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Old 09-06-2012, 08:14 PM   #41
neelam
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हम तुमको उसी पद में प्राप्त करेंगे जिसमे कदाचित दुःख न हो । जैसे आकाश को चूहा नहीं काट सकता वैसै ही तुमको कदाचित् पीड़ा होगी । हे रामजी! हम तुम्हारे सम्पूर्णदुःख नाश कर देंगे । तुम संशय मत करो जो कुछ तुम्हारा वृत्तान्त हो सो हमसे कहो । इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले, हे भारद्वाज! जैसे मेघ को देखकर मोर प्रसन्न होता है वैसे ही विश्वामित्र के वचन सुनकर रामजी प्रसन्न हुए अपने हृदय में निश्चय किया कि अब मुझको अभीष्ट पद की प्राप्ति होगी ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे रामसमाजवर्णनोनाम षष्ठस्सर्गः ॥६॥
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Old 09-06-2012, 08:15 PM   #42
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रामेणवैराग्य वर्णन


श्री रामजी बोले, हे भगवान्! जो वृत्तान्त है सो तुम्हारे सम्मुख क्रम से कहता हूँ मैं राजा दशरथ के घर में उत्पन्न होकर क्रमसे बड़ा हुआ और चारों वेद पढ़कर ब्रह्मचर्यादि व्रत धारण किये; तदनन्तर घर में आया तो मेरे हृदय में विचार हुआ कि तीर्थाटन करूँ और देवद्वारों में जाकर देवों के दर्शन करूँ । निदान मैं पिता की आज्ञा लेकर तीर्थों में गया और गंगा आदि सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान और शालग्राम और केदार आदि ठाकुरों के विधिसंयुक्त दर्शन करके यहाँ आया । फिर उत्साह हुआ तब यह विचार आया कि प्रातःकाल उठकर स्नान सन्ध्यादिक कर्म करके भोजन करता । जब इस प्रकार से कुछ दिन व्यतीत हुए तब मेरे हृदय में एक विचार उत्पन्न हुआ जो मेरे हृदय को खैंच ले गया ।
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Old 09-06-2012, 08:15 PM   #43
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जैसे नदी के तट पर तृण बेल होती है उसको नदी का प्रवाह खींच ले जाता है वैसे ही मेरे हृदय में जो कुछ जगत् की आस्थारूपी बेल थी उसको विचाररूपी प्रवाह खींच ले गया । तब मैंने जाना कि राज्य करने से क्या है, भोग से क्या है और जगत क्या है - सब भ्रममात्र है - इसकी वासना मूर्ख रखते हैं; यह स्थावर, जंगम जगत् सब मिथ्या है । हे मुनीश्वर! जितने कुछ पदार्थ हैं वह सब मन से उत्पन्न होते हैं सो मन ही भ्रममात्र है अनहोता मन दुःखदायी हुआ है । मन जो पदार्थों को सत्य जानकर दौड़ता है और सुखदायक जानता है सो मृगतृष्णा के जलवत् है । जैसे मृगतृष्णा के जल को देखकर मृग दौड़ते हैं और दौड़ते-दौड़ते थक कर गिर पड़ते हैं तो भी उनको जल प्राप्त नहीं होता वैसे ही मूर्ख जीव पदार्थों को सुखदायी जानकर भोगने का यत्न करते हैं और शान्ति नहीं पाते । हे मुनीश्वर! इन्द्रियों के भोग सर्पवत् है जिनका मारा हुआ जन्म मरण और जन्म से जन्मान्तर पाता है । भोग और जगत् सब भ्रममात्र हैं उनमें जो आस्था करते हैं वह महामूर्ख हैं मैं विचार करके ऐसा जानता हूँ कि सब आगमापायी है अर्थात् आते भी हैं और जाते भी हैं ।
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Old 09-06-2012, 08:15 PM   #44
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इससे जिस पदार्थ का नाश न हो वही पदार्थ पाने योग्य है इसी कारण मैंने भोगों को त्याग दिया है । हे मुनीश्वर! जितने सम्पदारूप पदार्थ भासते हैं वह सब आपदा हैं; इनमें रञ्चक भी सुख नहीं । जब इनका वियोग होता है तब कण्टक की नाई मन में चुभते हैं । जब इन्द्रियों को भोग प्राप्त होते हैं तब जीव राग द्वेष से जलता है और जब नहीं प्राप्त होते तब तृष्णा से जलता है--इससे भोग दुःखरूप ही है । जैसे पत्थर की शिला में छिद्र नहीं होता वैसे ही भोगरूपी दुःख की शिला में सुखरूप छिद्र नहीं होता । हे मुनीश्वर! मैं विषय की तृष्णा में बहुत काल से जलता रहा हूँ । जैसे हरे वृक्ष के छिद्र में अग्नि धरी हो तो धुँवा हो थोड़ा थोड़ा जलता रहता है वैसे ही भोगरूपी अग्नि से मन जलता रहता है । विषयों में कुछ भी सुख नहीं है दुःख बहुत हैं, इससे इनकी इच्छा करनी मूर्खता है ।
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Old 09-06-2012, 08:16 PM   #45
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जैसे खाईं के उपर तृण और पात होते हैं और उससे खाईं आच्छादित हो जाती है उसको देख हरिण कूदकर दुःख पाता है वैसे ही मूर्ख भोग को सुखरूप जानकर भोगने की इच्छा करता है और जब भोगता है तब जन्म से जन्मान्तररूपी खाईं में जा पड़ता है और दुःख पाता है । हे मुनीश्वर! भोगरूपी चोर अज्ञानरूपी रात्रिमें आत्मा रूपी धन लूट ले जाता है, पर उसके वियोग से महादीन रहता है । जिस भोग के निमित्त यह यत्न करता है वह दुखरूप है । उससे शान्ति प्राप्त नहीं होती और जिस शरीर का अभिमान करके यह यत्न करता है वह शरीर क्षणभंगुर और असार है । जिस पुरुष को सदा भोग की इच्छा रहती है वह मूर्ख और जड़ है । उसका बोलना और चलना भी ऐसा है जैसे सूखे बाँस के छिद्र में पवन जाता है और उसके वेग से शब्द होता है । जैसे थका हुआ मनुष्य मारवाड़ के मार्ग की इच्छा नहीं करता वैसे ही दुःख जानकर मैं भोग की इच्छा नहीं करता । लक्ष्मी भी परम अनर्थकारी है जब तक इसकी प्राप्ति नहीं होती तब तक उसके पाने का यत्न होता है और यह अनर्थ करके प्राप्त होती है ।
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Old 09-06-2012, 08:17 PM   #46
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जब लक्ष्मी प्राप्त हुई तब सब सद्गुण अर्थात् शीलता, सन्तोष, धर्म, उदारता, कोमलता, वैराग्य विचार दयादिक का नाश कर देती है । जब ऐसे गुणों का नाश हुआ तब सुख कहाँ से हो, तब तो परम आपदा ही प्राप्त होती है । इसको परमदुःख का कारण जानकर मैंने त्याग दिया है । हे मुनीश्वर! इस जीव में गुण तबतक हैं जब तक लक्ष्मी नहीं प्राप्त हुई । जब लक्ष्मी की प्राप्ति हुई तब सब गुण नष्ट हो जाते हैं । जैसे बसन्त ऋतु की मञ्जरी तब तक हरी रहती है जब तक ज्येष्ठ आषाढ़ नहीं आता और जब ज्येष्ठ आषाढ़ आया तब मञ्जरी जल जाती है वैसे ही जब लक्ष्मी की प्राप्ति हुई तब शुभ गुण जल जाते हैं । मधुर वचन तभी तक बोलता है जब तक लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं है और जब लक्ष्मी की प्राप्ति हुई तब कोमलता का अभाव होकर कठोर हो जाता है ।
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Old 09-06-2012, 08:17 PM   #47
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जैसे जल पतला तब तक रहता है जब तक शीतलता का संयोग नहीं हुआ और जब शीतलता का संयोग होता है तब बरफ होकर कठोर दुःखदायक हो जाता है; वैसे यह जीव लक्ष्मी से जड़ हो जाता है । हे मुनीश्वर! जो कुछ संपदा है वह आपदा का मूल है,क्योंकि जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तब बड़े-बड़े सुख भोगता है और जब उसका अभाव होता है तब तृष्णा से जलता है और जन्म से जन्मान्तर पाता है । लक्ष्मी की इच्छा करना ही मूर्खता है । यह तप क्षणभंगुर है, इससे भोग उपजते और नष्ट होते हैं । जैसे जल से तरंग उपजते और मिट जाते हैं और जैसे बिजली स्थिर नहीं होती वैसे ही भोग भी स्थिर नहीं रहते । पुरुष में शुभ गुण तब तक हैं जब तक तृष्णा का स्पर्श नहीं और जब तृष्णाहुई तब गुणों का अभाव हो जाता है । जैसे दूध में मधुरता तब तक है जब तक उसे सर्प ने स्पर्श नहीं किया और सर्प ने स्पर्श किया तब वही दूध विषरूप हो जाता है ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे रामेणवैराग्य वर्णनन्नामसप्तमस्सर्गः ॥७॥
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Old 09-06-2012, 08:17 PM   #48
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लक्ष्मीनैराश्य वर्णन


श्रीरामजी बोले हे मुनीश्वर! लक्ष्मी देखने मात्र ही सुन्दर है । जब इसकी प्राप्ति होती है तब सद्गुणों का नाश कर देती है । जैसे विष की बेल देखने मात्र ही सुन्दर होती है और स्पर्श करने से मार डालती है वैसे ही लक्ष्मी की प्राप्ति होने से जीव आत्मपद से वंचित हो महादीन हो जाता है । जैसे किसी के घर में चिन्तामणि दबी हो तो उसको जब तक खोदकर वह नहीं लेता तब तक दरिद्री रहता है वैसे ही (अज्ञान से) ज्ञान बिना महादीन हो रहता है और आत्मानन्द को नहीं पा सकता । आत्मानन्द में विघ्न करनेवाली लक्ष्मी है । इसकी प्राप्ति से जीव अन्धा हो जाता है । हे मुनीश्वर! जब दीपक प्रज्वलित होता है तब उसका बड़ा प्रकाश दृष्टि आता है और जब बुझ जाता है तब प्रकाश का अभाव हो जाता है पर काजल रह जाता है; वैसे ही जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तब बड़े भोग भुगाती है और तृष्णारूपी काजल उससे उपजता रहता है और जब लक्ष्मी का अभाव होता है तब तृष्णारूप वासना छोड़ जाती है ।

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Old 09-06-2012, 08:18 PM   #49
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उस वासना (तृष्णा) से अनेक जन्म और मरण पाता है, कभी शान्ति नहीं पाता । हे मुनीश्वर! जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, तब शान्ति के उपजानेवाले गुणों का नाश करती है । जैसे जब तक पवन नहीं चलता तब तक मेघ रहता है और जब पवन चलता है तो मेघ का अभाव हो जाता है वैसे ही लक्ष्मीजी की प्राप्ति होने से गुणों का अभाव होता है और गर्व की उत्पत्ति होती है । हे मुनीश्वर! जो शूर होकर अपने मुख से अपनी बड़ाई न करे सो दुर्लभ है और सामर्थ्यवान् हो किसी की अवज्ञा न करे सब में समबुद्धि राखे सो भी दुर्लभ है वैसे ही लक्ष्मीवान् होकर शुभ गुण हो सो भी दुर्लभ है । हे मुनीश्वर तृष्णारूपी सर्प के विष के बढ़ाने को लक्ष्मीरूपी दूध है उसे पीते, पवनरूपी भोग के आहार करते कभी नहीं अघाता । महामोहरूपी उन्मत्त हस्ती है उसके फिरने का स्थान पर्वत की अटवीरूपी लक्ष्मी है और सद्गुणरूप सूर्यमुखी कमल की लक्ष्मी रात्रि है और भोगरूपी चन्द्रमुखी कमलों की लक्ष्मी चन्द्रमा है और वैराग्यरूप कमलिनी का नाश करनेवाली लक्ष्मी बरफ है और ज्ञानरूपी चन्द्रमा का आच्छादन करनेवाली लक्ष्मी राहु है और मोहरूप उलूक की लक्ष्मी मानो रात्रि है । दुःख रूप बिजली की लक्ष्मी आकाश है और तृणरूपी बेलिको बढ़ाने वाली लक्ष्मी मेघ है ।
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Old 10-06-2012, 12:59 PM   #50
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तृष्णारूप तरंग को लक्ष्मी समुद्र है, तृष्णारूप भँवर को लक्ष्मी कमलिनी है और जन्मके दुःखरूपी जल का लक्ष्मी गड्ढ़ा है । हे मुनीश्वर! देखने में यह सुन्दर लगती है । यह दुख का कारण है । जैसे खड्ग की धार देखने में सुन्दर होती है और स्पर्श करने से नाश करती है वैसे ही यह लक्ष्मी विचार रूपी मेघ का नाश करने को वायु है । हे मुनीश्वर! यह मेंने विचार करके देखा है कि इसमें कुछ भी सुख नहीं । सन्तोषरूपी मेघ का नाश करनेवाली लक्ष्मी शरत्काल है । मनुष्य में गुण तब तक दृष्टि आते हैं जब तक लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं होती जब लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तब शुभ गुण नष्ट हो जाते हैं । हे मुनीश्वर! लक्ष्मी को ऐसी दुःखदायक जानकर इसकी इच्छा मैंने त्याग दी है । यह भोग मिथ्या है जैसे बिजली प्रकट होकर छिप जाती है वैसे ही लक्ष्मी भी प्रकट होकर छिप जाती है । जैसे ही जल शीतलता से हिम होता है वैसे ही लक्ष्मी मनुष्य को जड़ सा बना देती है । इसको छलरूप जान कर मैंने त्याग दिया है ।
इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे लक्ष्मीनैराश्य वर्णनन्नामाष्टमस्सर्गः ॥८॥
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