरने की सफेद लकीर, चट्टानों के इस विशाल जाल के सामने बौनी प्रतीत हो रही थी। पर असली नज़ारा तो दूसरी ओर था। पर्वतों और सूरज के बीच की ऐसी आँखमिचौनी मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। पहाड़ के ठीक सामने का हिस्सा जिधर हमारा होटल था अभी भी अंधकार में डूबा था। दूर दूसरे शिखर के पास एक छोटा सा पेड़ किरणों की प्रतीक्षा में अपनी बाहें फैलाए खड़ा था। उधर बादलों की चादर को खिसकाकर सूर्य किरणें अपना मार्ग प्रशस्त कर रहीं थीं। थोड़ी ही देर में ये किरणें कंचनजंघा की बर्फ से लदी चोटियों को यों प्रकाशमान करने लगीं मानो भगवान ने पहाड़ के उस छोर पर बड़ी सी सर्चलाइट जला रखी हो। शायद वर्षों तक यह दृश्य मेरे स्मृतिपटल पर अंकित रहे। अपने सफ़र के इस यादगार लमहे को मैं अपने कैमरे में कैद कर सका ये मेरी खुशकिस्मती है। कंचनजंघा को कंचनजंघा क्यों कहते हैं यह इस फ़ोटो को देख कर ही जाना जा सकता है। (फोटो बिलकुल नीचे)

यूमथांग घाटी

अगला पड़ाव यूमथांग घाटी था। ये घाटी लॉचुंग से करीब २५ कि .मी .दूर है और यहाँ के लोग इसे फूलों की घाटी के नाम से भी बुलाते हैं। दरअसल यह घाटी रोडोडेन्ड्रोन्स की २४ अलग–अलग प्रजातियों के लिए मशहूर है। सुबह की धूप का आनंद लेते हुए हम यूमथांग की ओर चल पड़े। सारा रास्ता बैंगनी रंग के इन छोटे–छोटे फूलों से अटा पड़ा था। करीब डेढ़ घंटे के सफ़र के बाद हम यूमथांग में थे। रास्ते में ही हमें रोडोडेन्ड्रोन्स के जंगल दिखने शुरू हो गए थे। मार्च अप्रैल से इनके पौधों में कलियाँ लगने लगती हैं। पर पूरी तरह से ये खिलते हैं मई के महीने में, जब पूरी घाटी इनके लाल और गुलाबी रंगों से रंग जाती है।

चूँकि यह घाटी १२,००० फीट की ऊँचाई पर स्थित है यहाँ गुरूडांगमार की तरह हरियाली की कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो बस आसमान की उस नीली छत की जो सुबह में दिखने के बाद यहाँ पहुँचते ही गायब हो गई थी। घाटी के बीच पत्थरों पे उछलती कूदती नदी बह रही थी। जाड़े में ये पत्थर बर्फ के अंदर दब जाते हैं। इन गोल मटोल पत्थरों के ढेर के साथ–साथ हम सब काफ़ी देर तक चलते रहे। किसी ने कहा रात में बारिश हुई है तो साथ में बर्फ़ भी गिरी होगी। फिर क्या था नदी का पाट छोड़ हम किनारे पर दिख रहे वृक्षों की झुरमुटों की ओर चल पड़े। पेड़ों के बीच हमें बर्फ गिरी दिख ही गई। पास में ही सल्फर युक्त पानी का सोता था पर वहाँ तक पहुँचने के लिए इस पहाड़ी नदी यानि यहाँ की भाषा में कहें तो लाचुंग चू को पार करना था। वहीं से इस ठुमकती चू को कैमरे से छू लिया। गर्म पानी का स्पर्श कर हम वापस लाचुंग लौट चले।

भोजन के बाद वापस गंगतोक की राह पकड़नी थी। गंगतोक के रास्ते में तिस्ता घाटी की अंतिम झलक पाने के लिए हम गाड़ी से उतरे। काफी ऊँचाई से ली गई इस तसवीर में घुमावदार रास्तों के जाल के साथ नीचे बहती हुई तिस्ता को आप देख सकते हैं। तिस्ता से ये इस सफ़र की आखिरी मुलाकात तो नहीं पर उसकी अंतिम तसवीर ये ज़रूर थी। सांझ ढलते–ढलते हम गंगतोक में कदम रख चुके थे।अपना अगला दिन नाम था सिक्किम के सबसे लोकप्रिय पड़ाव के लिए जहाँ प्रकृति अपने एक अलग रूप में हमारी प्रतीक्षा कर रही थी।
__________________
Disclamer :- Above Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed.
VARSHNEY.009 is offline   Reply With Quote
Reply

Bookmarks

Tags
travel


Posting Rules
You may not post new threads
You may not post replies
You may not post attachments
You may not edit your posts

BB code is On
Smilies are On
[IMG] code is On
HTML code is Off



All times are GMT +5. The time now is 05:05 PM.


Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.