14-06-2012, 08:40 PM | #21 |
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Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
यस सर एक काफी अच्छे लेखक थे। वे राजधानी गए। एक समारोह में उनकी मुख्यमंत्री से भेंट हो गई। मुख्यमंत्री से उनका परिचय पहले से था। मुख्यमंत्री ने उनसे कहा - आप मजे में तो हैं। कोई कष्ट तो नहीं है? लेखक ने कह दिया - कष्ट बहुत मामूली है। मकान का कष्ट। अच्छा सा मकान मिल जाए, तो कुछ ढंग से लिखना-पढ़ना हो। मुख्यमंत्री ने कहा - मैं चीफ सेक्रेटरी से कह देता हूँ। मकान आपका 'एलाट' हो जाएगा। मुख्यमंत्री ने चीफ सेक्रेटरी से कह दिया कि अमुक लेखक को मकान 'एलाट' करा दो। चीफ सेक्रेटरी ने कहा - यस सर। चीफ सेक्रेटरी ने कमिश्नर से कह दिया। कमिश्नर ने कहा - यस सर। कमिश्नर ने कलेक्टर से कहा - अमुक लेखक को मकान 'एलाट' कर दो। कलेक्टर ने कहा - यस सर। कलेक्टर ने रेंट कंट्रोलर से कह दिया। उसने कहा - यस सर। रेंट कंट्रोलर ने रेंट इंस्पेक्टर से कह दिया। उसने भी कहा - यस सर। सब बाजाब्ता हुआ। पूरा प्रशासन मकान देने के काम में लग गया। साल डेढ़ साल बाद फिर मुख्यमंत्री से लेखक की भेंट हो गई। मुख्यमंत्री को याद आया कि इनका कोई काम होना था। मकान 'एलाट' होना था। उन्होंने पूछा - कहिए, अब तो अच्छा मकान मिल गया होगा? लेखक ने कहा - नहीं मिला। मुख्यमंत्री ने कहा - अरे, मैंने तो दूसरे ही दिन कह दिया था। लेखक ने कहा - जी हाँ, ऊपर से नीचे तक 'यस सर' हो गया। |
14-06-2012, 08:40 PM | #22 |
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Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
खेती सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे और एक साल में खाद्य में आत्मनिर्भर हो जाएँगे। दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया। जब कागज आ गया, तो उसकी फाइलें बना दी गईं। प्रधानमंत्री के सचिवालय से फाइल खाद्य विभाग को भेजी गई। खाद्य विभाग ने उस पर लिख दिया कि इस फाइल से कितना अनाज पैदा होना है और अर्थ विभाग को भेज दिया। अर्थ विभाग में फाइल के साथ नोट नत्थी किए गए और उसे कृषि विभाग भेज दिया गया। कृषि विभाग में उसमें बीज और खाद डाल दिए गए और उसे बिजली विभाग को भेज दिया। बिजली विभाग ने उसमें बिजली लगाई और उसे सिंचाई विभाग को भेज दिया गया। अब यह फाइल गृह विभाग को भेज दी गई। गृह विभाग विभाग ने उसे एक सिपाही को सौंपा और पुलिस की निगरानी में वह फाइल राजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जाई गई। हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता। जब फाइल सब दफ्तर घूम चुकी तब उसे पकी जानकर फूड कार्पोरेशन के दफ्तर में भेज दिया गया और उस पर लिख दिया गया कि इसकी फसल काट ली जाए। इस तरह दस लाख एकड़ कागज की फाइलों की फसल पककर फूड कार्पोरेशन के पास पहुँच गई। एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा - 'हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर देंगे।' सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया - 'अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं।' कुछ दिनों बाद सरकार ने बयान दिया - 'इस साल तो संभव नहीं हो सका, पर आगामी साल हम जरूर खाद्य में आत्मनिर्भर हो जाएँगे।' और उसी दिन बीस लाख एकड़ कागज का ऑर्डर और दे दिया गया। |
14-06-2012, 08:41 PM | #23 |
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Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
वैष्णव की फिसलन वैष्णव करोड़पति है। भगवान विष्णु का मंदिर। जायदाद लगी है। भगवान सूदखोरी करते हैं। ब्याज से कर्ज देते हैं। वैष्णव दो घंटे भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, फिर गादी-तकिएवाली बैठक में आकर धर्म को धंधे से जोड़ते हैं। धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को ‘योग’ कहते हैं। कर्ज लेने वाले आते हैं। विष्णु भगवान के वे मुनीम हो जाते हैं । कर्ज लेने वाले से दस्तावेज लिखवाते हैं - ‘दस्तावेज लिख दी रामलाल वल्द श्यामलाल ने भगवान विष्णु वल्द नामालूम को ऐसा जो कि... वैष्णव बहुत दिनों से विष्णु के पिता के नाम की तलाश में है, पर वह मिल नहीं रहा। मिल जाय तो वल्दियत ठीक हो जाय। वैष्णव के पास नंबर दो का बहुत पैसा हो गया है । कई एजेंसियाँ ले रखी हैं। स्टाकिस्ट हैं। जब चाहे माल दबाकर ‘ब्लैक’ करने लगते हैं। मगर दो घंटे विष्णु-पूजा में कभी नागा नहीं करते। सब प्रभु की कृपा से हो रहा है। उनके प्रभु भी शायद दो नंबरी हैं। एक नंबरी होते, तो ऐसा नहीं करने देते। वैष्णव सोचता है - अपार नंबर दो का पैसा इकठ्ठा हो गया है। इसका क्या किया जाय? बढ़ता ही जाता है। प्रभु की लीला है। वही आदेश देंगे कि क्या किया जाय। वैष्णव एक दिन प्रभु की पूजा के बाद हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा - प्रभु, आपके ही आशीर्वाद से मेरे पास इतना सारा दो नंबर का धन इकठ्ठा हो गया है। अब मैं इसका क्या करूँ? आप ही रास्ता बताइए। मैं इसका क्या करूँ? प्रभु, कष्ट हरो सबका! तभी वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज उठी - अधम, माया जोड़ी है, तो माया का उपयोग भी सीख। तू एक बड़ा होटल खोल। आजकल होटल बहुत चल रहे हैं। वैष्णव ने प्रभु का आदेश मानकर एक विशाल होटल बनवाई। बहुत अच्छे कमरे। खूबसूरत बाथरूम। नीचे लॉन्ड्री। नाई की दुकान। टैक्सियाँ। बाहर बढ़िया लान। ऊपर टेरेस गार्डेन। और वैष्णव ने खूब विज्ञापन करवाया। कमरे का किराया तीस रुपए रखा। फिर वैष्णव के सामने धर्म-संकट आया। भोजन कैसा होगा? उसने सलाहकारों से कहा - मैं वैष्णव हूँ। शुद्ध शाकाहारी भोजन कराऊँगा। शुद्ध घी की सब्जी, फल, दाल, रायता, पापड़ वगैरह। बड़े होटल का नाम सुनकर बड़े लोग आने लगे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के एक्जीक्यूटिव, बड़े अफसर और बड़े सेठ। वैष्णव संतुष्ट हुआ। पर फिर वैष्णव ने देखा कि होटल में ठहरने वाले कुछ असंतुष्ट हैं। एक दिन कंपनी का एक एक्जीक्यूटिव बड़े तैश में वैष्णव के पास आया। कहने लगा - इतने महँगे होटल में हम क्या यह घास-पत्ती खाने के लिए ठहरते हैं? यहाँ ‘नानवेज’ का इंतजाम क्यों नहीं है? वैष्णव ने जवाब दिया - मैं तो वैष्णव हूँ। मैं गोश्त का इंतजाम अपने होटल में कैसे कर सकता हूँ ? उस आदमी ने कहा - वैष्णव हो, तो ढाबा खोलो। आधुनिक होटल क्यों खोलते हो? तुम्हारे यहाँ आगे कोई नहीं ठहरेगा| वैष्णव ने कहा - यह धर्म-संकट की बात है। मैं प्रभु से पूछूँगा। उस आदमी ने कहा - हम भी बिजनेस में हैं। हम कोई धर्मात्मा नहीं हैं - न आप, न मैं। वैष्णव ने कहा - पर मुझे तो यह सब प्रभु विष्णु ने दिया है। मैं वैष्णव धर्म के प्रतिकूल कैसे जा सकता हूँ? मैं प्रभु के सामने नतमस्तक होकर उनका आदेश लूँगा। दूसरे दिन वैष्णव साष्टांग विष्णु के सामने लेट गया। कहने लगा - प्रभु, यह होटल बैठ जाएगा। ठहरनेवाले कहते हैं कि हमें वहाँ बहुत तकलीफ होती है। मैंने तो प्रभु, वैष्णव भोजन का प्रबंध किया है। पर वे मांस माँगते हैं। अब मैं क्या करूँ? वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, गांधीजी से बड़ा वैष्णव इस युग में कौन हुआ है? गाँधी का भजन है - ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे।’ तू इन होटलों में रहनेवालों की पीर क्यों नहीं जानता? उन्हें इच्छानुसार खाना नहीं मिलता। इनकी पीर तू समझ और उस पीर को दूर कर। वैष्णव समझ गया। उसने जल्दी ही गोश्त, मुर्गा, मछली का इंतजाम करवा दिया। होटल के ग्राहक बढ़ने लगे। मगर एक दिन फिर वही एक्जीक्यूटिव आया। कहने लगा - हाँ, अब ठीक है। मांसाहार अच्छा मिलने लगा। पर एक बात है। वैष्णव ने पूछा - क्या? उसने जवाब दिया - गोश्त के पचने की दवाई भी तो चाहिए । वैष्णव ने कहा - लवण भास्कर चूर्ण का इंतजाम करवा दूँ? एक्जीक्यूटिव ने माथा ठोंका। कहने लगा - आप कुछ नहीं समझते। मेरा मतलब है - शराब। यहाँ बार खोलिए। वैष्णव सन्न रह गया। शराब यहाँ कैसे पी जाएगी? मैं प्रभु के चरणामृत का प्रबंध तो कर सकता हूँ। पर मदिरा! हे राम! दूसरे दिन वैष्णव ने फिर प्रभु से कहा - प्रभु, वे लोग मदिरा माँगते हैं| मैं आपका भक्त, मदिरा कैसे पिला सकता हूँ? वैष्णव की पवित्र आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, तू क्या होटल बैठाना चाहता है? देवता सोमरस पीते थे। वही सोमरस यह मदिरा है। इसमें तेरा वैष्णव-धर्म कहाँ भंग होता है। सामवेद में तिरसठ श्लोक सोमरस अर्थात मदिरा की स्तुति में हैं। तुझे धर्म की समझ है या नहीं? वैष्णव समझ गया। उसने होटल में ‘बार’ खोल दिया। अब होटल ठाठ से चलने लगा। वैष्णव खुश था। फिर एक दिन एक आदमी आया। कहने लगा - अब होटल ठीक है। शराब भी है। गोश्त भी है। मगर मारा हुआ गोश्त है। हमें जिंदा गोश्त भी चाहिए। वैष्णव ने पूछा - यह जिंदा गोश्त कैसा होता है? उसने कहा - कैबरे, जिसमें औरतें नंगी होकर नाचती हैं। वैष्णव ने कहा - अरे बाप रे! उस आदमी ने कहा - इसमें ‘अरे बाप रे’ की कोई बात नहीं। सब बड़े होटलों में चलता है। यह शुरू कर दो तो कमरों का किराया बढ़ा सकते हो। वैष्णव ने कहा - मैं कट्टर वैष्णव हूँ। मैं प्रभु से पूछूँगा। दूसरे दिन फिर वैष्णव प्रभु के चरणों में था। कहने लगा - प्रभु, वे लोग कहते हैं कि होटल में नाच भी होना चाहिए। आधा नंगा या पूरा नंगा। वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, कृष्णावतार में मैंने गोपियों को नचाया था। चीर-हरण तक किया था। तुझे क्या संकोच है? प्रभु की आज्ञा से वैष्णव ने ‘कैबरे’ भी चालू कर दिया। अब कमरे भरे रहते थे - शराब, गोश्त और कैबरे। वैष्णव बहुत खुश था। प्रभु की कृपा से होटल भरा रहता था। कुछ दिनों बाद एक ग्राहक ने बेयरे से कहा - इधर कुछ और भी मिलता है? बेयरे ने पूछा - और क्या साब? ग्राहक ने कहा - अरे यही मन बहलाने को कुछ? कोई ऊँचे किस्म का माल मिले तो लाओ। बेयरा ने कहा - नहीं साब, इस होटल में यह नहीं चलता। ग्राहक वैष्णव के पास गया। बोला - इस होटल में कौन ठहरेगा? इधर रात को मन बहलाने का कोई इंतजाम नहीं है। वैष्णव ने कहा - कैबरे तो है, साहब। ग्राहक ने कहा - कैबरे तो दूर का होता है। बिलकुल पास का चाहिए, गर्म माल, कमरे में। वैष्णव फिर धर्म-संकट में पड़ गया। दूसरे दिन वैष्णव फिर प्रभु की सेवा में गया। प्रार्थना की - कृपानिधान! ग्राहक लोग नारी माँगते हैं - पाप की खान। मैं तो इस पाप की खान से जहाँ तक बनता है, दूर रहता हूँ। अब मैं क्या करूँ? वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, यह तो प्रकृति और पुरुष का संयोग है। इसमें क्या पाप और क्या पुण्य? चलने दे। वैष्णव ने बेयरों से कहा - चुपचाप इंतजाम कर दिया करो। जरा पुलिस से बचकर, पच्चीस फीसदी भगवान की भेंट ले लिया करो। अब वैष्णव का होटल खूब चलने लगा। शराब, गोश्त, कैबरे और औरत। वैष्णव धर्म बराबर निभ रहा है। इधर यह भी चल रहा है। वैष्णव ने धर्म को धंधे से खूब जोड़ा है। |
14-06-2012, 08:42 PM | #24 |
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Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
वह जो आदमी है न निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा कांइयाँ होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है। स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं। मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे थे, वे कह रहे थे - आपको मालूम है, वह आदमी शराब पीता है? मैंने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने फिर कहा - वह शराब पीता है। निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है। वे तीन बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए। अब मुझे दया आ गई। उनका चेहरा उतर गया था। मैंने कहा - पीने दो। वे चकित हुए। बोले - पीने दो, आप कहते हैं पीने दो? मैंने कहा - हाँ, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक। उसके पीने से अपना कोई नुकसान भी नहीं है। उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे। तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले - आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पाँव डालते हैं या बायाँ? स्त्री के साथ रोज संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर? अब वे ‘हीं-हीं’ पर उतर आए। कहने लगे - ये तो प्राइवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब। मैंने कहा - वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राइवेट बात है। मगर इससे आपको जरूर मतलब है। किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएँगे - वह बड़ा दुराचारी है। वह उड़द की दाल खाता है। तनाव आ गया। मैं पोलाइट हो गया - छोड़ो यार, इस बात को। वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं। सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है। कहते हैं - तुमने मुझे अमर बना दिया। यहाँ तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूँ। (ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी) चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे। चेतना का विस्तार। हाँ, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूँ। एक संपन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं। पीने के बाद वे ‘प्रोलेतारियत’ हो जाते हैं। कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद रिक्शा चलाने लगते हैं। वे यों भी भले आदमी हैं। पर कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते। मानवीयता उन पर रम के ‘किक’ की तरह चढ़ती-उतरती है। इन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं - मिरगी की तरह। सुना है मिरगी जूता सुँघाने से उतर जाती है। इसका उल्टा भी होता है। किसी-किसी को जूता सुँघाने से मानवीयता का फिट भी आ जाता है। यह नुस्खा भी आजमाया हुआ है। एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था। एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे (आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं। वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रात: समय की वायु को ‘सेवन करता सुजान’ होते हैं)। यह रोडवेज के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं। उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेजी बोलने लगे। कबीर ने कहा है - ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’। यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेजी बोले। नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था। हमने कहा - अब इन्हें मत भेजो। ये अंग्रेजी बोलने लगे। पर उनकी चेतना का विस्तार जरा ज्यादा ही हो गया था। कहने कहने लगे - नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा। ‘अंग्रेजी’ भाषा का कमाल देखिए। थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज को खूबसूरत कह रहे हैं। जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गए। यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है। रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है। ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है। कहा - इंडिया इज ए ब्यूटीफुल कंट्री। और छुरी-काँटे से इंडिया को खाने लगे। जब आधा खा चुके, तब देशी खानेवालों ने कहा, अगर इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो। तुमने ‘इंडिया’ खा लिया। बाकी बचा ‘भारत’ हमें खाने दो। अंग्रेज ने कहा - अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं। हम तो जाते हैं। तुम खाते रहना। यह बातचीत 1947 में हुई थी। हम लोगों ने कहा - अहिंसक क्रांति हो गई। बाहरवालों ने कहा - यह ट्रांसफर ऑफ पॉवर है - सत्ता का हस्तांतरण। मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफर ऑफ डिश’ हुआ - थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई। वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे। ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं। फिर राजनीति आ गई। छोड़िए। बात शराब की हो रही थी। इस संबंध में जो शिक्षाप्रद बातें ऊपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी ‘रिस्क’ पर। नुकसान की जिम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी। मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था। मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज और दुखी था। मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं। वह शराब से स्त्री पर आ गया - और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध हैं। मैंने कहा - हाँ, यह बड़ी खराब बात है। उसका चेहरा अब खिल गया। बोला - है न? मैंने कहा - हाँ खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है। वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया। सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने ऊँचे दर्जे के ‘स्कैंडल’ में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा। वह उठ गया। और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झाँकने के लिए होती है। कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं। आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झाँककर देखती होगी कि किसका संबंध किससे चल रहा है। किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए। ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा मालूम होते हैं। हर आते-जाते ठेले को रोककर झाँककर पूछते हैं - तेरे भीतर क्या छिपा है? एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं - उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए। वह चरित्रहीन है। वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है। उसे डाँटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे। जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है - ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी। वह धोखा नहीं करता, कालाबाजारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता। एक स्त्री से उसकी मित्रता है। इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया। बड़ा सरल हिसाब है अपने यहाँ आदमी के बारे में निर्णय लेने का। कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए। वे परेशान होंगे। बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है। तब उन्होंने कहा होगा - ज्यादा झंझट में मत पड़ो। मामला सरल कर लो। सारी नैतिकता को समेटकर टाँगों के बीच में रख लो। |
14-06-2012, 08:42 PM | #25 |
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Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड मेरी टेबिल पर दो कार्ड पड़े हैं - इसी डाक से आया दिवाली ग्रीटिंग कार्ड और दुकान से लौटा राशन कार्ड। ग्रीटिंग कार्ड में किसी ने शुभेच्छा प्रगट की है कि मैं सुख और समृद्धि प्राप्त करूँ। अभी अपने शुभचिंतक बने हुए हैं जो सुख दिए बिना चैन नहीं लेंगे। दिवाली पर कम से कम उन्हें याद तो आती है कि इस आदमी का सुखी होना अभी बकाया है। वे कार्ड भेज देते हैं कि हम तो सुखी हैं ही, अगर तुम भी हो जाओ, तो हमें फिलहाल कोई एतराज नहीं। मेरा राशन कार्ड मेरे सुख की कामना कर रहा है। मगर राशन कार्ड बताता है कि इस हफ्ते से गेहूँ की मात्रा आधी हो गई है। राशन कार्ड मे ग्रीटिंग कार्ड को काट दिया। ऐसा तमाचा मारा कि खूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड जी के कोमल कपोल रक्तिम हो गए। शुरु से ही राशन कार्ड इस ग्रीटिंग कार्ड की ओर गुर्राकर देख रहा था। जैसे ही मैं ग्रीटिंग कार्ड पढ़कर खुश हुआ, राशन कार्ड ने उसकी गर्दन दबाकर कहा - क्यों बे साले, ग्रीटिंग कार्ड के बच्चे, तू इस आदमी को सुखी करना चाहता है? जा, इसका गेहूँ आधा कर दिया गया। बाकी काला-बाजार से खरीदे या भूखा रहे। बेचारा ग्रीटिंग कार्ड दीनता से मेरी ओर देख रहा है। मैं क्या करूँ? झूठों की रक्षा का ठेका मुझे थोड़े ही मिला है। जिन्हें मिला है उनके सामने हाथ जोड़ो। मेरे राशन कार्ड को तेरी झूठ बर्दाश्त नहीं हुई। इन हालात में सुख का झूठी आशा लेकर तू क्यों आया? ग्रीटिंग कार्ड राष्ट्रसंघ के शांति प्रस्तावों की तरह सुंदर पर प्रभावहीन है। राशन कार्ड खुरदरा और बदसूरत है, पर इसमें अनाज है। मेरे लिए यही सत्य है। और इस रंगीन चिकनाहट में सत्यहीन औपचारिक शुभेच्छा है। ग्रीटिंग कार्ड सत्य होता अगर इसके साथ एक राशन कार्ड भी भेजा गया होता और लिखा होता - हम चाहते हैं कि तुम सुख प्राप्त करो। इस हेतु हम एक मरे हुए आदमी के नाम से जाली राशन कार्ड बनवाकर भेज रहे हैं। जब तक धाँधली चले सस्ता अनाज लेते जाना और सुखी रहना। पकड़े जाने पर हमारा नाम मत बताना। संकट के वक्त शुभचिंतक का नाम भूल जाना चाहिए। मित्रों से तो मैं कहना चाहता हूँ कि ये कार्ड न भेजें। शुभकामना इस देश में कारगर नहीं हो रही हैं। यहाँ गोरक्षा का जुलूस सात लाख का होता है और मनुष्य रक्षा का सिर्फ एक लाख का। दुनिया भर में शुभकामना बोझ हो गई है। पोप की शुभकामना से एक बम कम नहीं गिरता। मित्रों की ही इच्छा से कोई सफल, सुखी और समृद्ध कैसे हो जाएगा? सफलता के महल का प्रवेश द्वार बंद है। इसमें पीछे के नाबदान से ही घुसा जा सकता है। जिन्हें घुसना है नाक पर रूमाल रखकर घुस जाते हैं। पास ही इत्र सने रूमालों के ठेले खड़े हैं। रूमाल खरीदो, नाक पर रखो और नाबदान में से घुस जाओ सफलता और सुख के महल में। एक आदमी खड़ा देख रहा है। कोई पूछता है - घुसते क्यों नहीं? वह कहता है - एक नाक होती तो घुस जाते। हमारा तो हर रोम एक नाक है। कहाँ-कहाँ रूमाल लपेटें। एक डर भी है। सफलता, सुख और समृद्धि प्राप्त भी हो जाए, तो पता नहीं कितने लोग बुरा मान जाएँ। संकट में तो शत्रु भी मदद कर देते हैं। मित्रता की सच्ची परीक्षा संकट में नहीं, उत्कर्ष में होती है। जो मित्र के उत्कर्ष को बर्दाश्त कर सके, वही सच्चा मित्र होता है। संकट में तपी हुई मित्रता उत्कर्ष में खोटी निकलती मैंने देखी है। एक बेचारे की चार कविताएँ छप गईं, तो चार मित्र टूट गए। आठ छपने पर पूरे आठ टूट गए। दो कवि सम्मेलनों में जमने से एक स्थानीय कवि के कवि-मित्र रूठ गए। तीसरे कवि सम्मेलन में जब वह 'हूट' हुआ, तब जाकर मित्रता अपनी जगह लौटी। ग्रीटिंग कार्डों पर अपना भरोसा नहीं। 20 सालों से इस देश को ग्रीटिंग कार्डों के सहारे चलाया गया है। अंबार लग गए हैं। हर त्योहार पर देशवासियों को ग्रीटिंग कार्ड दिए जाते हैं - 15 अगस्त और 26 जनवरी पर, संसद के अधिवेशन पर, पार्टी के सम्मेलन पर। बढ़िया सुनहले रंगों के मीठे शब्दों के ग्रीटिंग्स - देशवासियों, बस इस साल तुम सुखी और समृद्ध हो जाओ। ग्रीटिंग कार्डों के ढेर लगे हैं, मगर राशन कार्ड छोटा होता जाता है। |
14-06-2012, 08:43 PM | #26 |
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Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
शर्म की बात पर ताली पीटना मैं आजकल बड़ी मुसीबत में हूँ। मुझे भाषण के लिए अक्सर बुलाया जाता है। विषय यही होते हैं - देश का भविष्य, छात्र समस्या, युवा-असंतोष, भारतीय संस्कृति भी (हालांकि निमंत्रण की चिट्ठी में 'संस्कृति' अक्सर गलत लिखा होता है), पर मैं जानता हूँ जिस देश में हिंदी-हिंसा आंदोलन भी जोरदार होता है, वहाँ मैं 'संस्कृति' की सही शब्द रचना अगर देखूँ तो बेवकूफ के साथ ही 'राष्ट्र-द्रोही' भी कहलाऊँगा। इसलिए जहाँ तक बनता है, मैं भाषण ही दे आता हूँ। मजे की बात यह है कि मुझे धार्मिक समारोहों में भी बुला लिया जाता है। सनातनी, वेदांती, बौद्ध, जैन सभी बुला लेते हैं; क्योंकि इन्हें न धर्म से मतलब है, न संत से, न उसके उपदेश से। ये धर्मोपदेश को भी समझना नहीं चाहते। पर ये साल में एक-दो बार सफल समारोह करना चाहते हैं। और जानते हैं कि मुझे बुलाकर भाषण करा देने से समारोह सफल होगा, जनता खुश होगी और उनका जलसा कामयाब हो जाएगा। मैं उनसे कह देता हूँ - जितना लाइट और लाउडस्पीकरवालों को दोगे, कम से कम उतना मुझ गरीब शास्ता को दे देना - तो वे दे भी देते हैं। मुझे अगर लगे कि इनका इरादा कुछ गड़बड़ है तो मैं शास्ता विक्रय कर अधिकारी या थानेदार की भी सहायता ले लेता हूँ। ये लोग पता नहीं क्यूँ मेरे प्रति आत्मीयता का अनुभव करते हैं। इनके कारण सारा काम 'धार्मिक' और 'पवित्र' वातावरण में हो जाता है। पर मेरी एक नई मुसीबत पैदा हो गई है। जब मैं ऐसी बात करता हूँ जिस पर शर्म आनी चाहिए, तब उस पर लोग हँसकर ताली पीटने लगते हैं। मैं एक संत की जयंती के समारोह में अध्यक्ष था। मैं जानता था कि बुलानेवाले लोग मुझसे भीतर से बहुत नाराज रहते हैं। यह भी जानता हूँ कि ये मुझे गंदी-गंदी गालियाँ देते हैं, क्योंकि राजनीति और समाज के मामले में मैं मुँहफट हो जाता हूँ। तब सुननेवालों का दीन क्रोध बड़ा मजा देता है। पर उस शाम मेरे गले में वही लोग मालाएँ डाल रहे थे - यह अच्छी और उदात्त बात भी हो सकती है। पर मैं जानता था कि ये मेरे व्यंग्य, हास्य और कटु उक्तियों का उपयोग करके उन तीन-चार हजार श्रोताओं को प्रसन्न करना चाहते हैं - याने आयोजन सफल करना चाहते हैं - याने बेवकूफ बनाना चाहते हैं। जयंती एक क्रांतिकारी संत की थी। ऐसे संत की जिसने कहा - खुद सोचो। सत्य के अनेक कोंण होते हैं। हर बात में 'शायद' का ध्यान जरूर रखना चाहिए। महावीर और बुद्ध ऐसे संत हुए, जिन्होने कहा - सोचो। शंका करो। प्रश्न करो। तब सत्य को पहचानो। जरूरी नहीं कि वही शाश्वत सत्य है, जो कभी किसी ने लिख दिया था। ये संत वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न थे। और जब तक इन संतों के विचारों का प्रभाव रहा तब तक विज्ञान की उन्नति भारत में हुई। भौतिक और रासायनिक विज्ञान की शोध हुई। चिकित्सा विज्ञान की शोध हुई। नागार्जुन हुए, बाणभट्ट हुए। इसके बाद लगभग डेढ़ शताब्दी में भारत के बड़े से बड़े दिमाग ने यही काम किया कि सोचते रहे - ईश्वर एक हैं या दो हैं, या अनेक हैं। हैं तो सूक्ष्म हैं या स्थूल। आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है। इसके साथ ही केवल काव्य रचना। विज्ञान नदारद। गल्ला कम तौलेंगे, मगर द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, मुक्ति और पुनर्जन्म के बारे में बड़े परेशान रहेंगे। कपड़ा कम नापेंगे, दाम ज्यादा लेंगे, पर पंच आभूषण के बारे में बड़े जाग्रत रहेंगे। झूठे आध्यात्म ने इस देश को दुनिया में तारीफ दिलवाई, पर मनुष्य को मारा और हर डाला, उस धार्मिक संत-समारोह में मैं अध्यक्ष के आसन पर था। बाएँ तरफ दो दिगंबर मुनि बैठे थे। दाहिने तरफ दो श्वेतांबर। चार मुनियों से घिरा यह दीन लेखक बैठा था। पर सही बात यह है कि 'होल टाइम' मुनि या तपस्वी बड़ा दयनीय प्रणी होता है। वह सार्थकता का अनुभव नहीं करता, कर्म नहीं खोज पाता। श्रद्धा जरूर लेता है - मगर ज्यादा कर्महीन श्रद्धा ज्ञानी को बहुत 'बोर' करती है। दिगंबर मुनि और श्वेतांबर मुनि आपस में कैसे देख रहे थे, यह मैं जाँच रहा था। लेखक की दो नहीं सौ आँखें होती हैं। दिगंबर अपने को सर्वहारा का मुनि मानता है और श्वेतांबर मुनि को संपन्न समाज का। यह मैं समझ गया - उनके तेवर से। मैंने आरंभ में कहा भी - 'सभ्यता के विकास का क्रम होता है। जब हेंडलूम, पावरलूम, कपड़ा मिल नहीं थी तब विश्व के हर समाज का ऋषि और शास्ता कम से कम कपड़े पहनता था; क्योंकि जो भी अच्छे कपड़े बन पाते थे, उन्हें सामंत वर्ग पहनता था। तब लंगोटी लगाना या नंगा रहना दुनिया भर में संत का आचार होता था।' 'पर अब हम फाइन से फाइन कपड़ा बनाते और बेचते हैं, पर अपने मुनियों को नंगा रखते हैं। यह भी क्या पाप नहीं है?' मुनि मेरी बात सुनकर गंभीर हो गए और सोचने लगे, पर समारोहवाले हँसने और ताली पीटने लगे। और मैंने देखा एक मुनि उनके इस ओछे व्यवहार से खिन्न हैं। मैंने सोचा कि मुनि से कहूँ कि हम दोनों मिलकर सिर पीट लें। शर्म की बात पर जिस समाज के लोगों को हँसी आए - इस बात पर मुनि और 'साधु' दोनों रो लें। पर इसके बाद जब मुनि बोले तो उन्होंने घोर हिंसा की शैली में अहिंसा समझाई। कुछ शब्द मुझे अभी भी याद हैं, 'पाखंडियों, क्या संत को सर्टिफिकेट देने का समारोह करते हो? तुम्हारे सर्टिफिकेट से संत को कोई परमिट या नौकरी मिल जाएगी? पाप की कमाई खाते हो। झूठ बोलते हो। सत्य की बात करते हो। बेईमानी से परिग्रह करते हो। बताओ ये चार-पाँच मंजिलों की इमारतें क्या सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह से बनी हैं?' मैं दंग रह गया। मुनि का चेहरा लाल था क्रोध से। वे किसी सच्चे क्रांतिकारी की तरह बोल रहे थे; क्योंकि उन्होंने शरीर ढाँकने को कपड़ा लेने का किसी से अहसान नहीं लेना था। सभा में सन्नाटा। लगातार सन्नाटा। और मुनि पूरे क्रोध के साथ सारी बनावट और फरेब को नंगा कर रहे थे। अंत में मुझे अध्यक्षीय भषण देना लाजिमी था। मैं देख रहा था कि तीस-चालीस साल के गुट में युवक लोग पाँच-छ: ठिकानों पर बैठे इंतजार कर रहे थे कि मैं क्या कहता हूँ। मैंने बहुत छोटा धन्यवाद जैसा भाषण दिया। मुनियों और विद्वानों का आभार माना और अंत में कहा - 'एक बात मैं आपके सामने स्वीकार करना चाहता हूँ। मैंने और आपने तीन घंटे ऊँचे आदर्शों की, सदाचरण की, प्रेम की, दया की बातें सुनीं। पर मैं आपके सामने साफ कहता हूँ कि तीन घंटे पहले जितना कमीना और बेईमान मैं था, उतना ही अब भी हूँ। मेरी मैंने कह दी। आप लोगों की आप लोग जानें।' इस पर भी क्या हुआ - हँसी खूब हुई और तालियाँ पिटीं। उन्हें मजा आ गया। एक और बड़े लोगों के क्लब में मैं भाषण दे रहा था। मैं देश की गिरती हालत, महँगाई, गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार पर बोल रहा था और खूब बोल रहा था। मैं पूरी पीड़ा से, गहरे आक्रोश से बोल रहा था। पर जब मैं ज्यादा मार्मिक हो जाता, वे लोग तालियाँ पीटते थे। मैंने कहा - हम लोग बहुत पतित हैं। तो वे ताली पीटने लगे। उन्हे मजा आ रहा था और शाम एक अच्छे भाषण से सफल हो रही थी। और मैं इन समारोहों के बाद रात को घर लौटता हूँ, तो सोचता रहता हूँ कि जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हँसें और ताली पीटें, उसमें क्या कभी कोई क्रांतिकारी हो सकता है? होगा शायद। पर तभी होगा, जब शर्म की बात पर ताली पीटनेवाले हाथ कटेंगे और हँसने वाले जबड़े टूटेंगे। |
14-06-2012, 08:44 PM | #27 |
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Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
घायल वसंत कल बसंतोत्सव था। कवि वसंत के आगमन की सूचना पा रहा था - प्रिय, फिर आया मादक वसंत। मैंने सोचा, जिसे वसंत के आने का बोध भी अपनी तरफ से कराना पड़े, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा। ऐसे नासमझ को प्रकृति-विज्ञान पढ़ाएँगे या उससे प्यार करेंगे। मगर कवि को न जाने क्यों ऐसा बेवकूफ पसंद आता है । कवि मग्न होकर गा रहा था - 'प्रिय, फिर आया मादक वसंत !' पहली पंक्ति सुनते ही मैं समझ गया कि इस कविता का अंत 'हा हंत' से होगा, और हुआ। अंत, संत, दिगंत आदि के बाद सिवा 'हा हंत' के कौन पद पूरा करता? तुक की यही मजबूरी है। लीक के छोर पर यही गहरा गढ़ा होता है। तुक की गुलामी करोगे तो आरंभ चाहे 'वसंत' से कर लो, अंत जरूर 'हा हंत' से होगा। सिर्फ कवि ऐसा नहीं करता। और लोग भी, सयाने लोग भी, इस चक्कर में होते है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तुक पर तुक बिठाते चलते है। और 'वसंत' से शुरू करके 'हा हंत' पर पहुँचते हैं। तुकें बराबर फिट बैठती हैं, पर जीवन का आवेग निकल भागता है। तुकें हमारा पीछा छोड़ ही नहीं रही हैं। हाल ही में हमारी समाजवादी सरकार के अर्थमंत्री ने दबा सोना निकालने की जो अपील की, उसकी तुक शुद्ध सर्वोदय से मिलाई - 'सोना दबानेवालो, देश के लिए स्वेच्छा से सोना दे दो।' तुक उत्तम प्रकार की थी; साँप तक का दिल नहीं दुखा। पर सोना चार हाथ और नीचे चला गया। आखिर कब हम तुक को तिलांजलि देंगे? कब बेतुका चलने की हिम्मत करेंगे? कवि ने कविता समाप्त कर दी थी। उसका 'हा हंत' आ गया था। मैंने कहा, 'धत्तेरे की!' 7 तुकों में ही टें बोल गया। राष्ट्रकवि इस पर कम से कम 51 तुकें बाँधते। 9 तुकें तो उन्होंने 'चक्र' पर बाँधी हैं। (देखो 'यशोधरा' पृष्ठ 13) पर तू मुझे क्या बताएगा कि वसंत आ गया। मुझे तो सुबह से ही मालूम है। सबेरे वसंत ने मेरा दरवाजा भी खटखटाया था। मैं रजाई ओढ़े सो रहा था। मैंने पूछा - 'कौन?' जवाब आया - मैं वसंत। मैं घबड़ा उठा। जिस दुकान से सामान उधार लेता हूँ, उसके नौकर का नाम भी वसंतलाल है। वह उधारी वसूल करने आया था। कैसा नाम है, और कैसा काम करना पड़ता है इसे! इसका नाम पतझड़दास या तुषारपात होना था। वसंत अगर उधारी वसूल करता फिरता है, तो किसी दिन आनंदकर थानेदार मुझे गिरफ्तार करके ले जाएगा और अमृतलाल जल्लाद फाँसी पर टाँग देगा! वसंतलाल ने मेरा मुहूर्त बिगाड़ दिया। इधर से कहीं ऋतुराज वसंत निकलता होगा, तो वह सोचेगा कि ऐसे के पास क्या जाना जिसके दरवाजे पर सबेरे से उधारीवाले खड़े रहते हैं! इस वसंतलाल ने मेरा मौसम ही खराब कर दिया। मैंने उसे टाला और फिर ओढ़कर सो गया। आँखें झँप गईं। मुझे लगा, दरवाजे पर फिर दस्तक हुई। मैंने पूछा - कौन? जवाब आया - 'मैं वसंत!' मैं खीझ उठा - कह तो दिया कि फिर आना। उधर से जवाब आया - 'मैं। बार-बार कब तक आता रहूँगा? मैं किसी बनिए का नौकर नहीं हूँ; ऋतुराज वसंत हूँ। आज तुम्हारे द्वार पर फिर आया हूँ और तुम फिर सोते मिले हो। अलाल, अभागे, उठकर बाहर तो देख। ठूँठों ने भी नव पल्लव पहिन रखे हैं। तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा से हाव-भाव कर रही है - और बहुत भद्दी लग रही है।' मैने मुँह उधाड़कर कहा - 'भई, माफ करना, मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। अपनी यही विडंबना है कि ऋतुराज वसंत भी आए, तो लगता है, उधारी के तगादेवाला आया। उमंगें तो मेरे मन में भी हैं, पर यार, ठंड बहुत लगती है। वह जाने के लिए मुड़ा। मैंने कहा, जाते-जाते एक छोटा-सा काम मेरा करते जाना। सुना है तुम ऊबड़-खाबड़ चेहरों को चिकना कर देते हो; 'फेसलिफ्टिंग' के अच्छे कारीगर हो तुम। तो जरा यार, मेरी सीढ़ी ठीक करते जाना, उखड़ गई है। उसे बुरा लगा। बुरा लगने की बात है। जो सुंदरियों के चेहरे सुधारने का कारीगर है, उससे मैंने सीढ़ी सुधारने के लिए कहा। वह चला गया। मैं उठा और शाल लपेटकर बाहर बरामदे में आया। हजारों सालों के संचित संस्कार मेरे मन पर लदे हैं; टनों कवि-कल्पनाएँ जमी हैं। सोचा, वसंत है तो कोयल होगी ही। पर न कहीं कोयल दिखी न उसकी कूक सुनाई दी। सामने की हवेली के कंगूरे पर बैठा कौआ 'काँव-काँव' कर उठा। काला, कुरूप, कर्कश कौआ - मेरी सौदर्य-भावना को ठेस लगी। मैंने उसे भगाने के लिए कंकड़ उठाया। तभी खयाल आया कि एक परंपरा ने कौए को भी प्रतिष्ठा दे दी है। यह विरहणी को प्रियतम के आगमन का संदेसा देने वाला माना जाता है। सोचा, कहीं यह आसपास की किसी विरहणी को प्रिय के आने का सगुन न बता रहा हो। मै। विरहणियों के रास्ते में कभी नहीं आता; पतिव्रताओं से तो बहुत डरता हूँ। मैंने कंकड़ डाल दिया। कौआ फिर बोला। नायिका ने सोने से उसकी चोंच मढ़ाने का वायदा कर दिया होगा। शाम की गाड़ी से अगर नायक दौरे से वापिस आ गया, तो कल नायिका बाजार से आनेवाले सामान की जो सूची उसके हाथ में देगी, उसमें दो तोले सोना भी लिखा होगा। नायक पूछेगा, प्रिये, सोना तो अब काला बाजार में मिलता है। लेकिन अब तुम सोने का करोगी क्या? नायिका लजाकर कहेगी, उस कौए की चोंच मढ़ाना है, जो कल सबेरे तुम्हारे आने का सगुन बता गया था। तब नायक कहेगा, प्रिय, तुम बहुत भोली हो। मेरे दौरे का कार्यक्रम यह कौआ थोड़े ही बनाता है; वह कौआ बनाता है जिसे हम 'बड़ा साहब' कहते हैं। इस कलूटे की चोंच सोने से क्यों मढ़ाती हो? हमारी दुर्दशा का यही तो कारण है कि तमाम कौए सोने से चोंच मढ़ाते हैं, और इधर हमारे पास हथियार खरीदने को सोना नहीं हैं। हमें तो कौओं की चोंच से सोना खरोंच लेना है। जो आनाकानी करेंगे, उनकी चोंच काटकर सोना निकाल लेंगे। प्रिये, वही बड़ी गलत परंपरा है, जिसमें हंस और मोर की चोंच तो नंगी रहे, पर कौए की चोंच सुंदरी खुद सोना मढ़े। नायिका चुप हो जाएगी। स्वर्ण-नियंत्रण कानून से सबसे ज्यादा नुकसान कौओं और विरहणियों का हुआ है। अगर कौए ने 14 केरेट के सोने से चोंच मढ़ाना स्वीकार नहीं किया, तो विरहणी को प्रिय के आगमन की सूचना कौन देगा? कौआ फिर बोला। मैं इससे युगों से घृणा करता हूँ; तब से, जब इसने सीता के पाँव में चोंच मारी थी। राम ने अपने हाथ से फूल चुनकर, उनके आभूषण बनाकर सीता को पहनाए। इसी समय इंद्र का बिगड़ैल बेटा जयंत आवारागर्दी करता वहाँ आया और कौआ बनकर सीता के पाँव में चोंच मारने लगा। ये बड़े आदमी के बिगड़ैल लड़के हमेशा दूसरों का प्रेम बिगाड़ते हैं। यह कौआ भी मुझसे नाराज हैं, क्योंकि मैंने अपने घर के झरोखों में गौरैयों को घोंसले बना लेने दिए हैं। पर इस मौसम में कोयल कहाँ है? वह अमराई में होगी। कोयल से अमराई छूटती नहीं है, इसलिए इस वसंत में कौए की बन आई है। वह तो मौकापरस्त है; घुसने के लिए पोल ढूँढ़ता है। कोयल ने उसे जगह दे दी है। वह अमराई की छाया में आराम से बैठी है। और इधर हर ऊँचाई पर कौआ बैठा 'काँव-काँव' कर रहा है। मुझे कोयल के पक्ष में उदास पुरातन प्रेमियों की आह भी सुनायी देती है, 'हाय, अब वे अमराइयाँ यहाँ कहाँ है कि कोयलें बोलें। यहाँ तो ये शहर बस गए हैं, और कारखाने बन गए है।' मैं कहता हूँ कि सर्वत्र अमराइयाँ नहीं है, तो ठीक ही नहीं हैं। आखिर हम कब तक जंगली बने रहते? मगर अमराई और कुंज और बगीचे भी हमें प्यारे हैं। हम कारखाने को अमराई से घेर देंगे और हर मुहल्ले में बगीचा लगा देंगे। अभी थोड़ी देर है। पर कोयल को धीरज के साथ हमारा साथ तो देना था। कुछ दिन धूप तो हमारे साथ सहना था। जिसने धूप में साथ नही दिया, वह छाया कैसे बँटाएगी? जब हम अमराई बना लेंगे, तब क्या वह उसमें रह सकेगी? नहीं, तब तक तो कौए अमराई पर कब्जा कर लेंगे। कोयल को अभी आना चाहिए। अभी जब हम मिट्टी खोदें, पानी सींचे और खाद दें, तभी से उसे गाना चाहिए। मैं बाहर निकल पड़ता हूँ। चौराहे पर पहली बसंती साड़ी दिखी। मैं उसे जानता हूँ। यौवन की एड़ी दिख रही है - वह जा रहा है - वह जा रहा है। अभी कुछ महीने पहले ही शादी हुई है। मैं तो कहता आ रहा था कि चाहे कभी ले, 'रूखी री यह डाल वसन वासंती लेगी' - (निराला)। उसने वसन वासंती ले लिया। कुछ हजार में उसे यह बूढ़ा हो रहा पति मिल गया। वह भी उसके साथ है। वसंत का अंतिम चरण और पतझड़ साथ जा रहे हैं। उसने माँग में बहुत-सा सिंदूर चुपड़ रखा है। जिसकी जितनी मुश्किल से शादी होती है, वह बेचारी उतनी ही बड़ी माँग भरती है। उसने बड़े अभिमान से मेरी तरफ देखा। फिर पति को देखा। उसकी नजर में ठसक और ताना है, जैसे अँगूठा दिखा रही है कि ले, मुझे तो यह मिल ही गया। मगर यह क्या? वह ठंड से काँप रही है और 'सीसी' कर रही है। वसंत में वासंती साड़ी को कँपकँपी छूट रही है। यह कैसा वसंत है जो शीत के डर से काँप रहा है? क्या कहा था विद्यापति ने - ' सरस वसंत समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे! नहीं मेरे कवि, दक्षिण से मलय पवन नहीं बह रहा। यह उत्तर से बर्फीली हवा आ रही है। हिमालय के उस पार से आकर इस बर्फीली हवा ने हमारे वसंत का गला दबा दिया है। हिमालय के पार बहुत-सा बर्फ बनाया जा रहा है जिसमें सारी मनुष्य जाति को मछली की तरह जमा कर रखा जाएगा। यह बड़ी भारी साजिश है बर्फ की साजिश! इसी बर्फ की हवा ने हमारे आते वसंत को दबा रखा है। यों हमें विश्वास है कि वसंत आएगा। शेली ने कहा है, 'अगर शीत आ गई है, तो क्या वसंत बहुत पीछे होगा? वसंत तो शीत के पीछे लगा हुआ ही आ रहा है। पर उसके पीछे गरमी भी तो लगी है। अभी उत्तर से शीत-लहर आ रही है तो फिर पश्चिम से लू भी तो चल सकती है। बर्फ और आग के बीच में हमारा वसंत फँसा है। इधर शीत उसे दबा रही है और उधर से गरमी। और वसंत सिकुड़ता जा रहा है। मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इंतजार से कुछ नहीं होगा। वसंत अपने आप नहीं आता; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसंत नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नए पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसंत यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसंत निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फँसा है, देश का वसंत। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसंत को बचाना है तो जोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसंत। |
14-06-2012, 08:44 PM | #28 |
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Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
जैसे उनके दिन फिरे एक था राजा। राजा के चार लड़के थे। रानियाँ? रानियाँ तो अनेक थीं, महल में एक 'पिंजरापोल' ही खुला था। पर बड़ी रानी ने बाकी रानियों के पुत्रों को जहर देकर मार डाला था। और इस बात से राजा साहब बहुत प्रसन्न हुए थे। क्योंकि वे नीतिवान थे और जानते थे कि चाणक्य का आदेश है, राजा अपने पुत्रों को भेड़िया समझे। बड़ी रानी के चारों लड़के जल्दी ही राजगद्दी पर बैठना चाहते थे, इसलिए राजा साहब को बूढ़ा होना पड़ा। एक दिन राजा साहब ने चारों पुत्रों को बुलाकर कहा, पुत्रों मेरी अब चौथी अवस्था आ गई है। दशरथ ने कान के पास के केश श्वेत होते ही राजगद्दी छोड़ दी थी। मेरे बाल खिचड़ी दिखते हैं, यद्यपि जब खिजाब घुल जाता है तब पूरा सिर श्वेत हो जाता है। मैं संन्यास लूँगा, तपस्या करूँगा। उस लोक को सुधारना है, ताकि तुम जब वहाँ आओ, तो तुम्हारे लिए मैं राजगद्दी तैयार रख सकूँ। आज मैंने तुम्हें यह बतलाने के लिए बुलाया है कि गद्दी पर चार के बैठ सकने लायक जगह नहीं है। अगर किसी प्रकार चारों समा भी गए तो आपस में धक्का-मुक्की होगी और सभी गिरोगे। मगर मैं दशरथ सरीखी गलती नहीं करूँगा कि तुम में से किसी के साथ पक्षपात करूँ। मैं तुम्हारी परीक्षा लूँगा। तुम चारों ही राज्य से बाहर चले जाओ। ठीक एक साल बाद इसी फाल्गुन की पूर्णिमा को चारों दरबार में उपस्थित होना। मैं देखूँगा कि इस साल में किसने कितना धन कमाया और कौन-सी योग्यता प्राप्त की। तब मैं मंत्री की सलाह से, जिसे सर्वोत्तम समझूँगा, राजगद्दी दे दूँगा। जो आज्ञा, कहकर चारों ने राजा साहब को भक्तिहीन प्रणाम किया और राज्य के बाहर चले गए। पड़ोसी राज्य में पहुँचकर चारों राजकुमारों ने चार रास्ते पकड़े और अपने पुरुषार्थ तथा किस्मत को आजमाने चल पड़े। ठीक एक साल बाद - फाल्गुन की पूर्णिमा को राज-सभा में चारों लड़के हाजिर हुए। राजसिंहासन पर राजा साहब विराजमान थे, उनके पास ही कुछ नीचे आसन पर प्रधानमंत्री बैठे थे। आगे भाट, विदूषक और चाटुकार शोभा पा रहे थे। राजा ने कहा, 'पुत्रों ! आज एक साल पूरा हुआ और तुम सब यहाँ हाजिर भी हो गए। मुझे उम्मीद थी कि इस एक साल में तुममें से तीन या बीमारी के शिकार हो जाओगे या कोई एक शेष तीनों को मार डालेगा और मेरी समस्या हल हो जाएगी। पर तुम चारों यहाँ खड़े हो। खैर अब तुममें से प्रत्येक मुझे बतलाए कि किसने इस एक साल में क्या काम किया कितना धन कमाया' और राजा साहब ने बड़े पुत्र की ओर देखा। बड़ा पुत्र हाथ जोड़कर बोला, 'पिता जी, मैं जब दूसरे राज्य में पहुँचा, तो मैंने विचार किया कि राजा के लिए ईमानदारी और परिश्रम बहुत आवश्यक गुण है। इसलिए मैं एक व्यापारी के यहाँ गया और उसके यहाँ बोरे ढोने का काम करने लगा। पीठ पर मैंने एक वर्ष बोरे ढोए हैं, परिश्रम किया है। ईमानदारी से धन कमाया है। मजदूरी में से बचाई हुई ये सौ स्वर्णमुद्राएँ ही मेरे पास हैं। मेरा विश्वास है कि ईमानदारी और परिश्रम ही राजा के लिए सबसे आवश्यक है और मुझमें ये हैं, इसलिए राजगद्दी का अधिकारी मैं हूँ।' वह मौन हो गया। राज-सभा में सन्नाटा छा गया। राजा ने दूसरे पुत्र को संकेत किया। वह बोला, 'पिताजी, मैंने राज्य से निकलने पर सोचा कि मैं राजकुमार हूँ, क्षत्रिय हूँ - क्षत्रिय बाहुबल पर भरोसा करता है। इसलिए मैंने पड़ोसी राज्य में जाकर डाकुओं का एक गिरोह संगठित किया और लूटमार करने लगा। धीरे-धीरे मुझे राज्य कर्मचारियों का सहयोग मिलने लगा और मेरा काम खूब अच्छा चलने लगा। बड़े भाई जिसके यहाँ काम करते थे, उसके यहाँ मैंने दो बार डाका डाला था। इस एक साल की कमाई में पाँच लाख स्वर्णमुद्राएँ मेरे पास हैं। मेरा विश्वास है कि राजा को साहसी और लुटेरा होना चाहिए, तभी वह राज्य का विस्तार कर सकता है। ये दोनों गुण मुझमें हैं, इसलिए मैं ही राजगद्दी का अधिकारी हूँ।' पाँच लाख सुनते ही दरबारियों की आँखें फटी-की फटी रह गईं। राजा के संकेत पर तीसरा कुमार बोला, 'देव मैंने उस राज्य में जाकर व्यापार किया। राजधानी में मेरी बहुत बड़ी दुकान थी। मैं घी में मूँगफली का तेल और शक्कर में रेत मिलाकर बेचा करता था। मैंने राजा से लेकर मजदूर तक को साल भर घी-शक्कर खिलाया। राज-कर्मचारी मुझे पकड़ते नहीं थे क्योंकि उन सब को मैं मुनाफे में से हिस्सा दिया करता थ।। एक बार स्वयं राजा ने मुझसे पूछा कि शक्कर में यह रेत-सरीखी क्या मिली रहती है? मैंने उत्तर दिया कि करुणानिधान, यह विशेष प्रकार की उच्चकोटि की खदानों से प्राप्त शक्कर है जो केवल राजा-महाराजाओं के लिए मैं विदेश से मँगाता हूँ। राजा यह सुनकर बहुत खुश हुए। बड़े भाई जिस सेठ के यहाँ बोरे ढोते थे, वह मेरा ही मिलावटी माल खाता था। और मँझले लुटेरे भाई को भी मूँगफली का तेल-मिला घी तथा रेत-मिली शक्कर मैंने खिलाई है। मेरा विश्वास है कि राजा को बेईमान और धूर्त होना चाहिए तभी उसका राज टिक सकता है। सीधे राजा को कोई एक दिन भी नहीं रहने देगा। मुझमें राजा के योग्य दोनों गुण हैं, इसलिए गद्दी का अधिकारी मैं हूँ। मेरी एक वर्ष की कमाई दस लाख स्वर्णमुद्राएँ मेरे पास हैं।' 'दस लाख' सुनकर दरबारियों की आँखें और फट गईं। राजा ने तब सब से छोटे कुमार की ओर देखा। छोटे कुमार की वेश-भूषा और भाव-भंगिमा तीनों से भिन्न थी। वह शरीर पर अत्यंत सादे और मोटे कपड़े पहने था। पाँव और सिर नंगे थे। उसके मुख पर बड़ी प्रसन्नता और आँखों में बड़ी करुणा थी। वह बोला, 'देव, मैं जब दूसरे राज्य में पहुँचा तो मुझे पहले तो यह सूझा ही नहीं कि क्या करूँ। कई दिन मैं भूखा-प्यासा भटकता रहा। चलते-चलते एक दिन मैं एक अट्टालिका के सामने पहुँचा। उस पर लिखा था 'सेवा आश्रम'। मैं भीतर गया तो वहाँ तीन-चार आदमी बैठे ढेर-की-ढेर स्वर्ण-मुद्राएँ गिन रहे थे। मैंने उनसे पूछा, भद्रो तुम्हारा धंधा क्या है?' 'उनमें से एक बोला, त्याग और सेवा।' मैंने कहा, 'भद्रो त्याग और सेवा तो धर्म है। ये धंधे कैसे हुए?' वह आदमी चिढ़कर बोला, 'तेरी समझ में यह बात नहीं आएगी। जा, अपना रास्ता ले।' स्वर्ण पर मेरी ललचाई दृष्टि अटकी थी। मैंने पूछा, 'भद्रो तुमने इतना स्वर्ण कैसे पाया?' वही आदमी बोला, 'धंधे से।' मैंने पूछा, कौन-सा धंधा? वह गुस्से में बोला, 'अभी बताया न! सेवा और त्याग। तू क्या बहरा है?' 'उनमें से एक को मेरी दशा देखकर दया आ गई। उसने कहा, 'तू क्या चाहता है?' 'मैंने कहा, मैं भी आप का धंधा सीखना चाहता हूँ। मैं भी बहुत सा स्वर्ण कमाना चाहता हूँ।' उस दयालु आदमी ने कहा, 'तो तू हमारे विद्यालय में भरती हो जा। हम एक सप्ताह में तुझे सेवा और त्याग के धंधे में पारंगत कर देंगे। शुल्क कुछ नहीं लिया जाएगा, पर जब तेरा धंधा चल पड़े तब श्रद्धानुसार गुरुदक्षिणा दे देना।' पिताजी, मैं सेवा-आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने लगा। मैं वहाँ राजसी ठाठ से रहता, सुंदर वस्त्र पहनता, सुस्वादु भोजन करता, सुंदरियाँ पंखा झलतीं, सेवक हाथ जोड़े सामने खड़े रहते। अंतिम दिन मुझे आश्रम के प्रधान ने बुलाया और कहा, 'वत्स, तू सब कलाएँ सीख गया। भगवान का नाम लेकर कार्य आरंभ कर दे।' उन्होंने मुझे ये मोटे सस्ते वस्त्र दिए और कहा, 'बाहर इन्हें पहनना। कर्ण के कवच-कुंडल की तरह ये बदनामी से तेरी रक्षा करेंगे। जब तक तेरी अपनी अट्टालिका नहीं बन जाती, तू इसी भवन में रह सकता है, जा, भगवान तुझे सफलता दें।' 'बस, मैंने उसी दिन 'मानव-सेवा-संघ' खोल दिया। प्रचार कर दिया कि मानव-मात्र की सेवा करने का बीड़ा हमने उठाया है। हमें समाज की उन्नति करना है, देश को आगे बढ़ाना है। गरीबों, भूखों, नंगों, अपाहिजों की हमें सहायता करनी है। हर व्यक्ति हमारे इस पुण्यकार्य में हाथ बँटाये : हमें मानव-सेवा के लिए चंदा दें। पिताजी, उस देश के निवासी बडे भोले हैं। ऐसा कहने से वे चंदा देने लगे। मझले भैया से भी मैंने चंदा लिया था, बड़े भैया के सेठ ने भी दिया और बड़े भैया ने भी पेट काटकर दो मुद्राएँ रख दीं। लुटेरे भाई ने भी मेरे चेलों को एक सहस्र मुद्राएँ दी थीं। क्योंकि एक बार राजा के सैनिक जब उसे पकड़ने आए तो उसे आश्रम में मेरे चेलों ने छिपा लिया था। पिताजी, राज्य का आधार धन है। राजा को प्रजा से धन वसूल करने की विद्या आनी चाहिए। प्रजा से प्रसन्नतापूर्वक धन खींच लेना, राजा का आवश्यक गुण है। उसे बिना नश्तर लगाए खून निकालना आना चाहिए। मुझमें यह गुण है, इसलिए मैं ही राजगद्दी का अधिकारी हूँ। मैंने इस एक साल में चंदे से बीस लाख स्वर्ण-मुद्राएँ कमाई जो मेरे पास हैं।' 'बीस लाख' सुनते ही दरबारियों की आँखें इतनी फटीं कि कोरों से खून टपकने लगा। तब राजा ने मंत्री से पूछा, 'मंत्रिवर, आपकी क्या राय है? चारों में कौन कुमार राजा होने के योग्य है?' मंत्रिवर बोले, 'महाराज इसे सारी राजसभा समझती है कि सब से छोटा कुमार ही सबसे योग्य है। उसने एक साल में बीस लाख मुद्राएँ इकट्ठी कीं। उसमें अपने गुणों के सिवा शेष तीनों कुमारों के गुण भी हैं - बड़े जैसा परिश्रम उसके पास है, दूसरे कुमार के समान वह साहसी और लुटेरा भी है। तीसरे के समान बेईमान और धूर्त भी। अतएव उसे ही राजगद्दी दी जाए। मंत्री की बात सुनकर राजसभा ने ताली बजाई। दूसरे दिन छोटे राजकुमार का राज्याभिषेक हो गया। तीसरे दिन पड़ोसी राज्य की गुणवती राजकन्या से उसका विवाह भी हो गया। चौथे दिन मुनि की दया से उसे पुत्ररत्न प्राप्त हुआ और वह सुख से राज करने लगा। कहानी थी सो खत्म हुई। जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके दिन फिरें। |
14-06-2012, 08:45 PM | #29 |
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Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
सन 1950 ईसवी बाबू गोपालचंद्र बड़े नेता थे, क्योंकि उन्होंने लोगों को समझाया था और लोग समझ भी गए थे कि अगर वे स्वतंत्रता-संग्राम में दो बार जेल - 'ए क्लास' में - न जाते, तो भारत आजाद होता ही नहीं। तारीख 3 दिसंबर 1950 की रात को बाबू गोपालचंद्र अपने भवन के तीसरे मंजिल के सातवें कमरे में तीन फीट ऊँचे पलँग के एक फीट मोटे गद्दे पर करवटें बदल रहे थे। नहीं, किसी के कोमल कटाक्ष से विद्ध नहीं थे वे। वे योजना से पीड़ित थे। उन्होंने हाल ही में करीब चार लाख रुपया चंदा करके स्वतंत्रता-संग्राम के शहीदों की स्मृति में एक भव्य 'बलि स्मारक' का निर्माण करवाया था। वे उसके प्रवेश द्वार पर देश-प्रेम और बलिदान की कोई कविता अंकित करना चाहते थे। उलझन यही थी कि वे पंक्तियाँ किस कवि की हों। स्वतंत्रता-संग्राम में स्वयं जेल-यात्रा करनेवाले अनेक कवि थे, जिनकी ओजमय कविताएँ थीं और वे नई लिखकर दे भी सकते थे। पर वे बाबू गोपालचंद्र को पसंद नहीं थीं। उनमें शक्ति नहीं है, आत्मा का बल नहीं है उनका मत था। परेशान होकर उन्होंने रखा ग्रंथ निकाला 'अकबर बीरबल विनोद' और पढ़ने लगे एक किस्सा : '...तब अकबर ने जग्गू ढीमर से कहा, 'देख रे, शहर में जो सब से सुंदर लड़का हो उसे कल दरबार में लाकर हाजिर करना, नहीं तो तेरा सिर काट लिया जाएगा।' बादशाह का हुक्म सुनकर जग्गू ढीमर चिंतित हुआ। आखिर शहर का सबसे सुंदर लड़का कैसे खोजे। वह घर की परछी में खाट पर बड़ा उदास पड़ा था कि इतने में उसकी स्त्री आई। उसने पूछा, 'आज बड़े उदास दीखते हो। कोई बात हो गई है क्या?' जग्गू ने उसे अपनी उलझन बताई। स्त्री ने कहा, 'बस, इतनी-सी बात। अरे अपने कल्लू को ले जाओ। ऐसा सुंदर लड़का शहर-भर में न मिलेगा।' जग्गू को बात पटी। खुश होकर बोला, 'बताओ भला! मेरी अक्ल में इतनी-सी बात नहीं आई। अपने कल्लू की बराबरी कौन कर सकता है।' बस, दूसरे दिन कल्लू को दरबार में हाजिर कर दिया गया। कल्लू खूब काला था। चेहरे पर चेचक के गहरे दाग थे। बड़ा-सा पेट, भिचरी-सी आँखें और चपटी नाक।' किस्सा पढ़कर बाबू गोपाल ठीक जग्गू ढीमर की तरह प्रसन्न हुए। वे एकदम उठे और पुत्र को पुकारा, 'गोबरधन! सो गया क्या? जरा यहाँ तो आ।' गोबरधन दोस्तों के साथ शराब पीकर अभी लौटा था। लड़खड़ाता हुआ आया। गोपालचंद्र ने पूछा, 'क्यों रे, तू कविता लिखता है न?' गोबरधन अकबका गया। डरा कि अब डाँट पड़ेगी। बोला, 'नहीं बाबूजी, मैंने वह बुरी लत छोड़ दी है।' गोपालचंद्र ने समझाया, 'बेटा, डरो मत। सच बताओ। कविता लिखना तो अच्छी बात है।' गोबरधन की जान तो आधे रास्ते तक निकल गई थी, फिर लौट आई। कहने लगा, 'बाबूजी, पहले दस-पाँच लिखी थीं, पर लोगों ने मेरी प्रतिभा की उपेक्षा की। एक बार कवि-सम्मेलन में सुनाने लगा तो लोगों ने 'हूट' कर दिया। तब से मैंने नहीं लिखी।' गोपालचंद्र ने समझाया, 'बेटा, दुनिया हर 'जीनियस' के साथ ऐसा ही सलूक करती है। तेरी गूढ़ कविता को समझ नहीं पाते होंगे, इसलिए हँसते होंगे। तू मुझे कल चार पंक्तियाँ देशभक्ति और बलिदान के संबंध में लिखकर दे देना।' गोबरधन नीचे देखते हुए बोला, 'बाबूजी, मैंने इन हल्के विषयों पर कभी नहीं लिखा। मैं तो प्रेम की कविता लिखता हूँ। जहूरन बाई के बारे में लिखी है, वह दे दूँ?' गोपालचंद्र गरम होते-होते बच गए। बड़े संयम से मीठे स्वर में बोले, 'आज कल बलिदान त्याग और देश-प्रेम का फैशन है। इन्हीं पर लिखना चाहिए! गरीबों की दुर्दशा पर भी लिखने का फैशन चल पड़ा है। तू चाहे तो हर विषय पर लिख सकता है। तू कल शाम तक बलिदान और देश-प्रेम के भावोंवाली चार पंक्तियाँ मुझे जोड़कर दे दे। मैं उन्हें राष्ट्र के काम में लानेवाला हूँ।' 'कहीं छपेंगी?' गोबरधन ने उत्सुकता से पूछा। 'छपेंगी नहीं खुदेंगी, बलि-स्मारक के प्रवेश द्वार पर।' गोपालचंद्र ने कहा। गोबरधन दास को प्रेरणा मिल गई। उसने दूसरे दिन शाम तक चार पंक्तियाँ जोड़ दीं। गोपालचंद्र ने उन्हें पढ़ा तो हर्ष से उछल पड़े, 'वाह बेटा, तूने तो एक महाकाव्य का सार तत्व भर दिया है इन चार पक्तियों में। वाह... गागर में सागर!' वे चार पंक्तियाँ तारीख 6 सितंबर को 'बलि-स्मारक' के प्रवेश-द्वार पर खुद गईं। नीचे कवि का नाम अंकित किया गया - गोबरधन दास। सन 2950 ईसवी विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के शोध कक्ष में डॉ. वीनसनंदन अपने प्रिय छात्र रॉबर्ट मोहन के साथ चर्चा कर रहे थे। इस काल के अंतरराष्ट्रीय नाम होने लगे। रॉबर्ट मोहन डॉ. वीनसनंदन के निर्देश में बीसवीं शताब्दी की कविता पर शोध कर रहा था। मोहन बड़ी उत्तेजना में कह रहा था, 'सर, पुरातत्व विभाग में ऐसा 'क्लू' मिला है कि उस युग के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय कवि का मुझे पता लग गया है। हम लोग बड़े अंधकार में चल रहे थे। परंपरा ने हमें सब गलत जानकारी दी है। निराला, पंत, प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर आदि कवियों के नाम हम तक आ गए हैं परंतु उस कृतघ्न युग ने अपने सब से महान राष्ट्रीय कवि को विस्मृत कर दिया। मैं विगत युग को प्रकाशित करनेवाला हूँ।' 'तुम दंभी हो।' डॉक्टर ने कहा। 'तो आप मूर्ख हैं।' शिष्य ने उत्तर दिया। गुरु-शिष्य संबंध उस समय इस सीमा तक पहुँच गए थे। गुरु ने बात हँसकर सह ली। फिर बोले, 'रॉबर्ट, मुझे तू पूरी बात तो बता।' राबर्ट ने कहा, 'सर, हाल ही में सन 1950 में निर्मित एक भव्य बलि-स्मारक जमीन के अंदर से खोदा गया है। शिलालेख से मालूम होता है कि वह भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में प्राणोत्सर्ग करनेवाले देश-भक्तों की स्मृति में निर्मित किया गया था। उसके प्रवेश-द्वार पर एक कवि की चार पंक्तियाँ अंकित मिली हैं। वह स्मारक देश में सबसे विशाल था। ऐसा मालूम होता है कि समूचे राष्ट्र ने इनके द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी। उस पर जिस कवि की कविता अंकित की गई है, वह सबसे महान कवि रहा होगा। 'क्या नाम है उस कवि का?' डॉक्टर साहब ने पूछा। 'गोबरधनदास', मोहन बोला। उसने कागज पर उतारी हुई वे पंक्तियाँ डॉक्टर साहब के सामने रख दीं। डॉक्टर साहब ने प्रसन्न मुद्रा में कहा, 'वाह, तुमने बड़ा काम किया है।' रॉर्बट बोला, 'पर अब आगे आपकी मदद चाहिए। इस कवि की केवल चार पंक्तियाँ ही मिली हैं, शेष साहित्य के बारे में क्या लिखा जाए?' डॉक्टर साहब ने कहा, 'यह तो बहुत ही सहज है। लिखो, कि उन का शेष साहित्य काल के प्रवाह में बह गया। उस युग में कवियों में गुट-बंदियाँ थीं। गोबरधनदास अत्यंत सरल प्रकृति के, गरीब आदमी थे। वे एकांत साधना किया करते थे। वे किसी गुट में सम्मिलिति नहीं थे। इस लिए उस युग के साहित्यकारों ने उनके साथ बड़ा अन्याय किया। उनकी अवहेलना की गई, उन्हें कोई प्रकाशक नहीं मिला। उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं। पर अन्य कवियों ने प्रकाशकों से वे पुस्तकें खरीदकर जला दीं।' |
14-06-2012, 08:45 PM | #30 |
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Re: हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाये
ठिठुरता हुआ गणतंत्र चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। इतना बेवकूफ भी नहीं कि मान लूँ, जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है। आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है? जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है कि हर गणतंत्र-दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते? उन्होंने कहा - जरा धीरज रखिए। हम कोशिश में हैं कि सूर्य बाहर आ जाए। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं हैं। वक्त लगेगा। हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिए। दिए। सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिए, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिए। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अंतरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप आपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे। इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा। उसने कहा - ‘हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडीकेट वाले अड़ंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बताएँगे। एक सिंडीकेटी पास खड़ा सुन रहा था। वह बोल पड़ा - ‘यह लेडी (प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है। वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता? मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूँ। वह कहता है - ‘सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था। कांग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-काँग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या, उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे। जनसंघी भाई से भी पूछा। उसने कहा - ‘सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकल आता। इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा। साम्यवादी ने मुझसे साफ कहा - ‘यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।’ स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा - ‘रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा? प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा - ‘सवाल पेचीदा है। नेशनल कौंसिल की अगली बैठक में इसका फैसला होगा। तब बताऊँगा।’ राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है।’ मैं इंतजार करूँगा, जब भी सूर्य निकले। स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है। स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है। मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है - ‘घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जाएँगे। लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है। पर कुछ लोग कहते हैं - ‘गरीबी मिटनी चाहिए।’ तभी दूसरे कहते हैं - ‘ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।’ गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झाँकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झाँकियाँ झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झाँकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आंध्र की झाँकी में हरिजन जलते हुए दिखाए जाएँगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नजदीक पहुँचने की कोशिश की थी। झाँकी में अकाल-राहत कार्य बतलाए गए थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झाँकी में झूठे मास्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले का अँगूठा हजारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता। नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता। उस झाँकी में वह बात नहीं आई। पिछले साल स्कूलों के ‘टाट-पट्टी कांड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की झाँकी में यह दृश्य दिखाता - ‘मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं। जो हाल झाँकियों का, वही घोषणाओं का। हर साल घोषणा की जाती है कि समाजवाद आ रहा है। पर अभी तक नहीं आया। कहाँ अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा। मैं एक सपना देखता हूँ। समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं। पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊँगा। समाजवाद टीले से चिल्लाता है - ‘मुझे बस्ती में ले चलो।’ मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं - ‘पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जाएगा।’ समाजवाद की घेराबंदी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतांत्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले समाजवादी हैं। क्रांतिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है - ‘लो, मैं समाजवाद ले आया।’ समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं। ‘खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है। इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आंदोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं। यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है। मैं एक कल्पना कर रहा हूँ। दिल्ली में फरमान जारी हो जाएगा - ‘समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है। उसे सब जगह पहुँचाया जाए। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त किया जाए। एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा - ‘लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इंतजाम करो। नाक में दम है।’ कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा। कलेक्टर एस.डी.ओ. को लिखेगा, एस.डी.ओ. तहसीलदार को। पुलिस-दफ्तरों में फरमान पहुँचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो। दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे - ‘काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’ तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे - ‘अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम कागज दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।’ तमाम अफसर लोग चीफ-सेक्रेटरी से कहेंगे - ‘सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इंतजाम नहीं कर सकेंगे। पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है।’ मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा - ‘हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुल्तवी किया जाए।’ जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जाएँ और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी। |
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