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Old 09-06-2012, 08:09 PM   #31
neelam
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खाना-पीना इत्यादि जो राजकुमारों की चेष्टायें हैं वह भी सब उनको बिसर गई हैं और मैं नहीं जानता कि उनको क्या दुःख हुआ । जैसे पीतवर्ण कमल होता है वैसे ही उनका मुख हो गया है । उनको युद्ध की सामर्थ्य कहाँ है? उन्होंने तो अपने स्थान से बाहर की पृथ्वी भी नहीं देखी है हमारे प्राण वहीं हैं उनके वियोग से हम नहीं जी सकते ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे दशरथाक्तिवर्णनन्नाम पञ्चमस्सर्गः ॥५॥
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Old 09-06-2012, 08:09 PM   #32
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रामसमाजवर्णन


वाल्मीकिजी बोले कि जब इस प्रकार दशरथजी ने महादीन और अधैर्य होकर कहा तो विश्वामित्र जी क्रोध करके कहने लगे कि हे राजन्! तुम अपने धर्म को स्मरण करो । तुमने कहा था कि तुम्हारा अर्थ सिद्ध करूँगा पर अब तुम अपने धर्मको त्यागते हो । जो तुम सिंहों के समान मृगों की नाईं भागते हो तो भागो पर आगे रघुवंशी कुल में ऐसा कोई नहीं हुआ कि जिसने वचन फेरा हो। जो तुम करते हो सो करो हम चले जावेंगे परन्तु यह तुमको योग्य न था क्योंकि शून्य गृह से शून्य ही होकर जाता है । तुम बसते रहो और राज्य करते रहो जैसा कुछ होगा हम समझ लेंगे । इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि जब इस प्रकार विश्वामित्र जी को क्रोध उत्पन्न हुआ तो पचास कोटियोजन तक पृथ्वी काँपने लगी और इन्द्रादिक देवता भयवान् हुए कि यह क्या हुआ? तब वशिष्ठजी बोले, हे राजन! इक्ष्वाकुकुल में सब परमार्थी हुए हैं और तुम अपना धर्म क्यों त्यागते हो? मेरे सामने तुमने विश्वामित्रजी से कहा है कि तुम्हारा अर्थ पूरा करूँगा पर अब क्यों भागते हो । राम जी को तुम इनके साथ कर दो, यह तुम्हारे पुत्र की रक्षा करेंगे ।
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Old 09-06-2012, 08:10 PM   #33
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इस पुरुष के सामने किसी का बल नहीं चलता यह साक्षात् ही काल की मूर्ति हैं जो तपस्वी कहिये तो भी इन के समानदूसरा नहीं है और शस्त्र और अस्त्रविद्या भी इनके सदृशकोई नहीं जानता क्योंकि दक्ष प्रजापति ने अपनी दो पुत्रियाँ जिनका नाम जया और सुभगा था विश्वामित्र जी को दी थीं जिन्होंने पाँच पाँच सौ पुत्र दैत्यों के मारने के लिये प्रकट किये वे दोनों इनके सम्मुख मूर्ति धारण करके स्थित होती हैं इससे कौन जीत सकता है? जिसके साथी विश्वामित्रजी हों उसको किसी का भय नहीं । आप इनके साथ अपना पुत्र निस्संशय होकर दो । किसी को सामर्थ्य नहीं कि इनके होते तुम्हारे पुत्र को कुछ कह सके । जैसे सूर्य के उदय से अन्धकार का अभाव हो जाता है वैसे ही इनकी दृष्टि से दुःख का अभाव हो जाता है । हे राजन! इनके साथ तुम्हारे पुत्र को कोई खेद न होगा । तुम इक्ष्वाकु के कुल में उत्पन्न हुए हो और दशरथ तुम्हारा नाम है, जो तुम ऐसे हो अपने धर्ममें स्थित न रहे तो और जीवों से धर्म का पालन कैसे होगा? जो कुछ श्रेष्ठ पुरुष चेष्टा करते हैं उनके अनुसार और जीव भी करते हैं ।
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Old 09-06-2012, 08:10 PM   #34
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जो तुम अपने वचनों का पालन न करोगे तो और किसी से क्या होगा? तुम्हारे कुल में अपने वचन से कोई नहीं । यदि तुम दैत्यों के भय से शोकवान् हो तो मत हो । कदाचित् मूर्तिधारी काल आकर स्थित हो तो भी विश्वामित्र के होते तुम्हारे पुत्र को कुछ भय न होगा । तुम शोक मत करो और अपने पुत्र को इनके साथ कर दो । जो तुम अपना पुत्र न दोगे तो तुम्हारा दो प्रकार का धर्म नष्ट होगा-एक धर्म यह कि कूप, बावली और ताल जो बनवाये हैं उनका पुण्य नष्ट हो जावेगा, दूसरे यह कि तप, व्रत, यज्ञ, दान,स्नादिक क्रिया का फल भी नष्ट होकर तुम्हारा गृह अर्थहीन हो जावेगा । इससे मोह और शोक को छोड़ और धर्म को स्मरण करके रामजी को इनके साथ कर दो तो तुम्हारे सब कार्य सफल होंगे । हे राजन्! इस प्रकार जो तुम्हें करना था तो प्रथम ही विचारकर कहते क्योंकि विचार किये बिना काम करने का परिंणाम दुःख होता है । इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले हे भारद्वाज जब इस प्रकार वशिष्ठजी ने कहा तो राजा दशरथ धैर्यवान् हुए और भृत्यों में जो श्रेष्ठ भृत्य था उसको बुलाकर कहा हे महाबाहो! रामजी को ले आवो! उनके साथ जो चाकर बाहर आने जाने वाला और छल से रहित था राजा की आज्ञा लेकर रामजी के निकट गया और एक मुहूर्त्त पीछे आकर कहने लगा हे देव! रामजी तो बड़ी चिन्ता में बैठे हैं ।
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Old 09-06-2012, 08:10 PM   #35
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जब मैंने रामजी से बारंबार कहा कि चलिये तब वे कहने लगे कि चलते हैं । ऐसे ही कह कह चुप हो रहते हैं । दूत का यह वचन सुन राजा ने कहा कि रामजी के मन्त्री और सब नौकरों को बुलावो और जब वे सब निकट आये तो राजा ने आदर और युक्तिपूर्वक कोमल और सुन्दर वचन मन्त्री से इस भाँति कहा कि हे रामजी के प्यारे! रामजी की क्या दशा है और ऐसी दशा क्योंकर हुई है तो सब क्रम से कहो? मंत्री बोला, हे देव! हम क्या कहें? हम अति चिन्ता से केवल आकार और प्राण सहित दीखते हैं किंतु मृतक के समान हैं क्योंकि हमारे स्वामी रामजी बढ़ी चिन्ता में हैं । हे राजन्! जिस दिन से रघुनाथजी तीर्थ करके आये हैं उस दिन से चिन्ता को प्राप्त हुए हैं । जब हम उत्तम भोजन और पान करने और पहिरने और देखने के पदार्थ ले जाते हैं तो उनको देखकर वे किसी प्रकार प्रसन्न नहीं होते । वे तो ऐसी चिन्ता में लीन हैं कि देखते भी नहीं और जो देखते हैं तो क्रोधकरके सुखदायी पदार्थों का निरादर करते हैं ।अन्तःपुर में उनकी माता नाना फ्रकार के हीरे और मणि के भूषण देती हैं तो उनको भी डाल देते हैं अथवा किसी निर्धन को दे देते हैं;प्रसन्न किसी पदार्थ से नहीं होते ।
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Old 09-06-2012, 08:11 PM   #36
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सुन्दर स्त्रियाँ नाना प्रकार के भूषणों सहित महामोह करनेवाली निकट आकर उनकी प्रसन्नता के निमित्त लीला और कटाक्ष करती हैं वे उनको भी विषवत् जानते हैं । जैसे जैसे पपीहा और किसी जल को नहीं पीतावैसे ही वे जब अन्तःपुर में जाते हैं तब उन स्त्रियों को देखकर क्रोधवान् होते हैं । हें राजन्! उनको कुछ भला नहीं लगता वे तो किसी बड़ी चिन्ता में मग्न हैं । तृप्त होकर भोजन नहीं करते क्षुधावन्त रहते हैं उन्हें कुछ न पहिरने और खाने पीने की इच्छा है, न राज्य की इच्छा है और न इन्द्रियों के किसी सुख की इच्छा है । वे तो उन्मत्त की नाईं बैठे रहते हैं और जब हम कोई सुखदाई पदार्थ फूलादिक ले जाते हैं तब क्रोध करते हैं । हम नहीं जानते कि क्या चिन्ता उनको हुई है जो एक कोठरी में पद्मासन लगाये हाथ पर मुख धरे बैठे रहते हैं । जो कोई बड़ा मन्त्री आकर पूछता है तो उससे कहते हैं कि तुम जिसको सम्पदा मानते हो वह आपदा है और जिसको आपदा जानते हो वह आपदा नहीं है । संसार के नाना प्रकार के पदार्थ जो रमणीय जानते हो वे सब झूठे हैं पर इसी में सब डूबे हैं । ये सब मृगतृष्णा के जलवत् हैं; इनको सत्य जान मूर्ख हिरण दौड़ते और दुःख पाते हैं । हे राजन! वे कदाचित् बोलते हैं तो ऐसे बोलते हैं और कुछ उनको सुखदायी नहीं भासता । जो हम हँसी की वार्ता करते हैं वे हँसते भी नहीं ।
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Old 09-06-2012, 08:11 PM   #37
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जिस पदार्थ को प्रीतिसंयुक्त लेते थे उस पदार्थ को अब डाल देते हैं और दिन पर दिन दुर्बल होते जाते हैं । जैसे मेघ की बून्द से पर्वत चलायमान नहीं होते वैसे ही वे भी चलायमान नहीं होते, और जो बोलते हैं तो ऐसे कहते हैं कि न राज्य सत्य है, न भोग सत्य है न यह जगत् सत्य है, न भ्राता सत्य है और न मित्र सत्य है । मिथ्या पदार्थों के निमित्त मूर्ख यत्न करते हैं । जिनको सब सत्य और सुखदायक जानते हैं वे बन्धन के कारण हैं । जो कोई राजा अथवा पण्डित इनके पास जाता है तो उनको देखकर कहते हैं ये पशु हैं--आशारूपी फाँसी से बँधे हुए हैं।हे राजन्! जो कुछ योग्य पदार्थ हैं उनको देखकर उनका चित्त प्रसन्न नहीं होता बल्कि देखकर क्रोधवान् होते हैं । जैसे पपीहा मारवाड़ में जावे तो मेघों की बून्दों को नहीं देखता और खेदवान् होता है वैसे ही रामजी विषयों से खदवान् होते हैं । इससे हम जानते हैं कि उनको परमपद पाने की इच्छा है परन्तु कदाचित् उनके मुख से यह नहीं सुना त्याग का भी अभिमान उन्हें कदाचित नहीं है क्योंकि कभी गाते हैं और बोलते हैं तो कहते हैं! हाय मैं अनाथ मारा गया! अरे मूर्खों! तुम संसार समुद्र में क्यों डूबते हो? यह संसार अनर्थ का कारण है । इसमें सुख कदापि नहीं है इससे छूटने का उपाय करो । वह किसी के साथ बोलते नहीं और न हँसते हैं; किसी अति चिन्ता में डूबे हैं ।
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Old 09-06-2012, 08:11 PM   #38
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वह किसी पदार्थ से आश्चर्यवान् भी नहीं होते । जो कोई कहे कि आकाश में बाग लगा है और उसमें फूल फूले हैं । उनको मैं ले आया; तो उसको सुनकर भी आश्चर्यवान् नहीं होते , सब भ्रममात्र समझते हैं । उनको न किसी पदार्थ से हर्ष होता है, न किसी से शोक होता है; किसी बड़ी चिन्ता में मग्न हैं पर उस चिन्ता के निवारण करने की किसी में सामर्थ्य नहीं देखते । हे राजन् हमको यह चिन्ता लग रही है कि रामजी को खाने, पहिनने,बोलने और देखने की इच्छा नहीं रही । और न किसी कर्म की उनको इच्छा है ऐसा न हो कि कहीं मृतक हो जावें? जो कोई कहता है कि तुम चक्रवर्ती राजा हो तुम्हारी बड़ी आयु हो और बड़ा सुख पावो तो उसके वचन सुनकर कठोर बोलते हैं । हे राजन्! केवल रामजी को ही ऐसी चिन्ता नहीं वरन् लक्ष्मण और शत्रुघ्न को भी ऐसे ही चिन्ता लग रही है । जो कोई उनकी चिन्ता दूर करनेवाला हो तो करे नहीं तो बड़ी चिन्ता में डूबे रहेंगे । हे राजन् अब क्या कहते हो? तुम्हारे पुत्र सबसे विरक्त हो एक वस्त्र ओढ़े बैठे हैं ।
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Old 09-06-2012, 08:11 PM   #39
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इससे अब तुम वही उपाय करो जिससे उनकी चिन्ता निवृत्त हो । इतना सुन विश्वामित्रजी बोले हे साधो! यदि रामजी ऐसे है तो हमारे पास लावो, हम उनका दुःख निवृत्त करेंगे । हे राजन्! दशरथ! तुम धन्य हो; जिनका पुत्र विवेक और वैराग्य को प्राप्त हुआ है ।हम तुम्हारे पुत्र को परम पद प्राप्त करावेंगे और अभी उनके सब दुःख मिट जावेंगे । हम और वशिष्ठादि एक युक्ति से उपदेश करेंगे उससे उनको आत्मपद की प्राप्ति होगी । तब वह दशा तुम्हारे पुत्र की होगी कि वह लोष्ट, पत्थर और सुवर्ण को समान जानेंगे । जो क्षत्रियों का प्राकृतिक आचार है सो वह करेंगे और हृदय से उदासीन रहेंगे इससे तुम्हारा कुल कृतार्थ होगा । तुम रामजी को शीघ्र बुलावो । इतना कह कर वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! ऐसे मुनीन्द्र के वचन सुनकर राजा दशरथ ने मन्त्री और नौकरों से कहा कि राम, लक्ष्मण और शत्रुघ्नको साथ ले आवो । जब मन्त्री और भृत्योंने रामजी के पास जाकर कहा तो रामजी आये और राजा दशरथ, वशिष्ठजी और विश्वामित्र को देखा कि तीनों पर चमर हो रहे हैं और बड़े बड़े मण्डलेश्वर बैठे हैं ।
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Old 09-06-2012, 08:13 PM   #40
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सबने रामजी को देखा कि उनका शरीर कृश हो रहा है । जैसे महादेवजी स्वामिकार्त्तिक को आते देखें वैसे ही राजा दशरथ ने रामजी को आते देखा । रामजी ने वहाँ आकर राजा दशरथजी के चरण पर मस्तक लगा प्रणाम किया और वैसे ही वशिष्ठजी,विश्वामित्र और सभा में जो बड़े बड़े ब्राह्मण बैठे थे उनको भी प्रणाम किया । जो बड़े बड़े मण्डलेश्वर बैठे थे उन्होंने उठकर रामजी को प्रणाम किया । राजा दशरथने रामजी को गोद में बैठाकर मस्तक चूमा और बहुत प्रेम से पुलकित हो रामजी से कहा हे पुत्र! केवल विरक्तता से परमपद की प्राप्ति नहीं होती । गुरु वशिष्ठजी के उपदेश की युक्ति से परमपद की प्राप्ति होगी । वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तुम धन्य हो और बड़े शूर हो कि विषय रूपी शत्रु तुमने जीते हैं । विश्वामित्रजी बोले, हे कमलनयन राम! अपने अन्तःकरण की चपलता को त्यागकर जो कुछ तुम्हारा आशय हो प्रकट कर कहो कि तुमको मोह कैसे हुआ, किस कारण हुआ और कितना है? एवं अब जो कुछ तुमको वाञ्छित हो सो भी कहो ।
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