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Old 09-06-2012, 07:00 PM   #1
neelam
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श्रीयोगवशिष्ठ प्रथम वैराग्य प्रकरण
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Old 09-06-2012, 07:01 PM   #2
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श्रीयोगवशिष्ठ प्रथम वैराग्य प्रकरण प्रारम्भ

उस सत्चित् आनन्दरूप आत्मा को नमस्कार है जिससे सब भासते हैं और जिसमें सब लीन और स्थिर होते हैं एवं जिससे ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय, द्रष्टा, दर्शन, दृश्य और कर्त्ता, करण, कर्म सिद्ध होते हैं,जिस आनन्द के समुद्र के कण से सम्पूर्ण विश्व आनन्दवान् है और जिस आनन्द से सब जीव जीते हैं ।
अगस्त्यजी के शिष्य सुतीक्ष्ण के मन में एक संशय उत्पन्न हुआ तब वह उसके निवृत्त करने के अर्थ अगस्त्य मुनि के आश्रम में जाकर विधिसंयुक्त प्रणाम करके स्थित हुआ और नम्रता पूर्वक प्रश्न किया कि:
हे भगवान्! आप सर्वतत्त्वज्ञ और सर्व शास्त्रों के ज्ञाता हो एक संशय मुझको है सो कृपा करके निवृत्त करो । मोक्ष का कारण कर्म है या ज्ञान? अथवा दोनों?
इतना सुन अगस्त्यजी बोले कि हे ब्रह्मण्य! केवल कर्म मोक्ष का कारण नहीं और केवल ज्ञान से भी मोक्ष प्राप्त नहीं होता; मोक्ष की प्राप्ति दोनों से ही होती है । कर्म करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है, मोक्ष नहीं होता और अतःकरण की शुद्धि के बिना केवल ज्ञान से भी मुक्ति नहीं होती; इससे दोनों से मोक्ष की सिद्धि होती है । कर्म करने से अतःकरण शुद्ध होता है, फिर ज्ञान उपजता है और तब मोक्ष होता है । जैसे दोनों पंखों से पक्षी आकाश मार्ग में सुख से उड़ता है वैसे ही कर्म और ज्ञान दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है । हे ब्रह्मण्य! इसी आशय के अनुसार एक पुरातन इतिहास है वह तुम सुनो ।
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Old 09-06-2012, 07:01 PM   #3
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Default Re: श्रीयोगवशिष्ठ

अग्निवेष का पुत्र कारण नाम ब्राह्मण गुरु के निकट जा षट् अंगों सहित चारों वेद अध्ययन करके गृह में आया और कर्म से रहित होकर तूष्णीं हो स्थित रहा अर्थात संशययुक्त हो कर्मोंसे रहित हुआ ।
जब उसके पिता ने देखा कि यह कर्मों से रहित हो गया है तो उससे कहा कि हे पुत्र! तुम कर्म क्यों नहीं करते? तुम कर्म के न करने से सिद्धता को कैसे प्राप्त होगे? जिस कारण तुम कर्म से रहित हुए हो वह कारण कहो? कारण बोला: हे पिता! मुझको एक संशय उत्पन्न हुआ है इसलिये कर्म से निवृत्त हुआ हूँ । वेद में एक ठौर तो कहा है कि जब तक जीता रहे तब तक कर्म अर्थात् अग्निहोत्रादिक करता रहे और एक ठौर कहा है कि न धन से मोक्ष होता है न कर्म से मोक्ष होता है, न पुत्रादिक से मोक्ष होता है और न केवल त्याग से ही मोक्ष होता है । इन दोनों में क्या कर्तव्य है मुझको यही संशय है सो आप कृपा करके निवृत्त करो और बतलाओ कि क्या कर्त्तव्य है?
अगस्त्यजी बोले हे सुतीक्ष्ण! जब कारण ने पिता से ऐसा कहा तब अग्निवेष बोले कि: हे पुत्र! एक कथा जो पहले हुई है उसको सुनकर हृदय में धारण कर फिर जो तेरी इच्छा हो सो करना । एक काल में सुरुचि नामक अप्सरा, जो सम्पूर्ण अप्सराओं में उत्तम थी, हिमालय पर्वत के सुन्दर शिखर पर जहाँ कि देवता और किन्नरगण, जिनके हृदय कामना से तृप्त थे, अप्सराओं के साथ क्रीड़ा करते थे और जहाँ गंगाजी के पवित्र जल का प्रवाह लहर ले रहा था, बैठी थी । उसने इन्द्र का एक दूत अन्तरिक्ष से चला आता देखा और जब निकट आया तो उससे पूछा: अहो भाग्य, देवदूत! तुम देवगणों में श्रेष्ठ हो; कहाँ से आये हो और अब कहाँ जाओगे सो कृपा करके कहो?
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Old 09-06-2012, 07:01 PM   #4
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Default Re: श्रीयोगवशिष्ठ

देवदूत बोला: हे सुभद्रे! अरिष्टनेमि नामक एक धर्मात्मा राजर्षि ने अपने पुत्र को राज्य देकर वैराग्य लिया और सम्पूर्ण विषयों की अभिलाषा त्याग करके गन्धमादन पर्वत में जा तप करने लगा । उसी से मेरा एक कार्य था और उस कार्य के लिये मैं उसके पास गया था । अब इन्द्र के पास, जिसका मैं दूत हूँ, सम्पूर्ण वृत्तान्त निवेदन करने को जाता हूँ ।
अप्सरा ने पूछा: हे भगवान्! वह वृत्तान्त कौनसा है मुझसे कहो? मुझको तुम अतिप्रिय हो यह जानकर पूछती हूँ । महापुरुषों से जो कोई प्रश्न करता है तो वे उद्वेगरहित होकर उत्तर देते हैं । देवदूत बोला: हे भद्रे! वह वृत्तान्त मैं विस्तारपूर्वक तुमसे कहता हूँ मन लगाकर सुनो ।
जब उस राजा ने गन्धमादन पर्वत पर बड़ा तप किया तब देवताओं के राजा इन्द्र ने मुझको बुलाकर आज्ञा दी कि: हे दूत! तुम गन्धमादन पर्वत पर जो नाना प्रकार की लताओं और वृक्षों से पूर्ण है, विमान, अप्सरा और नाना प्रकार की सामग्री एवं गन्धर्व, यक्ष, सिद्ध, किन्नर, ताल, मृदङ्गादि वादित्र संग ले जाकर राजा को विमान पर बैठा के यहाँ ले आओ । तब मैं विमान और सामग्री सहित जहाँ राजा था आया और राजा से कहा: हे राजन! तुम्हारे कारण विमान ले आया हूँ; इस पर आरूढ़ होकर तुम स्वर्ग को चलो और देवताओं के भोग भोगो ।
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Old 09-06-2012, 07:01 PM   #5
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Default Re: श्रीयोगवशिष्ठ

इतना सुन राजा ने कहा कि: हे दूत! प्रथम तुम स्वर्ग का वृत्तान्त मुझे सुनाओ कि तुम्हारे स्वर्ग में क्या-क्या दोष और गुण हैं तो उनको सुनके मैं हृदयमें विचारूँ । पीछे जो मेरी इच्छा होगी तो चलूँगा । मैंने कहा कि हे राजन्! स्वर्ग में बड़े-बड़े दिव्य भोग हैं । जीव बड़े पुण्य से स्वर्ग को पाता है । जो बड़े पुण्यवाले होते हैं वे स्वर्ग के उत्तम सुख को पाते हैं; जो मध्यम पुण्यवाले हैं वे स्वर्ग के मध्यम सुख को पाते हैं और जो कनिष्ठ पुण्यवाले हैं वे स्वर्ग के कनिष्ठ सुख को पाते हैं । जो गुण स्वर्ग में हैं वे तो तुमसे कहे,अब स्वर्ग के जो दोष हैं वे भी सुनो । हे राजन्! जो आपसे ऊँचे बैठे दृष्ट आते हैं और उत्तम सुख भोगते हैं उनको देखकर ताप की उत्पत्ति होती है क्योंकि उनकी उत्कृष्टता सही नहीं जाती । जो कोई अपने समान सुख भोगते हैं उनको देखकर क्रोध उपजता है कि ये मेरे समान क्यों बैठे है और जो आपसे नीचे बैठे हैं उनको देखकर अभिमान उपजता है कि मैं इनसे श्रेष्ठ हूँ । एक और भी दोष है कि जब पुण्य क्षीण होते हैं तब जीव को उसी काल में मृत्युलोक में गिरा देते हैं, एक क्षण भी नहीं रहने देते । यही स्वर्ग में गुण और दोष हैं । हे भद्रे! जब इस प्रकार मैंने राजा से कहा तो राजा बोला कि हे देवदूत! उस स्वर्ग के योग्य हम नहीं हैं और हमको उसकी इच्छा भी नहीं है । जैसे सर्प अपनी त्वचा को पुरातन जानकर त्याग देता है वैसे ही हम उग्र तप करके यह देह त्याग देंगे । हे देवदूत! तुम अपने विमान को जहाँ से लाये हो वहीं ले जाओ, हमारा नमस्कार है ।
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Old 09-06-2012, 07:02 PM   #6
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Default Re: श्रीयोगवशिष्ठ

हे देवि! जब इस प्रकार राजा ने मुझसे कहा तब मैं विमान और अप्सरा आदि सबको लेकर स्वर्ग को गया और सम्पूर्ण वृत्तान्त इन्द्र से कहा । इन्द्र बहुत प्रसन्न हुआ और सुन्दर वाणी से मुझसे बोला कि: हे दूत! तुम फिर जहाँ राजा है वहाँ जाओ । वह संसार से उपराम हुआ है । उसको अब आत्मपद की इच्छा हुई है इसलिये तुम उसको अपने साथ वाल्मीकिजी के पास , जिसने आत्मतत्त्व को आत्माकार जाना है, ले जाकर मेरा यह सन्देशा देना कि हे महाऋषे! इस राजा को तत्त्वबोध का उपदेश करना क्योंकि यह बोध का अधिकारी है । इसको स्वर्ग तथा और पदार्थों भी इच्छा नहीं, इससे तुम इसको तत्त्व बोध का उपदेश करो और यह तत्त्वबोध को पाकर संसारदुःख से मुक्त हो ।
हे सुभद्रे! जब इस प्रकार देवराज ने मुझसे कहा तब मैं वहाँ से चलकर राजाके निकट आया और उससे कहा कि हे राजन्! तुम संसारसमुद्र से मोक्ष होने के निमित्त वाल्मीकिजी के पास चलो; वे तुमको उपदेश करेंगे । उसको साथ लेकर मैं वाल्मीकिजी स्थान पर आया और उस स्थान में राजा को बैठा और प्रणामकर इन्द्र का सन्देशा दिया । तब वाल्मीकिजी ने कहा: हे राजन् कुशल तो है?राजा बोले, हे भगवान्! आप परमतत्त्वज्ञ और वेदान्त जाननेवालों में श्रेष्ठ हैं, मैं आपके दर्शन करके कृतार्थ हुआ और अब मुझको कुशलता प्राप्त हुई है । मैं आपसे पूछता हूँ कृपा करके उत्तर दीजिए कि संसार बन्धन से कैसे मुक्ति हो?
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Old 09-06-2012, 07:03 PM   #7
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Default Re: श्रीयोगवशिष्ठ

यह शास्त्र सत्-चित्त आनन्दरूप अचिन्त्यचिन्मात्र आत्मा को जताता है यह तो विषय है, परमानन्द आत्मा की प्राप्ति और अनात्म अभिमान दुःख की निवृत्ति प्रयोजन है और ब्रह्मविद्या और मोक्ष उपाय से आत्मपद प्रतिपादन सम्बन्ध है जिसको यह निश्चय है कि मैं अद्वैत-ब्रह्म अनात्मदेह से बाँधा हुआ हूँ सो किसी प्रकार छूटूँ वह न अति ज्ञानवान् है, न मूर्ख है, ऐसा विकृति आत्मा यहाँ अधिकारी है । यह शास्त्र मोक्ष (परमानन्द की प्राप्ति) करनेवाला है । जो पुरुष इसको विचारेगा वह ज्ञानवान् होकर फिर जन्ममृत्युरूप संसार में न आवेगा । हे राजन! यह महारामायण पावन है । श्रवण मात्र से ही सब पाप का नाशकर्त्ता है जिसमें रामकथा है । यह मैंने प्रथम अपने शिष्य भारद्वाज को सुनाई थी ।
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Old 09-06-2012, 07:06 PM   #8
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इतना कह वाल्मीकिजी बोले हे भारद्वाज! ऐसे ही वशिष्ठजी और राजा दशरथ विचार करते थे कि उसी काल में विश्वामित्र ने अपने यज्ञ के अर्थ राजा दशरथ के गृह पर आकर द्वारपाल से कहा कि राजा दशरथ से कहो कि गाधि के पुत्र विश्वामित्र बाहर खड़ेहैं । द्वारपाल ने आकर राजा से कहा कि हे स्वामिन्! एक बड़े तपस्वी द्वार पर खड़े हैं और उन्होंने कहा है कि राजा दशरथ के पास जाके कहो कि विश्वामित्र आये हैं ।हे भारद्वाज! जब इस प्रकार द्वारपाल ने आकर कहा तब राजा, जो मण्डलेश्वरों सहित बैठा था और बड़ा तेजवान् था सुवर्ण के सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और पैदल चला । राजा के एक ओर वशिष्ठजी और दूसरी ओर वामदेवजी और सुभट की नाईं मण्डलेश्वर स्तुति करते चले और जहाँ से विश्वामित्र दृष्टि आये वहाँ से ही प्रणाम करने लगे । पृथ्वी पर जहाँ राजा का शीश लगता था वहाँ पृथ्वी हीरे और मोती से सुन्दर हो जाती थी । इसी प्रकार शीश नवाते राजा चले । विश्वामित्रजी काँधे पर बड़ी बड़ी जटा धारण किये और अग्नि के समान प्रकाशमान परम शान्तस्वरूप हाथ में बाँस की तन्द्री लिये हुए थे । उनके चरणकमलों पर राजा इस भाँति गिरा जैसे सूर्यपदा शिवजी के चरणार विन्द में गिरे थे । और कहा हे प्रभो! मेरे बड़े भाग्य हैं जो आपका दर्शन हुआ ।
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Old 09-06-2012, 07:07 PM   #9
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हे मुनीश्वर! केवल मुझे ही उनका इतना स्नेह नहीं किंतु लक्ष्मण शत्रुघ्न,भरत और माताओं के भी प्राण हैं । जो तुम उनको ले जावोगे तो सब ही मर जावेंगे जो तुम हमको रामजी के वियोग से मारने आये हो तो ले जावो । हे मुनीश्वर मेरे चित्त में तो रामजी पूर्ण हो रहे हैं उनको मैं आपके साथ कैसे दूँ? मैं तो उनको देखकर प्रसन्न होता हूँ ।रामजी के वियोग से मेरे प्राण कैसे बचेंगे? हे मुनीश्वर! ऐसी प्रीति मुझे स्त्री, धन और पदार्थों की नहीं जैसी रामजी की है । मैं आपके वचन सुनकर अति शोकवान् हुआ हूँ । मेरे बड़े अभाग्य उदय हुए जो आप इस निमित्त आये । मैं रामजी को कदापि नहीं दे सकता । जो आप कहिये तो मैं एक अक्षौहिणी सेना, जो अति शूरवीर और शस्त्र अस्त्रविद्या से सम्पन्न हैं साथ लेकर चलूँ और उनको मारूँ पर जो कुबेर का भाई और विश्रवा का पुत्र रावण हो तो उससे मैं युद्ध नहीं कर सकता ।
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Old 09-06-2012, 08:08 PM   #10
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पहिले मैं बड़ा पराक्रमी था; ऐसा कोई त्रिलोकी में न था जो मेरे सामने आता, पर अब वृद्धावस्था प्राप्त होकर देह जर्जर हो गई है । हे मुनीश्वर! मेरे बड़े अभाग्य हैं जो आप आये । मैं तो रावण से काँपता हूँ और केवल मैं ही नहीं वरन् इन्द्र आदि देवता भी उससे काँपते और भय पाते हैं । किसकी सामर्थ्य है जो उससे युद्ध करे । इस काल में वह बड़ा शूरवीर है । जो मेरी ही उसके साथ युद्ध करने की सामर्थ्य नहीं तो राजकुमार रामजी की क्या सामर्थ्य है? जिन रामजी को तुम लेने आये हो वह तो रोगी पड़े हैं । उनको ऐसी चिन्ता लगी है जिससे महाकृश हो गये हैं और अन्तःपुर में अकेले बैठे रहते हैं ।
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