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Old 20-11-2010, 10:57 AM   #1
malethia
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Default हास्य कहानियाँ

चूहे और सरकार


दोपहर तक यह बात एक समस्या के रूप में सचिवालय के सारे कॉरीडोरों में घूमने लगी कि दफ्तर में चूहे काफी हो गए हैं, क्या किया जाए ?
‘‘मेरी तो आधी रैक ही खा डाली।’’

‘‘अरे तुम्हारी फाइलें तो चलो बाहर थीं। बेचारे दावत का माल समझकर कुतर गए होंगे। मेरी तो आलमारी में बंद थी। लोहे की आलमारी में...गोदरेज, समझे !’’

‘‘अच्छा ! कमाल हो गया। गोदरेज की अलमारी में से खा गए !’’ आश्चर्य ने गुप्ताजी का चश्मा हटवा दिया।
‘‘ये बात मेरी समझ से भी बाहर है कि आखिर उसमें घुसे कैसे ? सूत भर भी तो रास्ता नहीं है उसमें जाने का।’’
‘‘अजी घुसने की जरूरत ही क्या है, अंदर ही घर होगा उनका। घुसे तो आप हैं उनके घर में।’’ किसी ने वर्माजी को छेड़ा।

‘‘लकड़ी का तो सुना है, चूहे काट सकते हैं, पर लोहा ! स्टील ! मान गए भाई, चूहों को भी। आजादी के जितने पुराने दस्तावेज थे, सबका चूरन बना दिया दुष्टों ने।’’
‘‘सर ! जिधर मैं बैठती हूँ, वहां भी बहुत हैं। इसीलिए तो मैं अपने पास कोई फाइल नहीं रखती।’’

‘‘और इसलिए, मैं आपसे फिर कह रहा हूं कि आप अपनी सीट मेरे कमरे में ही लगवा लें। दिल में जगह होनी चाहिए...मुझे तो कोई तकलीफ नहीं होगी।’’

तो फिर क्या करना चाहिए ?
‘‘सर ! हमें तुरंत प्रशासन को इत्तिला करनी चाहिए। ये उनका काम है–ड्यूटी लिस्ट के अनुसार।’’
‘‘और क्या ? आखिर प्रशासन करता क्या है जो उनसे चूहे भी नहीं मारे जाते।’’

‘‘अजी क्या पता इन्होंने खुद चूहे मंगवाकर छोड़ दिए हों। ऑडिट वालों को कह तो भी देंगे कि सारे रिकार्ड चूहे खा गए, अब कहां से लाएं ?’’
‘‘मामला गंभीर है सर ! हमें तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए।’’ बड़े बाबू ने सबको जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाया।

‘‘हां सर ! इससे गंभीर बात क्या हो सकती है ! जिन रिकार्डों को द्वितीय विश्व-युद्घ में जापान नहीं छीन पाया उसे आजाद भारत के ये चूहे इतने मजे-मजे में हजम कर गए और कानों-कान पता भी नहीं चला !’’
‘‘सर, आपको कब पता चला ?’’

‘‘आज ही, मैंने तो ये आलमारी दो साल से खोली ही नहीं थी। आज जरा ये डायरी रखने के लिए जैसे ही ये अलमारी खोली तो ये माजरा...’’
‘‘अच्छा हुआ सर ! वरना ये नई डायरियां भी खा जाते।’’

‘‘नहीं, वो मैं कभी नहीं करता। नई डायरियां तो मैं सीधे घर ही ले जाता हूं।’’
‘‘सर ठीक कहते हैं, चूहों की जाति का क्या भरोसा। इनके लिए नई-पुरानी, गोरी-काली सब बराबर हैं।’’
तो फिर क्या किया जाए ? प्रश्न गंभीर से भी बड़ा होता जा रहा था।

‘‘सर, मैं एक डिटेल नोट तैयार करता हूं। चूहे कब आए ? ये बिल्डिंग कब बनी ? शुरू में कितने थे और आज कितने ? हर पंचवर्षीय योजना में उनका प्रतिशत कितना बढ़ा है ? किस कमरे में सबसे ज्यादा हैं और किसमें सबसे कम ? कितनी जातियां हैं इनकी, और हर जाति कितनी उम्र तक जिंदा रहती है। इन्होंने प्रतिवर्ष कितनी फाइलें कुतरी हैं और किस विभाग की सबसे ज्यादा ? आसपास के किन-किन मंत्रालयों में उनका आना-जाना है।’’

‘‘सर, आप मानें या न मानें, इसमें विदेशी हाथ भी हो सकता है। जब जम्मू, पंजाब और आसाम में गुपचुप आतंकवादी उतारे जा सकते हैं तो ये तो चूहे हैं। सोचा होगा, हम दुश्मनों को बरबाद करेंगे और चूहे उनके रिकार्डों को। हमारी तो सारी मेहनत पर ही पानी फिर गया।’’

‘‘कब तक तैयार हो जाएगा ये नोट ?’’
‘‘सर ! ज़्यादा टाइम नहीं लगेगा। अभी तो मैं मच्छरों वाली रिपोर्ट बना रहा हूं। आप हुक्म दें तो मैं उसे बीच में छोड़कर पहले इसे शुरू कर दूं।’’

‘‘सर ! मच्छरों वाली रिपोर्ट तो बरसात के बाद भी बन सकती है। और फिर मच्छर-मलेरिया तो आजादी से भी पहले से चल रहा है। महीने-दो-महीने में ही क्या बिगड़ जाएगा। कहिए तो सर, मैं अभी टूर प्रोग्राम बनाकर लाता हूं। पटना, लखनऊ, भोपाल, कलकत्ता के सचिवालयों की स्थिति पर भी हमारी रिपोर्ट में कुछ होना चाहिए, आखिर हम केंद्र सरकार के नुमाइंदे हैं।’’

‘‘सर, मेरा मानना है कि इसमें रूस का अनुभव बहुत महत्त्वपूर्ण हो सकता है। जारशाही के समय कहते हैं कि ऐसे-ऐसे चूहे हो गए थे जो आदमियों पर भी हमला करने लगे थे।’’

‘‘अरे ! ये तो बहुत खतरनाक बात है। यहां किसी पर हमला हो गया तो डिपार्टमेंटल एक्सन हो जाएगा।’’ मातहतों की गंभीरता से सर घबराए जा रहे थे।
‘‘सर ! हमें तो अपनी सीट पर बैठने में भी डर लगता है। कम से कम कैंटीन में चूहे तो नहीं हैं।’’ स्टेनो बोली।

बूढ़ा गरीबदास एक कोने में अपने काम में व्यस्त था। इतनी लंबी-लंबी बहसें तो उसने अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं सुनी थी और वह भी चूहों पर। आखिर जैसे ही उसके कान इस चक-चक से पकने को हुए, उसने सुझाव देना ही उचित समझा। ‘‘रुपये दो रुपये की दवा आएगी। आटे की गोलियों में मिलाकर रख देते हैं, चूहे खत्म। घर पर भी तो हम यही करते हैं।’’

‘‘गरीबदास, ये तुम्हारा घर नहीं है, सरकारी दफ्तर है। परमिशन ले ली है दवा लाने की ? जहर होता है जहर–असली। उठाकर किसी बाबू ने खा ली तो ? बंधे-बंधे फिरोगे। नौकरी तो जाएगी ही, पेंशन भी बंद हो जाएगी प्यारे !’’

गरीबदास सिकुड़कर पीछे बैठ गया।
‘‘ये तो वही रहेगा जिसे कहते हैं...’’
‘‘सर, मैं एक बात और कहना चाहता था ?’’

‘‘कहो मिस्टर गुप्ता ! जल्दी कहो। मेरे पास इतना वक्त नहीं है कि उसे बेकार की बहस में गवाऊं। मुझे तीन बजे एक सेमिनार में जाना है।’’

गुप्ताजी सर के कानों तक गरदन लंबी करके फुसफुसाने लगे, ‘‘सर मिस्टर सिंह को अमेरिका भिजवा दो। यह इस बीच वहां की रिपोर्ट ले जाएगा। एक तो हमें कम्युनिस्ट देश के साथ-साथ कैपिटलिस्ट देश की जानकारी भी होनी चाहिए, वरना वित्त मंत्रालय हमारे प्लान को स्वीकृत नहीं करेगा और दूसरे सिंह साहिबान भी चुप बने रहेंगे, वरना कहेंगे अपने अपनों को (सवर्णों) तो विदेश भेज दिया और हमें यहां चूहों से कटवाने के लिए छोड़ दिया। सामाजिक न्याय का भी तो ध्यान रखना है।

मिस्टर गुप्ता की गरदन जब लौटकर पीछे हुई तो सर उसे गर्वित नजरों से देख रहे थे।
‘‘तो ठीक है इस टॉप प्रायरटी दी जाए।’’
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Old 20-11-2010, 11:01 AM   #2
malethia
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चूहे और बिल्लियां

चूहे और बिल्ली प्रागैतिहासिक काल से मानव-कौतूहल का विषय रहे हैं। हालांकि हमारी सभ्यता एवं संस्कृति में स्थान तो चूहे एवं बिल्ली दोनों को मिला है, लेकिन चूहों को बिल्लियों से अधिक महत्त्व मिला है। यह एक अजीबोगरीब विरोधाभास है। वैसे आर्थिक दृष्टिकोण से बिल्ली मनुष्य की दोस्त होनी चाहिए थी एवं चूहे दुश्मन ! परंतु सांस्कृतिक हकीकत इसके धुर विपरीत है। पता नहीं, गणेशजी ने चूहे में ऐसी क्या महानता देखी कि पुष्पक विमान जैसी आरामदेह सवारियां त्यागकर चूहे को अपना ऑफिशियल वाहन घोषित कर दिया। कई बार यह शक होता है कि भांग के नशे में उन्हें कोई चूहा हाथी जैसा विशालकाय दिखा होगा और एक बार मुंह से निकलने पर चूहा गणेशजी के पैरों में लिपट गया होगा–‘महाराज मैं जैसा भी हूं, आपके आशीर्वाद से आपका भार भी उठा लूंगा। आप स्वयं मुझे अपना वाहन स्वीकार कर चुके हैं। अब मैं आपके अतिरिक्त किसी को भी अपने ऊपर सवार नहीं होने दूंगा और जन्म-जन्मांतर तक आप ही की सेवा में रहूंगा।’ हो सकता है, चालाक चूहे ने गोबर गणेशजी को धमकी भी दे दी हो कि हे भगवान, यदि आप अपनी बात से हटे तो मैं आत्महत्या कर लूंगा ! और वे दया खा गए हों।

एक कारण और हो सकता है चूहे को वाहन रूप में गणेशजी द्वारा स्वीकार किए जाने के पक्ष में। संभव है कि प्राचीनकाल में, जब गणेशजी का जन्म हुआ था, तब बिल्लियां न रही हों, तथा उनकी उत्पत्ति काफी समय बाद द्वापर या कलियुग में हुई हो। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जहां बिल्लियां नहीं होती, वहां के चूहे बिल्ली से भी ज्यादा तगड़े हो जाते हैं। निश्चय ही सतयुग के चूहे वर्तमान चूहों से काफी हृष्ट-पुष्ट रहे होंगे। दरअसल आसपास बिल्ली की उपस्थिति चूहों को डायटिंग के लिए मजबूर करती है। यदि बिल्ली वाले घर में चूहे बिना डायटिंग किए दिन-रात जमकर खाते रहें, तो वह अपने मोटापे के कारण तेज भागने में सफल नहीं होंगे। यही कारण है कि बिल्लियों के डर से चूहे भी वैसे ही भयभीत रहते हैं, जैसे मोटापे से डरने वाली सुंदर, छरहरी महिलाएं ! बिल्लियों के रहते चूहों को डर-डरकर जीना पड़ता है; इसीलिए दुबले-पतले घरेलू चूहों को देखकर अनायास ही यह शक होना स्वाभाविक है कि चूहे गणेशजी का वजन कैसे उठाते होंगे ?

खैर, यह चूहे जानें और गणेशजी कि वे कैसे आपस में सामंजस्य बिठाते हैं। यह दोनों के बीच का पर्सनल मामला है। बहरहाल हमें तो यही लगता है कि पौराणिक काल में चूहे लगभग हाथी के साइज के ही होते होंगे, तभी विशालकाय गणेशजी उनकी सवारी कर पाते होंगे। यूं थोड़े उन्नीस-बीस जोड़े तो बहुत से पति-पत्नियों के भी होते हैं। हमारे पड़ोसी शर्माजी तो चूहों से भी हल्के कॉकरोची काया के हैं, फिर भी बेचारे तीस-पैंतीस साल से गजगामिनी मिसेज शर्मा को ढो रहे हैं, हालांकि उनके पास एक अदद खटारा स्कूटर है।

मेरे एक अनन्य मित्र हैं। वह प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य वेद, उपनिषद् और पुराण आदि के मुझसे कई गुणा बड़े जानकार हैं। उनके मतानुसार, गणेशजी यूं ही तैंतीस करोड़ देवताओं में सबसे बुद्धिमान नहीं मान लिए गए। वे समस्त कार्यों में अपनी विलक्षण बुद्धिमत्ता का परिचय देते थे। उनका मानना है कि गणेशजी ने सब जांच-परखकर ही चूहे को अपना वाहन चुना है। एक तो चूहे हर गांव, शहर, प्रदेश, देश एवं समस्त ब्रह्मांड में मिलते हैं। अतः जहां भी जाओ, वहां सवारी का इतंजार नहीं करना पड़ता। दुनिया-भर के एयरपोर्ट व रेलवे स्टेशनों से लेकर जंगल एवं खेतों तक में एक आवाज पर हजारों चूहें दौड़कर आ जाते हैं। संसार में इतनी सर्वसुलभ उपलब्धता शायद ही किसी अन्य वाहन की होगी। इसके अतिरिक्त चूहे के रख-रखाव का खर्च भी नगण्य है। हाथी जैसा भारी-भरकम वाहन बांधने पर किसी भी रईस का साल दो साल में दीवाला निकल सकता है। इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े शहंशाह भी हाथियों की फौज बांधकर कंगाली के कगार पर पहुंच गए थे। यह भी प्रामाणिक पौराणिक सत्य है कि इंद्र की आय का एक बड़ा हिस्सा अकेले ‘ऐरावत’ की मेंटेनेंस पर खर्च होता है। संभवतः यही सब देखकर फक्कड़ गणेशजी ने सोच-समझकर चूहे का चुनाव किया होगा, ताकि जहां जाओ, रात होते ही अपने प्रिय वाहन को किसी के भी खेत, गोदाम या घर में छोड़ दो। वहीं घुसकर कागज, कपड़ा रोटी, चावल जो भी मिले, वही खा-पीकर पल जाता है चूहा। न चारे की व्यवस्था करने की जरूरत और न खली-सानी की मशक्कत। महाबदमाश चूहों के इन्हीं सद्गुणों पर गणेशजी मुग्ध हुए होंगे।

चूहों की तुलना में बिल्लियां उतनी भाग्यशाली कभी नहीं रहीं। चूहे प्लेग की महामारी फैलाते हैं, यह सर्वविदित वैज्ञानिक सत्य है, फिर भी उनकी किस्मत देखिए कि वे न केवल गणेशजी की सवारी हैं, बल्कि बीकानेर (राजस्थान) स्थित करणी माता के मंदिर में बड़े श्रद्धाभाव से पूजा भी की जाती है चूहों की। यह सब मौज-मस्ती केवल गणेशजी की बदौलत ही है। उन्हें गणेशजी का आशीर्वाद न होता तो आज चूहों का हमारे यहां भी वियतनाम और चीन जैसा हश्र होता, जहां चूहा दिखते ही उसे मारकर स्वादिष्ट सूप बनाकर पी जाते हैं, और चूहा मारने पर वहां तो प्रति मृत चूहा इनाम तक की व्यवस्था है।

अपने यहां की बिल्लियां किस्मत की कतई धनी नहीं हैं। विदेशों में फिर भी बिल्लियों को अच्छी नजर से देखा जाता है, मगर अपने यहां बिल्लियों को वैसा सम्मान नहीं मिलता, जैसा अन्य जानवरों एवं पक्षियों को मिलता है। बड़े देवताओं की तो खैर छोड़ो, किसी लोकल अथवा छुटभैये देवता ऩे भी बिल्ली को अपना वाहन नहीं बनाया। यह बिल्ली का दुर्भाग्य ही है कि असंख्य गुणों की खान होते हुए भी उस पर कभी किसी देवता की कृपादृष्टि नहीं पड़ी। बिल्ली की जाति का ही शेर–जो रिश्ते में बिल्ली का भानजा है (बिल्ली शेर की मौसी है, ऐसा हमारी कई किताबों में लिखा है)–मां दुर्गा की सवारी है। मगर बिल्ली, जिसमें शेर से कहीं अधिक स्फूर्ति, बचाव के बेहतरीन तरीके एवं अन्य कई महान गुण विद्यमान हैं, जानवर-जगत की ‘मिस यूनिवर्स’ होकर भी अपने ऊपर किसी देवी-देवता को मोहित नहीं कर सकी। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि बिल्लियां स्वाभिमानी होती हैं, चमचागिरी करने के लिए किसी दैव-दरबार में हाजिर नहीं होतीं। वे अपने बूते। जिंदा रहती हैं। उन्हें किसी ‘गॉडफादर’ या ‘गॉडमदर’ की जरूरत नहीं है। इस दृष्टि से देखने पर बिल्लियां मुझे सिर्फ खूबसूरत ही नहीं, अपितु पूजनीय लगती हैं।
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Old 20-11-2010, 11:38 AM   #3
malethia
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एक अदद घोटाला

सदा की भाँति श्रीमती जी ने चाय का कप और अख़बार एक साथ थमाया। फिर, ख़ुद पास आकर बैठ गईं। चाय को मेज़ पर रख, मैंने अखबार को खोला। मुख्यपृष्ठ पर प्रकाशित एक ख़बर को पढ़कर चित्त उदास हो गया। दीर्घ निश्वास छोड़ी मैंने।
पत्नी ने शंकित स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ ? तबीयत तो ठीक है ?’’

मैंने उस सचित्र समाचार की ओर संकेत किया। पत्नी ने ख़बर की तरफ़ ध्यान नहीं देकर उसके साथ छपे चित्र को घूरा और बोली, ‘‘हाय...क्या हैंडसम पर्सनैल्टी है ? कैसा मुस्करा रहा है ? लेकिन इसे देख आप उदास क्यों हुए ?’’
मैं बोला, ‘‘इस आदमी पर अरबों रुपए के घोटाले का आरोप है।’’
‘‘तो क्या हुआ ? वह रुपया आपका तो नहीं है ! अरे, इतने उदास तो आप दंगों और दुर्घटनाओं के समाचारों को पढ़कर भी नहीं होते।’’

‘‘मैंडम ! मीडिया घोटालेबाज़ों को बड़ा उछाल रहा है। शेष समाचार घोटालों की ख़बरों के नीचे हैं। छोटे सो छोटा घोटाला भी ख़ासी सुर्ख़ियों में प्रकाशित होता है। राई का पहाड़ बन जाता है। बस, इसी बात से मेरा मन रोता है। नैतिक समाचारों को नीचा दर्जा और अनैतिक को ऊँचा। सोच रहा हूँ कि एक घोटाला मैं भी कर दूँ।’’
‘‘दैया रे...!’’ पत्नी बोली, ‘‘नौकरीपेशा होकर कैसी बात कर रहे हैं आप ? ऐसा सोचना भी पाप है। आप फँस गए तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा। हाँ, पूछताछ और गिरफ़्तारी जैसी कुछेक प्रक्रियाओं से अवश्य गुज़रना होगा। लेकिन, हमारे क़ानून में बच निकलने की अनेक गलियाँ हैं। तभी तो घोटालेबाज़ों का बाल भी बाँका नहीं हो पाता है। प्रसिद्धि पाने का इससे आसान उपाय कोई और नहीं। एक अदद घोटाला कर दो। फिर मीडिया में सनसनीखेज़ सुर्खियाँ होंगी। हो सकता है कि कोई अखबार संपादकीय भी लिख मारे। कदाचित् कभी प्रतियोगी परीक्षाओं के सामान्य ज्ञान के पर्चे में अपना नाम भी जुड़ जाए। विधानसभा या लोकसभा में हंगामें मच जाएँ। घोटालेबाज़ की पाँचों अंगुलियाँ घी में हुआ करती हैं, मैडम !’’
इससे पहले पत्नी कुछ कहतीं, मित्र ठेपीलाल नमूदार हुए। मैं उमंगपूर्वक बोला, ‘‘आओ भई, आओ; बड़े मौक़े पर तशरीफ़ लाए हो।’’

‘‘आज भाभी से बड़ी घुट-घुटकर बातें हो रही हैं। मैं दो मिनट से खड़ा हूँ और आप लोगों को मेरे आने के आभास तक नहीं है।’’ ठेपीलाल सोफ़े पर पसरते हुए बोले।
मैंने कहा, ‘‘ठेपी भाई, कई दिन से एक कीड़ा मेरे दिमाग़ में कुलबुला रहा है। घोटालों के इस दौर में, क्यों न एक घोटाला मैं भी कर डालूँ ?’’ मैंने अखबार ठेपी की ओर ठेलते हुए कहा, ‘‘यह देखो, इस घोटालेबाज़ की ख़बर कैसी प्रमुखता से प्रकाशित हुई है ?’’

ठेपी ने एक उड़ती निगाह समाचार-पत्र पर डाली और बोले, ‘‘इसके बारे में कल रात इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विस्तार से ख़बर दे चुका है। बहरहाल, पहली दफ़ा तुमने अकलमंदों जैसी बात की है। मैं तो कब से कह रहा था कि नाम कमाना है तो यह लेखन-वेखन का चक्कर छोड़ो और अपनी प्रतिभा को किसी दूसरी दिशा में लगाओ। साहित्य में कैसा भी बड़ा काम कर गुज़रोगे तो दो-चार पंक्तियों का समाचार छपेगा। गिने-चुने लोग उसे पढ़ेंगे। औऱ अगर एक छोटा-सा घोटाला भी कर डालोगे, तो कई दिन तक मीडिया जगत तुम्हारे पीछे हाथ धोकर पड़ जाएगा। और तुम्हारे इतने गीत गाएगा कि देश का बच्चा-बच्चा भी तुम्हें जान जाएगा।’’

‘‘फिर सुझा ही दो, घोटाला करने का आसान-सा कोई उपाय। तरीका ऐसा हो कि साँप भी मरे और लाठी भी नहीं टूटे यानी कि नौकरी भी सही-सलामत रहे।’’
‘‘फ़िक्र मत करो मित्र, मैं एक घोटाला-किंग को जानता हूँ। अनेक बड़े कांड करके भी वह पाक दामन सिद्ध हुआ है। कल उससे तुम्हारी मुलाकात करवा देता हूँ। इस वक़्त मुल्क और मीडिया का मिज़ाज भी घोटालों के अनुकूल है। अतः ईश्वर ने चाहा तो तुम्हें सरलता से सफलता मिल जाएगी।’’
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Old 29-11-2010, 07:34 AM   #4
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अच्छी कहानियाँ हैं सर जी …
कृपया और भी प्रविष्ट करें।
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Old 31-03-2011, 02:56 PM   #5
Bholu
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दोस्तो आओ सूत्र को आगे बढाये
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Old 31-03-2011, 03:02 PM   #6
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Originally Posted by the bholu View Post
दोस्तो आओ सूत्र को आगे बढाये
भोलू जी
आप ही कुछ जान फूंको
इस सूत्र मे
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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Old 31-03-2011, 05:46 PM   #7
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Originally Posted by sikandar View Post
भोलू जी
आप ही कुछ जान फूंको
इस सूत्र मे
बिलकुल सर जल्दी ही एक मजेदार हास्य काहानी प्रस्तुत करूँगा
__________________
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Old 17-09-2011, 06:39 PM   #8
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भोजनभट्ट जब रह गए भूखे


हमारी कंपनी के मैनेजर लुभायाराम राय यों तो बहुत डरपोक और संकोची आदमी थे, मगर खाने के मामले में और खासकर दूसरे की जेब के पैसे खर्च कराकर खाने के मामले में न उन्हें पेट फटने का डर सताता था, न संकोच होता था। इसीलिए हम उन्हें भोजनभट्ट कहते थे।
जब भी हम लंच करने रेस्तराँ में जाते भोजनभट्ट भी हमारे पीछे-पीछे आ पहुँचते और कई चीजों का ऑर्डर देकर हमारे पास बैठ जाते। फिर हमसे पहले सभी चीजें चट करके मुँह साफ करते कहते, ‘‘मैं अभी आ रहा हूँ’’ पर लौटकर कभी न आते। इस तरह उनके भोजन के पैसे भी हमें चुकाने पड़ते।
एक बार जब भोजनभट्ट जी ने हम तीन साथियों को अपने घर भोजन का निमंत्रण दिया तो हमें आश्चर्य हुआ। हम अगली-पिछली सारी कसर पूरी करने का इरादा करके अगले दिन पहुँच गए भोजनभट्ट जी के घर। उनके घर पर कीर्तन हो रहा था। करीब तीन घंटे बाद जब कीर्तन समाप्त हुआ तो भोजनभट्ट ने सबको प्रसाद बाँटा। उसके बाद एक-एक करके सभी लोग चले गए। हम तीनों इस इंतजार में बैठे रहे कि शायद मुहल्ले के लोगों के जाने के बाद भोजनभट्ट जी हमें भोजन कराएँगे। मगर करीब डेढ़ घंटा और बीत जाने का बाद भोजन आता न दीखा, तो हमारे एक साथी ने पूछ ही लिया कि भोजन कब मिलेगा। उसकी बात सुनकर भोजनभट्ट जी बोले, ‘‘भोजन कैसा भोजन ?’’
हमने उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने ही हमें भोजन पर बुलाया था। भोजनभट्ट बजाय शर्मिंदा होने के तुरंत बोले, ‘‘नहीं भाई, तुम लोगों से सुनने में भूल हो गई है। हमने तो आपको भजन-कीर्तन पर बुलाया था। हम बंगाली लोग भजन को भोजन बोलते हैं भाई।’’
फिर थोड़ा ठहरकर वे बोले, ‘‘आज तो मैं आपको भोजन करा भी नहीं सकता, क्योंकि आज हमारे घर कीर्तन हुआ है सो घर में खाना नहीं बनेगा। सब उपवास रखेंगे। हाँ, अगर किसी को ज्यादा ही भूख लगेगी तो वह होटल में जाकर खा आएगा।’’
हमने कहा तो चलिए हमारी खातिर आप ही उपवास तोड़ दीजिए।’’
भोजनभट्ट जी ने यह सलाह तुरंत मान ली। होटल में पहुँचकर लंबा-चौड़ा ऑर्डर दिया। अभी हम लोग आधा पेट भी नहीं भर पाए थे कि वह अपने हिस्से का तमाम भोजन चट करके उठ खड़े हुए और हमेशा की तरह, ‘‘मैं अभी आता हूँ’’ कहते हुए यह जा और वह जा।

कहना न होगा, अपने साथ-साथ हमें उनके भोजन के भी पैसे चुकाने पड़े।

बस उसी समय हम तीनों ने उन्हें सबक सिखाने की ठान ली। अगले दिन हम तीनों भोजनभट्ट जी से अलग-अलग मिले और उन्हें इतवार की दोपहर अपने-अपने घरों में खाने का निमंत्रण दे दिया।
उन्होंने तीनों जगह खाना खाने की सहर्ष स्वीकृति दे दी।
उन्होंने बुधवार से ही अपने घर खाना छोड़ दिया था। इतवार को सुबह-सवेरे वह अपने घर से निकल पड़े। चलने से पहले अपने लड़कों को हिदायत दी, ‘‘देखो, मैं आज रमेश, सुरेश और दिनेश के घर भोजन करने जा रहा हूँ। तुम ठीक पाँच बजे साइकिल लेकर दिनेश के घर पहुँच जाना, क्योंकि ज्यादा खाने के कारण मैं चल नहीं सकूँगा।
भोजनभट्ट जी रमेश के घर पहुँचे।
उसने उन्हें बैठक में बिठाकर एक गिलास ठंडा पानी हाजिर किया।
भोजनभट्ट जी तो चार दिन से भूखे थे सो भूखे पेट में खाली पानी ने जाकर ऊधम मचाना शुरू कर दिया। भीतर रसोईघर से तवे पर कुछ तले जाने की आवाज आ रही थी। उसे सुन-सुनकर भोजनभट्ट प्रसन्न हो रहे थे और इंतजार में थे कि कब वे सब पकवान उनके सामने आयें। पर भीतर कुछ बन रहा होता तब तो आता। भीतर तो रमेश की पत्नी खाली गर्म तवे पर पानी के छीटे मार रही थी। अचानक वह आवाज आनी बंद हो गई। भोजनभट्ट जी सतर्क होकर बैठ गए। तभी रमेश की पत्नी ने आकर सूचना दी, ‘‘खाने का सब सामान कुत्ते ने जूठा कर दिया है। अब मैं बाजार से दूसरी सब्जियाँ वगैरह लेने जाती हूँ।’’
यह सुनकर भोजनभट्ट जी के तो होश ही उड़ गए। उन्हें तुरंत सुरेश की याद आई। वह उसी समय उसके घर चल पड़े।
सारे रास्ते वह रमेश और उसकी पत्नी को कोसते रहे। जैसे ही वह सुरेश की गली में मुड़े वह उनसे टकरा गया। वह बोला, ‘‘सर, मुझे सुबह रमेश ने बताया कि आज आपकी दावत उसके घर में है सो मैंने कार्यक्रम बदल दिया। अब मैं कहीं जा रहा हूँ। आपको भोजन कराने का मौका आज तो मेरे हाथ से निकल गया मगर, कोई बात नहीं, फिर कभी सही।’’ इतना कहकर वह तेजी से बस स्टॉप की तरफ दौड़ गया।

बेचारे भोजनभट्ट जी काफी देर तक भूखा पेट पकड़े सुरेश पर लानत-मलामत भेजते रहे फिर कुछ हिम्मत बटोरकर मेरे घर के लिए चल पड़े। मैं तो उनके इंतजार में बैठा ही था। तपाक से उन्हें घर ले आया। ज्योंही वह आराम से बैठे, मैंने कहा, ‘‘सर, यह तो बुरा हुआ कि आज ही सुरेश और रमेश ने भी आपको निमंत्रित किया। अब मैं आपके पेट के साथ तो ज्यादती कर नहीं सकता इसलिए...’’अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मेरी पत्नी दो कप चाय ले आई। चाय पीकर मैं उन्हें छत पर ले आया ताकि हवा का आनंद लिया जा सके।

छत पर पहुँचते ही भोजनभट्ट जी ने मरी हुई आवाज में कहा, ‘‘नहीं, मैंने उनके यहाँ भोजन नहीं किया। मैंने फैसला किया था कि खाना मैं तुम्हारे ही घर खाऊँगा।’’
तभी मेरी पत्नी छत पर आकर बोली, ‘‘देखिए मैं जरा अपनी माँ के घर तक जा रही हूँ शाम को देर से लौटूँगी।’’ और वह फौरन घर की चाभियाँ मेरे पास रखकर चली गई।
मैं ‘अरे सुनो तो...’’ चिल्लाता रहा पर उसने मुड़कर भी न देखा। इधर मैं भोजनभट्ट जी का हाल देखकर अवाक् रह गया। वह बेहोश होकर छत पर लुढ़क चुके थे।
शाम को उनका लड़का मेरे घर आया और भोजनभट्ट जी को उसी हालत में साइकिल पर लादकर ले गया। वह पूरे रास्ते बड़बड़ाता गया, ‘‘कहा था एक साथ तीन-तीन घरों में दावत मत खाना। पर किसी की सुनें तब न।’’
उसी दिन भोजनभट्ट जी ने मुफ्तखोरी से तौबा कर ली।
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Old 17-09-2011, 06:42 PM   #9
malethia
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निचली मंजिल का घर


हम लोग कई महीनों से मकान बदलने का कार्यक्रम बना रहे थे पर मकान मिल ही नहीं रहा था। तभी खबर मिली कि यमुनापार एक नई कॉलोनी बनी है मयूर विहार, जहाँ आसानी से मकान मिल रहे हैं। एक रोज हम उस कॉलोनी में गए। प्रोपर्टी डीलर से मिले तो उसने हमें कई मकान दिखाए। कुछ चौथी मंजिल पर, कुछ तीसरी, कुछ दूसरी, कुछ पहली और कुछ निचली मंजिल पर।
मकान देखकर आने के बाद हम कई दिनों तक यही सोचते रहे कि हमें कौन-सी मंजिल वाला मकान लेना चाहिए। पापा का कहना था कि चौथी मंजिल का। पर मम्मी ने कहा, ‘‘नहीं, वहाँ तक चढ़ने-उतरने में ही दम खुश्क हो जाएगा। फिर बच्चे गिर पड़े तो चोट अलग लगेगी। ऐसा करते हैं, पहली मंजिल का मकान ले लेते हैं, न ज्यादा चढ़ना पड़ेगा, न बच्चे सड़क पर डोलेंगे।’’ पर हमें यह कतई पसंद नहीं था क्योंकि वहाँ खेलने की जगह ही नहीं थी। सो हमने जिद की कि हम तो सबसे निचली मंजिल में रहेंगे। मम्मी-पापा को हमारी जिद के आगे झुकना पड़ा।
एक सप्ताह की मेहनत के बाद हमने अपना नया घर अच्छी तरह सजा लिया और उसमें जाकर रहने लगे।
अभी वहाँ रहते हमें दो ही दिन हुए थे कि किसी ने हमारा दरवाजा खटखटाया। जैसे ही दरवाजा खोला एक महिला भीतर आईं और मम्मी से बोलीं, ‘‘बहन जी नमस्ते। मैं आपके ऊपर वाले फ्लैट में रहती हूँ हमारी बेबी ने कंघी ऊपर से आपके लॉन में गिरा दी है, जरा उठा दीजिए।’’ मम्मी ने कंघी उठाकर दे दी। उसके बाद कभी उनकी बेबी, तो कभी दूसरी मंजिल वाली की बेबी, तो कभी तीसरी, तो कभी चौथी मंजिल वाली की बेबी कोई न कोई चीज गिरा देती। ऊपर वाली आंटियाँ वहीं से चिल्लाकर मुझे आवाज देतीं और कहतीं, ‘‘भूमिका बेटी, जरा हमारी फलाँ चीज उठाकर तो दे जाना।’’ और मुझे जाना पड़ता।
एक दिन एक साहब आए और बोले, ‘‘क्यों जी, चोपड़ा साहब ऊपर ही रहते हैं ?’’ पापा चूँकि किसी को जानते नहीं थे सो उन्होंने कह दिया, ‘‘पता नहीं।’’ वह साहब चले गए।
थोड़ी देर बाद फिर किसी ने घंटी बजाई। पापा चूँकि उस दिन घर में ही थे, उन्होंने दरवाजा खोला। सोचा कोई मेहमान आया होगा। पर सामने एक भिखारी खड़ा था। उसे दस पैसे देकर किसी तरह टाला और दरवाजा बंद किया। तभी ताड़-ताड़-ताड़ दरवाजा पीटने की आवाज आई। पापा को बहुत गुस्सा आया कि अजीब बदतमीज आदमी है जो घंटी न बजाकर दरवाजा पीट रहा है।

जब दरवाजा खोला तो देखा वहाँ तो कोई नहीं है। हाँ, दरवाजे पर कई अखबार जरूर पड़े थे। पापा हैरान। इतने अखबार ! हम तो केवल दो अखबार मँगवाते हैं। तभी उनकी समझ में आ गया कि जरूर अखबार वाला जल्दी में सबके अखबार हमारे ही दरवाजे पर फेंक गया है।

मेरी फिर परेड हुई। पहली मंजिल से चौथी मंजिल तक के दरवाजे खटखटा कर उन्हें अखबार पहुँचाना पड़ा। अभी मैं नीचे पहुँची ही थी कि फिर किसी ने घंटी बजाई। पापा ने दरवाजा खोला तो सामने एक सज्जन खड़े थे।
वह बोले, ‘‘नमस्ते जी, मैं इत्थे त्वाडे पड़ोस मैं रेंदा हूँ। सानू ये दस्सो इत्थे कच्चा दूध मिल्दा ए ?’’
पापा ने कहा, ‘‘नहीं।’’
‘‘होर जी मेहरी नौकर वगैरा ?’’
पापा ने कहा, ‘‘पता नहीं।’’
वे बोले, ‘‘अजी पता तो त्यानू जरूर होगा, तुसी पुराने वाशिंदे हो। खैर, कोई गल नईं, मैनूं कोई छेती लोड़ नई हैगी, जैदो त्वानूं कोई दिख जाये साडे घर भेज देना। ये कारड रख छोड़ो, इसदे विच साडा नाम होर एडरस छप्पा ए।’’ उनके जाते ही पापा सिर पकड़कर बैठ गए। तभी दरवाजा खुला देख वही सज्जन एक और आदमी के साथ आ गए जो सुबह सवेरे चोपड़ा साहब को पूछते आए थे। वे आते ही बोले, ‘‘नमस्कार जैन साहब, मैं आपका पड़ोसी हूँ, थर्ड फ्लोर पर रहता हूँ। आपसे परिचय नहीं था न, सो आज हमारे मेहमान को बहुत परेशान होना पड़ा। खैर, अब याद रखना जी। मैं चोपड़ा हूँ, थर्ड फ्लोर पर रहता हूँ, कोई आकर पूछे तो बता देना। अच्छा नमस्ते, फिर मिलेंगे।’’
पापा का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वे बेचारे अभी सुबह की चाय तक नहीं पी सके थे। उन्होंने झट से दरवाजा बंद किया और फिर गुमसुम बैठ गए। तभी फिर घंटी बजी।

जैसे ही दरवाजा खोला, एक सज्जन और उनकी पत्नी भीतर आ गए। आते ही बोले, ‘‘माफ करना भाई साहब, हम दूसरी मंजिल वाले सक्सेना साहब से मिलने आए थे, पर वे तो हैं नहीं, उनके बच्चे के लिए यह मिठाई का डिब्बा लाए थे। आप उन्हें दे देना। और कहना वर्मा जी आए थे, अच्छा भाई साहब, चलें पहले ही बहुत देर हो गई है।’’

जैसे ही वे बाहर जाने के लिए उठे, मैं दरवाजा बंद करने के लिए उनके पीछे-पीछे चल दी। मुझे रोकते हुए पापा बोले, ‘‘रहने दे भूमिका। फिर कोई आएगा तो फिर खोलना पड़ेगा।’’
तभी पोस्टमेन आया और बोला, ‘‘क्यों जी, सक्सेना साहब कहाँ गए ?’’
पापा को गुस्सा तो आ ही रहा था, उन्होंने कहा, ‘‘मुझे नहीं मालूम मुझसे कहकर नहीं गए।’’
पोस्टमेन बोला, ‘‘साहब उनका तार है, जब वह आएं तो उन्हें पोस्ट ऑफिस भेज देना।’’ और वह चला गया।
उसके जाते ही पापा बाथरूम चले गए। मैं अपना होमवर्क करने अपनी स्टडी में चली गई और मम्मी रसोई में नाश्ता बनाने लगीं।
अचानक मम्मी के चीखने की आवाज सुनकर मैं और पापा ड्राइंगरूम में आए तो देखा सक्सेना साहब के बच्चे के लिए वर्मा साहब जो मिठाई का डिब्बा दे गए थे उसे इत्मीनान से एक कुत्ता खा रहा था। यह नजारा देखते ही पापा ने अपना सिर पीट लिया और बिना नाश्ता किए ही घर से चले गए।
दो घंटे बाद जब पापा लौटे तो उनके साथ एक ट्रक भी था। आते ही उन्होंने मम्मी से कहा, ‘‘हम तो बाज आए, निचली मंजिल का घर न हुआ सूचना केंद्र हो गया। झटपट सामान लपेटो। मैंने सादतपुर गाँव में इकमंजिल मकान किराए पर ले लिया है, अब हम वहीं रहेंगे।’’
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Old 17-09-2011, 06:43 PM   #10
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