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Old 11-07-2012, 04:15 PM   #221
Dark Saint Alaick
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विश्व जनसंख्या दिवस पर विशेष
परिवार नियोजन में ‘आधी आबादी’ भारी
नसबंदी से अब भी हिचकिचा रहे हैं पुरुष

इसे जागरुकता की कमी कह लीजिए या समाज की पुरुष प्रधान मानसिकता का एक और सबूत। लेकिन जनसंख्या विस्फोट की चौतरफा दिक्कतों के बीच आबादी के सरपट दौड़ते घोड़े की नकेल कसने की व्यक्तिगत मुहिम में पुरुषों की भागीदारी महिलाओं के मुकाबले अब भी बेहद कम है। विशेषज्ञों के मुताबिक, परिवार नियोजन के आपरेशनों के मामले में कमोबेश पूरे देश में गंभीर लैंगिक अंतर बरकरार है। इस सिलसिले में मध्यप्रदेश भी अपवाद नहीं है। सूबे में पिछले पांच सालों के दौरान हुए परिवार नियोजन आपरेशनों में पुरुष नसबंदी की भागीदारी सिर्फ सात प्रतिशत के आस-पास रही, यानी नसबंदी कराने वाले हर 100 लोगों में केवल सात पुरुष थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2007-08 से 2011-12 के बीच प्रदेश में कुल 24,94,293 नसबंदी आपरेशन किए गए। इस अवधि में केवल 1,67,830 पुरुषों ने नसबंदी कराई, जबकि 23,26,463 महिलाओं ने परिवार नियोजन के लिए इसको अपनाया। बहरहाल, पिछले तीन दशक में नसबंदी के करीब 2,97,000 आपरेशन करने का दावा करने वाले डॉ. ललितमोहन पंत इन आंकड़ों से कतई चकित नहीं हैं। प्रसिद्ध नसबंदी विशेषज्ञ पंत ने बताया कि नसबंदी के मामले में कमोबेश पूरे देश में यही हालत है। परिवार नियोजन के आपरेशनों को लेकर ज्यादातर पुरुषों की हिचक और वहम अब भी कायम हैं। पंत के मुताबिक, अक्सर देखा गया है कि महिलाएं अपने तथाकथित ‘पति परमेश्वर’ के बजाय खुद नसबंदी आपरेशन कराने को जल्दी तैयार हो जाती हैं। परिवार नियोजन शिविरों में मुझे कई महिलाएं बता चुकी हैं कि वे इसलिए यह आपरेशन करा रही हैं, क्योंकि उनके पति अपनी नसबंदी कराने को किसी कीमत पर तैयार नहीं हैं। उधर, नसबंदी आपरेशनों को लेकर ज्यादातर पुरुषो की प्रतिक्रिया एकदम उलट बताई जाती है। पंत ने बताया कि हम जब परिवार नियोजन शिविरों में नसबंदी आपरेशन के बारे में बात करते हैं तो ज्यादातर पुरुष अपने यौनांग में किसी तरह की तकलीफ की कल्पना मात्र से सिहर उठते हैं। सरकारी चिकित्सक ने कहा कि ज्यादातर पुरुषों को लगता है कि अगर वे नसबंदी आपरेशन कराएंगे तो उनकी शारीरिक ताकत और मर्दानगी कम हो जाएगी, जबकि हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं होता। बहरहाल, जैसा कि वह बताते हैं कि देश में वर्ष 1998-99 के दौरान एनएसवी (नो स्कैल्पल वसेक्टमी) के रूप में नसबंदी की नई पद्धति का प्रयोग शुरू होने के बाद इस परिदृश्य में बदलाव की जमीन तैयार होने लगी है। एनएसवी को आम जुबान में नसबंदी की ‘बिना चीरा, बिना टांका’ पद्धति कहा जाता है। उन्होंने बताया कि ज्यादातर पुरुष लम्बे समय तक परिवार नियोजन आपरेशनों से इसलिए भी दूर भागते रहे, क्योंकि नसबंदी की पुरानी पद्धति में बहुत दर्द होता था। लेकिन एनएसवी सरीखी नई पद्धति के चलते अब पुरुष झटपट नसबंदी कराके अपेक्षाकृत जल्दी अपने काम पर लौट सकते हैं और इसमें नाम मात्र का दर्द होता है। डॉ. पंत ने कहा कि देश में जनसंख्या नियंत्रण की मुहिम को और प्रभावी बनाने के लिए पुरुष नसबंदी की ओर अपेक्षाकृत ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
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Old 12-07-2012, 01:37 AM   #222
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साक्षात्कार
अन्ना के मंच से बोले गए दो शब्द भारी पड़े-ओम पुरी

नई दिल्ली। गई अपनी विवादास्पद टिप्पणी से अब भी इत्तेफाक रखते हैं, हालांकि वह मानते हैं कि शिष्टाचार की भाषा अपनाई जानी चाहिए। मुख्यधारा सिनेमा और कला फिल्मों के सशक्त हस्ताक्षर माने जाने वाले अभिनेता ओमपुरी ने कहा कि हालांकि एक कलाकार के रूप में उन्हें देश और दुनिया से भरपूर सम्मान मिला है, लेकिन हजारे के मंच से बोले गए दो शब्दों की वजह से उनकी जान पर बन आई थी। ओम पुरी ने पिछले दिनों हरियाणा के करनाल में विगत दिवस करनाल में हरियाणा इंस्टीच्यूट आफ फाइन आर्ट्स हीफा की ओर से आयोजित पुरस्कार समारोह के मौके पर बातचीत में कहा कि हालांकि अब यह घटना पुरानी हो चुकी है, लेकिन हजारे के मंच से उन्होंने जो दो शब्द बोले थे, उन शब्दों की वजह से उनकी जान पर बन आई थी। हीफा की ओर से आयोजित समारोह में उन्हें पंडित जसराज सम्मान से सम्मानित किया गया। यह सम्मान अपनी मेहनत तथा लगन के दम पर किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने वाले असाधारण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों को उनकी जीवन पर्यन्त उपलब्धियों के लिए दिया जाता है।
ओम पुरी ने कहा कि उनसे कहा गया कि उनके शब्द शिष्टतापूर्ण नहीं हैं, लेकिन विधानसभाओं और संसद में कई बार जो अप्रिय घटनाएं घटित होती हैं, नेता उन्हें किन शब्दों में बयां करना चाहेंगे। ओम पुरी ने बातचीत के दौरान अपने 35 साल के फिल्मी दुनिया के सफर से पहले के उतार-चढ़ाव के अलावा अपने बचपन के कुछ यादगार पलों को भी साझा किया। उन्होंने बताया कि बचपन में वह कंचे खेला करते थे और जब वह नाली में गिरे कंचों को उठा लेते थे, तब धार्मिक स्वभाव की उनकी मां उन्हें बार-बार नहलाया करती थी। ओम पुरी ने बताया कि उनका जन्म अम्बाला में हुआ था, लेकिन उनकी शुरुआती शिक्षा और परवरिश पटियाला के गांव सन्नौर में अपने मामा के घर रहते हुए हुई है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार वह हरियाणा और पंजाब की साझा राजधानी चंडीगढ़ की तरह हैं और दोनों ही प्रदेशों से उन्हें भरपूर प्यार तथा सम्मान मिलता रहा है।
ओम पुरी ने अब तक 250 फिल्मों में काम किया है, जिसमें से 20 विदेशी हैं। भारतीय सिने-जगत के साथ-साथ ब्रिटिश तथा हॉलीवुड की कई नामचीन फिल्मों में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके ओम पुरी ने बताया कि उनके जीवन में सफलता के क्षण उस समय आए, जब उनकी 1981 में रिलीज हुई फिल्म आक्रोश के जरिए उन्हें पहचान मिली और इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 62 वर्षीय ओम पुरी ने बताया कि जीवन के शुरुआती दिनों में उन्होंने पटियाला के डीसी कार्यालय में एक कलर्क के रूप में भी कार्य किया था, लेकिन उनके भीतर छिपा कलाकार उन्हें दिल्ली और पुणे के रास्ते मुम्बई तक ले गया। दुनिया ने उनकी कला को सराहा और इसी सफर में उन्हें पद्मश्री, फिल्म फेयर, नेशनल अवार्ड और इंटरनेशनल बैस्ट एक्टर जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया। ओम पुरी ने बताया कि उनकी अगली फिल्म चक्रव्यूह नक्सलवाद की समस्या को लेकर है, जिसका निर्देशन प्रकाश झा कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि इस फिल्म के जरिए वह लोगों को नक्सलवाद की समस्या को समझाने की कोशिश कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि चक्र व्यूह के माध्यम से देश के नक्सलवाद प्रभावित 260 जिलों की समस्या को पेश किया जाएगा। उन्होंने कहा कि इस फिल्म के माध्यम से केवल सच्चाई को उजागर करने का प्रयास किया गया है और फैसला देश की जनता को लेना है कि इस समस्या का क्या समाधन हो सकता है। ओम पुरी ने देश की सामाजिक स्थितियों के बारे में चर्चा करते हुए कहा कि हमारे देश में तरक्की काफी हुई है, लेकिन आज भी अनेक क्षेत्रों, खास कर गांवों में बहुत खराब स्थिति है और देश की एक बड़ी आबादी को आज भी भोजन नहीं मिल रहा है और इसका मुख्य कारण वितरण प्रणाली की गड़बड़ियां हैं। हमारे देश में अनाज की कमी नहीं है, लेकिन यह लोगों तक सही तरीके से नहीं पहुंच रहा है। अनाज होते हुए भी लोगों को खाना नहीं मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का नाम लिए बगैर कहा कि जब एक मंत्री से कहा गया कि एक जगह खराब हो रहे अनाज को गरीबों तक पहुंचाया जाए, तो मंत्री ने कहा कि कानून में इस तरह का प्रावधान नहीं है। उन्होंने कहा कि देश की व्यवस्था में और सुधार की आवशयकता है और सुधार से ही महंगाई तथा भुखमरी जैसी समस्याओं पर काबू पाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि पंजाब और हरियाणा ने देश की हरित क्रांति में सबसे बड़ा योगदान दिया है और इन्हीं राज्यों के किसानों की मेहनत की वजह से देश में भरपूर अनाज है। इसके बावजूद अगर अन्य राज्यों में यदि अनाज की कमी है, तो यह व्यवस्था में कहीं कमी की ओर संकेत कर रहा है। उन्होंने मायानगरी में जाने की तमन्ना रखने वाले युवकों को सुझाव दिया कि उन्हें अपनी किस्मत आजमाने के लिए एक बार वहां जरूर जाना चाहिए, लेकिन यदि कुछ साल तक उनके सपने पूरे नहीं होते हैं, तो वापस लौट भी आना चाहिए।
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Old 12-07-2012, 01:42 AM   #223
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पुण्यतिथि 12 जुलाई पर विशेष
हिंदी फिल्मों के जुबली स्टार थे राजेन्द्र कुमार



हिंदी फिल्म जगत में जुबली स्टार के नाम से मशहूर राजेन्द्र कुमार को एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है, जिन्होंने न सिर्फ अभिनय से, बल्कि निर्माण और निर्देशन से भी सिने प्रेमियों को अपना दीवाना बनाया। 20 जुलाई 1929 को पश्चिम पंजाब के सियालकोट अब पाकिस्तान में जन्मे राजेन्द्र कुमार बचपन से ही अभिनेता बनने का सपना देखा करते थे। अपने इसी सपने को साकार करने के लिए पचास के दशक में वह मुंबई आ गए। मुंबई पहुंचने पर उनकी मुलाकात सेठी नाम के एक व्यक्ति से हुई, जिन्होंने उनका परिचय सुनील दत्त से कराया, जो उन दिनों स्वयं अभिनेता बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे। इस बीच राजेन्द्र कुमार की मुलाकात जाने माने गीतकार राजेन्द्र कृष्ण से हुई, जिनकी मदद से वह 150 रुपए मासिक वेतन पर निर्माता-निर्देशक एच.एस. रवेल के सहायक निर्देशक बन गए। बतौर सहायक निर्देशक राजेन्द्र कुमार ने रवेल के साथ प्रेमनाथ और मधुबाला अभिनीत साकी तथा प्रेमनाथ और सुरैया अभिनीत शोखियां के लिए काम किया। वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म जोगन बतौर अभिनेता राजेन्द्र कुमार के सिने कैरियर की पहली फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में उन्हें दिलीप कुमार के साथ अभिनय करने का मौका मिला। इसके बावजूद राजेन्द्र कुमार दर्शकों के बीच अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे। वर्ष 1950 से वर्ष 1957 तक राजेन्द्र कुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फिल्म जोगन के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली, वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने तूफान और दीया तथा आवाज, एक झलक जैसी कई फिल्मों मे अभिनय किया, लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बाक्स आॅफिस पर सफल नहीं हुई। वर्ष 1957 में प्रदर्शित महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया में राजेन्द्र कुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए। हालांकि यह फिल्म पूरी तरह अभिनेत्री नरगिस पर केन्द्रित थी, फिर भी राजेन्द्र कुमार अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतर्राष्टÑीय ख्याति भी मिली और फिल्म की सफलता के बाद वह बतौर अभिनेता फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। वर्ष 1963 में प्रदर्शित फिल्म मेरे महबूब की कामयाबी से राजेन्द्र कुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। राजेन्द्र कुमार कभी भी किसी खास इमेज में नहीं बंधे। इसलिए अपनी इन फिल्मों की कामयाबी के बाद भी उन्होंने वर्ष 1964 में प्रदर्शित फिल्म संगम में राज कपूर के सहनायक की भूमिका स्वीकार कर ली, जो उनके फिल्मी चरित्र से मेल नहीं खाती थी। इसके बावजूद राजेन्द्र कुमार यहां भी दर्शकों का दिल जीतने में सफल रहे। वर्ष 1963 से 1966 के बीच कामयाबी के सुनहरे दौर में राजेन्द्र कुमार की लगातार छह फिल्में हिट रहीं और कोई भी फिल्म फ्लाप नहीं हुई। मेरे महबूब (1963), जिन्दगी, संगम और आई मिलन की बेला (सभी 1964), आरजू (1965) और सूरज (1966) सभी ने सिनेमाघरों पर सिल्वर जुबली या गोल्डन जुबली मनाई। इन फिल्मों के बाद राजेन्द्र कुमार के कैरियर में ऐसा सुनहरा दौर भी आया, जब मुम्बई के सभी दस सिनेमाघरों में उनकी ही फिल्में लगी और सभी फिल्मों ने सिल्वर जुबली मनाई। यह सिलसिला काफी लंबे समय तक चलता रहा। उनकी फिल्मों की कामयाबी को देखते हुए उनके प्रशंसकों ने उनका नाम ही जुबली कुमार रख दिया। राजेश खन्ना के आगमन के बाद परदे पर रोमांस का जादू जगाने वाले इस अभिनेता के प्रति दर्शकों का प्यार कम होने लगा। इसे देखते हुए राजेन्द्र कुमार ने कुछ समय के विश्राम के बाद 1978 में साजन बिना सुहागन फिल्म से चरित्र अभिनय की शुरुआत कर दी। वर्ष 1981 राजेन्द्र कुमार के सिने कैरियर का अहम पड़ाव साबित हुआ। अपने पुत्र कुमार गौरव को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए उन्होंने लव स्टोरी का निर्माण और निर्देशन किया, जिसने बाक्स आफिस पर जबरदस्त कामयाबी हासिल की। इसके बाद उन्होंने कुमार गौरव के कैरियर को आगे बढाने के लिए नाम और फूल फिल्मों का निर्माण किया, लेकिन पहली फिल्म की सफलता का श्रेय संजय दत्त ले गए, जबकि दूसरी फिल्म बुरी तरह पीट गई और इसके साथ ही कुमार गौरव के फिल्मी कैरियर पर भी विराम लग गया। राजेन्द्र कुमार के फिल्मी योगदान को देखते हुए 1969 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया। अपने दमदार अभिनय से दर्शको के बीच खास पहचान बनाने वाले जुबली कुमार का 12 जुलाई 1999 को कैंसर की जानलेवा बीमारी से निधन हो गया। राजेन्द्र कुमार ने अपने कैरियर में लगभग 85 फिल्मों में काम किया। उनकी उल्लेखनीय फिल्मों में कुछ हैं -तलाक, संतान, धूल का फूल, पतंग, धर्मपुत्र, घराना, हमराही, आई मिलन की बेला, सूरज, पालकी, साथी, गोरा और काला, अमन, गीत, गंवार, धरती, दो जासूस, साजन बिना सुहागन, साजन की सहेली, बिन फेरे हम तेरे, फूल आदि।
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Old 14-07-2012, 04:26 AM   #224
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पुण्यतिथि 14 जुलाई के अवसर पर विशेष
आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे



'आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे... दिल की ऐ धड़कन ठहर जा मिल गई मंजिल मुझे' हिन्दी फिल्मों के मशहूर संगीतकार मदनमोहन के इस गीत से संगीत सम्राट नौशाद इस कदर प्रभावित हुए थे कि उन्होंने इस धुन के बदले अपने संगीत का पूरा खजाना लुटा देने की इच्छा जाहिर कर दी थी। मदन मोहन कोहली का जन्म 25 जून 1924 को हुआ था। उनके पिता रायबहादुर चुन्नीलाल फिल्म व्यवसाय से जुड़े हुए थे और बॉम्बे टाकीज और फिल्मिस्तान जैसे बड़े फिल्म स्टूडियो में साझीदार थे। घर में फिल्मी माहौल होने के कारण मदन मोहन भी फिल्मों में काम करके नाम करना चाहते थे, लेकिन पिता के कहने पर उन्होंने सेना मे भर्ती होने का फैसला ले लिया। उन्होंने देहरादून में नौकरी शुरू कर दी। कुछ दिन बाद उनका तबादला दिल्ली हो गया, लेकिन कुछ समय के बाद उनका मन सेना की नौकरी से ऊब गया और वह नौकरी छोड़कर लखनऊ आ गए और आकाशवाणी के लिए काम करने लगे। आकाशवाणी में उनकी मुलाकात संगीत जगत से जुड़े उस्ताद फैयाज खान, उस्ताद अली अकबर खान, बेगम अख्तर और तलत महमूद जैसी जानी मानी हस्तियों से हुई, जिनसे वे काफी प्रभावित हुए। उनका रुझान संगीत की ओर हो गया। अपने सपनों को नया रूप देने के लिए मदन मोहन लखनऊ से मुंबई आ गए। मुंबई आने के बाद मदन मोहन की मुलाकात एस. डी. बर्मन, श्याम सुंदर और सी. रामचंद्र जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों से हुई। वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे। संगीतकार के रूप में 1950 में प्रदर्शित फिल्म आंखें के जरिए वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। फिल्म आंखें के बाद लता मंगेशकर मदन मोहन की चहेती पार्श्वगायिका बन गई और वह अपनी हर फिल्म के लिए लता मंगेशकर से ही गाने की गुजारिश किया करते थे। लता मंगेशकर भी मदनमोहन के संगीत निर्देशन से काफी प्रभावित थीं और उन्हें गजलों का शहजादा कह कर संबोधित किया करती थीं।
पचास के दशक में मदन मोहन के संगीत निर्देशन में राजेन्द्र कृष्ण के रूमानी गीत काफी लोकप्रिय हुए। इनमें कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झंकार लिए (देख कबीरा रोया), मेरा करार लेजा मुझे बेकरार कर जा (आशियाना) और ऐ दिल मुझे बता दे (भाई-भाई/1956) जैसे गीत शामिल हैं। मदन मोहन के संगीत निर्देशन में आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे (अनपढ़), लग जा गले (वो कौन थी), नैनों में बदरा छाए और मेरा साया साथ होगा (मेरा साया) जैसे राजा मेहंदी अली खां के गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय हैं। उन्होंने अपने संगीत निर्देशन से कैफी आजमी के जिन गीतों को अमर बना दिया, उनमें कर चले हम फिदा जानो तन साथियो, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो (हकीकत), मेरी आवाज सुनो प्यार का राग सुनो (नौनिहाल), ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं (हीर रांझा), सिमटी सी शरमाई सी तुम किस दुनिया से आई हो (परवाना) और तुम जो मिल गए हो ऐसा लगता है कि जहां मिल गया (हंसते जख्म) जैसे गीत शामिल हैं। महान संगीतकार ओ. पी. नैयर अक्सर कहा करते थे मैं नहीं समझता कि लता मंगेशकर मदन मोहन के लिए बनी हुई हैं या मदन मोहन लता मंगेश्कर के लिए, लेकिन अब तक न तो मदन मोहन जैसा संगीतकार हुआ और न लता जैसी पार्श्वगायिका। मदनमोहन के संगीत निर्देशन में आशा भोसले ने फिल्म मेरा साया के लिए झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में गाना गाया, जिसे सुनकर श्रोता आज भी झूम उठते हैं। उनसे आशा भोसले को अक्सर यह शिकायत रहती थी कि वह अपनी हर फिल्म में लता दीदी को हीं क्यों लिया करते हैं ... इस पर मदनमोहन कहा करते, जब तक लता जिदां है, उनकी फिल्मों के गाने वही गाएगी। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म हकीकत में मोहम्मद रफी की आवाज में मदन मोहन के संगीत से सजा गीत कर चले हम फिदा जानो तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो आज भी श्रोताओ में देशभक्ति का जज्बा बुलंद कर देता है। आंखों को नम कर देने वाला ऐसा संगीत मदन मोहन ही दे सकते थे।
वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म दस्तक के लिए मदन मोहन सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए गए। उन्होंने अपने ढाई दशक लंबे सिने करियर में लगभग 100 फिल्मों के लिए संगीत दिया। अपनी मधुर संगीत लहरियों से श्रोताओं के दिल में खास जगह बना लेने वाला यह सुरीला संगीतकर 14 जुलाई 1975 को इस दुनिया से अलिवदा कह गया। मदन मोहन के निधन के बाद 1975 में ही उनकी मौसम और लैला मजनूं जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई, जिनके संगीत का जादू आज भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करता है। मदन मोहन के पुत्र संजीव कोहली ने अपने पिता की बिना इस्तेमाल की हुई 30 धुनें यश चोपड़ा को सुनाई, जिनमें आठ का इस्तेमाल उन्होंने अपनी फिल्म वीर जारा के लिए किया। ये गीत भी श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुए।
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जन्म दिवस विशेष
‘पेड न्यूज मुक्त’ और पारदर्शी पत्रकारिता के लिए प्रयास करते रहे प्रभाष जोशी



देश के सबसे मूर्धन्य संपादकों में शुमार प्रभाष जोशी ने पूरी जिंदगी मूल्यों पर आधारित पत्रकारिता के लिए समर्पित कर दी। जीवन के आखिरी कुछ साल उन्होंने ‘पेड न्यूज’ के खिलाफ आवाज बुलंद की और पत्रकारिता में शुचिता के लिए प्रयासरत रहे। वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय कहते हैं, ‘प्रभाष जोशी ने सबसे पहले पेड न्यूज के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने पेड न्यूज के खिलाफ अभियान शुरू किया और इसको लेकर बड़ी बहस छिड़ी। आज वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके चाहने वालों की यह जिम्मेदारी है कि पत्रकारिता को नुकसान पहुंचा रही पेड न्यूज की व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करें।’ ‘जनसत्ता’ के जरिए हिंदी पत्रकारिता की गरिमा को नए शिखर पर ले जाने वाले जोशी लेखनी के दायरे को हमेशा विस्तृत करने के पक्ष में रहे। उनकी लेखनी का दायरा भी बहुत विस्तृत था, जिसमें राजनीति से लेकर खेल तक शामिल हैं। ‘चौथी दुनिया’ के संपादक संतोष भारतीय कहते हैं, ‘प्रभाष जोशी गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा को आगे बढाने वाले पत्रकार थे। उन्होंने पत्रकारिता को नया आयाम दिया। आज के दौर में जोशी की पत्रकारिता को ही उदाहरण के तौर पर पेश करने की जरूरत है।’ विनोबा भावे की पदयात्रा और जेपी आंदोलन के प्रत्यक्ष गवाह रहे जोशी का जन्म 15 जुलाई, 1936 को भोपाल के निकट अष्टा में हुआ। जोशी ने ‘नई दुनिया’ से पत्रकारिता की शुरुआत की। बाद में वह सरोकार परक पत्रकरिता के लिए मशहूर रामनाथ गोयनका के साथ जुड़े। यहीं से उनकी क्रांतिकारी लेखनी और संपादकीय हुनर की गवाह पूरी दुनिया बनी। साल 1983 में ‘जनसत्ता’ की शुरुआत प्रभाष जोशी के नेतृत्व में हुई। 80 के दशक में यह अखबार जनता की आवाज की शक्ल ले चुका था। पंजाब में खालिस्तानी अलगाववाद और बोफोर्स घोटाले जैसे कुछ घटनाक्रमों में इस प्रकाशन ने निर्भीकता और निष्पक्षता का जोरदार परिचय दिया। यह सब जोशी के विलक्षण नेतृत्व के बल पर संभव हुआ। जोशी की मूल्य आधारित पत्रकारिता के बारे में ‘जनसत्ता’ के पूर्व स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव कहते हैं, ‘मैंने प्रभाष जोशी के साथ बतौर स्थानीय संपादक काम किया। मेरा मानना है कि उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की गरिमा को बढ़ाने और उसे एक नए शिखर पर ले जाने काम किया।’ सक्रिय पत्रकारिता से अलग होने के बाद जोशी ने अपनी लेखनी को विराम नहीं दिया। जीवन के आखिरी कुछ साल में उन्होंने ‘पेड न्यूज’ के खिलाफ जोरदार आवाज बुलंद की। उनके प्रयासों का नतीजा था कि पेड न्यूज के खिलाफ पहली बार एक बहस छिड़ी और भारतीय प्रेस परिषद ने इस संदर्भ में जांच कराई। जोशी क्रिकेट के बड़े शौकीन और मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर के बड़े मुरीद थे। पांच नवंबर, 2009 को आस्ट्रेलिया के खिलाफ सचिन की ऐतिहासिक पारी को देखने के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हो गया।
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पुण्यतिथि 17 जुलाई के अवसर पर
बांग्ला सिनेमा को विशिष्ट पहचान दिलाई कानन देवी ने



भारतीय सिनेमा जगत में कानन देवी का नाम एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने न सिर्फ फिल्म निर्माण की विधा बल्कि अभिनय और पार्श्वगायन से भी दर्शकों के बीच अपनी खास पहचान बनाई। कानन देवी (मूल नाम काननबाला) का जन्म पश्चिम बंगाल के हावड़ा में 1916 को एक मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार में हुआ था। बचपन के दिनों में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई। इसके बाद परिवार की आर्थिक जिम्मेवारी को देखते हुए कानन देवी अपनी मां के साथ काम में हाथ बंटाने लगी। कानन देवी जब महज 10 वर्ष की थीं, तब अपने एक पारिवारिक मित्र की मदद से उन्हें ज्योति स्टूडियो द्वारा निर्मित फिल्म जयदेव में काम करने का अवसर मिला। इसके बाद कानन देवी को ज्योतिस बनर्जी के निर्देशन में राधा फिल्म्स के बैनर तले बनी कई फिल्मों में बतौर बाल कलाकार काम करने का मौका मिला। वर्ष 1934 में प्रदर्शित फिल्म मां बतौर अभिनेत्री कानन देवी के सिने करियर की पहली हिट फिल्म साबित हुई। कुछ समय के बाद कानन देवी न्यू थियेटर में शामिल हो गई। इस बीच उनकी मुलाकात राय चंद बोराल से हुई, जिन्होंने कानन देवी से हिंदी फिल्मों में आने का प्रस्ताव किया। तीस और चालीस के दशक में फिल्म अभिनेता या अभिनेत्रियों को फिल्मों में अभिनय के साथ ही पार्श्वगायक की भूमिका भी निभानी होती थी, जिसको देखते हुए कानन देवी ने भी संगीत की शिक्षा लेनी शुरूकर दी। उन्होंने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा उस्ताद अल्लारक्खा और भीष्मदेव चटर्जी से हासिल की। इसके बाद उन्होंने अनादि दस्तीदार से रवीन्द्र संगीत भी सीखा। वर्ष 1937 में प्रदर्शित फिल्म मुक्ति बतौर अभिनेत्री कानन देवी के सिने करियर की सुपरहिट फिल्म साबित हुई। पी.सी.बरुआ के निर्देशन में बनी इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी के बाद कानन देवी न्यू थियेटर की चोटी की कलाकार में शामिल हो गई। वर्ष 1941 में न्यू थियेटर छोड़ देने के बाद कानन देवी स्वतंत्र तौर पर काम करने लगी। वर्ष 1942 में प्रदर्शित फिल्म जवाब बतौर अभिनेत्री कानन देवी के सिने करियर की सर्वाधिक हिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में उन पर फिल्माया यह गीत दुनिया है तूफान मेल उन दिनों श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। इसके बाद कानन देवी की हॉस्पिटल, वनफूल और राजलक्ष्मी जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई, जो टिकट खिड़की पर सुपरहिट साबित हुई। वर्ष 1948 में कानन देवी ने मुंबई का रुख किया। इसी वर्ष प्रदर्शित चंद्रशेखर बतौर अभिनेत्री कानन देवी की अंतिम हिंदी फिल्म थी। फिल्म में उनके नायक की भूमिका अशोक कुमार ने निभाई। वर्ष 1949 में कानन देवी ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रख दिया। श्रीमती पिक्चर्स के अपने बैनर तले कानन देवी ने कई सफल फिल्मों का निर्माण किया। वर्ष 1976 में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कानन देवी के उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए उन्हें फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कानन देवी बंगाल की पहली अभिनेत्री बनी, जिन्हें यह पुरस्कार दिया गया था। कानन देवी ने अपने तीन दशक लंबे सिने कैरियर में लगभग 60 फिल्मों में अभिनय किया। उनकी अभिनीत उल्लेखनीय फिल्मों में जयदेव, प्रह्लाद, विष्णु माया, मां, हरि भक्ति, कृष्ण सुदामा, खूनी कौन, विद्यापति, साथी, स्ट्रीट सिंगर, हारजीत, अभिनेत्री, परिचय, लगन, कृष्ण लीला, फैसला, आशा आदि शामिल हैं। कानन देवी ने अपने बैनर श्रीमती पिक्चर्स के तहत कई फिल्मों का निर्माण किया। उनकी फिल्मों में कुछ हैं वामुनेर में (1948), अन्नया (1949), मेजो दीदी (1950), दर्पचूर्ण (1952), नव विद्यान (1954), आशा (1956), आधारे आलो (1957), राजलक्ष्मी ओ श्रीकांता (1958), इंद्रनाथ, श्रीकांता औ अनदादीदी (1959), अभया ओ श्रीकांता (1965)। अपनी निर्मित फिल्मों, पार्श्वगायन और अभिनय के जरिए दर्शकों के बीच खास पहचान बनाने वाली कानन देवी 17 जुलाई 1992 को इस दुनिया को अलविदा कह गई।
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Old 17-07-2012, 10:58 PM   #227
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18 जुलाई को नेल्सन मंडेला दिवस पर
... और नेल्सन मंडेला ने कोई हिंसा नहीं होने दी



दक्षिण अफ्रीका के प्रसिद्ध अश्वेत नेता नेल्सन मंडेला ने न केवल देश से नस्लवाद खत्म किया, बल्कि गोरे शासन के दौरान दमन से गुजरे अश्वेतों के गुस्से की वजह से उस मौके पर वह हिंसा नही होने दी जिसकी आशंका जतायी जा रही थी । तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने से कहा कि दक्षिण अफ्रीका में जब 1994 में नस्लवाद खत्म हुआ तब ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही थी व्यापक हिंसा होगी। दरअसल गोरे शासन में दमन की इंतहा हो गयी थी और ऐसा माना जा रहा था कि नस्लवाद के खात्मे के बाद श्वेतों के खिलाफ अश्वेत लोगों का गुस्सा फूट पड़ेगा एवं व्यापक हिंसा होगी लेकिन मंडेला ऐसे करिश्माई व्यक्ति थे कि हिंसा की एक भी घटना नहीं होने दी। दक्षिण अफ्रीका के मवेजो में 18 जुलाई, 1918 को जन्मे मंडेला ने यूनिवर्सिटी कॉलेज आॅफ फोर्ट और यूनिवर्सिटी आॅफ विटवाटर्सरैंड से अपनी पढाई की तथा 1942 में विधि स्नातक किया। वह अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस :एएनसी: से जुड़े । उन्होंने 1944 में अन्य लोगों के साथ मिलकर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग (एएनसीवाईएल) की स्थापना की । वह जुड़ गए। वर्ष 1948 मेंं उन्हें एएनसीवाईएल का राष्ट्रीय सचिव चुना गया।
मंडेला ने वर्ष 1952 में अनुचित कानूनों के खिलाफ व्यापक नागरिक अवज्ञा अभियान डिफियांस कैम्पेन शुरू किया। उन्हें इस अभियान का प्रमुख स्वयंसेवक चुना गया। सन् 1960 में एएनसी पर प्रतिबंध के बाद मंडेला ने उसकी सशस्त्र शाखा बनाने की वकालत की। जून 1961 में एएनसी इस बात पर सहमत हुई कि जो लोग मंडेला के अभियान से जुड़ना चाहते हैं, पार्टी उन्हें ऐसा करने से नहीं रोकेगी । उसके बाद उमखांतो वी सिजवे की स्थापना हुई और मंडेला उसके कमांडर इन चीफ बने। मंडेला को 1962 में गिरफ्तार किया गया और उन्हें पांच साल का कठोर कारावास मिला। सन् 1963 में एएनसी और उमखांतो वी सिजवे के कई नेता गिरफ्तार किए और मंडेला समेत इन सभी पर हिंसा के माध्यम से सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश का मुकदमा चाल। अदालत मेंं मंडेला ने जो बयान दिया उसकी दुनियाभर में सराहना हुई। मंडेला ने कहा था, ‘आखिरकार हम समान राजनीतिक अधिकार चाहते हैं क्योंकि उसके बगैर हम हमेशा पिछड़े रह जायेंगे। मैं जानता हूं कि इस देश के श्वेतों को यह क्रांतिकारी जैसा लग रहा होगा क्योंकि अधिकतर मतदाता अफ्रीकी होंगे। इस बात को लेकर श्वेत लोग लोकतंत्र से डरते हैं।’ बारह जून, 1964 को मंडेला समेत आठ आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी । इन सभी को पहले रोब्बेन द्वीप और बाद में विक्टर वर्स्टर जेल ले जाया गया।
जेल के दौरान मंडेला की प्रतिष्ठा तेजी से बढी और उन्हें दक्षिण का सबसे महत्वपूर्ण अश्वेत नेता माना जाने लगा। उन्होंने जेल से रिहाई के लिए अपनी राजनीतिक स्थिति से कोई समझौता करने से इनकार कर दिया। नस्लवाद के खिलाफ लंबे समय तक जनांदोलन चलने के बीच एएनसी ने सरकार से वार्ता शुरू की। उसी बीच 1990 में मंडेला को रिहा कर दिया गया। सन् 1993 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिला। सत्ताईस अप्रैल को पूर्ण मताधिकार के साथ मतदान हुआ और एएनसी को बहुमत मिला। मंडेला 10 मई, 1994 को पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। वर्ष 1999 में एक कार्यकाल के बाद वह राष्ट्रपति की दौड़ से हट गए। वर्मा ने कहा कि उनके बारे में एक और अच्छी बात है कि उन्होंने स्वेच्छा से राष्ट्रपति पद छोड़ दिया। उनका कहना है कि मंडेला ने कम्युनिस्ट पार्टी और अफ्रीकन कांग्रेस पार्टी में तालमेल कायम रखा और जनतांत्रिक ताकतों का बिखराव नहीं होने दिया। हालांकि जनता का सपना जैसे भूमि पुनर्वितरण, बेरोजगारी उन्मूलन आदि पूरा नहीं हो सका और अपराध भी नहीं घटा। उल्लेखनीय है कि नवंबर, 2009 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने शांति और आजादी की संस्कृति में दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति के योगदान के सम्मान में 18 जुलाई को नेल्सन मंडेला दिवस की घोषणा की। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने इस दिवस पर अपने संदेश में कहा कि मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका के लोगों के जीवन में बदलाव लाने के लिए अपने जीवन का 67 साल लगा दिया। वह राजनीतिक कैदी, शांति की स्थापना करने वाले तथा स्वतंत्रता सेनानी हैं।
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Old 26-07-2012, 02:40 PM   #228
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26 जुलाई को करगिल विजय दिवस पर विशेष
करगिल के 13 साल बाद भी आधुनिक नहीं हो पाई सेना

सैन्य विशेषज्ञों का मानना है कि करगिल में भारतीय क्षेत्र में घुस आए पाकिस्तानी घुसपैठियों को मार भगाने के 13 साल बीत जाने के बाद भी भारतीय सेना हथियारों की भारी कमी का सामना कर रही है और मंथर गति से चल रही सैन्य आधुनिकरण की प्रक्रिया को तेज नहीं किया गया तो आने वाले समय में स्थिति विकट हो सकती है। रक्षा मामलों के विशेषज्ञ सेवानिवृत्त मेजर जनरल दीपांकर बनर्जी ने बताया कि करगिल युद्ध के जीत के बाद बनाई ‘करगिल समीक्षा रिपोर्ट’ ने इन्फैंट्री को आधुनिक बनाए जाने की सिफारिश की थी लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि इतने साल बीत जाने के बाद भी यह प्रक्रिया बहुत धीमी गति से चल रही है । इन्फैंट्री के जवानों को एक लड़ाकू मशीन के रूप में बदलने की योजना ढीली पड़ गई है। बनर्जी ने कहा कि करगिल युद्ध के समय पहाड़ों में लड़ने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था जिसके लिए समिति ने मध्यम दूरी तक मार करने वाली नई तोपों को खरीदने की सिफारिश की थी जिस पर अभी तक कुछ खास प्रगति नहीं हो पाई है। भारत ने बोफोर्स के बाद कोई तोप नहीं खरीदी है। रक्षा मामलों की पत्रिका इंडियन डिफेंस रिव्यू के संपादक भारत वर्मा का मानना है कि राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी की वजह से भारत की सेनाओं केआधुनिकीकरण में बाधा आ रही है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सत्ता में आने के बाद करगिल समीक्षा रिपोर्ट के लागू नहीं होने के कारणों की पड़ताल के लिए जिस कार्यबल का गठन किया था उसके अब इतने समय बाद अगले महीने तक रिपोर्ट देने की संभावना है। वर्मा ने कहा किआज तीनों सेनाओं को आधुनिक बनाए जाने की सख्त जरूरत है। हमें सबसे पहले चीफ आॅफ डिफेंस स्टाफ बनाना होगा जिसकी सख्त कमी हमें करगिल युद्ध के दौरान महसूस हुई थी। चीफ आॅफ डिफेंस स्टाफ बनने से तीनों सेनाएं संयुक्त रूप से कार्रवाई कर सकेंगी। उन्होंने कहा कि यह होना बहुत जरूरी है क्योंकि इससे तीनों सेनाओं में समन्वय बढेþगा। अफगानिस्तान में अमेरिकी वायुसेना, थलसेना और यहां तक की नौसेना मिलकर कार्रवाई कर रही हैं और इससे उनको सफलता मिली है। वर्मा ने कहा कि थल सेना की एक स्ट्राइक कोर बनाने की योजना परवान नहीं चढ़ पाई है। सेना को लड़ाकू हेलीकॉप्टरों की सख्त जरूरत है जो वायु सेना के साथ खींचतान में फंस गई है। उल्लेखनीय है कि 26 जुलाई 1999 के दिन भारतीय सेना के जांबाज जवानों ने अद्भुत वीरता और शौर्य का प्रदर्शन करते हुए करगिल युद्ध में पाक घुसपैठियों को मार भगाया था। तभी से यह दिन ‘करगिल विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है । इस जंग में भारतीय सेना के 500 से अधिक जवान और अधिकारी शहीद हो गए थे जबकि पाकिस्तान के हजारों जवान और आतंकवादी मारे गए थे।
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Old 27-07-2012, 03:34 PM   #229
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बंगाल के एक छोटे से गांव से देश के पहले पते तक का सफर

‘बंगाल के एक छोटे से गांव में दीपक की रोशनी से दिल्ली की जगमगाती रोशनी तक की इस यात्रा के दौरान मैंने विशाल और कुछ हद तक अविश्वसनीय बदलाव देखे हैं।’ देश के 13वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद अपने भाषण में ये उदगार प्रणब मुखर्जी ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा, ‘उस समय मैं बच्चा था, जब बंगाल में अकाल ने लाखों लोगों को मार डाला था। वह पीड़ा और दुख मैं भूला नहीं हूं।’ स्कूल जाने के लिए अकसर नदी तैरकर पार करने वाले प्रणब ने जमीन से उठकर कई मुकाम हासिल किए और आज अंतत: देश के सर्वोच्च नागरिक बन गए। वह भारत और भारतीयता के तानेबाने को पूरी तत्परता और तार्किकता से समझने में सक्षम रहे। सत्ता के गलियारों में उन्हें संकटमोचक कहा जाता था। प्रशासक और दलों की सीमा के पार अपनी स्वीकार्यता के लिए वह मशहूर रहे। वह पहली बार 1969 में राज्यसभा के लिए चुने गए। एक बार राज्यसभा की ओर गए तो कई वर्षों तक जनता के बीच जाकर चुनाव नहीं लड़ा। सियासी जिंदगी में करीब 35 साल बाद उन्होंने लोकसभा का रुख किया। 2004 में वह पहली बार पश्चिम बंगाल के जंगीपुर संसदीय क्षेत्र से चुने गए। 2009 में भी वह लोकसभा पहुंचे। बीते 26 जून को वित्त मंत्री पद से प्रणब के इस्तीफा देने के तत्काल बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें पत्र लिखकर सरकार में उनके योगदान के लिए आभार जताया और कहा कि उनकी कमी सरकार में हमेशा महसूस की जाएगी। सरकार के मंत्रियों ने भी उनकी कमी खलने की बात कही। प्रणब प्रधानमंत्री बनने से कई बार चूके, लेकिन इस महत्वपूर्ण पद पर न होते हुए भी संकट के समय सभी लोग उनकी ओर ही देखते थे। अस्सी के दशक में प्रधानमंत्री पद की हसरत का इजहार करने के बाद उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर नयी पार्टी बनाई। बाद में वह फिर से कांग्रेस में आए और सियासी बुलंदियों को छूते चले गए। अर्थव्यवस्था से लेकर विदेश मामलों पर पैनी पकड रखने वाले प्रणब बाबू ने सरकार में रहते हुए कमरतोड मेहनत की और आज भी वह देर रात तक अपने काम में व्यस्त रहते हैं । राजनीति के गलियारों में अपने फन का लोहा मनवाने के बाद प्रणब अब देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन हैं। जाहिर है सरकार और राजनीति में उनके 45 साल के अनुभव का कोई सानी नहीं है । भले ही वह एक स्थापित वकील न रहे हों लेकिन संविधान, अर्थव्यवस्था और विदेशी संबंधों की अपनी समझ और पकड़ का लोहा उन्होंने बार बार मनवाया। प्रणब सियासत की हर करवट को बखूबी समझते रहे हैं। यही वजह रही कि जब भी उनकी पार्टी और मौजूदा संप्रग सरकार पर मुसीबत आई तो वह सबसे आगे नजर आए। कई बार तो ऐसा लगा कि सरकार की हर मर्ज की दवा प्रणब बाबू ही हैं। प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने 1991 में उन्हें विदेश मंत्री बनाने के साथ ही योजना आयोग का उपाध्यक्ष का पद दिया। मनमोहन की सरकार में वह रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री और वित्त मंत्री के पदों पर रहे। प्रणब के पिता किंकर मुखर्जी भी कांग्रेस के नेता हुआ करते थे। कुछ वक्त के लिए प्रणव ने वकालत भी की और इसके साथ ही पत्रकारिता एवं शिक्षा क्षेत्र में भी कुछ वक्त बिताया। इसके बाद उनका सियासी सफर शुरू हुआ। राष्ट्रपति भवन देश का सबसे अहम पता है जो भारत के प्रथम नागरिक के नाम के साथ जुड़ा होता है। देश के जिस आलीशान भवन में रहने का गौरव प्रथम नागरिक को मिलता है उसकी भव्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चार मंजिला इस भवन में 340 कमरे हैं और सभी कमरों का उपयोग किसी न किसी रूप में किया जा रहा है। लगभग दो लाख वर्ग फुट में बना राष्ट्रपति भवन आजादी से पहले ब्रिटिश वायसराय का सरकारी आवास हुआ करता था। करीब 70 करोड़ ईटों और 30 लाख घन फुट पत्थर से बने इस भवन के निर्माण में तब एक करोड़ चालीस लाख रूपये खर्च हुए थे।
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Old 27-07-2012, 04:28 PM   #230
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27 जुलाई को गणितज्ञ बरनौली की जयंती के अवसर पर
गणित में अहम योगदान करने वाले जीन बरनौली पर विवादों की छाया रही



गणित की शाखा कैलकुलस के क्षेत्र के अग्रणी गणितज्ञों में एक स्विट्जरलैंड के गणितज्ञ जोहान उर्फ़ जीन बरनौली का जीवन विवादों से घिरा रहा। स्विट्जरलैंड के बेसल में छह अगस्त, 1667 को जन्मे जीन बरनौली को उनके पिता व्यापारी बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी इच्छा चिकित्सा अध्ययन की थी और वह इसके लिए अपने पिता को मनाने में कामयाब हो गए। हालांकि उन्हें चिकित्सा की पढाई में भी मन नहीं लगा और अपने भाई जैकब बरनौली से गणित भी पढने लगे। उन्होंने बेसल विश्वविद्यालय से स्नातक किया। उन्हें जोहान और जॉन बरनौली भी कहा जाता है। बेसल विश्वविद्यालय में वह उन दिनों खोजे गए इनफिनाइटसिमल कैलकुलस के अध्ययन में अपने भाई के साथ अध्ययन में समय लगाने लगे। वे उन पहले गणितज्ञों में थे जिन्होंने न केवल कैुलकुलस समझा बल्कि विभिन्न समस्याओं में उसका उपयोग भी किया। जामिया विश्वविद्यालय की गणित विभाग की शिक्षिका डॉ. कुमकुम देवान कहती हैं कि इनफिनाइटसिमल कैलकुलस में उनका काफी योगदान रहा। बेसल विश्वविद्यालय में गणित में अध्यापन का अवसर नहीं मिलने पर जीन बरनौली ग्रोनिगेन विश्वविद्यालय में पढाने लगे। भाई जैकब की मृत्यु के बाद वह वह बेसल विश्वविद्यालय लौटे। जैकब बेसल विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे और जीन को उन्हीं का स्थान मिला। सन् 1694 में जीन बरनौली को मस्कुलर मूवमेंट पर उनके गणित पेपर पर उन्हें डॉक्टरेट मिला। अपने जीवन काल में उन्हें कई सम्मान मिले। जीन का जीवन विवादों से भरा पड़ा है। उनका पहला विवादा फ्रांस के जाने माने गणितज्ञ एल हास्पीटल के साथ हुआ। हॉस्पीटल ने उन्हें कैलकुलस पढाने के लिए मनाया। जीन ने उन्हें मुफ्त में कैलकुलैस पढाया। लेकिन जब हॉस्पीटल ने डिफेंरेंशियल कैलकुलस पर पुस्तक प्रकाशित की तब दोनों में मतभेद हो गया। दरअसल हास्पीटल ने जीन को अपनी पुस्तक में श्रेय नहीं दिया। जैकब के साथ भी उनका संबंध अच्छा नहीं रहा। दरअसल जीन को कैलकुलस पढाने के बाद जैकब यह मानने के तैयार नहीं थे कि जीन गणित में उनके बराबर हैं। जब जीन ने एक जटिल सवाल का हल किया जब जैकब ने उन्हें ‘अपना छात्र’ बताया। जीन को यह अच्छा नहीं लगा। दोनों भाइयों में तनाव हो गया। परिवार के साथ समस्या यहीं समाप्त नहीं हुई । उनके बेटे डेनियल हाइड्रोडायनाम्किस की स्थापना को लेकर भौतिकी में प्रसिद्ध हुए। लेकिन उनका अपने पिता जीन के साथ अच्छा संबंध नहीं। ऐसा जान पड़ता है कि जीन अपने बेटे से ईर्ष्या करते थे। बरनौली के परिवार तीन पीढियों में आठ अच्छे गणितज्ञ हुए। जीन का एक जुलाई, 1748 को निधन हो गया ।
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Last edited by Dark Saint Alaick; 28-07-2012 at 12:41 AM.
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