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Old 18-08-2013, 12:57 PM   #1
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Default देवरानी जेठानी की कहानी

देवरानी जेठानी की कहानी
- प. गौरीदत्*त शर्मा

( हिन्*दी का पहला उपन्*यास ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ (1870) है अथवा ‘परीक्षागुरु’ (1882), इस पर विद्वानों में मतभेद है। जहॉं डॉ नगेन्*द्र और डॉ निर्मला जैन सरीखे विद्वानों ने लाला श्रीनिवासदास के ‘परीक्षागुरु’ को हिन्*दी का पहला मौलिक उपन्*यास माना है, वहीं डॉ गोपाल राय व डॉ पुष्*पपाल सिंह आदि ने पं गौरीदत्*त रचित ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ को हिन्*दी का पहला उपन्*यास होने का गौरव प्रदान किया है।
हिन्*दी उपन्*यास कोश (1870 – 1980) के कोशकारों संतोष गोयल, उषा कस्*तूरिया और उमेश माथुर ने भी ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ को हिन्*दी का पहला उपन्*यास मानते हुए अपने कोश की शुरुआत ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ के प्रकाशन वर्ष सन् 1870 ई से ही की है।
हम हिन्*दी समय डॉट कॉम पर लाला श्रीनिवासदास लिखित ‘परीक्षागुरु’ भी शीघ्र ही प्रस्*तुत करेंगे, जिसका उल्*लेख आचार्य रामचन्*द्र शुक्*ल ने अपने महत्*वपूर्ण ग्रंथ ‘हिन्*दी साहित्*य का इतिहास’ में किया है। )

भूमिका

स्त्रियों को पढ़ने-पढ़ाने के लिए जितनी पुस्*तकें लिखी गयी हैं सब अपने-अपने ढंग और रीति से अच्*छी हैं, परन्*तु मैंने इस कहानी को नये रंग-ढंग से लिखा है। मुझको निश्*चय है कि दोनों, स्*त्री-पुरुष इसको पढ़कर अति प्रसन्*न होंगे और बहुत लाभ उठायेंगे।

जब मुझको यह निश्*चय हुआ कि स्*त्री, स्त्रियों की बोली, और पुरुष, पुरुषों की बोली पसन्*द करते हैं जो कोई स्*त्री पुरुषों की बोली, वा पुरुष स्त्रियों की बोली बोलता है उसको नाम धरते हैं। इस कारण मैंने पुस्*तक में स्त्रियों ही की बोल-चाल और वही शब्*द जहॉं जैसा आशय है, लिखे हैं और यह वह बोली है जो इस जिले के बनियों के कुटुम्*ब में स्*त्री-पुरुष वा लड़के-बाले बोलते-चालते हैं। संस्*कृत के बहुत शब्*द और पुस्*तकों- जैसे इसलिए नहीं लिखे कि न कोई चित से पढ़ता है, और न सुनता है।

इस पुस्*तक में यह भी दर्शा दिया है कि इस देश के बनिये जन्*म-मरण विवाहादि में क्*या-क्*या करते हैं, पढ़ी और बेपढ़ी स्त्रियों में क्*या-क्*या अन्*तर है, बालकों का पालन और पोषण किस प्रकार होता है, और किस प्रकार होना चाहिए, स्त्रियों का समय किस-किस काम में व्*यतीत होता है, और क्*यों कर होना उचित है। बेपढ़ी स्*त्री जब एक काम को करती है, उसमें क्*या-क्*या हानि होती है। पढ़ी हुई जब उसी काम को करती है उससे क्*या-क्*या लाभ होता है। स्त्रियों की वह बातें जो आजतक नहीं लिखी गयीं मैंने खोज कर सब लिख दी हैं और इस पुस्*तक में ठीक-ठीक वही लिखा है जैसा आजकल बनियों के घरों में हो रहा है। बाल बराबर भी अंतर नहीं है।

प्रकट हो कि यह रोचक और मनोहर कहानी श्रीयुत एम.केमसन साहिब, डैरेक्*टर आफ पब्लिक इन्*सट्रक्*शन बहादुर को ऐसी पसन्*द आयी, मन को भायी और चित्*त को लुभायी कि शुद्ध करके इसके छपने की आज्ञा दी और दो सौ पुस्*तक मोल लीं और श्रीमन्*महाराजाधिराज पश्चिम देशाधिकारी श्रीयुत लेफ्टिनेण्*ट गवर्नर बहादुर के यहॉं से चिट्ठी नम्*बर 2672 लिखी हुई 24 जून सन् 1870 के अनुसार, इस पुस्*तक के कर्त्*ता पंडित गौरीदत्*त को 100 रुपये इनाम मिले।।

दया उनकी मुझ पर अधिक वित्*त से

जो मेरी कहानी पढ़ें चित्*त से।

रही भूल मुझसे जो इसमें कहीं,

बना अपनी पुस्*तक में लेबें वहीं।

दया से, कृपा से, क्षमा रीति से,

छिपावें बुरों को भले, प्रीति से।।

- प. गौरीदत्*त शर्मा
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Old 18-08-2013, 12:58 PM   #2
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Default Re: देवरानी जेठानी की कहानी

मेरठ में सर्वसुख नाम का एक अग्रवाल बनिया था। मंडी में आड़त की दूकान थी। आसपास के गॉंवों से लोग सौदा लाते। इसकी दुकान पर बेच जाते। पैसा-रुपया तुलाई का इसके हाथ भी लग जाता। और कभी भाव चढ़ा देखता तो हजार का नाज-पात लेकर दूकान में डाल देता और फ़ायदा देख उसे बेच डालता। ब्*याज-बट्टे और गिर्वी-पाते की भी उसे बहुतेरी आमदनी थी। हाट-हवेली, धन-दौलत, दूध-पूत परमेश्*वर का दिया उसके सबकुछ था। और यह इसने अपने ही पुरुषार्थ से किया था।



मॉं-बाप तो पिछले हैजे में पॉंच वर्ष का छोड़कर मर गये थे। चाचा ने पाला था। थोड़े ही दिन हुए होंगे जब तो कूकडि़यॉं बेचा करे था। चना-चबेना करता। खॉंचा सिर पै लिये गलियों में फिरा करे था।



फिर इसने परचून की दुकान कर ली। मुंशी टिकत नारायण और हरसहाय काबली शहर के अमीरों की इसके यहॉं उचापत उठने लगी। इसमें परमेश्*वर ने ऐसी की सुनी कि आड़त की दूकान हो गई। जहॉं-तहॉं से माल आने लगा। बढ़ी इज्*जत बढ़ गई। लोग पचास हज़ार रुपये का भरम करने लगे। सच्*च है जिसे परमेश्*वर देता है छप्*पर फाड़ के ऐसे ही देता है।



बड़ा भला मानस था। अड़ौसी-पड़ौसी सब इससे राजी थे। पुन्*न-दान में बहुत तो नहीं परंतु छठे-छमाहे कुछ-न-कुछ करता रहे था। बड़ी अवस्*था में आप ही अपना बिवाह किया था। पहिले दो लड़कियॉं हुईं, बड़ी का नाम पार्वती छोटी का प्*यार का नाम सुखदेई रक्*खा। फिर ईश्*वर ने उपरातली दो लड़के दिये। बड़े का नाम दौलत राम छोटे का नाम छोटे-छोटे पुकारने लगे। इन सब बहिन भाइयों की कोई दो-दो तीन-तीन वर्ष की छुटाई-बड़ाई होगी। बड़ी लड़की दिल्*ली बिवाही गयी। छोटी लड़की की मंगनी बंशीधर कबाड़ी के यहॉं हापुड़ हुई।



एक दिन रात को अपने घर में कहने लगा कि सुखदेई की मॉं, लाला बुलाकी दास हमारी बिरादरी में जो मदर्से में नौकर है यों कहते थे कि अपने छोटे बेटे को तुम अंग्रेजी पढ़ाओ। इसमें तेरी क्*या सलाह है और दौलत राम को तो मै अपने कार में गेरूंगा।

उसने कहा अच्*छा तो है। सारे दिन गलियों में कूदता फिरे है। परसों किसी लौंडे के कुछ मार आया था। उसकी मॉं लड़ती हुई यहॉं आई। और मैं तुमसे कहना भूल गई। आज चौथा दिन है कि दिल्*ला पॉंडे हमारे पुरोहित की बहू मिसरानी आई थी और कहे थी कि सुखदेई को मेरे साथ नागरी पढ़ने भेज दिया करो और भी मुहल्*ले की पॉंच-सात लौंडियें उसके घर जाया करे हैं और वह सीना-पिरोना भी सिखलाया करे है। और वह बड़ी-बड़ी बात कहै थी कि जब सुखदेई पढ़ जायगी चिट्ठी-पत्री लिखनी आ जायगी। घर का हिसाब लिख लिया करेगी। और उसके घर कभी-कभी एक मेम आया करे है। लौंडियों को देख हरी हो जा है और उनका पढ़ना सुनकर किसी को छल्*ला और किसी को अंगूठी दे जा है।



सो छोटेलाल तो मदर्से में बिठाये गये। दौलत राम लाला के साथ दूकान जाने लगे। और सुखदेई मिसरानी से नागरी पढ़ने लगी।



एक दिन कोई चार घड़ी दिन होगा। छोटे लाल बाहर खेल रहा था। घर में भाग गया और कहने लगा कि मॉं लाला आवे हैं।



यह अपने मन में डर गई और कहने लगी कि आज दिन से क्*यों आये।

इतने में वह भी आन पहुँचे और खाट पर बैठ गये। इसने छोटे लाल को पंखा दिया और कहा लाला को हवा कर।
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Default Re: देवरानी जेठानी की कहानी

यह बोले सुखदेई की मॉं, ले बोल क्*या करें? जहॉं दौलत राम को टेवा गया था, तनी गॉंठ करने को नाई आया है। और झल्*लामल जो कल खुरजे से आये थे यों कहें थे कि लड़की का बाप डूँगर बिचारा गरीब बनियॉं है। सरा के नुक्*कड़ पर परचून की दूकान खोल रक्*खी है। पर लड़की की मॉं बड़ी लड़ाका है। तुम्*हारे समधी के पास ही हमारा घर है और छोटेलाल की पीठ ठोक कर कहने लगा कि भाई छोटे लाल हमारा नसीबेवर है। गुड़गॉंवें के तहसीलदार ने इसका टेवा मॉंगा है। अभी तो रास्*ते में लाला दीनदयाल, किरपी के ताऊ, गाड़ी में बैठे आवे थे। मुझे पुकार कर कहने लगे कि मैं मामाजी से मिलने गुड़गॉंवें गया था सो वह पूछें थे कि सर्बसुख आड़ती का छोटा बेटा क्*या किया करे हैं? मैंने कहा साहब, मदर्से में अंग्रेजी पढ़े है और होशियार है। सो उन्*होंने उसका टेवा मागा है। तुम मुझे दे देना मैं भेज दूँगा। लाला साहब, लड़की बड़ी सुघड़ है। वह अपनी लड़की को आप नागरी पढ़ाया करे हैं।



सुखदेई की मॉं बोली कि तुम दौलत राम की सगाई रख लो। आई हुई लक्ष्*मी घर से कोई नहीं फेरता। और रुपया-पैसा हाथ-पैरों का मैल है। आगे लौंडिया लौंडे का भाग है।

सो नाई तनी गॉंठ करके चला गया। और उसी साल में विवाह की चिट्ठी ले के आया। इन्*होंने कहला भेजा कि अब के वर्ष तो हमारी लड़की विवाह की ठहर गयी है। अगले वर्ष विवाह रख लेंगे।

छोटेलाल की पत्री गुड़गॉंवे मिल ही गयी थी। लाला दीनदयाल के मारफत वहॉं से कहलावत आई कि सर्वसुख जी से कहना कि मरती जीती दुनिया है। आगे मैं सरकारी नौकर हूँ। आज यहॉं, कल जाने कहॉं को बदली हो जाय। सो लड़की का विवाह हम इसी साल में करेंगे।

इन्*होंने यहॉं से कहला भेजा कि हमारी इज्*जत उनके हाथ है। अभी तो दो विवाहों से निपटे हैं और इस साल में न केवल सूझता भी नहीं है। अगले साल जैसा मुन्*शी जी कहेंगे वैसा करेंगे।

अगले साल बिवाह की तैयारी हो गई और बड़ी धूम-धाम से लाला जी बेटे का बिवाह कर लाये। दोनों तर्फ की वाह-वाह रही। जब बहु घर आयी बगड़-पड़ौसन सब इकट्ठी हो गयी और सुखदेई की मॉं से कहने लगीं ले बहिन, बहुडि़या तो भली-सुन्*दर है। तेरी बड़ी बहू का रंग तो सॉवला है।

जो कोई बड़ी-बूढ़ी आती है बहु कहती पॉंव पडूँ जी। वह कहती बहुत शीली सपूती हो। बूढ़ सुहागन रह।

जब कोई इसके बाप के घर की बात पूछती वह ऐसी मीठी बातों से जवाब देती कि सब प्रसन्*न हो जाती। बिना बातों नहीं बोलती, चुपकी बैठी रहती। वा जब अवसर पाती अपनी पोथी ले बैठती। मुहल्*ले और बिरादरी की बैअर-बानियों में धूम पड़ गई कि फलाने की बहु बड़ी चतुर है। कोई कहती बड़े घर की बेटी है। इसका बाप तहसीलदार है। अंग्रेजी पढ़ा हुआ है। अपनी बेटी को आप पढ़ाया है। कोई कहती जी इसके साथ जो नायन है, वह कहे थी, इसपैं सीनी-पिरोना भी आवे है और भली अच्*छी फुलकारी भी काढ़े है।

सुखदेई का अभी गौना नहीं हुआ था। बाप ही के घर थी। ननद-भावजों का बड़ा प्*यार हो गया। दोनों पढ़ी-पढ़ी मिल गयीं।



सुखदेई इतनी पढ़ी हुई न थी परन्*तु चिट्ठी-पत्री तो अच्*छी तरह से लिख लिया करे थी। इसने अपनी सब पढ़ी हुई भनेलियों को बुलाया और उनका लिखना-पढ़ना अपनी भावज को दिखलाया।

जब दौलतराम बिवाह के लाये थे तो पट्टा फेर करते लाये थे। इसका कारण यह था कि लड़की के बाप घर में पहिले ही कुछ नहीं था। विवाह ही में उघड़ गया। गौना क्*या करेगा? सो तबसे दौलत राम की बहु ज्ञानो ससुराल ही में थी। जब कोई बैअर-बानी बाहर की आती, न तो बैठने को पीढ़ा देती और न उसकी बात पूछती। और जो कुछ कहती भी, तो ऐसी बोलती जैसे कोई लड़े है। सास से तो रात दिन खटपट रक्*खे थी और जब कोई देवरानी को इसके सामने सराहती तो कहती हॉं जी, वह तो अमीर की बेटी है। मैं तो गरीब बनिये की बेटी हूँ। मुँह से कुछ नहीं कहती पर देवरानी को देख-देख फुँकी जाती। और जभी से छोटी ननद से भी जलने लगी। बड़ी ननद पारबती से बड़ा प्*यार था। (और वह विवाह में बुलाई हुई आयी थी) और प्*यार होने का कारण यह था कि वह भी लगावा-बझावा थी। उधर की इधर और इधर की उधर।
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Default Re: देवरानी जेठानी की कहानी

अब बहु को आये आठ-दस दिन हुए होंगे कि उसका भाई रामप्रसाद मझोली लेके विदा कराने को आया। लाल सर्वसुख जी ने भी जैसे बनियों में रस्*म होती है, दे-ले कर बहु को बिदा कर दिया और बहु के भाई से चलते-चलते यह कह दिया कि भाई, पहुँचते ही राजी-खुशी की चिट्ठी लिख भेजना।

जब सुखदेई के विवाह को तीन वर्ष हो चुके, हापुड़ से गौने की चिट्ठी आयी। लाला ने घर में आके सलाह की। सुखदेई की मॉं ने कहा मैं तो पॉंचवें वर्ष करूँगी। लाला ने समझा दिया कि जिस काम से निबटे, उससे निबटे। यह काम भी तो करना ही है और यह भी कहा है कि धी-बेटी अपने घर ही रहना अच्*छा है। अर्थात् सुखदेई भी अपने घर गई और वहॉं अपने कुनबे की लौंडियों को नागरी पढ़ाने लगी।



लाला सर्वसुख का माल रेल पै लदने जाया करे था। वहॉं के बाबू से इसकी जान पहिचान हो गई थी।

एक दिन कहने लगा कि बाबू जी हमारा छोटा लड़का मदर्से में अंग्रेजी पढ़ने जाया करे है। वह कहे था जो तुम कहो तो तुम्*हारे पास काम सीखने आ जाया करे। बाबू ने कहा कल तुम उसे हमारे पास दफ्तर में भेजना। छोटे लाल अगले दिन वहॉं गया। बाबू को अपना लिखना दिखलाया। उसकी पसंद आया। इससे कहा तुम रोज-रोज आया करो। यह जाने लगा। थोड़े दिन पीछे उसी दफ्तर में पंदरह रुपये महीने का नौकर भी हो गया।

इसे नौकर हुए कोई एक वर्ष बीता होगा कि बाबू की बदली अम्*बाले की हो गयी। यह बाबू का काम किया ही करे था। और साहब भी रोज देखा करे था। बाबू की जगह इसे कर दिया, और यह कह दिया कि अब तो तुमको चालीस रुपये महीना मिलेगा फिर काम देख के साठ रुपये महीना कर देंगे।

जब छोटे लाल पंदरह ही रुपये का नौकर था कि इसके लाला गौना कर लाये थे और अब गौनयायी अपने घर ही थी। छोटे लाल इस बात से अपने मन में बड़ा मगन था कि मेरी बहु पढ़ी हुई है और बड़ी चतुर है।

इधर इसकी घरवाली इससे खूब राजी थी। और यह बात परमेश्*वर की दया से होती है कि दोनों स्*त्री-पुरुष के चित्*त इस तरह से मिल जायें। यह कुछ अचंभे की बात भी नहीं है। दिल तो वहॉं नहीं मिलता जहॉं मर्द पढ़ा हो, और स्*त्री बेपढ़ी। जब यह दोनों मिलते, एक-दूसरे को देख बड़े प्रसन्*न होते। इधर वह उसके मन की बात पूछती और अपनी कहती। इधर उसकू इस बात का बड़ा ही ध्*यान रहता कि कोई बात ऐसी न हो कि जिससे इसका मन दुखे। उसकी बेसलाह कोई काम न करता। उसके लिए एक नागरी का अखबार लिया। रात को उर्दू और अंग्रेजी अखबारों की खबरें उसे सुनाता और जब आप थक जाता उससे कहता लो अब तुम हमें अपने अखबार की खबरें सुनाओ। इस बात से इसको बड़ा ही आनन्*द होता।

उनका घर तो ऐसा ही था जैसा और बनियों का हुआ करता है। पर इसने अपना चौबारा सोने और उठने-बैठने को सजा रक्*खा था। चादर लग रही थी। कलई की जगह नीला रंग फिरवा रक्*खा था। बोरियों के फर्श पर दरी बिछा रक्*खी थी। तसबीर और फानूस भी लग रहे थे। दो कुर्सी बड़ी और दो कुर्सी छोटी जिनको आरामकुर्सी कहते हैं, एक तर्फ पड़ी हुई थीं। किताबों की एक आलमारी मेज के पास लगी हुई थी। दो पलंगों पर रेशम की डोरियों से चिही चादर खिंची हुई थी। अपना सादा कमरा अच्*छा बना रक्*खा था।

जो कोई बाहर की लुगाई आती, छोटेलाल की बहु अपना चौबारा दिखाने ले जाती। एक दिन अपनी जेठानी से बोली कि आओ जी, तुम भी आओ। उसने कहा अब ले मैं ना आती। और लुगाइयों ने कहा निगोड़ी अपने देवर का चौबारा देख ले ना। शर्मा-शर्मी उठी चली गयी। और चौबारे को देख अक्*क-धक्*क रह गयी।

इसकी अटारी में दो पुरानी-धुरानी खाट पड़ी हुई थीं। पिंडोल का पोता और गोबर का चौका भी न था। एक कोने में उपलों का ढेर। दूसरे में कुछ चीथड़े। और एक तर्फ नाज के मटके लग रहे थे।

इसका कारण यह था कि बिचारा दौलत राम तो निरा बनियॉं ही था। पढ़ा-लिखा कुछ था ही नहीं। आगे उसकी बहु गॉंव की बेटी थी और उसने देखा ही क्*या था? छोटेलाल की बहु की सी सुथराई और सफाई और कहॉं? आटा पीसना और गोबर पाथना इसकू खूब आवे था। वाये दिन भर लड़ा लो।



छोटेलाल की बहु सारे दिन कुछ न कुछ करती रहे थी। सबेरे उठते ही बुहारी देती। चौका-बासन करके दूध बिलोती। फिर न्*हा-धोके दो घड़ी भगवान का नाम लेती। रोटी चढ़ाती। जब लाला छोटेलाल रोटी खा के दफ्तर चले जाते, थोड़ी देर पीछे दौलतराम और उसका बाप दूकान से रोटी खाने को आते। जब वह खा लेता और सास-जिठानी भी खा चुकतीं तब सबसे पीछे आप रोटी खाती।

और जिस दिन दौलत राम की बहु रोटी करती, दाल में पानी बहुत डाल देती। और कभी नून जियादह कर देती और कभी डालना भूल जाती। गॉंव के सी मोटी-मोटी रोटियें करती। किसी को बहुत सेक देती और कोई कच्*ची रह जाती। इसलिये बेचारी देवरानी को दोनों वक्*त चूला फूँकना पड़े था।

रात को पूरी-परॉंवठा और तरकारी कर लिया करे थी। दो पहर को रोटी खाने से पीछे घण्*टा डेढ़ घण्*टा आराम करती। फिर सीना-पिरोना, मोजे बुनना, फुलकारी काढ़ना, टोपियों पै कलाबत्*तू की बेल लगाना आदि में जिस काम को जी चाहता, ले बैठती।



इस समय मुहल्*ले और बिरादरी की लौडियें दो घड़ी को इसके पास आ बैठा करे थीं। किसी को मोजे बुनना बतलाती, और किसी को लिखना-पढ़ना सिखलाती और आप भी अपना काम किये जाती।

जब कभी इस काम से मन उछटता तो अपनी पोथी में से सहेलियों और भनेलियों को कहानियॉं सुना-सुना कर कभी रुलाती और कभी हँसाती। और जब कभी ज्ञान-चर्चा छेड़ देती तो भगवत गीता के श्*लोक पढ़-पढ़ कर ऐसे सुन्*दर अर्थ करती कि सुनकर सब मोहित और चकित हो जातीं और जिस दिन एकादशी, जन्*माष्*टमी, रामनौमी वा और कोई तिथि-पर्वी होती और सीना पिरोना न होता तो उस दिन तुलसीदास और सूरदास के भजन गाती और विष्*णुपद सुनाती कि सब प्रसन्*न हो जातीं।

रात को जब सब व्*यालू कर चुकते यह अपने चौबारे में चली जाती और रात को दस बजे तक जहॉं-तहॉं की बातचीत करके हँसती और बोलती रहती।

सुखदेई के भानजे का बिवाह यहॉं मारवाड़े में हुआ था। हापुड़ से अपनी बहु को लेने आया। अगले दिन लाला सर्वसुख से दूकान पर मिलने गया। राजी खुशी कह के बोला कि मामी ने अपनी भावज को यह चिट्ठी दी है, घर पहुँचा देना।
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Default Re: देवरानी जेठानी की कहानी

लाला ने नौकर के हाथ घर चिट्ठी भेज दी। छोटेलाल की बहु ने पहले आप पढ़ी फिर सास को पढ़कर इस तरह सुना दी-



स्*वस्ति श्री सर्वोपमायोग्*य बहु आनंदीजी यहॉं से सुखदेई की राम राम बॉंचना। यहॉं क्षेम-कुशल है। तुम्*हारी क्षेम-कुशल सदा भली चाहिए। बहुत दिन हुए कि तुम्*हारी एक चिट्ठी आई थी। मैंने तो उसका जवाब लिख दिया था। फिर तुमने कोई चिट्ठी नहीं लिखी। यद्यपि वहॉं के आने-जाने वालों से राजी-खुशी की खबर मिलती रही तथापि चिट्ठी के आने से आधा मिलाप है। अब तो मुझे आये बहुत दिन हुए। तुम से मिलने को जी चाहे है। सो मॉं से कहना कि मुझे दो-चार महीने को बुला ले। यहॉं से मेरा जी उछट रहा है। लालाजी से मॉं पूछ देगी जो मेरी नथ बन गयी हो तो ज्ञानचंद मेरे भानजे के हाथ भेज देना और भाई की भोज प्रबंध की पोथी जो तुम्*हारे पास है थोड़े दिन के लिए भेज देना। जब मैं आऊँगी लेती आऊँगी। अब तो यहॉं भी एक लौंडियों का मदर्सा हो गया है। हमारी मिसरानी से हमारी पालागन कह देना और सब सहेलियों और भनेलियों से राम-राम कहना। चिट्ठी का जवाब जरूर-जरूर लिख भेजना। थोड़े लिखे को बहुत जानना। चिट्ठी लिखी मिती मार्गसिर बदी 1 सम्*बत् 1925 ।

सुखदेई की मॉं ने चिट्ठी सुनके कहा कि कल पॉंच सेर आटे के लड्डू कर लीजो। लौंडिया को कोथली भेजनी है और जो मैं कहूँ चिट्ठी में लिख दीजो सो सुखदेई को यह चिट्ठी लिखी गयी-

स्*वस्ति श्री सर्वोपमायोग्*य बीबी सुखदेई जी यहॉं से आनन्*दी की राम-राम बॉंचना। चिट्ठी तुम्*हारी आई। समाचार लिखे सो जाने। तुम्*हारी मॉं जी ने लालाजी से तुम्*हारे बुलाने वास्*ते कहा था। सो उन्*होंने कहा है कि माघ के महीने में हम बाग की प्रतिष्*ठा करेंगे। तब लौंडिया सुखदेई को भी बुलावेंगे और मेरे सामने जेठ जी से कह दिया है कि भाई तु ही लौंडिया को जाके ले अइयो। और वह बाग लाला जी ने दिल्*ली के रास्*ते में लगाया है। उसमें कुऑं तो बन गया है, शिवाला बन रहा है। जिस सुनार को तुम्*हारी नथ बनने को दी थी, वह सोना लेके भाग गया। लाला जी कहें थे, दूसरे सुनार से और बनवा करके भेज देंगे। तुम्*हारी भनेली रामदेई मेरे पास रोज-रोज फुलकारी सीखने आया करे थी। बेचारी बड़ी गरीब थी। तुम्*हें नित याद कर ले थी। जिठानी जी के स्*वभाव को तुम जानो ही हो, एक दिन बेबास्*ते उससे लड़ पड़ी। तीन दिन से वह नहीं आई। दो घड़ी जी बहला रहे था सो यह भी न देख सकीं। फुलकारी का ओन्*ना जो मैं तुम्*हारे लिए अपने पीहर से लायी थी, भोज प्रबन्*ध की पोथी, पॉंच सेर लड्डू और आठ आने नकद तुम्*हारे भानजे के हाथ तुम्*हें भेजे हैं। रसीद भेज देना। तुम्*हारी मॉं ने तुम्*हें राम-राम कही है। मेरी राम-राम अपनी सासू और भनेलियों से कह देना। चिट्ठी लिखी मिति मार्गसिर सुदि 2 सम्*वत 1925।

यह चिट्ठी और चिट्ठी में लिखी हुई चीजें सुखदेई के भानजे के हाथ भेजी गयीं और जबानी भी कहलावत गई कि लाला बंसीधर से कह देना कि माघ के महीने में लौंडिया को लेने बहल आवेगी। ऐसा न हो कि उलटी फिरी आवे। एक चिट्ठी लिख भेजें।

यहॉं दौलत राम की बहु बड़ी भोर उठके गौ की धार काढ़ती। गोबर पाथती। न्*हाती न धोती। चर्खा लेकर बैठ जाती और कभी-कभी दाल दलती नाज फटकती आटा छानती। दस-दस और बीस-बीस मन नाज दूकान से इखट्ठा आ जाय था। उसे अकेली बोरियों और कट्टों में भर देती। काम तो बहुतेरा करे थी। पर वैर-विषवाद बहुत रक्*खे थी।



और यह सास ने दोनों देवरानी जेठानियों को जैसा जिस जोग देखा काम बॉंट दिया था। पीसना-खोटना, चर्खापूनी ऐसी मेहनत के काम देवरानी से नहीं हो सके थे, इसलिये कि उसने बाप के घर किये नहीं थे। परंतु वह उससे दसगुने अच्*छे काम कलाबत्*तू और गोटा-किनारी के जाने थी। पीसने-खोटने में क्*या रक्*खा है। घड़ी भर पीसा, दो पैसा का हुआ। वह आठ आने रोज का कढ़ावट का काम कर ले थी।



जेठानी रोटी खा के फिर चर्खा ले बैठती। इस जैसी इसकी भी दो एक भनेलियॉं थीं। सो कोई न कोई इसके पास आ बैठी करे थी। यह उससे देवरानी का ही झींकना झींकती। सासू का खोट बतलाती कि मेरी सास बड़ी दोजगन है। छोटी बहु को जो कोई आधी बात कहे है तो लड़ने को उठे है। ससुर जी से मेरी रात दिन कटनी करे है। यों कहे है यह तो कच्*ची रोटी करे है। बहिन जिस पै जैसी आती होगी वैसी करेगी। और यह मेरी देवरानी बड़ी खोट और चुपचोट्टी है। मेरा देवर सत्*तर चीजें लावे है। दोनों खसम-जोरू खावे हैं। किसी को एक चीज़ नहीं दिखलाते। छडियों के मेले के दिन जरा सा मूँग का दाना मेरे बास्*ते लेके आई थी, सो मैंने तो फेर दिया। हमें तो जैसा मिल गया खा लिया। मेरी देवरानी छटॉंक भर पक्*का घी दाल में डाल के खावे है। इस प्रकार से नित चुगली करती और अपनी देवरानी को सुना-सुना चर्खा कातती जाती, ताने-मेहने और बोली-ठोली मारती जाती कि ले पीसे कोई और खावे कोई। कोई ऐसी लुगाई भी होती होगी और पीसना नहीं जानती होगी? यों कहो मेहनत नहीं होती।

देवरानी चुपकी सुना करती। कभी कुछ न कहती। एक दिन उसने इतना कहा था कि जेठानी जी, तुम्*हारा कैसा स्*वभाव है बाहर की लुगाइयों के सामने तो बोली-ठाली की बात मत कहा करो। इसमें घर की बदनामी है।

उसके पीछे ऐसी पॉंच पत्*थर लेकर पड़ी कि उसे पीछा छुड़ाना दुर्लभ हो गया।

और बोली अब चल तो तेरी जेठानी है उससे कह। छोटा मुँह और बड़ी बातें। आप मेरी बड़ी बनके बैठी है और जो कुछ मुँह में आया कहती रहीं।

वह बेचारी चुपकी होके चली आई।

सास ने कहा अरी तू उससे क्*यों बोली थी?

उसने कहा अयजी, मैंने तो उसके भले की बात कही थी।

सास ने कहा मैं क्*या कहूँ? हमारी वह कहावत है कि अपना मरण जगत की हांसी।

दौलत राम की बहु जहॉं तक होता अपने मालिक से रात को नित्*यप्रति सास और देवरानी की बुराई करती। तुम जानो, आदमी ही तो है और बेपढ़ा। रोज-रोज के सिखलाने और बहकाने से दौलतराम भी अपनी बहु की हिमायत करने लगा और मॉं से लड़ने लगा।

जब उसकी मॉं ने यह हाल देखा तो एक दिन उसके बाप से कहा और यह सलाह दी कि दौलत राम को जुदा कर दो। और मैं तो छोटी बहु में रहूँगी। तुम्*हारी तुम जानो।
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Default Re: देवरानी जेठानी की कहानी

ऊँच-नीच सोच के बड़ी देर में यह जवाब दिया कि अच्*छा तो मैं बड़ी बहु में रोटी खा लिया करूंगा। अपना सिर पकड़ कर बैठ गया और कहने लगा कि बिरादरी के लोग हॅसेंगे और ठट्ठे मारेंगे कि फलाने के घर लुगाइयों में लड़ाई हुई थी तो उसने अपने बड़े बेटे को जुदा कर दिया। देखो यह कैसी बहु आई इसने हमारी बात में बट्टा लगाया और घर तीन तेरह कर दिया।



घरवाली बोली अजी जब अपना ही पैसा खोटा हो परखन वाले को क्*या दोष है? जग तो आरसी है जैसा लोग देखेंगे वैसा कहेंगे।



सामने का दालान दौलत राम को दे दिया और सब तरह से जुदा-जोखा कर दिया। जो कोई चीज दुकान से आती दोनों घर आधी-आधी बट जाती।



जब यह खबर गुड़गॉंवें पहुँची कि लाला सर्वसुख के यहॉं औरतों में लड़ाई रहे थी सो उन्*होंने अपने बेटों को जुदा कर दिया है। सो तहसीलदार साहब ने अपनी बेटी को यह चिट्ठी लिखी-

स्*वस्ति श्री सर्वोपमायोग्*य बीबी आनन्*दी जी यहॉं से राम प्रसाद आदि समस्*त बाल गोपाल की राम-राम बंचना। यहॉं क्षेम-कुशल है तुम्*हारी क्षेम-कुशल चाहते हैं। तुम्*हारी मॉं तुमको बहुत याद करे है। सो मैं तुमको बहुत जल्*दी ही बुलाऊँगा। तुम्*हारे छोटे भाई गंगाराम को मदर्से में बिठा दिया है और बड़े भाई राम प्रसाद को तुम्*हारे ताऊ के पास आगरे इस कारण भेज दिया है कि वहॉं कालिज में पढ़कर वकालत का इम्*तहान दे। तुम्*हारी छोटी बहिन भगवान देई एक महिने से मॉंदी है और जब ही से उसका लिखना-पढ़ना छूटा हुआ है। और तुम तो आप बुद्धिमान हो परन्*तु तौ भी जो पिता का धर्म है, दो चार बात लिखना आवश्*यक है। बेटी, जो मैं तुमसे उसी दिन प्रसन्*न हूँगा जब मैं यह सुनूँगा कि तुम्*हारी ससुराल वाले तुमसे प्रसन्*न हैं। तुम्*हारा लिखना-पढ़ना उसी दिन काम आवेगा जब तुम अपनी सास की आज्ञा में रहोगी। सास को माता के तुल्*य जानना। ननद और जेठानी को अपनी बहिनों से अधिक मानना। और यह मैं जानता हूँ कि सब लड़कियों को ससुराल में जाकर प्रथम कठिनता मालूम हुआ करती है और इसका कारण यह है कि बाप के घर तो कुछ और ही चाल-चलन होता है और ससुराल में जाकर नये-नये तौर देखती है। जी घबराया करता है। परन्*तु जो ज्ञानवान लड़कियें हैं घबराती नहीं सब काम किये जाती हैं। यह भी जानना उचित है कि मॉं-बाप का घर तो थोड़े ही दिन के लिए है। सारी अवस्*था ससुराल में ही काटनी है। अपने धर्म-कर्म पर चलना ईश्*वर को याद रखना। आए-गए का आदर सम्*मान करना, सबसे मीठा बोलना, संतोष से अपने कुटुम्*ब में गुजरान करना, आपको तुछ जानना, यह अच्*छे कुल की बेटियों के धर्म हैं। ज्ञान चालीसी की पोथी में तुमने पढ़ा है कि अच्*छों से सबको लाभ होता है। मेरा इस कहने से प्रयोजन यह है कि जो कोई स्*त्री तुम्*हारे कुटुम्*ब की तुमको सीने-पिरोने का काम दे, जो अवसर मिले तो उसे कर देना उचित है। देखो विद्यादान का शास्*त्र में कैसा महात्*मा लिखा है। अर्थात जो बातें तुमको आती हैं, औरों को भी सिखलाना चाहिए। चिट्ठी लिखी मिति पौष शुदि 6 संबत् 1925 ।

यह चिट्ठी छोटेलाल के खत में बंद होकर आई और उसने अपने घर में दे दी।

दौलत राम के जुदे होने से छह महीने पीछे एक लड़की हुई। इधर उसी दिन हापुड़ से चिट्ठी आई कि लाला सर्वसुख जी, अनन्*त चौदस के दिन चार घड़ी दिन चढ़े तुम्*हारे धेवती हुई है।

(उस समय लाला दुकान पर थे) चिट्ठी को पढ़ के लाला ने दौलत राम से कहा कि ले भाई लौंडियों ने घर घेर लिया। यह चिट्ठी अपनी मॉं को सुनाई आ।

दौलत रात की लड़की की छटी तो हो चुकी ही थी। दसूठन के दिन लाला भी घर ही थे और सारे कुटुम्*ब ने उस दिन दौलत राम ही के घर खाया था।

दोपहर को दुकान से एक पल्*लेदार चिट्ठी ले के आया और बोला कि लालाजी यह चिट्ठी तुम्*हारे नाम दिल्*ली से आई है। मुनीम जी ने खोली नहीं तुम्*हारे पास भेज दी है और एक आना महसूल का दिया है।

लाला ने चिट्ठी पढ़ के कहा कि पार्बती की बड़ी लौंडिया का वसन्*त पंचमी का बिवाह है। पंदरह दिन पहिले वह भात नौतने आवेगी सो अब भात का फिकर भी करना चाहिए।

घरवाली बोली कि सुखदेई को छूछक भेजना है। फिर ऐसी ही दो चार गृहस्*त की बातें करके कहा कि छोटेलाल के घर में भी लड़की-बाला होने वाला है। बहु के बाप को एक खत गिरवा देना कि वह साध भेज दे।

धौन भर पक्*के लड्डू, पॉंच तीयल बागे, पॉंच गहने, कुछ मूँग और चावल, एक रुपया नगद छूछक के नाम से नाई के हाथ हापुड़ भेज दिया।

जब पार्वती भात नौतने आयी तो अपनी देवरानी को साथ लायी। गुड़ की भेली देके बोली कि बिवाह में सबको आना होगा। लाला जी ने कहा बीबी, छोटेलाल की तो छुट्टी नही है। दौलतराम भात ले के आवेगा।

और बिवाह से एक दिन पहिले नाई ब्राह्मण को साथ ले दौलत राम भात ले के दिल्*ली में जा पहुँचा।

उस दिन सारी बिरादरी में बुलावा फिर गया कि आज भात लिया जायगा। 51 रुपये नगद, नथ, बिछुआ, छन, पछेली, सोने मूँगे की माला, पायजेब, सोने की हैकल, सोने का बाजू पचलड़ा और नौ नगे, पार्बती के सारे कुटुम्*ब को कपड़े 21 तीयल भरी-भरी, ग्*यारह बरतन, एक दोशाला और एक रुमाल आदि सबको दिखलाके पार्वती के ससुर के हवाले किये। और जब भात ले के डौढ़ी पर पहुँचे थे पार्वती दस-बीस तो स्त्रियों को साथ लिये गीत गाती हुई भाई का आर्ता करने आई थी।

वहॉं दौलत राम को जो कोई पूछता यह कौन साहब हैं वह कह देते कि यह भाती हैं।

इन दिनों छोटेलाल की बहु गर्म चीज न खाती। बहुत करके कोठे पै न जाती और न बोझ उठाती। जब किसी चीज को खाने को जी चाहता तो अपनी सास वा और किसी बड़ी-बढ़ी से पूछ के मँगा लेती। ऐसी-वैसी चीज न खाती। खट्टी चीज को बहुत जी चाहा करे था सो कभी-कभी नीबू का आचार वा कैरी खा ले थी।

जेठ शुदि 3 जुमेरात के दिन छोटेलाल के घर लड़के का जन्*म हुआ। बड़ी खुशी हुई नक्*कारखाना रखा गया। जन्*म पत्री लिखी गई बिरादरी बालों को एक-एक पान का बीड़ा दिया।

वह उठ खड़े हुए और बोले, लाला सर्वसुखजी मुबारिक।

उन्*होंने उत्*तर दिया कि साहब आपको भी मुबारिक।

बाहर जो नाई ब्राह्मण घिर गये थे उन सबको पैसा-पैसा बॉंट दिया। दाई को एक रुपया दिया, वह पॉंच रुपये मॉंगती रही।

जच्*चा के खाने को गूँद की पँजीरी हुई। अब जो भाई बिरादरी और नाते-रिश्*ते में से औरतें आतीं लौंडे की दादी का मुबा*रिक वा बधाई कहके बैठ जातीं।

वह कहती जी, भगवान ने दिया तो है, अब इस्*की उमर लगावे और लहना सहना हो।

नातेदारों और प्*यार-मुलाहजे वालों के यहॉं से कुर्त्*ता, टोपी, हँसली, कडूले आने लगे। धी-ध्*यानों के यहॉं से जो आये थे उनमें से किसी को फेर दिया और किसी का रख लिया और दो-दो चार-चार रुपये जैसा नाता देखा उन पर रख दिये।

तहसीलदार के यहॉं से भी छूछक अच्*छा आया। सारी बिरादरी में वहा-वाह हो गई।

जिनके स्*वभाव खोटे पड़ जा हैं फिर सुधरने कठिन पड़ जा हैं। यह कुछ तो खुशी हुई पर जेठानी एक दिन को भी आ के न खड़ी हुई। छठी और दसूठन के दिन चर्खा ले के बैठी और जिस दिन देवरानी चालीस दिन का न्*हान न्*हा के उठी तो उस बिरियॉं नाक में बत्*ती दे के छींका और सास और देवरानी को सुना-सुना यह कहती कि जिनके नसीब खोटे हैं उनके बेटी हो हैं और जिनके नसीब अच्*छे हैं उनके बेटे हो हैं।

एक दिन सास तो लड़ने को उठी भी पर बहु ने समझा लिया कि जो किसी के कहने सुनने से क्*या हो है? हमारा भगवान भला चाहिए।

जिस दिन हीजड़े नाचने आये लुगाइयों को दिखलाने को पैसा बेल का दे गई।

छोटे लाल ने लौंडे को खिलाने को एक टहलवी रख दी और उससे यह कह दिया कि बच्*चे को राजी राखियो।

लाला ने चार रुपये का घी और एक रुपये की खॉंड़ दूकान से भेज दी। और जब रात को घर आए घरवाली से कह दिया कि घी को ता के रख छोड़यो और बहु की खिछड़ी वा दाल में डाल दिया करियो। खॉंड़ के लड्डू बना लीजो। बहु का शरीर निर्बल हो गया है, इसमें ताकत आ जायगी और बच्*चा दूध से भूखा नहीं रहेगा और बहु से कह दीजों कि ऐसी-वैसी चीज न खाये जिससे बच्*चे को दु:ख हो।

वह आप चतुर थी। दोनों वक्*त बँधा खाना खाती। लाल मिर्च, गुड़, शक्*कर, सीताफल की तरकारी, तेल का अचार, खीरे और अमरूद आदि से परहेज करती। पर होनी क्*या करे? जब लड़का छह महीने का था, एक दिन सिर से न्*हाई थी। भीगे बालों बच्*चे को दूध पिला दिया। सर्दी से उसे खॉंसी का ठसका हो गया। अगले दिन करवा चौथ थी। बर्ती रही और पूरी कचौरी खाने में आई। लौंडे को सॉंस होई आया। बड़ा फिकर हुआ। सास उठावने उठाने लगी और बोल कबूल करने लगी। धन्*ना की मॉं पनिहारी को ननवा चमार को बुलाने भेजा। उसने आते ही झाड़ दिया और अपने पास से लौंडे को गोली खिला दी।

गोली के खाते ही बीमारी और बढ़ गई और लौंडे का हाल बेहाल हो गया। इतने में लाला दुकान से भागे आए। छोटेलाल घर ही था। दोनों की सलाह हुई कि हकीम को दिखलाओ और सारा हाल कह दो। हकीम जी ने कहा कि घबराओ मत, उस पाजी ने जमाल गोटे की गोली दे दी है और वह पच गई है। मैं यह दवा देता हूँ बच्*चे की मॉं के दूध में देना। इससे चार पॉंच दस्*त हो जायेंगे, आराम पड़ जायगा और वैसा ही हुआ।

लाला घर में बड़े गुस्*सा हुए कि अब तो भगवान ने दया की, कोई स्*याना-वाना घर में नहीं बड़ने पावे। यह निर्दयी इसी तरह से बच्*चों को मार डालते है और कुछ नहीं जानते। और बहु से कह दीजो कि फिर भीगे बालों दूध न पिलावे। और भला वह तो बालक है, उसने देखा ही क्*या है? तू तो बड़ी-बूढ़ी थी। पहिले से क्*यों नहीं समझा दिया था?

वह चुप हो रही।

दौलत राम की बहु सब कुछ खाती-पीती रहे थी। जब सास वा ससुर उसके भले की बात कहते, उसका उलटा करती। लौंडिया भी उसकी सूख के कॉंटा हो रही थी और आप भी नित मॉंदी रहे थी।

एक समय गर्मी के दिन थे। दो-तीन धुऍं में रोटी की। दोनों मॉं बेटियों की ऑंखें दुखने आ गयीं। परहेज किया नहीं और बीमारी बढ़ गई। किसी ने बहका दिया कि तुम्*हारी ऑंखें घर के देवता ने पकड़ी हैं। उस दिन से दवाई भी डालनी छोड़ दी। बेचारे दौलत राम को आप चूला फूँकना पड़ा।
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Default Re: देवरानी जेठानी की कहानी

जब लाला को यह खबर हुई वह एक दिन आके बहुत लड़े कि दवा नहीं डालेगी तो अंधी हो जायेगी। तब कोई पंदरह दिन में रसौत की पौटली से आराम हुआ।

लौंडिया की ऑंखों को पहिले ही आराम हो गया था क्*योंकि दौलत राम हकीमजी के यहॉं दवाई गिरवा लाया करे थे।

छोटे लाल के लड़के का जन्*म का नाम तो कुछ और ही था परन्*तु लाड़ से उसको नन्*हें पुकारने लगे थे। जब वर्ष ही दिन को होगा कि इसकी ऑंखें दुखने आयीं। गर्म-गर्म स्*याही डाली। जस्*त ऑंजा। मलाई के फोहे बॉंधे। नहीं आराम हुआ।

तब इसकी मॉं ने अपनी सास से कहा कि मेरी मॉं मेरे भाई की ऑंखों के वास्*ते एक रगड़ा बनाया करे थी। जो तुम कहो तो नन्*हें की ऑंखों के वास्*ते मैं भी बना लूँ।

उसने कहा अच्*छा।

1 तोला जस्*त, 1तोला रसौत, 6 मासे फटकी, 2 तोले छोटी हड़ बाजार से मँगा के 1 तोले गौ के घी को एक सौ एक बार धोकर उसमें रसौत और फटकी पीस के मिला दी और समूची हड़ों समेत कॉंसी की प्*याली पर रगड़ लिया। नन्*हें की ऑंखों को इसी से आराम हो गया।

इस रगड़े की मुहल्*ले भर में धूम पड़ गई। जिस किसी के बच्*चे की ऑंखें दुखने आतीं, मॉंग के ले जाती और इसे डालते आराम हो जाता। खुरजेवाली की लौंडिया की ऑंखें फिर दुखने आई थीं। इसी रगड़े से आराम हुआ।

एक दिन छोटे लाल की बहु बोली कि सासू जी, जब मेरे लाला दिल्*ली में सरिश्*तेदार थे तो मेरे बड़े भाई को माता रानी का टीका लगवा दिया था। वह भी कहे थे और मैंने भी लिखा देखा है कि जिस बच्*चे को टीका लग जाता है उसके फिर माता नहीं निकलती और जो निकले भी है तो जोर नहीं होता। सो नन्*हें का चाचा (अर्थात बाप) कहे था कि जो मॉं और लाला की मर्जी हो तो नन्*हे के टीका हम भी लगवा दें।

सो मॉं-बाप की आज्ञा से छोटेलाल ने शफाखाने के बड़े बाबू से नन्*हे के टीका लगवा दिया।

जब बच्*चे को दॉंत निकलते है तो बड़ा ही दु:ख होता है। जो दूध पीता है डाल देता है। दस्*त आया करते हैं। शरीर दुर्बल हो जाता है। बच्*चा रोता बहुत है। दूध नहीं पीता। ये ही हालत नन्*हें की हुई।

एक बिरिया ऐसा मॉंदा हुआ कि सबने आस छोड़ दी थी। बकरी के दूध से आराम हुआ था। और एक दिन छोटे लाल आपने साहब की चिट्ठी लिखवा के बड़े डाक्*टर के पास भी नन्*हे को ले गया था। डाक्*टर ने कहा कि जब बच्*चे के दॉंत निकलते हों उसको जंगलों और मैदानों की बहुत सबेरे रोज-रोज हवा खिलायी जाय। इससे अच्*छी और कोई दवा नहीं है।

छोटेलाल ने अपने नौकर को हुक्*म दिया कि जब तक गडूलना बने, नन्*हे को गोद में ले के गोलक बाबू के बाग तक रोज हवा खिला लाया कर।

और नन्*हे जब दो वर्ष का हुआ गडूलने में बैठा कर सूर्य्य कुण्*ड तक भेजने लगे और बहुत करके लाला छोटेलाल आप भी गडूलने के साथ जाया करें थे। इससे नन्*हें का सब रोग जाता रहा और शरीर में बल आया।

रात को दोनों स्*त्री-पुरुष उसे खिलाते और बड़े मगन होते। जब छोटेलाल कहता आओ नन्*हे मेरे पास आओ। वह चट चला जाता और जब उसकी मॉं कहती आओ हमारे पास आओ हम चीजी देंगे वह न आता। तब दोनों हँस पड़ते। और कभी मॉं की खाट पै से बाप की खाट पै चला जाता और कभी रोके फिर चला आता। यह दोनों उसका तमाशा देखा करें थे। जब छोटेलाल किसी प्रकार के संदेह में होता यह चाचा-चाचा कह के उससे लिपट जाता उसका सन्*देह जाता रहता। और उसे गोद में उठा के खिलाने लगता। और कभी कहता कि नन्*हें को अँग्रेजी पढ़ाके रुड़की कालेज में भेजेंगे और इंजिनियर बनावेंगे। उसकी घरवाली कहती कि नहीं इस्*कू तो तुम व*कील बनाना। मेरा ताऊ आगरे में वकील है। हजारों रुपये महीने की आमदनी है और घर के घर है किसी का नौकर नहीं।
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Default Re: देवरानी जेठानी की कहानी

एक दिन बड़े लाला बाहर चबूतरे पर पोते और पोती को खिला रहे थे। जो कोई लाला का मिलापी उधर जाता लाला कहते सलाम कर भाई यह भी तेरे चाचा हैं। नन्*हें अपने सिर पर हाथ रख लेता। वह हँस पड़ते और कहते जीते रहो।

इतने में दिल्*ला पॉंडे आए। पहिले लाला ने आप पालागन की फिर लड़के से बोले कि हाथ जोड़ पालागन कर, यह हमारे पुरोहित हैं।

उन्*होंने कहा सुखी रहो लाला और फिर बोले, सर्बसुख जी, यह लड़का बड़ा बुद्धिमान और भाग्*यवाला होगा क्*योंकि इसके छीदे दॉंत हैं, चौड़ा माथा है और हँसमुख है। इसकी सगाई बड़े घर की लेना।

लाला ने कहा देखो महाराज, तुम्*हारी दया चाहिए। परमेश्*वर ने बुढ़ापे में यह सूरत दिखाई है। कहीं जीवे सगाई बधाई तो पीछे हैं।

पॉंडेजी ने कहा लाला साहब, दौलत राम की लड़की दुबली क्*यों है?

उन्*होंने कहा महाराज, मॉंदी थी, और चुप हो रहे।

अब दौलतराम की लड़की तीन वर्ष की हो गई थी और जब दो ही वर्ष की थी एक दिन दौलतराम की बहु उसे छोटी दिल्*ली और बड़ी दिल्*ली दिखला रही थी और घू-घू मॉंऊ के खिला रही थी अर्थात कभी उछालती और लपकती और कभी पैरों पर बिठा के उसे नीचे करती। इससे लौंडिया की हँसली उतर गई। रोयी और चिल्*लायी बहुत। वह तो सिबिया की चाची एक पड़ौसन थी। उसे बुलाया। उसने आके चढ़ायी।

एक बिरियॉं ऐसा ही और हुआ था कि यह अपनी लौंडिया को खशखश बराबर नित अफयून दिया करे थी। वह इसलिए कि वह अपने काम धंधे में लगी रही थी, वा चर्ख-पूनी किया करती। लौंडिया नशे में खटोले पर पड़ी हुई खेला करती। एक दिन लौंडिया का जी अच्*छा नहीं था। रोवे बहुत थी। उसने जाना कि इसका नशा उतर गया है, चने बराबर और दे दी। थोड़ी देर पीछे मुँह में झाग-झाग हो गए। हुचकी भरने लगी। यह हाल देख सुखदेई की मॉं ने दौलत राम को दुकान से बुलवाया। वह हकीम जी को लाया। तब उन्*होंने रद्द करने की दवा दी। उससे कुछ आराम पड़ा और लौंडिया मरती-मरती बची।

दौलत राम की बहु की भनेली जिसका नाम नथिया था, कोट पर रहे थी और कभी-कभी इसके पास आया करे थी। उसका मालिक साहब लोगों में कपड़े की फेरी-फिरा करे था। (दीनानाथ कपड़े वाले की दूकान पर नौकर था।) जब सायंकाल को सारे दिन का हारा-थका घर आता, नून-तेल का झीकना ले बैठती। कभी कहती मुझे गहना बना दे, रोती-झींकती, लड़ती-भिड़ती, उसे रोटी न करके देती। कहती कि फलाने की बहु को देख, गहने में लद रही है। उसका मालिक नित नयी चीज लावै है। मेरे तो तेरे घर में आके भाग फूट गए। वह कहता, अरी भागवान, जाने भगवान रोटियों की क्*यों कर गुजारा करे है। तुझे गहने-पाते की सूझ रही है?

एक न सुनती। रात-दिन क्*लेश रखती। वह दु:खी होकर निकल गया और अपनी चिट्ठी भी नहीं भेजी।

एक दिन वह अपनी भनेली से मिलने आई थी। वह तो घर नहीं थी, छोटेलाल की बहु के पास चली गई। उसने बड़े आदर सम्*मान से उसे बिठाया और पूछा कि तुम्*हारा क्*या हाल है? उसने सारी विपता अपनी कही और यह भी कहा कि मैंने सुना है कि बसन्*ती का चाचा (बाप) जैपुर में लक्ष्*मीचन्*द सेठ की दूकान पर मुनीम है। तुम मेरी तर्फ से एक ऐसी चिट्ठी लिख दो कि वह हमको वहॉं बुला ले, वा आप यहॉं चला आए और जैसा मेरा हाल है उसके लिखने में कुछ संदेह मत करो। मैं जीते जी तुम्*हारा गुण नहीं भूलूँगी। छोटेलाल की बहु ने यह चिट्ठी लिखी-

स्*वस्ति श्री सर्वोपरि विराजमान सकल गुण निधान बसंती के लालाजी बसन्*ती की चाची की राम-राम बंचना। जिस दिन से तुम यहॉं से गए हो बाल-बच्*चे मारे-मारे फिरे हैं। तन पै कपड़ा नहीं। पेट की रोटी नहीं। कोई बात नहीं पूछता कि तुम कौन हो। लोग अपने बच्*चे को मेले-ठेले, सैर-तमाशे दिखलाते फिरे हैं और तुम्*हारे बच्*चे गलियों में डकराते फिरे हैं। मेरी विपता का कुछ हाल मत पूछो। पॉंच वर्ष तो इतने कठिन मालूम नहीं दिये, परन्*तु इस काल में जो कुछ था सब बेच खाया। और यह मुझसे खोटी मति स्त्रियों के पास बैठने से ऐसा हुआ। जैसा मैंने किया, वैसा मैंने पाया। अब मेरी पहिली सी बुद्धि नहीं रही। मेरा अपराध क्षमा करो और हमको वहॉं बुला लो या तुम यहॉं चले आओ। आगे और क्*या लिखूँ? चिट्ठी लिखी आश्विन बदि 4, सं 1926 ।

जब ये चिट्ठी उसके पास पहुँची सुनते ही रो पड़ा और फिर वहॉं से आके अपने सारे कुटुम्*ब को जैपुर ले गया।

दौलत राम की लड़की तीन वर्ष की थी कि एक लड़का हुआ। उसका खुशी हुई, परंतु छोटेलाल की बहु बड़ी मगन हुई और कहने लगी कि हे भगवान तैंने मेरी ऊपर बड़ी दया की। जो लौंडिया-सिवाल होती तो मुझे काहे को जीने देती।

उस लड़के नाम कन्*हैया रक्*खा। जो कोई पूछती री लौंडा राजी है।

अच्*छे-बिच्*छे को कहती कि नित मॉंदा रहे है। दूध नहीं पीता।
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Default Re: देवरानी जेठानी की कहानी

किसी के सामने दूध नहीं पिलाती, न उसको दिखलाती। गोद में ढँक के बैठ जाती इसलिए कि कभी नजर न लग जाय। नित टोने-टोट*के, गंडे-तावीज करती रहे थी। जो कोई स्*याना-दिवाना आता, इससे रुपया-धेली मार ले जाता अर्थात् जो मूर्ख स्त्रियों के काम हैं, और उनसे किसी प्रकार का लाभ नहीं है, किन्*तु बड़ी हानि है, सब करती और अपनी देवरानी को सुना-सुना और स्त्रियों से कहती कि बहिन, बेटा तो हुआ है जो वैरी जीने देंगे।

जब छोटेलाल की बहु मॉंदी ही थी कि एक लड़का और हुआ। उसका नाम मोहन रक्*खा और उसको धा को इस कारण दे दिया कि बीमारी में बच्*चे की मॉं का दूध सुख गया था। इधर उसका इलाज होने लगा, उधर मोहन धा के पलने लगा। धा का दो रुपये महीना कर दिया और यह कह दिया कि जब लड़के को तुझसे लेंगे राजी कर देंगे।

वह मल्*याने गॉंव में शहर से दो कोस अन्*तर से रहे थी। तीज-त्*यौहार के दिन आती, त्*यौहारी ले जाती और जब कभी छोटेलाल वा उसका लाला घर होते, चौअन्*नी वा अठन्*नी धा को दे देते और उसकी लल्*लो-पत्*तो कर देते कि घबराइयो मत, इस घर से तुझे बहुत कुछ मिलेगा।

और वह धा जाटनी थी उसका जाट लाला की दुकान पर पैंठ के दिन घी बेचने आया करे था। सो लाला उससे भी कह दिया करें थे कि भाई हमारे-तुम्*हारे घर की सी बात है, और वह लौंडा तुम्*हारा ही है। उसको राजी रखना।

छोटेलाल की बहु को तो जब ही आराम हो गया था। पॉंचवे वर्ष लड़के को धा से लेने की सलाह ठहरी।

ए*क दिन मुहूर्त्*त दिखलाके उस जाट से कह दिया कि फलाने दिन तुम दोनों चार घड़ी दिन चढ़े लड़के को लेके चले आओ। वह आ गए। पच्*चीस रुपये और दोनों जाटनी और जाट को पॉंचों कपड़े और एक रुपया उसकी भंगन आदि को देके छोटेलाल की बहु ने जाटनी की गोद में से लड़के को अपनी गोद में ले लिया। उसकी सास ने कहा बहिन तेरे लायक तो कुछ है नहीं। तुम्*हें जो दें सो थोड़ा। आगे तेरा घर है, भगवान इसकी उमर लगावे। तुझे बहुत कुछ देगा।

बहु की गोद में लड़का रोने लगा ओर कहने लगा कि मैं तो अपनी मॉं के पास जाऊँगा।

सबने कहा यही तेरी मॉं है वह न माना और जाटनी की गोद में आ गया और कहने लगा कि मॉं घर को चल।

जाटनी ऑंसू भर लायी और कहने लगी बेटा यही तेरी मॉं है और यही तेरा घर है।

सुखदेई की मॉं ने कहा बीबी, दो चार दिन अभी तू यहीं रह। जब पर्च जायेगा अपने घर चली जाइयो।

यह सब जानते है कि छोटे बेटे पर बहुत प्*यार होता है, और पुत्र से प्*यारा क्*या है? जिसके घर में इतना धन-दौलत हो उसके लाड़-प्*यार का क्*या ठिकाना है?

जब छोटेलाल दफ्तर से आता बाहर से ही पुकारता बेटा मोहन!

वह भी घर में से भाग जाता और बाप के हाथ में से रूमाल छीन कर ले आता। उसमें कभी दालसेंवी और कभी बालूशाही और इमर्ती पाता और मॉं को दे देता। मॉं बड़े को तो दादी का लाडला बतलाती और छोटे को आप ऐसा चाहती कि आठों पहर अपनी ऑंखो के सामने रखती। किसी का भरोसा न करती। जहॉं आप जाती उसे साथ ले जाती। थोड़े ही दिन में उसे सौ तक गिनती सिखला दी। नागरी के सारे अक्षर बतला दिये।

नन्**हे की अवस्*था सात वर्ष की थी जब उसे पॉंडे के यहॉं मुहूर्त्*त कराके अंग्रेजी पढ़ने को मदर्से में बिठला दिया था।

नन्*हे की सगाई कई जगह से आई पर छोटेलाल और उसकी बहु ने फेर-फेर दी और यह कहा जब पंदरह-सोलह वर्ष का होगा तब बिवाह-सगाई करेंगे।

बाबा-दादी ने कहा यह तुम क्*या गजब करे हो? जब स्*याना हो जायगा, कौन बिवाह-सगाई करेगा? लोग कहेंगे कि यह जाति में खोटे होंगे जो अब तक बिवाह नहीं हुआ।

लाचार इनको बुलन्*द शहर की सगाई रखनी पड़ी और जिस दिन सगाई ली गई और नन्**हे टीका करवा के उठा दौलतराम की बहु उसी समय बाहर से आग लायी। चक्*की पीसने बैठी। सिर धोया और अपनी मरी मॉं को याद कर बहुत रोई।

सबने बुरा कहा और दौलतराम भी बहुत गुस्*सा हुआ।

छोटेलाल की बहु की मामा की बेटी दिल्*ली से मेरठ में बिवाही हुई आई थी। उसकी बेटी जब नौ वर्ष की थी कोयल में शिवलाल बनिये के बेटे से बिवाही गई थी और उसके भी एक ही बेटा था।

एक दिन कोठे पर खड़ा पतंग उड़ा रहा था और पेच लड़ा रहा था। ऊपर को दृष्टि थी, आगे जो बढ़ा, धड़ाम दे तिमंजिले पर से नीचे आ रहा और पत्*थर पर गिरा। हड्डियों का चकनाचूर हो गया। सिर में बहुत चोट लगी। दो दिन जिया तीसरे दिन मर गया।

सो दिल्*ली वाली की लौंडिया दस वर्ष की अवस्*था में विधवा हो गई थी। किरपी नाम था। बड़ी भोली-भोली लौंडिया थी। ऊपर को निगाह उठा के नहीं देखी थी। अपनी मासी से विष्*णु सहस्*त्रनाम पढ़ लिया था। नित पाठ किया करे थी और जाप करे थी। कथा-वार्त्*ता सुनती रहे थी। कार्तिक और माघ न्*हाती। चन्*द्रायण के व्रत करती। मॉं ने तुलसी का बिवाह और अनन्*त चौदस का उद्दापन करवा दिया था। जगन्*नाथ और बद्रीनाथ के दर्शन भी कर आई थी। कभी-कभी अपनी मॉं के पास मासी से मिलने आया करे थी।

वह इसे देख-देख बड़ी दु:खी होती और अपनी बहिन से कहती कि देखो इस लौंडिया ने देखा ही क्*या है? यह क्*या जानेगी कि मैं भी जगत में आई थी। किसी के जी की कोई क्*या जाने है। इसके जी में क्*या-क्*या आती होगी। इसके साथ की लौंडियें अच्*छा खावे हैं, पहिने हैं। हँसे हैं, बोले हैं। गावें हैं, बजावे हैं। क्*या इसका जी नहीं चाहता होगा? सात फेरो की गुनहगार है। पत्*थर तो हमारी जाति में पड़े हैं। मुसलमानों और साहब लोगों में दूसरा बिवाह हो जाय है और अब तो बंगालियों में भी होने लगा। जाट, गूजर, नाई, धोबी, कहार, अहीर आदियों में तो दूसरे बिवाह की कुछ रोक-टोक नहीं। आगे धर्मशास्*त्र में भी लिखा है कि जिस स्*त्री का उसके पति से सम्*भाषण नहीं हुआ हो और बिवाह के पीछे पति का देहान्*त हो जाय तो वहॉं पुनर्बिवाह योग्*य है अर्थात् उस स्*त्री का दूसरा बिवाह कर देने से कुछ दोस नहीं।

वह सुन के कहने लगी फिर क्*या कीजिये, बहिन। लौकिक के बिरुद्ध भी तो नहीं किया जाता।

दौलतराम की लौंडिया मुलिया ने कनागतों में गोबर की सॉंझी बनाई, दीवे बले मुहल्*ले की लौंडिये इखट्टी हो जातीं और यह गीत गातीं।

सॉंझी री क्*या ओढ़े क्*या पहिनेगी।

काहें का सीस गुँदावेगी?

शालू ओढूँगी मसरु पहनूँगी।

सोने का सीस गूँदाऊँगी।

जब गीत गा लेतीं लौंडियों को चौले बाटे जाते। नन्*हे और मोहन भी कभी-कभी लौंडियों के पास चले जाते और उनके साथ गीत गाते।

उसकी मॉं कहती ना मुन्*ना, लौंडे लौंडियों के गीत नहीं गाते हैं।

एक दिन बड़ा भाई तो चला आया था छोटा भाई वहीं बैठा रहा। नींद जो आयी, पड़के सो गया। जब लौंडिये गीत गा के चली गयीं और मोहन घर नहीं गया तो उसकी मॉं आई। देखे तो धरती पर पड़ा सोवे है। गोद में उठा के ले गई। घर जाकर देखा तो एक हाथ में कड़ा नहीं और चोटी के बाल कतरे हुए हैं।

उसने अपनी सास से कहा। बहुतेरी कोस-कटाई हुई। भगवान जाने किसने लिया और यह काम किसने किया क्*योंकि बाहर से बड़ी लौंडियें भी तो आई थीं। परन्*तु दौलतराम की बहु का नाम हुआ और निस्*सन्*देह यह थी भी खोटी।

जब कभी लौंडे लौंडिया के साथ खेलते हुई ताई-ताई करते इसके घर जाते, मुँह से न बोलती। माथे में तील बल डाल लेती। भला बालकों में क्*या बैर विषवाद है? यह तो भगवान के जीव हैं। इनसे तो सबको मीठा बोलना चाहिए।

जब कभी लौंडिया मुलिया दीदी के पास जाती, चाची पुकार लेती। प्*यार करके अपने पास बिठाती। जो चीज लौंडो को खिलाती पहिले इसको देती और बेटों को बराबर चाहती। लौंडिया को अपने हाथ से गुडि़या बना दी थी। कातने का रंगीन चर्खा मँगा दी थी और लौंडियों के साथ इसको भी सीना सिखलाती। और एक-एक दो-दो अक्षर बतलाती जाती।

सब लौंडी-लारों को दुकान से पैसा-पैसा रोज मिला करे था। दौलत राम की बहु ने एक गुल्*लक बना रक्खी थी सो कन्*हैया और मुलिया के पैसे उसी में गेरती जाती। वर्ष दिन पीछे जो गुल्*लक को तोड़ा तो उसमें ग्*यारह रुपये ।=)।। के पैसे निकले। सो मुलिया की झॉंवर बना दीं। इन बातों में तो बड़ी चतुर थी। और भी इसने इसी प्रकार से सौ रुपये जोड़ लिये थे और वह ब्*याजू दे रक्*खे थे।

छोटेलाल की बहु ने एक पैसा भी नहीं जोड़ा था। जो लौंडे लाये, सब खर्च करा दिये। इस कारण केवल जोड़ने और जमा करने के विषय में दौलत राम की बहु सराहने योग्*य थी।
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Default Re: देवरानी जेठानी की कहानी

एक दिन मोहन संध्*या समय खेलते-खेलते घर में से बाहर चला आया। दिवाली के दिन थे। एक जुआरी ने (जो देखने में भला आदमी दीख पड़े था) आते ही मोहन को गोद में उठा लिया और कहा कि तेरे बाबा ने तुझे खॉंड़ के खिलौने देने को बुलाया है और आज बाजार में बड़ा तमाशा होगा।

यह बालक ही तो था। बोला मैं अपनी मॉं से पूछ आऊँ। उसने कहा मैं तेरी मॉं से पूछ आया हूँ। तुझे तमाशा दिखा के छोड़ जाऊँगा। जाड़ा-जाड़ा कहके उसे अपनी चादर में दुबका लिया और जंगल को ले गया। अँधेरी रात थी। चिम्*मन तिवाड़ी के बाग में ले जा के उससे बोला कि तुम मुझे अपना गहना दे दो।

वह रोने लगा। फिर उसने कहा जो रोवेगा तो गला घोंट के कुएं में गेर दूँगा।

तुम जानो अपनी जान सबको प्*यारी है। बेचारा बालक डर गया और चुप हो रहा। उसने इसके कड़े, बाली और तगड़ी उतार ली और बायें हाथ की उँगली में जो सोने की अँगूठी थी उसकू ऐसा दॉंतो से किचकिचा कर खेंचा कि उँगली में लहू निकलने लगा। फिर इस निर्दयी ने उस बालक से पूछा कि तू मुझे पहिचाने भी है?

उसने कहा नहीं।

यह सुन और उसे एक गढ़े में धक्*का दे चंपत हुआ।

उधर जब दीवे बल गये और मोहन घर नहीं आया तो वहॉं तला-बेली पड़ी।

दादी मुहल्*ले के लौंडों के घर पूछने गई। उन्*होंने कहा वह एक आदमी के साथ तमाशा देखने दुकान गया है।

दुकान को आदमी दौड़ाया वहॉं कहॉं था? यह खबर सुनते ही लाला और दौलतराम दोनों उठे चले आये और छोटेलाल भी घर आ गया।

मुहल्*ले और सारे शहर में ढूँढ़ फिरे। कहीं कुछ पता न लगा। फिर यह सलाह ठहरी कि कोतवाली में लिखवाओ और ढँढोरा पिटवाओ। इसमें पहर भर रात जाती रही। स्त्रियें रोवें और चिल्*लायें। कभी गंगाजी का प्रशाद और कभी हनूमान के बाह्यण बोले। मर्दों के मुँह फक्*क पड़ रहे। औरतों पर गुस्*से हों कि लौंडे को इन्*होंने खोया कि क्*यों गहना पहनाया था? मोहन के जान इनके गहने ने ली।

अब सबको यही सन्*देह हुआ कि किसी ने गहने की लालच गला घोंट के कुएं में गेर दिया।

बड़े लाला ने जमादार के कहने से पॉंच सात पल्*लेदार बुलवा, मशालें जलवा, सब दरवाजों से बाहर लोगों को देखने भेजा। बागों और मंदिरों के कुओं में कॉंटे डाल-डाल सब जगह देखा। जब चिम्*मन तिवाड़ी के बाग में पहुँचे उस मशाल के साथ दौलतराम था। कुएं को देख जुहीं आगे बढ़े और गढ़े के पास को निकले तो दौलतराम के कान में किसी बालक के सुबकने का शब्*द सुनाई दिया।

उसने कहा ठहरो और इस गढ़े में देखो।

देखा तो एक ओर बालक सुबक रहा है उसी समय हुसैनी पल्*लेदार कूद पड़ा और मोहन-मोहन कह उसे उठा लिया और ऊपर ले आया।

देखा तो सारा शरीर लहुलुहान हो रहा है। इसका कारण यह था कि उस गढ़े में एक कीकड़ का पेड़ था। जब उस निर्दयी ने धक्*का दिया था तो वह कॉंटों पर जाकर गिरा था फिर उसे घर ले आये। बाबा ने देखते ही छाती से लगा लिया।

लोगों ने कहा लाला साहब मोहन का तो नया जन्*म हुआ है। लाला ने पूछा मुन्*ना तुझे कौन ले गया था।

उसने सारा हाल बतलाया और कहा कि मै उसे पहिचानता नहीं।

लोग बोले ये ही बात अच्*छी हुई। फिर मोहन को घर में भेज दिया।

मॉं दादी गले लगाके बहुत रोयी। इतने में छोटेलाल भी जो मशाल ले के ढूँढ़ने गया था आन पहुँचा और मोहन को देख बड़ा आनन्*द हुआ। दौलतराम की बहु सबके सामने कहने लगी कि अब मेरे जी में जी आया है। भगवान ने बड़ी दया की। परन्*तु मन की बात परमेश्*वर ही जाने।

लाला ने सब लड़की-बालों के कड़े-बाली उतरवा दिये और कह दिया कि फिर कोई नहीं पहनाने पावे।

अगले दिन पॉंच रुपये के लड्डू मुहल्*ले और बिरादरी में बॉंटे गये और कुछ दान-पुन्*न भी कराया।

दौलत राम की लड़की का सम्*बन्*ध अतरौली में चुन्*नीलाल कसेरे के बेटे से हुआ था।

उन्*हीं दिनों किसी ने लाला सर्वसुखजी से कहा कि लाला जी तुमने कहॉं सगाई कर दी। वह तो तुम्**हारी बराबरी के नहीं है। बरात भी हलकी लावेंगे।

उन्*होंने यह उत्*तर दिया था कि भाई मैंने तो घर-वर दोनों अच्*छे देख लिए हैं। उनका बड़ा कुटुम्*ब है। सादा चलन है। लड़का लिखा-पढ़ा है। दूकान का कारबार अपने हाथ से करे है और बड़ा चतुर है। रुपया-पैसा किसी की जाति नहीं। ऊपर की टीप-टाप अच्*छी नहीं होती। मनुष्*य को चाहिए कि जितनी चादर देखे उतने पॉंव पसारे। मुझे यह बात अच्*छी नहीं लगती। जैसे और हमारे बनिये हाट-हवेली गिर्वी रखके वा दूकान में से हजार दो हजार रुपये जो बड़ी कठिनाई से पैदा किये हैं, बिवाह में लगाकर बिगड़ जाते हैं।

अब मुलिया का बिवाह फुलैरा दोज का ठहर गया। दिन के दिन बराती आयी।

जब बरात चढ़ ली और जनवासे में जा ठहरी, गाड़ीवानों को भूसा दिलवा दिया गया। इक्*कावन रुपये नकद, सोने के पॉंच गहने, तीन सौ रुपये की मालियत, पॉंच बरतन, जरी का जामा, एक घोड़ा और पालकी यहॉं से खेत में गया। जब खेत देके लौटे तो यह कहते आये कि लाला साहब जीमने की जल्*दी करो। दस बजे से पहिले के फेरे हैं। ऐसा न हो कि लगन टल जाय।

जब बरात जीमने को आयी तो नौशा इसलिए नहीं आया कि क्*वारे नाते नहीं जिमाते हैं। सत पकवानी हुई थी। सबने प्रसन्*न होकर खाया और जब जीम चुके, मँढे के नीचे फेरों को बैठ गए।

दिलाराम पॉंडे और एक ब्राह्मण ने जो समधियों की ओर था, मिलकर बिवाह करा दिया। फेरों पर से उठ के भूर बॉंटी और फिर समधी जनवासे में चले गए।

जब कोई पहर भर दिन चढ़ा, बरात में से लड़कों को बुला भेजा कि बस्*यावल जीम जाओ। दोपहर पीछे बेटी वाले के यहॉं से नौतनी गई। रात को बराती ताशे बजवाते जाजकियों से गवाते, अनार और माहताबी छोड़ते जीमने आए।

अगले दिन जब बरी-पुरी हो ली, बिदा की ठहरी।

उस समय लाला सर्वसुख जी ने सब बरातियों के एक-ए*क रुपये, नारियल, टीके किया। उसमें बड़ी वाह-वाह रही। इक्*कीस तियल, एक दोशाला, ग्*यारह बरतन,एक बड़ा भारी टोकना,कुछ रुपये नकद और पकवान आदि उस समय समधी को दिया। और कमीनों को ले-दे लाला सर्वसुख और दौलतराम ने हाथ जोड़ के कहा कि लाला साहब हमसे कुछ नहीं बन आया तुमने हमको ढक लिया।

वह बोले लाला तुमने हमारा घर भर के बाहर भर दिया।

फिर दुलहा और दुलहन को पलंग पर बिठा के धान बोये। लौंडिया रोने लगी कि मैं तो सासू के नहीं जाऊँगी। उस समय उसकी मॉं, दादी और चाची समेत और जो स्त्रियें खड़ी थीं सब आँसू भर लायीं उन सबको रोते देख दौलतराम की ऑंखों में से भी ऑंसू निकल पड़े और कहने लगा बेटी रोवे मत, तुझे जल्*दी बुला लेंगे। फिर लड़की और लड़के को पालकी में बिठा दिया और बुढ़ाने दरवाजे तक सब बिरादरी के आदमी बारात को पहुँचाने आए। समधियों से राम-राम कर अपने–अपने घर चले गए।

लाला सर्वसुखजी की सलाह तीन रोटी देने की थी। कहीं छोटेलाल के मुँह से निकल गई थी कि दो ही रोटी बहुत है। इस बात पर दौलतराम की बहु बहुत नाची-कूदी और कहने लगी कि छोटेलाल की गॉंठ का क्*या खर्च हो था? अभी तो मालिक बैठा है।

नन्*हे की सगाई बुलन्*द शहर में झुन्*नी-मुन्*नी के यहॉं हुई थी। वह खत्*ती भरा करें थे। नाज का भाव जो गिरा उन्*होंने अपनी चारों खत्*ती बेच दीं। इसमें उनकू दो हजार रुपये बन रहे। सो उन्*होंने यह सलाह की कि भाई लौंडिया का बिवाह कर दो। यह इसी के भाग के हैं।

बिवाह सुझवा के सर्वसुखजी को एक चिट्ठी भेजी कि सतवा तीज का बिवाह न केवल सूझे है बहुत शुभ भी है सो तुमको रखना होगा और पीछे से नाई साहे चिट्ठी लेके आवेगा।
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