26-03-2015, 04:47 PM | #11 |
VIP Member
|
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
निर्मम नाता तोड़ जगत का अमरपुरी की ओर चले, बन्धन-मुक्ति न हुई, जननि की गोद मधुरतम छोड़ चले। जलता नन्दन-वन पुकारता, मधुप! कहाँ मुँह मोड़ चले? बिलख रही यशुदा, माधव! क्यों मुरली मंजु मरोड़ चले? उबल रहे सब सखा, नाश की उद्धत एक हिलोर चले; पछताते हैं वधिक, पाप का घड़ा हमारा फोड़ चले। माँ रोती, बहनें कराहतीं, घर-घर व्याकुलता जागी, उपल-सरीखे पिघल-पिघल तुम किधर चले मेरे बागी?
__________________
Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed. |
26-03-2015, 04:47 PM | #12 |
VIP Member
|
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल
हिल रहा धरा का शीर्ण मूल, जल रहा दीप्त सारा खगोल, तू सोच रहा क्या अचल, मौन ? ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल ? जाग्रत जीवन की चरम-ज्योति लड़ रही सिन्धु के आरपार, संघर्ष-समर सब ओर, एक हिमगुहा-बीच घन-अन्धकार। प्लावन के खा दुर्जय प्रहार जब रहे सकल प्राचीर काँप, तब तू भीतर क्या सोच रहा है क्लीव-धर्म का पृष्ठ खोल? क्या पाप मोक्ष का भी प्रयास ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल ? बुझ गया जवलित पौरुष-प्रदीप? या टूट गये नख-रद कराल? या तू लख कर भयाभीत हुआ लपटें चारों दिशि लाल-लाल? दुर्लभ सुयोग, यह वह्निवाह धोने आया तेरा कलंक, विधि का यह नियत विधान तुझे लड़कर लेना है मुक्ति मोल। किस असमंजस में अचल मौन ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल ? संसार तुझे दे क्या प्रमाण? रक्खे सम्मुख किसका चरित्र? तेरे पूर्वज कह गये, "युद्ध चिर अनघ और शाश्वत पवित्र।" तप से खिंच आकर विजय पास है माँग रही बलिदान आज, "मैं उसे वरूँगी होम सके स्वागत में जो घन-प्राण आज।" ‘है दहन मुक्ति का मंत्र एक’, सुन, गूँज रहा सारा खगोल; तू सोच रहा क्या अचल मौन ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल ? नख-दंत देख मत हृदय हार, गृह-भेद देख मत हो अधीर; अन्तर की अतुल उमंग देख, देखे, अपनी ज़ंजीर वीर ! यह पवन परम अनुकूल देख, रे, देख भुजा का बल अथाह, तू चले बेड़ियाँ तोड़ कहीं, रोकेगा आकर कौन राह ? डगमग धरणी पर दमित तेज सागर पारे-सा उठे डोल; उठ, जाग, समय अब शेष नहीं, भारत माँ के शार्दुल ! बोल ।
__________________
Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed. |
26-03-2015, 04:48 PM | #13 |
VIP Member
|
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
पटना जेल की दीवार से
मृत्यु-भीत शत-लक्ष मानवों की करुणार्द्र पुकार! ढह पड़ना था तुम्हें अरी ! ओ पत्थर की दीवार! निष्फल लौट रही थी जब मरनेवालों की आह, दे देनी थी तुम्हें अभागिनि, एक मौज को राह । एक मनुज, चालीस कोटि मनुजों का जो है प्यारा, एक मनुज, भारत-रानी की आँखों का ध्रुवतारा। एक मनुज, जिसके इंगित पर कोटि लोग चलते हैं, आगे-पीछे नहीं देखते, खुशी-खुशी जलते हैं । एक मनुज, जिसका शरीर ही बन्दी है पाशों में, लेकिन, जो जी रहा मुक्त हो जनता की सांसों में। जिसका ज्वलित विचार देश की छाती में बलता है, और दीप्त आदर्श पवन में भी निश्चल जलता है। कोटि प्राण जिस यशःकाय ऋषि की महिमा गाते हैं, इतिहासों में स्वयं चरण के चिह्न बने जाते हैं। वह मनुष्य, जो आज तुम्हारा बन्दी केवल तन से, लेकिन, व्याप रहा है जो सारे भारत को मन से। मुट्ठी भर हड्डियाँ निगलकर पापिनि, इतराती हो? मुक्त विराट पुरुष की माया समझ नहीं पाती हो ? तुम्हें ज्ञात, उर-उर में किसकी पीड़ा बोल रही है? धर्म-शिखा किसकी प्रदीप्त गृह-गृह में डोल रही है? किसके लिए असंख्य लोचनों से झरने है जारी? किसके लिए दबी आहों से छिटक रही चिनगारी? धुँधुआती भट्ठियाँ एक दिन फूटेंगी, फूटेंगी ; ये जड़ पत्थर की दीवारें टूटेंगी, टूटेंगी। जंजीरों से बड़ा जगत में बना न कोई गहना, जय हो उस बलपुंज सिंह की, जिसने इनको पहना। आँखों पर पहरा बिठला कर हँसें न किरिचोंवाले, फटने ही वाले हैं युग के बादल काले-काले। मिली न जिनको राह, वेग वे विद्युत बन आते हैं, बहे नहीं जो अश्रु, वही अंगारे बन जाते हैं। मानवेन्द्र राजेन्द्र हमारा अहंकार है, बल है, तपःपूत आलोक, देश माता का खड्ग प्रबल है। जिस दिन होगी खड़ी तान कर भृकुटी भारत-रानी खड्ग उगल देना होगा ओ पिशाचिनी दीवानी ! घड़ी मुक्ति की नहीं टलेगी कभी किसी के टाले, शाप दे गये तुम्हे, किन्तु, मिथिला के मरनेवाले ।
__________________
Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed. |
26-03-2015, 04:50 PM | #14 |
VIP Member
|
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
गा रही कविता युगों से मुग्ध हो
गा रही कविता युगों से मुग्ध हो, मधुर गीतों का न पर, अवसान है। चाँदनी की शेष क्यों होगी सुधा, फूल की रुकती न जब मुस्कान है? चन्द्रिका किस रूपसी की है हँसी? दूब यह किसकी अनन्त दुकूल है? किस परी के प्रेम की मधु कल्पना व्योम में नक्षत्र, वन में फूल है? नत-नयन कर में कुसुम-जयमाल ले, भाल में कौमार्य की बेंदी दिये, क्षितिज पर आकर खड़ी होती उषा नित्य किस सौभाग्यशाली के लिए? धान की पी चन्द्रधौत हरीतिमा आज है उन्मादिनी कविता-परी, दौड़ती तितली बनी वह फूल पर, लोटती भू पर जहाँ दूर्वा हरी ।
__________________
Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed. |
26-03-2015, 04:51 PM | #15 |
VIP Member
|
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
खोल दृग, मधु नींद तज, तंद्रालसे, रूपसि विजन की ! साज नव शृंगार, मधु-घट संग ले, कर सुधि भुवन की । विश्व में तृण-तृण जगी है आज मधु की प्यास आली ! मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! वर्ष की कविता सुनाने खोजते पिक मौन बोले, स्पर्श कर द्रुत बौरने को आम्र आकुल बाँह खोले; पंथ में कोरकवती जूही खड़ी ले नम्र डाली। मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! लौट जाता गंध वह सौरभ बिना फिर-फिर मलय को, पुष्पशर चिन्तित खड़ा संसार के उर की विजय को । मौन खग विस्मित- ‘कहाँ अटकी मधुर उल्लासवाली ?’ मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! मुक्त करने को विकल है लाज की मधु-प्रीति कारा; विश्व-यौवन की शिरा में नाचने को रक्तधारा। चाहती छाना दृगों में आज तज कर गाल लाली। मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! है विकल उल्लास वसुधा के हृदय से फूटने को, प्रात-अंचल-ग्रंथि से नव रश्मि चंचल छूटने को । भृंग मधु पीने खड़े उद्यत लिये कर रिक्त प्याली । मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! इंद्र की धनुषी बनी तितली पवन में डोलती है; अप्सराएँ भूमि के हित पंख-पट निज खोलती है । आज बन साकार छाने उमड़ते कवि-स्वप्न आली ! मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !
__________________
Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed. |
26-03-2015, 04:54 PM | #16 |
VIP Member
|
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
राजा-रानी
राजा बसन्त, वर्षा ऋतुओं की रानी, लेकिन, दोनों की कितनी भिन्न कहानी ! राजा के मुख में हँसी, कंठ में माला, रानी का अन्तर विकल, दृगों में पानी । डोलती सुरभि राजा-घर कोने-कोने, परियाँ सेवा में खड़ी सजाकर दोने। खोले अलकें रानी व्याकुल-सी आई, उमड़ी जानें क्या व्यथा , लगी वह रोने। रानी रोओ, पोंछो न अश्रु अन्चल से, राजा अबोध खेलें कचनार-कमल से। राजा के वन में कैसे कुसुम खिलेंगे, सींचो न धरा यदि तुम आँसू के जल से? लेखनी लिखे, मन में जो निहित व्यथा है, रानी की सब दिन गीली रही कथा है । त्रेता के राजा क्षमा करें यदि बोलूँ, राजा-रानी की युग से यही प्रथा है। विधु-संग-संग चाँदनी खिली वन-वन में, सीते ! तुम तो खो रही चरण-पूजन में। तो भी, यह अग्नि-विधान! राम निष्ठुर हैं; रानी ! जनमी थीं तुम किस अशुभ लगन में? नृप हुए राम, तुमने विपदाएँ झेलीं; थीं कीर्ति उन्हें प्रिय, तुम वन गई अकेली। वैदेहि ! तुम्हें माना कलंकिनी प्रिय ने, रानी ! करुणा की तुम भी विषम पहेली। रो-रो राजा की कीर्तिलता पनपाओ, रानी ! आयसु है, लिये गर्भ बन जाओ। सूखो सरयू ! साकेत ! भस्म हो; रानी ! माँ के उर में छिप रहो, न मुख दिखलाओ। औ’ यहाँ कौन यह विधु की मलिन कला-सी, संध्या-सुहाग-सी, तेज-हीन चपला-सी? अयि मूर्तिमती करुणे द्वापर की ! बोलो, तुम कौन मौन क्षीणा अलका-अबला-सी ? अयि शकुन्तले ! कैसा विषाद आनन में? रह-रह किसकी सुधि कसक रही है मन में? प्याली थी वह विष-भरी, प्रेम में भूली, पी गई जिसे भोली तुम खता-भवन में। माधवी-कुंज की मादक प्रणय-कहानी, नयनों में है साकार आज बन पानी। पुतली में रच तसवीर निठुर राजा की रानी रोती फिरती वन-वन दीवानी। राजा हँसते हैं, हँसे, तुम्हें रोना है, मालिन्य मुकुट का भी तुमको धोना है; रानी ! विधि का अभिशाप यहाँ ऊसर में आँसू से मोती-बीज तुम्हें बोना है। किरणों का कर अवरोध उड़ा अंचल है, छाया में राजा मना रहा मंगल है। रानी ! राजा को ज्ञात न, पर अनजाने, भ्रू-इंगित पर वह घूम रहा पल-पल है। वह नव वसन्त का कुसुम, और तुम लाली, वह पावस-नभ, तुम सजल घटा मतवाली; रानी ! राजा की इस सूनी दुनिया में बुनती स्वप्नों से तुम सोने की जाली। सुख की तुम मादक हँसी, आह दुर्दिन की, सुख-दुख, दोनों में, विभा इन्दु अमलिन की। प्राणों की तुम गुंजार, प्रेम की पीड़ा, रानी ! निसि का मधु, और दीप्ति तुम दिन की। पग-पग पर झरते कुसुम, सुकोमल पथ हैं, रानी ! कबरी का बन्ध तुम्हारा श्लथ है, झिलमिला रही मुसकानों से अँधियाली, चलता अबाध, निर्भय राजा का रथ है। छिटकी तुम विद्युत्*-शिखा, हुआ उजियाला, तम-विकल सैनिकों में संजीवन डाला; हल्दीघाटी हुंकार उठी जब रानी ! तुम धधक उठी बनकर जौहर की ज्वाला। राजा की स्मृति बन ज्योति खिली जौहर में, असि चढ़ चमकी रानी की विभा समर में; भू पर रानी जूही, गुलाब राजा है; राजा-रानी हैं सूर्य-सोम अम्बर में।
__________________
Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed. |
26-03-2015, 04:57 PM | #17 |
VIP Member
|
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
निर्झरिणी
मधु-यामिनी-अंचल-ओट में सोई थी बालिका-जूही उमंग-भरी; विधु-रंजित ओस-कणों से भरी थी बिछी वन-स्वप्न-सी दूब हरी; मृदु चाँदनी-बीच थी खेल रही वन-फूलों से शून्य में इन्द्र-परी, कविता बन शैल-महाकवि के उर से मैं तभी अनजान झरी। हरिणी-शिशु ने निज लास दिया, मधु राका ने रूप दिया अपना, कुमुदी ने हँसी, परियों ने उमंग, चकोरी ने प्रेम में यों तपना। नभ नील ने जन्म-घड़ी ही में नील समुद्र का भव्य दिया सपना, ‘पी कहाँ’ कह प्रेमी पपीहरे ने सिखलाया मुझे ‘पी कहाँ’ जपना। गति-रोध किया गिरि ने, पर, मैं द्रुत भाग चली घहराती हुई, सरकी उपलों में भुजंगिनी-सी मैं शिला से कहीं टकराती हुई; जननी-गृह छोड़ चली, मुड़ देखा कभी न उसे ललचाती हुई, गिरि-शृंग से कूद पड़ी मैं अभय ‘पी कहाँ?’‘पी कहाँ?’ धुन गाती हुई। वनभूमि ने दूब के अंचल में गिरि से गिरते मुझे छान लिया, गिरि-मल्लिका कुन्तल-बीच पिरो मुझको निज बालिका मान लिया; कलियों ने सुहाग के मोती दिये, नव ऊषा ने सेंदुर-दान दिया, जगती को हरी लख मैंने हरी-हरी दूबों का ही परिधान लिया। तट की हिमराशि की आरसी में अपनी छवि देख दीवानी हुई। प्रिय-दर्शन की मधु लालसा में पिघली, पल में घुल पनी हुई। टकराने चली मैं असीम के वक्ष से, रूप के ज्वार की रनी हुई। उनमाद की रागिनी, बेकली की अपनी ही मैं आप कहानी हुई। जननी-धरणी मुझे गोद लिये थी सचेत कि मैं भग जाऊँ नहीं, वन-जन्तुओं के शिशु आन जुटे कि सखा बिन मैं दुख पाऊँ नहीं। थी डरी मैं, पड़ी ममता में कहीं इस देश में ही रह जाऊँ नहीं, प्रिय देखे बिना झर जाऊँ न व्यर्थ, कहीं छवि यों ही गँवाऊँ नहीं। एक रोज़ उनींदी हुई जो धरा, द्रुत भागी मैं आँख बचाती हुई, वन-वल्लरी-अंचल-बीच कहीं तृण-पुंज में वेश छिपाती हुई। निकली द्रुम-कुंज की छाँह से तो मैं चली फिर से घहराती हुई, सिकता-से पिपासित विश्व के कंठ में स्वर्ग-सुधा सरसाती हुई। वनदेवी! द्रुमांचल श्याम हिला फिरने का करो न इशारा मुझे, उपलो! पद यों न गहो, भुज खोल न बाँध, तू हाय! किनारा ! मुझे। किसको ध्वनि दूर से आई? पुकार रहा सुन अम्बुधि प्यारा मुझे, जननी धरणी! तिरछी हो जरा, अरी! वेग से खींच तू धारा मुझे। अभिसारिका मैं मिलने हूँ चली, प्रिय-पंथ रे , कोई बताना जरा, किस शूली पै ‘मीरा’-पिया की है सेज? इशारों से कोई दिखाना जरा। पथ-भूली-सी कुंज में राधिका के हित श्याम! तू वेणु बजाना जरा, तुझमें प्रिय! खोने को तो आ रही पर तू भी गले से लगाना ज़रा।
__________________
Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed. |
26-03-2015, 05:02 PM | #18 |
VIP Member
|
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
कोयल
कैसा होगा वह नन्दन-वन? सखि! जिसकी स्वर्ण-तटी से तू स्वर में भर-भर लाती मधुकण। कैसा होग वह नन्दन-वन? कुंकुम-रंजित परिधान किये, अधरों पर मृदु मुसकान लिए, गिरिजा निर्झरिणी को रँगने कंचन-घट में सामान लिये। नत नयन, लाल कुछ गाल किये, पूजा-हित कंचन-थाल लिये, ढोती यौवन का भार, अरुण कौमार्य-विन्दु निज भाल दिये। स्वर्णिम दुकूल फहराती-सी, अलसित, सुरभित, मदमाती-सी, दूबों से हरी-भरी भू पर आती षोडशी उषा सुन्दर। हँसता निर्झर का उपल-कूल लख तृण-तरु पर नव छवि-दुकूल; तलहटी चूमती चरण-रेणु, उगते पद-पद पर अमित फूल। तब तृण-झुर्मुट के बीच कहाँ देते हैं पंख भिगो हिमकन? किस शान्त तपोवन में बैठी तू रचती गीत सरस, पावन? यौवन का प्यार-भरा मधुवन, खेलता जहाँ हँसमुख बचपन, कैसा होगा वह नन्दन-वन? गिरि के पदतल पर आस-पास मखमली दूब करती विलास। भावुक पर्वत के उर से झर बह चली काव्यधारा (निर्झर) हरियाली में उजियाली-सी पहने दूर्वा का हरित चीर नव चन्द्रमुखी मतवाली-सी; पद-पद पर छितराती दुलार, बन हरित भूमि का कंठ-हार। तनता भू पर शोभा-वितान, गाते खग द्रुम पर मधुर गान। अकुला उठती गंभीर दिशा, चुप हो सुनते गिरि लगा कान। रोमन्थन करती मृगी कहीं, कूदते अंग पर मृग-कुमार, अवगाहन कर निर्झर-तट पर लेटे हैं कुछ मृग पद पसार। टीलों पर चरती गाय सरल, गो-शिशु पीते माता का थन, ऋषि-बालाएँ ले-ले लघु घट हँस-हँस करतीं द्रुम का सिंचन। तरु-तल सखियों से घिरी हुई, वल्कल से कस कुच का उभार, विरहिणि शकुन्तला आँसु से लिखती मन की पीड़ा अपार, ऊपर पत्तों में छिपी हुई तू उसका मृदु हृदयस्पन्दन, अपने गीतों का कड़ियों में भर-भर करती कूजित कानन। वह साम-गान-मुखरित उपवन। जगती की बालस्मृति पावन! वह तप-कनन! वह नन्दन-वन! किन कलियों ने भर दी श्यामा, तेरे सु-कंठ में यह मिठास? किस इन्द्र-परी ने सिखा दिया स्वर का कंपन, लय का विलास? भावों का यह व्याकुल प्रवाह, अन्तरतम की यह मधुर तान, किस विजन वसन्त-भरे वन में सखि! मिला तुझे स्वर्गीय गान? थे नहा रहे चाँदनी-बीच जब गिरि, निर्झर, वन विजन, गहन, तब वनदेवी के साथ बैठ कब किया कहाँ सखि! स्वर-साधन? परियों का वह शृंगार-सदन! कवितामय है जिसका कन-कन! कैसा होगा वह नन्दन-वन!
__________________
Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed. |
26-03-2015, 05:23 PM | #19 |
VIP Member
|
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
मिथिला में शरत्*
किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी? ऊपर निरभ्र नभ नील-नील, नीचे घन-विम्बित झील-झील। उत्तर किरीट पर कनक-किरण, पद-तल मन्दाकिनि रजत-वरण। छलकी कण-कण में दिव्य सुधा, बन रही स्वर्ग मिथिला-वसुधा। तन की साड़ी-द्युति सघन श्याम तरु, लता, धान, दूर्वा ललाम। दायें कोशल ले अर्ध्य खड़ा, आरती बंग ले वाम-वाम। दूबों से लेकर बाँसों तक, गृह-लता, सरित-तट कासों तक, हिल रही पवन में हरियाली; वसुधा ने कौन सुधा पा ली? गाती धनखेतों -बीच परी, किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी? क्या शरत्*-निशा की बात कहूँ? जो कुछ देखा था रात, कहूँ? निर्मल ऋतु की मुख-भरी हँसी, चाँदनी विसुध भू आन खसी; मदरसा, विकल, मदमाती-सी, अपने सुख में न समाती-सी। गंडकी सुप्त थी रेतों में, पंछी चुप नीड़-निकेतों में; ‘चुप-चुप’ थी शान्ति सभी घर में; चाँदनी सजग थी जग-भर में, हाँ, कम्प जरा हरियाली में, थी आहट कुछ वैशाली में। इतने में (उफ़! कविता उमड़ी) खँडहर से निकली एक परी; गंडकी-कूल खेतों में आ हरियाली में हो गई खड़ी। लट खुली हुई लहराती थी, मुख पर आवरण बनाती थी; सपनों में भूल रहा मन था, उन्मन दृग में सूनापन था। धानी दुकूल गिर धानों पर मंजरी-साथ कुछ रहा लहर। लम्बी बाँहें गोरी-गोरी उँगलियाँ रूप-रस में बोरी। कर कभी धान का आलिङ्गन लेती मंजरियों का चुम्बन। गंडकी-ओर फिर दृष्टि फेर देखती लहर को बड़ी देर। हेरती मर्म की आँखों से वह कपिलवस्तु-दिशि बेर-बेर। शारद निशि की शोभा विशाल, जगती, ज्योत्स्ना का स्वर्ण-ताल, श्यामल, शुभ शस्यों का प्रसार, गंडक, मिथिला का कंठहार। चन्द्रिका-धौत बालुका-कूल, कंपित कासों के श्वेत फूल; वह देख-देख हर्षाती है, कुछ छिगुन-छिगुन रह जाती है। मिथिला विमुक्त कर हृदय-द्वार है लुटा रही सौन्दर्य प्यार; कोई विद्यापति क्यों न आज चित्रित कर दे छवि गान-व्याज? कोई कविता मधु-लास-मयी, अविछिन्न, अनन्त विलास-मयी, चाँदनी धुली पी हरियाली बनती न हाय, क्यों मतवाली? शेखर की याद सताती है, वह छिगुन-छिगुन रह जाती है। मैं नहीं चाहता चिर-वसन्त, जूही-गुलाब की छवि अनन्त; ग्रीष्म हो, तरु की छाँह रहे; पावस हो, प्रिय की बाँह रहे; हो शीत या कि ऊष्मा जवलन्त, मेरे गृह में अक्षय वसन्त। औ’शरत्*, अभी भी क्या गम है? तू ही वसन्त से क्या कम है? है बिछी दूर तक दूब हरी, हरियाली ओढ़े लता खड़ी। कासों के हिलते श्वेत फूल, फूली छतरी ताने बबूल; अब भी लजवन्ती झीनी है, मंजरी बेर रस-भीनी है। कोयल न (रात वह भी कूकी, तुझपर रीझी, वंशी फूँकी।) कोयल न, कीर तो बोले हैं, कुररी-मैना रस घोले हैं; कवियों की उपमा की आँखें; खंजन फड़काती है पाँखें। रजनी बरसाती ओस ढेर, देती भू पर मोती बिखेर; नभ नील, स्वच्छ, सुन्दर तड़ाग; तू शरत्* न, शुचिता का सुहाग। औ’ शरत्*-गंग! लेखनी, आह! शुचिता का यह निर्मल प्रवाह; पल-भर निमग्न इसमें हो ले, वरदान माँग, किल्विष धो ले। गिरिराज-सुता सुषमा-भरिता, जल-स्त्रोत नहीं, कविता-सरिता। वह कोमल कास-विकासमयी, यह बालिका पावन हासमयी; वह पुण्य-विकासिनि, दिव्य-विभा, यह भाव-सुहासिनि, प्रेम-प्रभा। हे जन्मभूमि! शत बार धन्य! तुझ-सा न ‘सिमरियाघाट’ अन्य। तेरे खेतों की छवि महान, अनिमन्त्रित आ उर में अजान, भावुकता बन लहराती है, फिर उमड़ गीत बन जाती है। ‘बाया’ की यह कृश विमल धार, गंगा की यह दुर्गम कछार, कूलों पर कास-परी फूली, दो-दो नदियाँ तुझपर भूलीं। कल-कल कर प्यार जताती हैं, छू पार्श्व सरकती जाती है। शारद सन्ध्या, यह उगा सोम, बन गया सरित में एक व्योम, शेखर-उर में अब बिंधें बाण, सुन्दरियाँ यह कर रहीं स्नान। आग्रीव वारि के बीच खड़ी, या रही मधुर प्रत्येक परी। बिछली पड़तीं किरणें जल पर, नाचती लहर पर स्वर-लहरी। यह वारि-वेलि फैली अमूल, खिल गये अनेकों कंज-फूल; लट नहीं, मुग्ध अलिवृन्द श्याम कंजों की छवि पर रहे भूल। डुबकी रमणियाँ लगाती हैं, लट ऊपर ही लहराती हैं, जल-मग्न कमल को खोज-खोज मधुपावलियाँ मँडराती हैं। लेकिन नालों पर कंज कहाँ, ऐसे, जैसे ये खिले यहाँ? नीचे आने विधु ललक रहा, मृदु चूम परी की पलक रहा; वह स्वर्ग-बीच ललचाता है, भू पर रस-प्याला छलक रहा। परियाँ अब जल से चलीं निकल तन से लिपटे भींगे अंचल; चू रही चिकुर से वारि-धार, मुख-शशि-भय रोता अन्धकार। विद्यापति! सिक्त वसन तन में, मन्मथ जाते न मुनी-मन में। कवि! शरत्*-निशा का प्रथम प्रहर, कल्पना तुम्हारी उठी लहर, कविता कुछ लोट रही तट में, लिपटी कुछ सिक्त परी-पट में; कुछ मैं स्वर में दुहराता हूँ; निज कविता मधुर बचाता हूँ। गंगा-पूजन का साज सजा, कल कंठ-कंठ में तार बजा; स्वर्गिक उल्लास उमंग यहाँ; पट में सुर-धनु के रंग यहाँ, तुलसी-दल-सा परिपूत हृदय, अति पावन पुण्य-प्रसंग यहाँ। तितलियाँ प्रदीप जलाती हैं, शेखर की कविता गाती हैं। गंगे! ये दीप नहीं बलते, लघु पुण्य-प्रभा-कण हैं जलते; अन्तर की यह उजियारी है; भावों की यह चिनगारी है।
__________________
Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed. |
26-03-2015, 05:25 PM | #20 |
VIP Member
|
Re: रेणुका / रामधारी सिंह "दिनकर"
विश्व-छवि
मैं तुझे रोकता हूँ पल-पल, तू और खिंचा-सा जाता है, मन, जिसे समझता तू सुन्दर, उस जग से कब का नाता है? कुछ विस्मृत-सा परिचय है क्या जिससे बढ़ता है प्यार? कण-कण में कौन छिपा अपना जो मुझको रहा पुकार? मघुर कैसी है यह नगरी! धन्य री जगत पुलक-भरी! चन्द्रिका-पट का कर परिधान, सजा नक्षत्रों से शृंगार, प्रकृति पुलकाकुल आँखें खोल देखती निज सुवर्ण-संसार। चमकते तरु पर झिलमिल फूल, बौर जाता है कभी रसाल, अंक में लेकर नीलाकाश कभी दर्पण बन जाता ताल। चहकती चित्रित मैना कहीं, कहीं उड़ती कुसुमों की धूल, चपल तितली सुकुमारी कहीं दीखती, फुदक रहे ज्यों फूल। हरे वन के कंठों में कहीं स्त्रोत बन जाते उज्ज्वल हार। पिघलकर चाँदी ही बन गई कहीं गंगा की झिलमिल धार। उतरती हरे खेत में इधर खींचकर संध्या स्वर्ण-दुकूल, व्योम की नील वाटिका-बीच उधर हँस पड़ते अगणित फूल। वन्य तृण भी तो पुलक-विभोर पवन में झूम रहे स्वच्छन्द; प्रकृति के अंग-अंग से अरे, फूटता है कितना आनन्द! देख मादक जगती की ओर झनकते हृत्तंत्री के तार, उमड़ पड़ते उर के उच्छ्*वास, धन्य स्रष्टा ! तेरा व्यापार। स्रष्टा धन्य, विविध सुमनों से सजी धन्य यह फुलवारी। पा सकतीं क्या इन्द्रपुरी में भी आँखें यह छवि प्यारी? फूलों की क्या बात? बाँस की हरियाली पर मरता हूँ। अरी दूब, तेरे चलते जगती का आदर करता हूँ। किसी लोभ से इसे छोड़ दूँ, यह जग ऐसा स्थान नहीं; और बात क्या बहुधा मैं चाहता मुक्ति -वरदान नहीं। इस उपवन की ओर न आऊँ, ऐसी मुक्ति न मैं लूँगा, अपने पर कृतघ्नता का अपराध न लगने मैं दूँगा। इच्छा है, सौ-सौ जीवन पा इस भूतल पर आऊँ मैं, घनी पत्तियों की हरियाली से निज नयन जुड़ाऊँ मैं। तरु के नीचे बैठ सुमन की सरस प्रशंसा गाऊँ मैं, नक्षत्रों में हँसूँ, ओस में रोऊँ और रुलाऊँ मैं। मेरे काव्य-कुसुम से जग का हरा-भरा उद्यान बने, मेरे मृदु कविता भावुक परियों का कोमल गान बने। विधि से रंजित पंख माँग मैं उड़-उड़ व्योम-विहार करूँ, गगनांगन के बिखरे मोती से माला तैयार करूँ। किसी बाल-युवती की ग्रीवा में वह हार पिन्हाऊँ मैं, हरी दूब पर चंद्र-किरण में सम्मुख उसे बिठाऊँ मैं। श्वेत, पीत, बैगनी कुसुम से मैं उसका शृंगार करूँ, कविता रचूँ, सुनाऊँ उसको, हृदय लगाऊँ, प्यार करूं। मलयानिल बन नव गुलाब की मादक सुरभि चुराऊँ मैं, विधु का बन प्रतिबिम्ब सरित के उर-भीतर छिप जाऊँ मैं। किरण-हिंडोरे पर चढ़कर मैं बढ़ूँ कभी अम्बर की ओर, करूँ कभी प्लवित वन-उपवन बन खग की स्वर-सरित-हिलोर। इच्छा है, मैं बार-बार कवि का जीवन लेकर आऊँ, अपनी प्रतिभा के प्रदीप से जग की अमा मिटा जाऊँ। नाथ, मुझे भावुकता-प्रतिभा का प्यारा वरदान मिले, हरी तलहटी की गोदी में सुन्दर वासस्थान मिले। उधर झरे भावुक पर्वत-उर से निर्झरिणी सुकुमारी, शत स्त्रोतों में इधर हृदय से फूट पड़े कविता प्यारी। कुसुमों की मुसकान देखकर, उज्ज्वल स्वर्ण-विहान देखकर, थिरक उठे यह हृदय मुग्ध हो, बरस पड़े आनन्द; अचानक गूँज उठे मृदु छन्द, "मधुर कैसी है यह नगरी! धन्य री जगती पुलक-भरी!"
__________________
Disclamer :- All the My Post are Free Available On INTERNET Posted By Somebody Else, I'm Not VIOLATING Any COPYRIGHTED LAW. If Anything Is Against LAW, Please Notify So That It Can Be Removed. |
Bookmarks |
Tags |
कवि दिनकर, रेणुका, dinkar, ramdhari singh dinkar, renuka |
Thread Tools | |
Display Modes | |
|
|