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Old 01-09-2012, 04:35 PM   #121
Dark Saint Alaick
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

सिर्फ डिग्री के लिए नहीं लें शिक्षा

आजकल के हर युवा के मन में भविष्य को लेकर ढेर सारी उम्मीदें और सपने होते हैं। अगर सच्ची कोशिश की जाए तो ये सपने जरूर पूरे होते हैं। जीवन में शिक्षा का बहुत बड़ा महत्व है। शिक्षा आपको नया जीवन देती है। दरअसल शिक्षा हासिल करने का मतलब सिर्फ डिग्री हासिल करना नहीं है। शिक्षा आपको एक बेहतर इंसान बनाती है, सभ्य बनाती है, तहजीब सिखाती है। शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ ज्ञान हासिल करना नहीं है। यह आपको कई तरह की जिम्मेदारियों का अहसास कराती है। पहली जिम्मेदारी आपकी खुद के प्रति है और फिर समाज के प्रति। आपकी सबसे पहली जिम्मेदारी यह पता लगाना है कि आप क्या करना चाहते हैं? ऐसा कौन सा कार्य है, जिसे करने में आपको खुशी मिलेगी, आपके शौक क्या हैं, आपका जुनून क्या है? उदाहरण के लिए कोंडोलीजा राइस अफ्रीकी मूल की पहली अमेरिकी महिला थी, जो अमेरिका के विदेश सचिव के पद तक पहुंचीं। राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में वह उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी रहीं। उन्होंने तीन साल की उम्र से संगीत सीखना शुरू किया, क्योंकि उन्हें संगीत से प्यार था, परंतु जब वे बड़ी हुई तो उन्हें लगा कि संगीत भले ही उनका शौक है, पर यह उनका करियर नहीं हो सकता है। फिर यूनिवर्सिटी में पहुंच कर उन्होने अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई शुरू की, लेकिन अंग्रेजी भी उनमें दिलचस्पी नहीं पैदा कर सकी। आखिरकार उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन शुरू किया और फैसला किया कि उन्हें राजनयिक ही बनना है। वे अपने फैसले पर खरी उतरीं । कामयाब भी रहीं और उन्होंने अपनी राजनयिक की भूमिका को बखूबी निभाया। इसलिए आप करियर के लिए वही क्षेत्र चुनें, जिसमें आपकी गहरी दिलचस्पी है। अगर आप अपनी रुचि वाला काम करेंगे, तो आपको ज्यादा सफलता मिलेगी। अब यह तय तो आपको ही करना है कि लिए कौन सा क्षेत्र आपके करियर के लिए उचित है।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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Old 01-09-2012, 04:38 PM   #122
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

अहंकार तले दबा ज्ञान

एक युवा ब्रह्मचारी की यह तमन्ना हुई कि वह दुनिया में जितनी भी कलाएं हैं, उन सभी को सीखे। उसका मानना था कि वह जितनी कलाएं सीख लेगा, उसका रूतबा उतना ही बढ़ता जाएगा और वह बड़ा आदमी कहलाएगा। अपने इस इरादे के साथ ही उसने कई देशों में घूमकर अनेक कलाएं सीखीं। पहले वह एक देश में पहुंचा और वहां उसने एक व्यक्ति से बाण बनाने की कला सीखी। जब उसे लगा कि वह बाण बनाना सीख गया है, तो कुछ दिनों के बाद वह अन्य देश की यात्रा पर निकल गया। वहां पहुंचकर उसने जहाज बनाने की कला सीखी, क्योंकि वहां बहुतायत में जहाज बनाए जाते थे। फिर वह तीसरे देश में जा पहुंचा और कई ऐसे लोगों के संपर्क में आया जो गृह निर्माण करते थे। यहां उसने तरह-तरह की गृह निर्माण कला सीखी। इस प्रकार वह सोलह देशों में गया और कई तरह की कलाओं का ज्ञाता होकर लौटा। घर वापस आकर वह इस अहंकार में भर गया कि उसने कई तरह की कलाएं सीख ली हैं। अपने अहंकार के चलते वह लोगों से कहता- इस संपूर्ण पृथ्वी पर मुझ जैसा कोई गुणी व्यक्ति है? लोग हैरत से उसे देखते। धीरे-धीरे यह बात बुद्ध तक भी पहुंची। बुद्ध उसे जानते थे। वह उसकी प्रतिभा से भी परिचित थे। वह इस बात से चिंतित हो गए कि कहीं उसका अभिमान उसका नाश न कर दे। एक दिन वे भिखारी का वेश बनाकर हाथ में भिक्षापात्र लिए उसके सामने गए। ब्रह्मचारी ने बड़े अभिमान से पूछा - कौन हो तुम ? बुद्ध बोले - मैं आत्मविजय का पथिक हूं। ब्रह्मचारी ने उनके कथन का अर्थ जानना चाहा तो वे बोले - एक मामूली हथियार निर्माता भी बाण बना लेता है, नौ चालक जहाज पर नियंत्रण रख लेता है, गृह निर्माता घर भी बना लेता है। केवल ज्ञान से ही कुछ नहीं होने वाला है। असल उपलब्धि है निर्मल मन। अगर मन पवित्र नहीं हुआ, तो सारा ज्ञान व्यर्थ है। अहंकार से मुक्त व्यक्ति ही ईश्वर को पा सकता है। यह सुनकर ब्रह्मचारी को अपनी भूल का अहसास हो गया।
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Old 01-09-2012, 04:40 PM   #123
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

दुनिया को एकजुट करती है तकनीक

आधुनिक तकनीक ने हमें वैश्विक रूप से एकजुट होने की ताकत प्रदान की है। यह पहला अवसर है, जब आम लोगों को दुनिया को बदलने की ताकत मिली है। अब चंद शक्तिशाली लोग मनमाने ढंग से अपने देश की विदेश नीति तय नहीं कर सकते। विदेश नीति तय करते समय उन्हें लोगों की भावनाओं का ध्यान रखना होगा, जो इंटरनेट के जरिए बाकी दुनिया से जुड़े हैं। समय के साथ समस्याओं का स्वरूप बदला है। आज से दो सौ साल पहले की घटना को याद कीजिए, जब ब्रिटेन में गुलामों के व्यापार को लेकर जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन हुए थे। उस आंदोलन को जनता का पूरा समर्थन मिला था, लेकिन ऐसा होने में 24 साल का लंबा वक्त लगा। काश, उस जमाने में उनके पास आज की तरह ही आधुनिक संचार माध्यम होते, लेकिन पिछले एक दशक में बहुत कुछ बदला है। वर्ष 2011 में फिलीपींस में करीब दस लाख लोगों ने वहां की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ मोबाइल पर संदेश भेजकर विरोध किया और सरकार को जाना पड़ा। इसी तरह जिम्बाव्वे में चुनाव के दौरान वहां की सत्ता के लिए धांधली करना मुश्किल हो गया, क्योंकि जनता के हाथ में मोबाइल फोन था, जिसकी मदद से वे मतदान केन्द्रों की तस्वीरें लेकर कहीं भी भेज सकते थे। म्यामांर के लोगों ने ब्लॉगों के जरिये दुनिया को अपने देश के हालात से अवगत कराया। तमाम कोशिशों के बावजूद वहां की सत्ता उस आवाज को नहीं दबा पाई, जो आंग सान सू की ने उठाई थी अर्थात यह कहा जा सकता है कि आधुनिक तकनीक ने इतनी विशाल दुनिया को भी इतना छोटा कर दिया है कि कोई दूरी अब दूरी लगती ही नहीं है। चंद पलों में एक संदेश एक जगह से दूसरी जगह चला जाता है। हालांकि इसका गलत इस्तेमाल होने की संभावना भी है, जैसे भारत में इसी सप्ताह अफवाह फैलाने में इसी आधुनिक तकनीक का बड़ा हाथ रहा। यह तो मानव पर निर्भर है कि वह अच्छी चीज का उपयोग किस संदर्भ में करता है।
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Old 01-09-2012, 04:42 PM   #124
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

मां का पुरुषार्थ मंत्र

रायगढ़ के राजा धीरज अपना राज भली-भांति चला रहे थे। प्रजा भी उनके शासन से खुश थी। अच्छे शासन के कारण उनकी प्रसिद्धि के चलते राजा धीरज के अनेक शत्रु भी हो गए। एक रात उन शत्रुओं ने गहरी साजिश रच कर राजदरबार के पहरेदारों को अपनी ओर मिला लिया और महल में जाकर राजा को दवा सुंघा कर बेहोश कर दिया। उसके बाद उन्होंने राजा के हाथ-पांव बांधकर एक गुफा में ले जाकर बंद कर दिया। राजा को होश आया, तो वह अपनी दशा देखकर घबरा उठा। तभी उसे अपनी मां का बताया हुए एक मंत्र - ‘कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर’ याद आ गया। राजा की निराशा दूर हो गई और उसने शक्ति लगाकर हाथ-पैरों का बंधन तोड़ डाला। तभी अंधेरे में उसका पैर सांप पर पड़ गया, जिसने उसे काट लिया। राजा घबराया, किंतु फिर तत्काल ही उसे वही मंत्र - ‘कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर’ याद आ गया। उसने तत्काल कमर से कटार निकाल कर सांप के काटे स्थान को चीर दिया। खून की धारा बहने से वह फिर घबरा उठा, लेकिन फिर उसी मंत्र की प्रेरणा पाकर कपड़ा फाड़कर घाव पर पट्टी बांध ली, जिससे रक्त बहना बंद हो गया। इतनी बाधाएं पार कर लेने के बाद उसे उस अंधेरी गुफा से निकलने की चिंता होने लगी। साथ ही भूख-प्यास भी व्याकुल कर रही थी। निकलने का कोई उपाय न देख वह सोचने लगा कि अब तो यहीं भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर मरना होगा। वह उदास होकर बैठा ही था कि फिर उसे मां का बताया हुआ मंत्र याद आ गया और वह द्वार के पास आकर गुफा के मुंह पर लगे पत्थर को धक्का देने लगा। लगातार जोर लगाने पर अंत में पत्थर लुढ़क गया और राजा गुफा से निकल कर अपने महल में वापस आ गया। जिस समय उसकी मां ने उसे वह मंत्र दिया था, उस समय उसे वह बड़ा अजीब और बेकार लगा था, लेकिन उसी ने उसकी जान बचाई। वह समझ गया कि कभी भी निराश होकर बैठने के बजाय अपने पुरुषार्थ से संकट का हल निकालना चाहिए।
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Old 03-09-2012, 04:37 AM   #125
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

हर तर्क को गौर से सुनें

जीवन आसान नहीं है। मुश्किलें भी आएंगी। कई बार यह तय करना मुश्किल होता है कि आप सही हैं या नहीं। संदेह होता है कि कहीं आपका फैसला गलत न हो जाए। आपकी दूसरी बड़ी जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करना है कि आप जो कर रहे हैं, वह सही है या नहीं। जब कोई फैसला करें, तो उन लोगों से जरूर बात करें, जो आपसे असहमत हैं। जो आपकी हां में हां मिलाते हैं, सिर्फ उनकी सुनने से बात नहीं बनेगी। आप उनके भी तर्क सुनें, जो आपके फैसले से सहमत नहीं हैं। इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट और निष्पक्ष रवैया होना चाहिए। अगर लगे कि सामने वाला शख्स सही बोल रहा है, तो उसकी जरूर सुनें। लचीला रुख आपको सही फैसला लेने में मदद करता है। यह कभी न भूलें कि आपकी शिक्षा और आपकी तरक्की में आपके माता-पिता, परिवार और दोस्तों का सहयोग भी शामिल है। उन्होंने किसी न किसी रूप में आपकी मदद जरूर की है। यह बात आपको समझनी होगी। आप इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। करियर में जब आप कोई बड़ा लक्ष्य हासिल करते हैं, तो यकीनन उसमें आपकी टीम, आपके सहकर्मियों का योगदान शामिल होता है। आपके साथ ही वे भी बधाई के पात्र हैं। सफलता मिलने पर टीम को श्रेय देना न भूलें। यकीन मानिए, जब दूसरों को श्रेय देते हैं, तो वे इससे प्रोत्साहित होते हैं। यह प्रोत्साहन बहुत जरूरी है भविष्य में आगे और बड़े लक्ष्य हासिल करने के लिए। आपको दूसरों के योगदान और उनकी अहमियत को महत्व देना चाहिए। यह नजरिया आपको नई ऊंचाइयों तक ले जाएगा। उन लोगों का पूरा ध्यान रखें, जिन्होंने हालात बदलने के लिए कड़ी मेहनत की, क्योंकि उनके मन में भविष्य को लेकर सकारात्मक नजरिया था। तमाम दिक्कतों के बावजूद उन्होंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा। उन्होंने आपके साथ कदम से कदम मिला कर काम किया। इसलिए बहुत जरूरी है कि आप ऐसे लोगों को ज्यादा से ज्यादा प्रोत्साहित करें।
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Old 03-09-2012, 04:40 AM   #126
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

ईश्वर खोलता है दरवाजा

हेलेन केलर जब केवल डेढ़ साल की थीं, तभी वह तेज बुखार से पीड़ित हो गईं। इससे उनके देखने, सुनने और बोलने की शक्ति चली गई। घर के सभी सदस्य उनकी बदकिस्मती पर आंसू बहाने लगे। जब वह कुछ बड़ी हुईं, तो उनकी मां ने उन्हें अनेक चिकित्सकों को दिखाया, लेकिन कहीं पर भी उनका इलाज नहीं हो पाया। तभी उन्हें एक कुशल अध्यापिका एनी सुलिवान मिलीं। एनी सुलिवान स्वयं कुछ सालों तक दृष्टिहीन रह चुकी थीं। डॉ. एनेग्नास ने उनकी आंखों के नौ आपरेशन कर उन्हें आंखों की रोशनी प्रदान की थी। उसके बाद एनी सुलिवान नेत्रहीन बच्चों को पढ़ाने लगी थीं। सुलिवान हेलेन को उनके माता-पिता से कुछ समय के लिए दूर ले गईं और वहां पर उन्होंने हेलेन को समझाया कि जीवन में मनुष्य जो पाना चाहता है, उसके लिए उसे सही तरीके से परिश्रम करना पड़ता है। कुछ दिनों के बाद हेलेन में सीखने की ललक के साथ-साथ काम करने का उत्साह भी पैदा होता गया और सुलिवान के अथक प्रयासों से हेलेन अंग्रेजी, लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच और जर्मन भाषाओं की जानकार बन गईं। इसके बाद हेलेन में लिखने की लालसा जागी और उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। आज उनकी विश्वप्रसिद्ध कृतियां, 'मेरा धर्म' और 'मेरी जीवन कहानी' अनेक भटके हुए लोगों को राह दिखाती हैं। उन्होंने ब्रेल लिपि में अनेक ग्रंथ लिखे और कई प्रसिद्ध कृतियों को ब्रेल लिपि में प्रकाशित करवाया। वह पूरे विश्व के सामने एक अद्भुत एवं महान महिला बनकर उभरीं, जिन्होंने अपनी किस्मत पर आंसू बहाने के बजाय मेहनत और लगन से अपने जीवन को संवारा। उनका कहना था कि ईश्वर एक दरवाजा बंद करता है, तो दूसरा खोल देता है, पर हम उस बंद दरवाजे की ओर टकटकी लगाए बैठे रहते हैं। दूसरे खुले दरवाजे की ओर हमारी दृष्टि ही नहीं जाती। हेलेन की उपलब्धियों ने यह सिद्ध कर दिया था कि शारीरिक अपंगता व्यक्ति के विकास में बाधक नहीं होती। वह उससे पार पा सकता है।
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Old 15-09-2012, 08:28 PM   #127
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पहले खुद में बदलाव लाएं

हममें से ज्यादातर लोग व्यवस्था को बदलने का आग्रह करते हैं। ऐसे लोगों को अपने जीवन में कभी समाधान प्राप्त नहीं हो सकता। समाधान पाने के लिए खुद में बदलाव लाना जरूरी है। आज पहले की अपेक्षा सुविधावाद अधिक बढ़ गया है। पुराने जमाने में जो साधन-सामग्री सिर्फ राजाओं-महाराजाओं के लिए हुआ करती थी वह आज साधारण जन के लिए भी आसानी से उपलब्ध है। फिर भी हर व्यक्ति तनावग्रस्त है। उसके सामने विविध प्रकार की समस्याएं हैं। आज कठिनाइयों के रूप बदल गए हैं। लेकिन जीवन के साथ उनका अटूट सम्बंध है। जहां जीवन है वहां समस्याएं और कठिनाइयां भी हैं। जो परिस्थितिवादी होता है वह स्वयं के सुधार और बदलाव पर ध्यान नहीं दे कर सिर्फ परिस्थितियों को ही दोष देता है। मसलन,एक भोली महिला ने एक दिन दर्पण में अपना चेहरा देखा। वह बहुत क्रोधित हुई। उसने उस दर्पण को बाहर फेंक दिया। उसने तीन-चार बार ऐसा किया। पास ही एक और महिला खड़ी थी। उसने कहा, यदि आपके पास दर्पण अधिक हों तो मुझे दे दो। पहली महिला ने कहा इन्हें लेकर क्या करोगी? इनमें खराब प्रतिबिंब दिखता है। यह सुनकर दूसरी महिला ने पहली महिला की ओर देखा। फिर बोली, बहन! एक बार मेरा कहना मान कर आप अपने चेहरे की सफाई कर लो। पहली महिला भोली थी पर जिद्दी नहीं थी। उसने उसके सुझाव के अनुसार पानी से अपना चेहरा अच्छी तरह से धोया। फिर जब दर्पण देखा तो प्रसन्न हो गई। बोली, यह दर्पण अच्छा है। इसमें चेहरा साफ दिखता है। इसे मैं अपने पास रखूंगी। तब उस समझदार महिला ने कहा, दर्पण पर दोष लगाना ठीक नहीं है। पहले आपके चेहरे पर धब्बे लगे थे। चेहरे की सफाई करने से आपका प्रतिबिंब सुंदर दिखाई देने लगा। याने मनुष्य खुद के भीतर देख ले और समस्या को समझ जाए तो जीवन में कोई कठिनाई ही नहीं रहेगी लेकिन आज हम इस विचारधारा से दूर होकर केवल व्यवस्था से नाराज हो जाते हैं जो उचित नहीं है।
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Old 15-09-2012, 08:29 PM   #128
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जिन्दगी का कड़वा सच

एक शहर में भिखारी था। भीख मांगते-मांगते उसने न जाने कितने वर्ष गुजार दिए यह कोई भी नहीं जानता था। दरअसल उस शहर में उसका कोई अपना सगा-सम्बंधी या रिश्तेदार नही रहता था, इसलिए वह मजबूरी में सड़क किनारे बैठा या पड़ा रहता था और आते जाते लोगों से भीख मांगता रहता था। बढ़ती उम्र के कारण वह न ठीक से कोई चीज खा पाता था और न पी पाता था। इस वजह से उसका बूढ़ा शरीर धीरे -धीरे सूखकर कांटा हो गया था। उसके शरीर की एक-एक आसानी से हड्डी गिनी जा सकती थी। उसकी आंखों की ज्योति भी काफी धुंधली हो गई थी। शारीरिक दर्बलता के चलते उसे कोढ़ हो गया था। ऐसे में रास्ते के एक ओर बैठकर गिड़गिड़ाते हुए भीख मांगा करता था। एक युवक उस रास्ते से रोज निकलता था और उसकी नजर रोज ही उस भिखारी पर पड़ती थी । भिखारी को देखकर उसे बड़ा बुरा लगता और उसका मन बहुत ही दुखी हो जाता था। वह सोचता था कि आखिर यह आदमी क्यों भीख मांगता है? आखिर उसे जीने से उसे मोह क्यों है? भगवान उसे उठा क्यों नहीं लेते? एक दिन उससे न रहा गया। वह भिखारी के पास पहुंच गया और बोला-बाबा,तुम्हारी ऐसी हालत हो गई है फिर भी तुम जीना चाहते हो? तुम भीख मांगते हो पर ईश्वर से यह प्रार्थना क्यों नहीं करते कि वह तुम्हें अपने पास बुला ले? भिखारी ने युवक को देखा और बोला -भैया तुम जो कह रहे हो वही बात मेरे मन में भी उठती है। मैं भगवान से बराबर प्रार्थना करता हूं पर क्या करूं वह मेरी सुनता ही नहीं। शायद वह चाहता है कि मैं इस धरती पर रहूं जिससे दुनिया के अन्य लोग मुझे देखें और समझें कि एक दिन मैं भी उनकी ही तरह था, लेकिन वह दिन भी आ सकता है, जबकि वे मेरी तरह हो सकते हैं। इसलिए किसी को घमंड नहीं करना चाहिए। लड़का भिखारी की ओर देखता रह गया। उसने जो कहा था, उसमें कितनी बड़ी सच्चाई समाई हुई थी। यह जिंदगी का एक कड़वा सच था, जिसे मानने वाले प्रभु की सीख भी मानते हैं।
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हीनता की ग्रंथि को तोड़ना ही होगा

जब तक मनुष्य अपने जीवन में आत्मविश्वास की ज्योति नहीं जलाता, तब तक उसकी शक्तियां मूर्च्छित और सुप्त ही रहती हैं। आत्मविश्वास के अभाव में वह अपनी पहचान करने में असमर्थ होता है। कहा जाता है कि ज्ञान का सागर विशाल है, पर जब तक मनुष्य अपने स्वरूप को नहीं पहचानेगा और आत्मविश्वास पैदा नहीं करेगा, ज्ञान के सभी पक्ष अधूरे हैं। उसके अभाव में मनुष्य सम्राट होकर भी स्वयं को भिखारी के समान समझता है या इसका उलटा भी हो सकता है। आइंस्टीन आरंभ में अन्य विद्यार्थियों की तुलना में मंदबुद्धि समझे जाते थे। वे अपने शिक्षकों के सवालों के ठीक - ठीक उत्तर नहीं दे पाते थे। इसके लिए उनके सहपाठी उनकी पीठ पर मूर्ख और बुद्धू जैसे उपहासास्पद शब्द लिख देते थे, पर आइंस्टीन कभी हीनता की भावना का शिकार नहीं हुए। बाद में वे महान वैज्ञानिक के रूप में सारे विश्व में प्रसिद्ध हुए। व्यक्ति और परिस्थिति का गहरा सम्बंध है। जिसे जीवन में अनुकूल स्थितियां प्राप्त होती हैं, वह बड़ी सहजता से विकास कर सकता है। प्रतिकूल परिवेश में सफलता पाना किसी के लिए भी कठिन होता है, लेकिन असंभव हरगिज़ नहीं होता। ऐसी स्थिति में जीवन का संघर्ष बढ़ जाता है, लेकिन विपरीत परिस्थिति में भी दीनता से मुक्ति पाना जरूरी है। दीनता और हीनता की ग्रंथि कारागार के बंधन के समान है। उसे तोड़े बिना विकास का कोई भी सपना साकार नहीं हो सकता। जिस प्रकार अभिमान करना पाप है, उसी प्रकार स्वयं को दीन - हीन समझना भी पाप है। इससे सहज विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। हम अपने मनोबल से धीरे - धीरे परिस्थितियों को बदल सकते हैं। एक बार एक सिंह शावक परिवार से बिछुड़ गया और सियारों के समूह में मिल गया। वह खुद को उन्हीं का बच्चा समझने लगा। एक दिन जंगल में उसे किसी सिंह के दहाड़ने की आवाज सुनाई दी। इससे उसका सोया हुआ सिंहत्व जाग गया। उसने भी जोर से दहाड़ मारी। सारे सियार भाग खड़े हुए अर्थात मनोबल और आत्मविश्वास सब कुछ बदल सकता है।
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अंतरात्मा की आवाज

विश्वविख्यात वैज्ञानिक सीवी रमन रंगून में ब्रिटिश सरकार की नौकरी में थे। वह लेखपाल के पद पर काम कर रहे थे। रमन बहुत ही स्वाभिमानी थे। उनमें देशभक्ति की भावना भी कूट-कूट कर भरी हुई थी। यदि उनका अंग्रेज अधिकारी कोई भी ऐसा आदेश देता, जो उनकी दृष्टि में अथवा सामान्य रूप से अनुचित होता था, तो वह नि:संकोच उसे मानने से इंकार कर देते थे और उसके नुकसान की परवाह भी नहीं करते थे। उन्होंने तय कर रखा था कि जीवन में वह एक सीमा से ज्यादा समझौता किसी भी हालत में नहीं करेंगे। एक दिन एक अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें अपने कमरे में बुलाया और कहा - एक बौद्ध नागरिक की भूमि को एक अंग्रेज के नाम करना है। तुम इसके लिए आवश्यक दस्तावेज बनवा दो और जल्दी से उन्हें मेरे सामने लेकर आओ। यह सुनकर रमन घबराए नहीं और निर्भीकता से बोले - सर, मैं भगवान श्रीकृष्ण तथा उनकी गीता का उपासक हूं। किसी की खून पसीने से अर्जित की गई कमाई अथवा उसकी जायज जमीन को धोखाधड़ी से मैं किसी दूसरे के नाम करके अधर्म नहीं करना चाहता। मेरी नजर में यह पाप है। मैं किसी भी हालत में ऐसा नहीं कर सकूंगा। अच्छा है कि आप भी इस पापकर्म को न करें। यह अधर्म है। यह सुनकर अंग्रेज अधिकारी को बेहद गुस्सा आ गया और वह तमतमाकर बोला - नौकरी के अंतर्गत अधिकारी की आज्ञा मानना तुम्हारा धर्म है। इस पर रमन बोले - सर, यदि अधिकारी कोई गलत कार्य अथवा पाप कर्म करने को कहे तो उसकी अवहेलना करना भी मेरा धर्म है। मैं अपना धर्म निभा रहा हूं। रमन की बात पर अधिकारी ने कहा - यदि तुम्हें नौकरी करनी है, तो जो मैं कहूंगा, तुम्हें वही करना पड़ेगा। तुम्हें मेरी बात माननी होगी। रमन ने आत्म विश्वास से कहा - मैं तुम्हारी बात नहीं अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनूंगा और ईमानदारी का साथ दूंगा। इसके बाद उन्होंने तत्काल अपना त्यागपत्र अंग्रेज अधिकारी को सौंप दिया। अंग्रेज अधिकारी एक सच्चे भारतीय की निष्पक्षता और सत्य के प्रति निष्ठा देखकर दंग रह गया।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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