19-02-2020, 02:17 PM | #1 |
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ग़ज़ल- जो अपने सामने...
■■■■■■■■■■■■■■■■■ जो अपने सामने हर शख्स को कंकर समझता है ज़माना ऐसे लोगों को कहाँ बेहतर समझता है जरा सी हो गई शोहरत तो अपनी शान के आगे वो अपने बाप को भी आजकल कमतर समझता है बहुत है मतलबी बंदा नगर में जा बसा जबसे जहाँ पैदा हुआ उस गाँव को बंजर समझता है उसे पहुँचा दिया मैंने सफलता की बुलंदी पर न जाने क्यों मुझे ही राह का पत्थर समझता है बुलाते हैं मुझे लेकिन ग़ज़ल पढ़ने नहीं देते कि इस अपमान के ग़म को महज़ शायर समझता है चलाओगे अगर "आकाश" सीना चीर ही देगा किसी की वेदना को कब कोई खंजर समझता है ग़ज़ल- आकाश महेशपुरी दिनांक- 18/02/2020 ■■■■■■■■■■■■■■■■■ वकील कुशवाहा "आकाश महेशपुरी" ग्राम- महेशपुर पोस्ट- कुबेरस्थान जनपद- कुशीनगर उत्तर प्रदेश पिन- 274304 मो. 9919080399 Last edited by आकाश महेशपुरी; 19-02-2020 at 10:44 PM. |
20-02-2020, 08:37 PM | #2 |
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Re: ग़ज़ल- जो अपने सामने...
अति सुंदर.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
02-03-2020, 08:09 PM | #3 |
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Re: ग़ज़ल- जो अपने सामने...
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