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Old 30-10-2010, 06:30 PM   #11
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सिंहासन बत्तीसी 10

एक दिन विक्रमादित्य अपने बगीचे में बैठा हुआ था। वसन्त ऋतु थी। टेसू फूले हुए थे। कोयल कूक रही थी। इतने में एक आदमी राजा के पास आया। उसका शरीर सूखकर कांटा हो रहा था। खाना पीना उसने छोड़ दिया था, आंखों से कम दीखता था। व्याकुल होकर वह बार-बार रोता था। राजा ने उसे धीरज बंधाया और रोने का कारण पूछा। उसने कहा, "मैं कार्लिजर का रहनेवाला हूं। एक यती ने बताया कि अमुक जगह एक बड़ी सुन्दर स्त्री तीनों लोकों में नहीं है। लाखों राजा-महाराज और दूसरे लोग आते हैं। उसके बाप ने एक कढ़ाव में तेल खौलवा रक्खा है। कहता है कि कढ़ाव में स्नान करके जो जाता निकल आयगा, उसी के साथ वह अपनी जल चुकें है। जबसे उस स्त्री को देखा है, तबसे मेरी यह हालत हो गई है।"

राजा ने कहा, "घबराओ मत। कल हम दोनों साथ-साथ वहां चलेंगे।"

अगले दिन राजा ने स्नान पूजा आदि से छूट्टी पाकर दोनों वीरों को बुलाया।

राजा के कहने पर वे उन्हें वहीं ले चले, जहां वह सुन्दर स्त्री रहती थी। वहां पहुंचकर वे देखते क्या हैं कि बाजे बज रहे है। और राजकन्या माला हाथ में लिये घूम रही है। जो कढ़ाव में कूदता है, वही भून जाता है।

राजा उस कन्या के रूप को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और कढ़ाव के पास जाकर झट उसमें कूद पड़ा। कूदते ही भुनकर राख हो गया।

राजा के दोनों वीरों ने यह देखा तो अमृत ले आये और जैसे ही राजा पर छिड़का, वह जी उठा।

फिर क्या था! सबको बड़ा आनन्द हुआ। राजकन्या का विवाह राजा

के साथ हो गया। करोड़ो की सम्पत्ति मिली।

स्त्री ने हाथ जोड़कर कहा, "हे राजन्! तुमने मुझे दु:ख से छुड़ाया"

राजा के साथ जो आदमी गया था, वह अब भी साथ था। राजा ने उस स्त्री को बहुत-से माल-असबाब सहित उसे दे दिया।

राजकन्या ने हाथ जोड़कर राजा से कहा, "हे राजन्! तुमने मुझे दु:ख से छुड़ाया। मेरे बाप ने ऐसा पाप किया था कि वह नरक में जाता और मैं उम्र भर क्वांरी रहती।"

इतना कहकर पुतली बोली, "देखा तुमने! राजा विक्रमादित्य ने कितना पराक्रम करके पाई हुई राजकन्या को दूसरे आदमी को देते तनिक भी हिचक न की। तुम ऐसा कर सकोगे तभी सिंहासन पर बैठने के योग्य होगें।"

राजा बड़े असमंजस में पड़ा। सिहांसन पर बैठने की उसकी इच्छा इतनी बढ़ गई थी कि अगले दिन वह फिर वहां पहुंच गया, लेकिन पैर रखने को जैसे ही बढ़ा कि ग्यारहवीं पुतली पद्मावती ने उसे रोक दिया। बोली, "ठहरो मेरी बात सुनो।"

राजा रूक गया। पुतली ने अपनी बात सुनायी।
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Old 30-10-2010, 06:36 PM   #12
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सिंहासन बत्तीसी 11

एक दिन विक्रमादित्य अपने महल में सो रहा था। रात का समय था। अचानक उत्तर दिशा से किसी के रोने की आवाज आयी। राजा ढाल-तलवार लेकर अंधेरी रात में उसी तरफ बढ़ा। जंगल में जाकर देखता क्या है कि एक स्त्री धाड़े मार-मारकर रो रहीहै। एक देव उसे हैरान कर रहा था। राजा को क्रोध आ गया। दोनों में लड़ाई ठन गई। राजा ने ऐसे जोर से तलवार मारी कि देव का सिर धड़ से अलग हो गया। देव के सिर और धड़ से दो वीर निकले। वे राजा से लिपट गये। उनमें से एक को तो राजा ने मार डाला, दूसरा बचकर भाग गया।

राजा ने उस स्त्री से साथ चलने को कहा। स्त्री बोली, "हे भूपाल!मैं कहीं भी जाऊं, उस राक्षस से बच नहीं पाऊंगी। उसके पास एक मोहनी है, जो उसके पेट में रहती है। उसमें ऐसी ताकत है कि एक देव के मरने पर चार देव बना सकती है।"

यह सूनकर राजा वहीं छिप गया और देखने लगा कि आगे क्या होता है। शाम होते ही वह देव फिर आया। उस स्त्री को हैरान करने लगा। राजा से यह न देखा गया। वह निकलकर आया। और देव से लड़ने लगा। लड़ते–लड़ते उसने ऐसा खांड़ा मारा कि देव का सिर कट गया। धड़ से मोहनी निकली और अमृत लेने चली। राजा ने उसी समय अपने वीरों को बुलाया। उसने कहा कि देखों, यह स्त्री जाने न पाये। वीर उसे पकड़कर ले आये। राजा ने पूछा, " तुम कौन हो? हंसती हो तो फूल झड़ते हैं। देव के पेट में क्यों रहती हो?"

वह बोली, "मैं पहले शिव की गण थी। एक बार शिव की आज्ञा को मानने से चूक गई तो शाप देकर उन्होंने मुझे मोहनी बना दिया। और इस देव को दे दिया। तबसे यह मुझे अपने पेट में डाले रहता है। हे राजन्! अब मैं तुम्हारे बस में हूं। तुम्हारे पास रहूंगी, जैसे महादेव के पास पार्वती रहती थीं।"

राजा और देव लड़ने लगे।

राजा मोहनी और उस दूसरी स्त्री को लेकर अपने महल में आया। उसने मोहनी से विवाह कर लिया। दूसरी स्त्री से यह पूछने पर कि वह कौन है, उसने बताया, "मैं सिंहलद्वीप के एक ब्राह्यण की कन्या हूं। एक दिन अपनी सखियों के साथ तालाब पर नहाने गई। नहा-धोकर पूजा-पाठ करके लौटने लगी तो यह राक्षय मेरे सामने जा गया। इसने मुझे बहुत सताया। हे राजन्! तुमने मेरा जो उपकार किया उसे मैं कभी नहीं भूलूंगी। तुम हजार बरस तक जीओगे। और नाम कमाओगें।"

इसके बाद राजा ने अपने राज्य में से एक योग्य ब्राह्यण ढुंढ़वाकर उसके साथ उस स्त्री का विवाह करा दिया और स्वयं उसका कन्यादान किया। लाखों रूपये उन्हें दान में दिये।

कहानी सुनाकर पुतली बोली, "हे राजा भोज! तुम ऐसे हो तो सिंहासन पर बैठो।"

राजा जी मसोसकर रह गया। उसने तय किया कि अब वह किसी का नहीं सुनेगा। लेकिन अगले दिन फिर वही हुआ। राजा के सिंहासन की ओर पैर बढ़ाते ही बारहवीं पुतली कीर्तिमती ने उसे रोकर सुनाया:
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Old 30-10-2010, 06:39 PM   #13
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सिंहासन बत्तीसी 12

एक दिन विक्रमादित्य अपने दरबार में बैठा हुआ था। उसने कहा, "कलियुग में और कोई दाता है?" एक ब्राह्मण ने बताया कि समुद्र के किनारे एक राजा रहता है, वह बड़ा दान करता है। सवेरे स्नान करके एक लाख रुपये देता है, तब जल पीता है। ऐसा धर्मात्मा राजा हमने नहीं देखा।

ब्राह्मण की बात सुनकर राजा की इच्छा हुई कि उसे देखे। अगले दिन अपने वीरों की मदद से वहां पहुंच गया। वहां के राजा के उसी बड़ी आवभगत की! वह उसके यहां चार हजार रुपये पर काम करने लगा तय हुआ कि जो काम कोई भी नहीं कर सकेगा, उसे वह करेगा।

वहां रहते-रहते नौ-दस दिन बीत गये। राजा विक्रमादित्य सोचने लगा कि दान में यह जो एक लाख रुपये देता है, वे कहां से आते हैं? पता लगाना चाहिए। एक दिन दो पहर रात गये, विक्रमादित्य ने देखा कि राजा जंगल की ओर अकेला जा रहा है। वह पीछे-पीछे हो लिया। जंगल में जाकर राजा देवी के मंदिर के आगे रुका। वहां एक कढ़ाव में तेल खौल रहा था। राजा ने तालाब में स्नान किया, देवी के दर्शन किये और फिर कढ़ाव में कूद पड़ा। कूदते ही भुन गया। तब चौंसठ जोगिनियां आयीं और उन्होंने राजा के बदन को नोंच-नोंचकर खा डाला। इतने में देवी आयी और उसने हाड़-पिंजर पर अमृत छिड़क दिया। राजा उठ खड़ा हुआ। देवी ने मंदिर में से एक लाख रुपये लाकर दिय। राजा रुपये लेकर चला आया।

अगले दिन विक्रमादित्य ने भी ऐसा ही किया। उसे भी लाख रुपये मिल गये। इस प्रकार सात बार उसने ऐसा किया। आठवीं बार जब वह कढ़ाव में कूदने को हुआ तो देवी ने उसे रोक दिया। कहा कि जो मांगो सो पाओ। विक्रमादित्य ने उससे वह थैली मांग ली, जिसमें से वह देवी रुपये दिया करती थी। देवी ने दे दी।

दूसरे दिन हुआ क्या कि जब वह राजा रोज के हिसाब से वहां पहुंचा तो देखता क्या है कि न वहां मंदिर है, न कढ़ाव। वह दु:खी होकर घर लौट आया। उसे पास दान करने को रुपये न थे तो वह जल कैसे पीता? कई दिन बीत गये। राजा की देह सूख गई। एक दिन विक्रमादित्य ने उससे पूछा कि आपके दु:ख का क्या कारण है? राजा ने बता दिया। यह सुनते ही विक्रम ने थैली निकालकर उसे दे दी और कहा, "महाराज, अब स्नान-ध्यान करके नित्य कर्म कीजिये। इस थैली से जितने रुपये चाहोगे, मिल जायंगे।"

थैली मिल जाने पर राजा का सब काम अच्छी तरह से चलने लगा। विक्रमादित्य अपने नगर को लौट आया।

पुतली बोली, "राजन्, देखा ऐसी थैली देने में विक्रमादित्य न हिचका, न पछताया। ऐसा जो राजा हो, वही सिंहासन पर बैठे।"

राजा भोज बड़ी द्विविधा में पड़ा। क्या करे? सिंहासन पर बैठने की उसी इच्छा इतनी बलवती थी कि अगले दिन वह फिर उधर गया, पर हुआ वही, जो पिछले दिनों में हुआ था। तेरहवीं पुतली सुलोचना आगे आयी और उसने राजा को रोककर कहा कि पहले मेरी बात सुनो, तब सिंहासन पर पैर रखना।
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Old 30-10-2010, 06:41 PM   #14
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सिंहासन बत्तीसी 13

एक बार राजा विग्रमादित्य शिकार खेलने जंगल में गया। बहुत-से मुसाहिब भी उसे साथ थे। जंगल में जाकर शिकार के लिए तैयारी हुई। जानवर घिर-घिरकरआने लगे। इसी बीच राजा की निगाह एक परिंदे पर पड़ी। उसने बाज छोड़ा और स्वयं घोड़े पर सवार होकर उसे देखता हुआ चला। चलते-चलते कोसों निकल गया। शाम होने को हुई तब उसे पता चला कि उसे साथ कोई नहीं है। चारों ओर घना जंगल था। रात होने पर राजा ने घोड़े को एक पेड़ से बांध दिया और उसकी जीन बिछाकर बैठ गया। तभी उसने देखा कि पास में जो नदी है, वह बढ़ती आ रही है। राजा पीछे हट गया। नदी और बढ़ आयी। उसी समय उसने देखा कि धार में एक मुर्दा बहा आ रहा है और उस पर एक योगी और एक बैताल खींचातानी कर रहे हैं। बैताल कहता था कि मैं इसे हजार कोस से लाया हूं। सो मैं खाऊंगा। योगी कहता था कि मैं इस पर अपना मंत्र साधूंगा। जब झगड़ा किसी तरह नहीं निबटा तो उनकी निगाह राजा पर पड़ी। वे उसके पास आये और सब हाल सुनाकर कहा कि तुम जो फैसला कर दोगे, उसे हम मान लेंगे। राजा ने कहा कि पहले मुझे तुम दोनों कुछ दो, तब न्याय करुंगा। योगी ने हंसकर उसे एक बटुआ दिया और उससे कहा कि तुम जो मांगोगे, वही यह देगा। बैताल ने उसे मोहनी तिलक दिया। कहा कि जब तुम घिसकर इसे माथे पर लगा लोगे तो सब तुमसे दबेंगे, कोई तुम्हारे सामने नहीं ठहर सकेगा।

राजा ने दोनों चीजें ले लीं। फिर उसने बैताल से कहा कि तुम्हें अपना पेट भरना है न! तो मेरे घोड़े को खा लो और इस मुर्दे को योगी को दे दो। इस फैसले से दोनों खुश हो गये।

राजा दोनों चीजों को लेकर वहां से चला। अपने नगर के पास पहुंचने पर उसे एक भिखारी मिला। वहा बोला, "महाराज, कुछ दीजिये।"

राजा ने बटुआ उसे दे दिया और उसका भेद बता दिया। उसके बाद राजा घर लौट आया।

पुतली बोली, "राजन्, इतना दिलवाला कोई हो तो सिंहासन पर बैठें।"

दूसरे दिन राजा बड़े तड़के उठा। उसने दीवान को बुलाकर कहा कि आज हम सिंहासन पर जरुर बैठेंगे। सौ गायें दान की गई। ऐन वक्त पर चौदहवीं पुतली त्रिलोचनी ने रोक दिया। राजा ने उठा पैर पीछे खींच लिया।

त्रिलोचनी ने सुनाया:
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Old 30-10-2010, 06:42 PM   #15
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सिंहासन बत्तीसी 14

एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा हुई कि वह यज्ञ करे। देश-देश को न्योते भेजे। सातों द्वीपों के ब्राह्मणों को बुलाया, राजाओं को इकट्ठा किया। एक वीर स्वर्ग के देवताओं को बुलाने भेजा राजा ने एक ब्राह्मण से कहा कि तुम जाकर समुद्र को न्योता दे आओ। ब्राह्मण चला। चलते-चलते समुद्र के किनारे पहुंचा। वहां देखता क्या है कि चारों ओर पानी-ही-पानी है। न्योता किसे दे? तब उसने चिल्लाकर कहा कि हे समुद्र! तुम यज्ञ में आना।

जब वह चला तो आगे उसे ब्राह्मण के भेस में समुद्र मिला। उसने कहा, "मैं आने को तो तैयार हूं, लेकिन मेरे आने से पानी भी आयगा और बहुत-से नगर डूब जायंगे। सो तुम राजा से सब बात कह देना और ये पांच लाल और घोड़ा सौगात में मेरी ओर से दे देना।"

ब्राह्मण पांचों रत्न और घोड़ा लेकर वापस आया और राजा को सब हाल कह सुनाया। राजा ने वे चीजें उसी ब्राह्मण को दान में दे दीं। ब्राह्मण प्रसन्न होकर चला गया।

पुतली बोली, "ऐसा कोई दानी हो तो सिंहासन पर बैठै!"

राजा चुप रह गया। अगले दिन पंद्रहवी पुतली अनूपवती की बारी आयी। उसने भी वही किया, जो चौदह कर चुकी थीं। उसने कहा कि लो, विक्रमादित्य के गुण कान लगा कर सुनो।
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Old 30-10-2010, 06:46 PM   #16
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सिंहासन बत्तीसी 15

एक दिन राजा विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठे हुए थे। कहीं से एक पंडित आया। उसने राजा को एक श्लोक सुनाया। उसका भाव था कि जबतक चांद और सूरज हैं, तबतक विद्रोही और विश्वासघाती कष्ट पायंगे। राजा ने उसे एक लाख रुपये दिये और कहा कि इसका मर्म मुझे समझाओ। ब्राह्मण ने कहा, "महाराज! एक बूढ़ा अज्ञानी राजा था। उसके एक रानी थी, जिसे वह बहुत प्यार करता था। हमेशा साथ रखता था। दरबार में भी उसे साथ बिठाता था। एक दिन उसके दीवान ने कहा, "महाराज! ऐसा करना अच्छा नहीं है। लोग हंसते हैं। अच्छा हो कि आप रानी का एक चित्र बनवाकर सामने रख लें।" राजा को यह सलाह पसन्द आयी। उसने एक बड़े होशियार चित्रकार को बुलवाया। वह चित्रकार ज्योतिष भी जानता था। उसने राजा के कहने पर एक बड़ा ही सुंदर चित्र बना दिया। राजा को वह बहुत पसंद आया। लेकिन जब उसी निगाह टांग पर गई तो वहा एक तिन था। राजा को बड़ा गुस्सा आया कि रानी का यह तिल इसने कैसे देखा।
उसने उसी समय चित्रकार को बुलवाया और जल्लाद को आज्ञा दी कि जंगल में ले जाकर उसी आंखें निकाल लाओ। जल्लाद लेकर चले। आगे जाकर दीवान ने जल्लादों को रोका और कहा कि इसे मुझे दे दो और हिरन की आंखें निकालकर राजा को दे दो। जल्लादों ने ऐसा ही किया। जब वे आंखें लेकर आये तो राजा ने कहा, "इन्हें नाली में फेंक दो।"
उधर एक दिन राजा का बेटा जंगल में शिकार खेलने गया। सामने एक शेर को देखकर वह डर के मारे पेड़ पर चढ़ गया। वहां पहले से ही एक रीछ बैठा था। उसे देखते ही उसके प्राण सूख गये। रीछ ने कहा, "तुम घबराओ नहीं। मैं तुम्हें नहीं, खाऊंगा, क्योंकि तुम मेरी शरण में आये हो।" जब रात हुई तो रीछ बोला, "हम लोग दो-दो पहर जागरि पहरा दें, तभी इस नाहर से बच सकेंगे। पहले तुम सो लो।"
राजकुमार सो गया। रीछ चौकसी करने लगा। शेर नीचे से बोला, "तुम इस आदमी को नीचे फेंक दो। हम दोनों खा लेंगे। अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो जब इस आदमी की पहरा देने की बारी आयगी, तब यह तेरा सिर काटकर गिरा देगा।" रीछ ने कहा, "राजा के मारने में, पेड़ के काटने में, गुरु से झूठ बोलने में, और जंगल जलाने में बड़ा पाप लगता है। उससे ज्यादा पाप विद्रोह और विश्वासघात करने में लगता है। मैं ऐसा नहीं करुंगा।"
आधी रात होने पर राजकुमार जागा और रीछ सोने लगा। शेर ने उससे भी वही बात कहीं। बोला, "तू इसका भरोसा मत कर। सवेरा होते ही यह तुझे खा जायगा।"
रीछ ने कहा, "तुम घबराओ नहीं।"
राजकुमार उसकी बातों में आ गया और इतने जोर से पेड़ को हिलाया कि रीछ गिर पड़े। इतने में रीछ की आंखें खुल गईं और वह एक टहनी से लिपट गया। बोला, "तू बड़ा पापी है। मैंने तेरी जान बचाई और तू मुझे मारने को तैयार हो गया। अब मैं तुझे खा जाऊं तो तू क्या कर लेगा!"
राजकुमार के हाथ-पांव फूल गये। खैर, सवेरे शेर तो चला गया और इधर रीछ राजकुमार को गूंगा-बहरा बनाकर चलता बना।
राजकुमार घर लौटा तो उसकी हालत देखकर राजा को बड़ा दु:ख हुआ। उसने बहुतेरा इलाज कराया, पर कोई फायदा न हुआ। तब एक दिन दीवान ने कहा, "मेरे बेटे की बहू बहुत होशियार है।" राजा ने कहा, "बुलाओ।" दीवान के यहां वह चित्रकार छिपा हुआ था। उसने उसका स्त्री का भेस बनवाया और दरबार में लाया। पर्दे की आड़ में वह स्त्री बैठी। उसने राजकुमार से कहा, "मेरी बात सुनो। विभीषण बड़ा शूरवीर था, पर दगा करके रामचन्द्र से जा मिला और राज्य का नाशक हुआ। भस्मापुर ने महादेव की तपस्या करके वर पाया, फिर उन्हीं के साथ विश्वासघात करके पार्वती को लेने की इच्छा की, सो भस्म हो गया। हे राजकुमार! रीछ ने तुम्हारे साथ इतना उपकार किया था, पर तुमने उसे धोखा दिया। पर इसमें दोष तुम्हारा नहीं है, तुम्हारे पिता का है। जैसा बीज बोयेगा, वैसा ही फल होगा।"
इतनी बात सुनते ही राजकुमार उठ बैठा। राजा सब सुन रहा था। बोला, "रीछ की बात तुम्हें कैसे मालूम हुई?"
उसने कहा, "राजन्! जब मैं पढ़ने जाती थी तो मैंने अपने गुरु की बड़ी सेवा की थी। गुरु ने प्रसन्न होकर मुझे एक मंत्र दिया। उसे मैंने साधा। तबसे सरस्वती मेरे मन में बसी हैं। जिस तरह रानी का तिल मैंने पहचान कर बनाया, वैसे ही रीछ बात जान ली।"
यह सुनकर राजा सारी बात समझ गया। उसने पर्दा हटवा दिया। खुश होकर चित्रकार को आधा राज्य देकर अपना दीवान बना लिया।
इतना कहकर ब्राह्मण बोला, "महाराज! मेरे श्लोक का यह मर्म है।"
राजा विक्रमादित्य ने प्रसन्न होकर हजार गांव उसके लिए बांध दिये।
पुतली बोली, "क्यों राजन्! हैं तुममें इतने गुण?"
राजा बड़ी परेशानी में पड़ा दीवान ने कहा, "महाराज! आप सिंहासन पर बैठेंगे तो ये पुतलियां रो-रोकर मर जायंगी।" पर राजा न माना। अगले दिन फिर सिंहासन की ओर बढ़ा कि सोलहवीं पुतली सुन्दरवती बोल उठी, "हैं-हैं, ऐसा मत करना। पहले मेरी बात सुनो।"
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Old 30-10-2010, 06:48 PM   #17
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सिंहासन बत्तीसी 16

उज्जैन नगरी में छत्तीस और चार जात बसती थीं। वहां एक बड़ा सेठ था। वह सबकी सहायता करता था। जो भी उसके पास जाता, खाली हाथ न लौटता। उस सेठ के एक बड़ा सुन्दर पुत्र था। सेठ ने सोचा कि अच्छी लड़की मिल जाय तो उसका ब्याह कर दूं। उसने ब्राह्मणों को बुलाकर लड़की की तलाश में इधर-उधर भेजा। एक ब्राह्मण ने सेठ को खबर दी कि समुद्र पार एक सेठ है, जिसकी लड़की बड़ी रुपवती और गुणवती है। सेठ ने उसे वहां जाने को कहा। ब्राह्मण जहाज में बैठकर वहां पहुंचा। सेठ से मिला। सेठ ने सब बातें पूछीं और अपनी मंजूरी देकर आगे की रस्म करने के लिए अपना ब्राह्मण उसके साथ भेज दिया। दोनों ब्राह्मण कई दिन की मंजिल तय करके उज्जैन पहुंचे।

सेठ को समाचार मिला तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। दोनों ओर से ब्याह की तैयारी होने लगी। दावतें हुईं। ब्याह का दिन पास आ गया तो चिंता हुई कि इतने दूर देश इतने कम समय में कैसे पहुंचा जा सकता है। सब हैरान हुए। तब किसी ने कहा कि एक बढ़ई ने एक उड़न-खटोला बनाकर राजा विक्रमादित्य को दिया था। वह उसे दे दे तो समय पर पहुंचा जा सकता है और लग्न में विवाह हो सकता है।

सेठ राजा के पास गया। उसने फौरन उड़न-खटोला दे दिया और कहा, "तुम्हें और कुछ चाहिए तो ले जाओ।"

सेठ ने कहा, "महाराज की दया से सबकुछ है।"

उड़न-खटोला लेकर बारात समय पर पहुंच गई और बड़ी धूम-धाम से विवाह हो गया। बारात लौटी तो सेठ राजा का उड़न-खटोला वापस करने गया। राजा ने कहा, "मैं दी हुई चीज वापस नहीं लेता।"

इतना कहकर उन्होंने बहुत-सा धन उस सेठ को दिया और कहा, "यह मेरी ओर से अपने बेटे को दे देना।"

पुतली बोली, "विक्रमादित्य की बराबरी तो इंद्र भी नहीं कर सकता। तुम किस गिनती में हो"

वह दिन भी गुजर गया।

अगले दिन राजा फिर सिंहासन पर बैठने को गया तो सत्यवती नाम की सत्रहवीं पुतली ने उसे रोककर यह कहानी सुनायी:
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सिंहासन बत्तीसी 17

एक दिन वीर विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठा था। अचानक उसने पंडितों से पूछा, "बताओ, पाताल का राजा कौन है?" एक पंडित बोला, "महाराज! पाताल का राजा शेषनाग है।" राजा की इच्छा हुई कि उसे देखें। उसने अपने वीरों को बुलाया। वे राजा को पाताल ले गये। राजा ने देखा कि शेषनाग का महल रत्नों से जगमगा रहा है। द्वार पर कमल के फूलों की बंदनवारें बंधी हुई हैं। घर-घर आनंद हो रहा है। खबर मिलने पर शेषनाग द्वार पर आया। पूछा कि तुम कौन हो? राजा ने बता दिया। फिर बोला, "आपके दर्शन की इच्छा थी, सो पूरी हुई।"

शेषनाग राजा को अंदर ले गया। वहां उसी खूब आवभगत की। राजा पांच-सात दिन वहां रहा। जब विदा मांगी तो शेषनाग ने उसे चार लाल दिये। एक का गुण था कि जितने चाहो, उतने गहने उससे ले लो। दूसरे लाल से हाथी-घोड़े-पालकियां मिलती थीं, तीसरे से लक्ष्मी और चौथे से हरिभजन और अनेक काम करने की इच्छा पूरी होती थी।

राजा अपने नगर में आया। वहां उसे एक भूखा ब्राह्मण मिला। उसने भिक्षा मांगी। राजा ने सोचा कि एक लाल दे दे। उसने ब्राह्मण को चारों लाल के गुण बताये और पूछा कि कौन-सा लोगे? उसने कहा कि मैं घर पूछकर अभी आता हूं। घर पहुंचने पर उसने लालों की बात कही तो ब्राह्मणी ने कहा, "वह लाल लो, जो लक्ष्मी देता है; क्योंकि लक्ष्मी से ही सब काम सधते हैं।" ब्राह्मण के बेटे ने कहा, "अकेली लक्ष्मी से क्या होगा! तुम वह लो, जिससे हाथी-घोड़े-पालकियां मिलती हैं।" बेटे की बहू ने कहा, "तुम वह लो, जिससे गहने मिलते है; क्योंकि गहनों से बहुत-से काम निकलते है।" ब्राह्मण ने कहा, "तुम तीनों बौरा गये हो। मेरी इच्छा सिवा धर्म के और कुछ नहीं; क्योंकि धर्म से जग में यश मिलता है। मैं तो वह लाल चाहता हूं जिससे धर्म-कर्म हो।" चारों की चार मति। ब्राह्मण क्या करे! आकर उसने राजा को सब हाल कह सुनाया। राजा ने कहा, "महाराज! तुम उदास न हो। चारों लाल ले जाओ।"

ब्राह्मण को चारों लाल देकर विक्रमादित्य अपने घर लौट आया।

पुतली बोली, "इस कलियुग में है कोई जो उस राजा के समान दान दे?"

राजा भोज बड़ा निराश हुआ। अगले दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को हुआ तो उसे अठारहवीं पुतली रुपरेखा ने रोक दिया और यह कहानी सुनायी:
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सिंहासन बत्तीसी 18

एक दिन दो सन्यासी झगड़ते हुए राजा विक्रमादित्य के यहां आये। एक कहता था कि सबकुछ मन के वश में है। मन की इच्छा से ही सब होता है। दूसरा कहता था कि सबकुछ ज्ञान से होता है। राजा ने कहा, "अच्छी बात है। मैं सोचकर जवाब दूंगा।"

इसके बाद कई दिन तक राजा विचार करता रहा। आखिर एक दिन उसने दोनों संन्यासियों को बुलाकर कहा, "महराज! यह शरीर आग, पानी, हवा और मिट्टी से बना है। मन इनका सरदार है। अगर ये मन के हिसाब से चलें तो घड़ी भर में शरीर का नाश हो जाय। इसलिए मन पर अंकुश होना जरुरी है। जो ज्ञानी लोग है।, उनकी काया अमर होती है। सो हे संन्यासियो! मन का होना बड़ा जरुरी है, पर उतना ही जरुरी ज्ञान का होना भी है।"

इस उत्तर से दोनों संन्यासी बहुत प्रसन्न हुए। उसमें से एक ने राजा को खड़िया का एक ढेला दिया और कहा, "हे राजन्! इस खड़िया से दिन में जो चित्र बनाओगे, रात को वे सब शक्लें तुम्हें प्रत्यक्ष अपनी आंखों से दिखाई देंगी।"

इतना कहकर दोनों संन्यासी चले गये। उनके जाने पर राजा ने अपने महल

दो संन्यासी राजा के पास आये।

की सफाई कराई और फिर किवाड़ बंद करके उसने कृष्ण, सरस्वती आदि की तस्वीरें बनाई। रात होने पर वे सब उसे साफ दीखने लगे। वे आपस में जो बात करते थे, वह भी राजा को सुनायी देती थी। सवेरा होते ही वे सब गायब हो गये और दीवार पर चित्र बने रह गये।

अगले दिन राजा ने हाथी, घोड़े, पालकी, रथ, फौज आदि बनाये। रात को ये सब दिखाई दिये। इसी तरह तीसरे दिन उसने मृदंग, सितार, बीन, बांसुरी, करताल, अलगोजा आदि एक-एक बजाने वाले साथ में बना दिये। रात भर वह गाना सुनता रहा।

राजा रोज कुछ-न-कुछ बनाता और रात को उनका तमाशा देखता। इस तरह कई दिन निकल गये। उधर राजा जब अंदर महल में रानियों के पास नहीं गये तो उन्हें चिंता हूई। पहले उन्होंने आपस में सलाह की, फिर चार रानियां मिलकर राजा के पास आयीं। राजा ने उन्हें सब बातें बता दीं। रानियों ने कहा कि हमें बड़ा दु:ख है। हम महल में आपके ही सहारे हैं।

राजा ने कहा, "मुझे बताओ, मैं क्या करुँ। जो मांगो, सो दूं।"

रानियों ने वही खड़िया मांगी। राजा ने आनंद से दे दी।

पुतली ने कहा, "राजा भोज, देखो, कैसी बढ़िया चीज विक्रमादित्य के हाथ लगी थी, पर मांगने पर उसने फौरन दे दी। तुम इतने उदार हो तो सिंहासन पर बैठो।"

वह दिन भी निकल गया। राजा क्या करता! अगले दिन जब सिंहासन की ओर बढ़ा तो तारा नाम की उन्नीसवीं पुतली झट उसके रास्ते को रोककर खड़ी हो गई। बोली, "पहले मेरी बात सुनों।"
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सिंहासन बत्तीसी 19

एक ब्राह्मण हाथ-पैर की लकीरों को अच्छी तरह जानता था। एक दिन उसने रास्ते में एक पैर के निशान देखे, जिसमें ऊपर को जानेवाली एक लकीर थी और कमल था। ब्राह्मण ने सोचा कि हो न हो, कोई राजा नंगे पैर इधर से गया है। यह सोचकर वह उन निशानों को देखता हुआ उधर चल दिया। कोसभर गया होगा कि उसे एक आदमी पेड़ से लकड़ियां तोड़कर गट्ठर में बांधते हुए दिखाई दिया। उसने पास जाकर पूछा, "तुम यहां कबसे हो? इधर कोई आया है क्या?"

उस आदमी ने जवाब दिया, "मैं तो दो घड़ी रात से यहां हूं। आदमी तो दूर, मुझे छोड़कर कोई परिन्दा भी नहीं आया।" इस पर ब्राह्मण ने उसका पैर देखा। रेखा और कमल दोनों मौजूद थे।

ब्राह्मण बड़े सोच में पड़ गया कि आखिर मामला क्या है? सब लक्षण राजा के होते हुए भी इसकी यह हालत है! ब्राह्मण ने पूछा, "तुम कहां रहते हो और लकड़ी काटने का काम कबसे करते हो?" उसने बताया, "मै! राजा विक्रमादित्य के नगर में रहता हूं और जबसे होश संभाला है, तब से यही काम करता हूं।" ब्राह्मण ने फिर पूछा, "क्यों, तुमने बहुत दु:ख पाया है?" उसने कहा, "भगवान् की इच्छा है कि किसी को हाथी पर चढ़ाये, किसी को पैदल फिराये। किसी को धन-दौलत बिना मांगे मिले, किसी को मांगने पर टुकड़ा भी न मिले। जो करम में लिखा है, वह भुगतान ही पड़ता है।"

यह सब सुनकर ब्राह्मण सोचने लगा कि मैंने इतनी मेहनत करके विद्या पढ़ी, सो झूठी निकली। अब राजा विक्रमादित्य के पास जाकर उसे निशान भी देखूं। न मिले तो पोथियों को जला दूंगा।

इतना सोच वह विक्रमादित्य के पास पहुंचा। राजा के पैर देखे तो उनमें कोई निशान न था। यह देखकर वह और भी दुखी हुआ और उसने तय किया कि घर जाकर किताबें जला देगा। उसे उदास देखकर राजा ने पूछा, "क्या बात है?"

ब्राह्मण ने सब बातें दीं। बोला, "जिसके पैर में राजा के निशान है, वह जंगल में लकड़ी काटता है। जिसके निशान नहीं है, वह राज करता है।"

राजा बोला, "महाराज! किसी के लक्षण गुप्त होते हैं, किसी के दिखाई देते है।"

ब्राह्मण ने कहा, "मैं कैसे जानूं?"

राजा ने छुरी मंगाकर तलुवे की खाल चीरकर लक्षण दिखा दिये। बोला, "हे ब्राह्मण! ऐसी विद्या किस काम की, जिसे सब भेद न मालूम हों!"

यह सुनकर ब्राह्मण लज्जित होकर चला गया।

पुतली बोली, "जो इतना साहस कर सता हो, वह सिंहासन पर बैठे। नाम, धर्म और यश आदमी के जाने से नहीं जाना जाता—जैसे फूल नहीं रहता, पर उसकी सुगंधि इत्र में रह जाती है।"

सुनकर राजा को चेत हुआ। कहने लगा, "यह दुनिया स्थिर नहीं है। पेड़ की छांह जैसी उसी गति है। जिस तरह चांद-सूरज आते-जाते रहते हैं, वैसे ही आदमी का जीना=मरना है। देह दु:ख देती है। सुख हरि-भजन में है।"

राजा ने यह सब सोचा, लेकिन जैसे ही अगला दिन आया कि सिंहासन पर बैठने की फिर इच्छा हुई। वह उधर गया कि बीसवीं पुतली चन्द्रज्योति ने उसे रोक दिया। बोला, "पहले मेरी बात सुनो।"
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