05-11-2011, 06:31 PM | #11 |
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Re: भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि
कोलम्बिया विश्वविद्यालय में भी भूपेन ने संगीत के जरिए सहपाठियों का दिल जीत लिया। भारतीय विद्यार्थियों के बीच भूपेन काफी लोकप्रिय हो गये। भूपेन ने देखा कि अधिकांश भारतीय विद्यार्थी अमीर परिवारों से ताल्लुक रखते थे। अमेरिका के मुक्त जीवन के साथ भूपेन का परिचय हुआ। भूपेन के युवा जीवन में एक लड़की आयी थी, जो शिलांग में रहती थी। अमेरिका में भी भूपेन को उस लड़की की याद आती थी। अपने साथ भूपेन उसके खत लेकर गये थे। बीच-बीच में खत खोलकर पढ़ते थे। दिल में टीस होती थी। माता-पिता की भी याद आती थी। इण्डियन स्टूडेण्ट एसोसिएशन का चुनाव हुआ और भूपेन को सचिव चुन लिया गया। दाखिला लेने से पहले अंग्रेजी ज्ञान का एक टेस्ट देना पड़ता था। भूपेन उस समय टेस्ट में प्रथम आये। अध्यापकों को आश्चर्य हुआ था कि जिस टेस्ट में फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया आदि देशों के विद्यार्थी शामिल हुए थे, उसमें भूपेन किस तरह प्रथम आ गये थे। पढ़ाई करते हुए भूपेन को इण्टरनेशनल हाउस में एक घण्टा लिफ्ट चलाने का काम मिल गया, जिसके बदले उन्हें चार डॉलर मिलते थे। इसके साथ ही भूपेन स्विमिंग पुल के बाहर कपड़ों की पहरेदारी का भी काम करते थे। गर्मी की छुट्टियों में हॉलीवुड जाकर पार्ट टाइम नौकरी करते थे। भूपेन की दोस्ती केरल के छात्र राव से हुई थी, जो कम्युनिस्ट था। तब भारत में तेलंगाना कृषि विद्रोह चल रहा था। राव विद्यार्थियों से चन्दा लेकर तेलंगाना भेजता था। भूपेन गीत गाकर पैसे जुटाने लगे और राव के उद्देश्य की सहायता करने लगे। भूपेन को केवल दो साल के लिए छात्रवृत्ति मिली थी। राजनीतिशास्त्र में एम. ए. होने के कारण उन्हें नये सिरे से मास कम्युनिकेशन विषय में एम.ए.की पढ़ाई करनी पड़ी थी। पी.एच.डी करने का अर्थ था ज्यादा समय अमेरिका में ठहरना। वैसी स्थिति में उन्हें छात्रवृत्ति का पैसा नहीं मिलने वाला था। उन्हें प्रतिमाह दो सौ पचास डॉलर मिलता था। फिर भी किल्लत की स्थिति बनी रहती थी। उसी दौरान भूपेन ने एक गीत की रचना की थी - ‘शतिकार रूपकथा किबा जेन विसारि ...'। जाकिर हुसैन की सिफारिश पर भूपेन संयुक्त राष्ट्र संघ के रॉबर्ट ट्रेस से मिले। रॉबर्ट ट्रेस ने दस महीने तक भूपेन को अपने सहायक का काम दिया। बदले में प्रतिमाह भूपेन को सौ डॉलर मिल रहे थे। अतिरिक्त डॉलर को भूपेन जमा कर रहे थे ताकि छात्रवृत्ति खत्म हो जाने पर उनकी पढ़ाई जारी रह सके। विजयलक्ष्मी पण्डित राजदूत बनकर अमेरिका गयी थीं। भारतीय छात्र संघ के सचिव होने के नाते भारतीय दूतावास के कार्यक्रमों में भूपेन को आमंत्रित किया जाता था। 26 जनवरी के अवसर पर भारतीय दूतावास में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। उसमें भूपेन से एक कार्यक्रम पेश करने के लिए कहा गया। कार्यक्रम की तैयारी करने में प्रियंवदा पटेल नामक एक गुजराती युवती ने भूपेन की मदद की। प्रियंवदा सरदार वल्लभ भाई पटेल के परिवार से ताल्लुक रखती थी। इण्टरनेशनल रिलेशंस विषय की पढ़ाई कर रही थी। वह अपने माता-पिता के साथ अफ्रीका में रहती थी। एम. ए. की पढ़ाई पूरी कर वह अफ्रीका लौटने वाली थी। कुछ दिनों तक शान्ति निकेतन में रही थी। नृत्य में पारंगत थी। बांग्ला बोलना जानती थी। भूपेन गीत गाने वाले थे और प्रियंवदा नाचने वाली थी। रिहर्सल शुरू हो गया। भूपेन ने गीत चुना था - ‘ए जय रघुर नंदन ...' इस गीत पर प्रियंवदा को भावाभिनय करना था। इसके अलावा गरबा, रवीन्द्र संगीत आदि की तैयारी की गयी थी। भूपेन ने एक असमिया परिवार से मेखला-चादर का जुगाड किया ताकि कार्यक्रम के दिन प्रियंवदा मेखला-चादर पहनकर नृत्य पेश कर सके। धूप-अगरबत्ती जलाकर भूपेन ने बरगीत का गायन शुरू किया और प्रियंवदा नाचने लगी। दोनों प्रथम स्थान पर रहे। दोनों के नाम की धूम मच गयी। भारत में ‘इलस्ट्रेटेड वीकली' ने सचित्र समाचार प्रकाशित किया। एक दिन बर्फ गिर रहा था। पैदल चलते हुए भूपेन गिर पड़े और बेहोश हो गये। चेहरे की हड्डी टूट गयी थी। अस्पताल में प्रियंवदा लगातार भूपेन की देखभाल करती रही थी। उसी दौरान भूपेन ने महसूस किया कि प्रियंवदा उनके प्रति लगाव अनुभव कर रही थी। प्रियंवदा के पिता डॉ. एम. एम. पटेल अमीर डॉक्टर थे। कम्पाला में उनका अस्पताल था। भूपेन जब स्वस्थ होकर लौटे तो सहपाठियों ने उन्हें प्रियंवदा के नाम पर छेड़ना शुरू कर दिया। भूपेन बीच-बीच में रामकृष्ण मिशन जाते थे। प्रियंवदा भी मिशन जाने लगी। इसी दौरान भूपेन ने प्रियंवदा का ‘प्रियम' कहना शुरू कर दिया था और उसे असमिया बोलना सिखा दिया था। अचानक एक दिन प्रियम ने भूपेन से कहा - ‘मैं एम. ए. की पढ़ाई करने के लिए चार साल के लिए यहां आयी थी। अब पापा ने वापस बुलाया है। जाने से पहले तुमसे विवाह करना चाहती हूं।' भूपेन ने कहा, ‘मेरे भविष्य का कोई ठिकाना नहीं है। तुम चली जाओगी। मुझे तीन साल और पढ़ना होगा।' इसके अलावा भूपेन ने प्रियम को अपने खस्ताहाल परिवार के बारे में बताया। तीस रुपये के किराये के घर में दस भाई-बहनों का परिवार गुजारा करता है। पिताजी को 145 रुपये पेंशन के रूप में मिलते हैं। प्रियम ने पूछा, ‘और कोई रुकावट है ?' मैं एक लड़की को चाहता था। ये रहे उसके खत' - भूपेन ने खत प्रियम को पढ़ने के लिए दिया। ‘वह कहां है ?' ‘उसका विवाह हो चुका है।' प्रियम ने कहा कि भूपेन गम्भीरता पूर्वक उसके विवाह के प्रस्ताव पर विचार करे। |
05-11-2011, 06:32 PM | #12 |
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Re: भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि
प्रियम ने भूपेन को बताया कि एक-एक हजार की दस साड़ियां लेकर एक अमीर युवक उसे विवाह का प्रस्ताव देने आया था। लड़का बम्बई में संयुक्त राष्ट्र संघ कार्यालय में काम करता था। प्रियम ने प्रस्ताव को ठुकरा दिया। रॉबर्ट केनेडी की पत्नी एथोलो प्रियम के साथ कोलम्बिया में पढ़ती थी। गर्मी की छुट्टियों में एथोलो हेलीकॉप्टर में प्रियम को बिठाकर अपने घर ले जाती थी। प्रियम विजय लक्ष्मी पण्डित के घर भी आती-जाती थी।
भूपेन ने प्रियम से कहा कि वह पढ़ाई कर चुकी है, इसीलिए अपने घर लौटकर जा सकती है। प्रियम ने कहा, ‘तुम अगर आज भी उस लड़की को नहीं भूल पाये हो, वह तुम्हें मिलने वाली भी नहीं है। मैं किसी और से शादी नहीं करूंगी।' भूपेन दुविधा में फंस गये। भूपेन को अपनी प्रेमिका की याद आ रही थी, जिसने एक अमीर लड़के से विवाह कर लिया था और हावड़ा में रह रही थी। अपने दिल के दर्द को भूपेन ने ‘शैशवते धेमालीते ...' गीत रचकर व्यक्त किया था। भूपेन ने प्रियम को स्पष्ट बता दिया कि भूपेन उसे सुख-सुविधाओं से भरपूर जीवन नहीं दे पाएंगे, न ही आर्थिक सुरक्षा दे पाएंगे। प्रियम को कोई एतराज नहीं था। इस तरह दोनों विवाह करने के लिए तत्पर हुए। भारतीय विद्यार्थियों ने टेपरिकार्डर पर बिस्मिल्ला खान की शहनाई बजाई, बंगाली लड़कियों ने अल्पना अंकित की, गुजराती लड़कियों ने गरबा नृत्य पेश किया। एक ब्राह्मण बंगाली अध्यापक ने मंत्रोच्चारण किया। फिर सिटी कोर्ट में जाकर दोनों ने कानूनी रूप से एक-दूसरे को पति-पत्नी मान लिया। इस विवाह के लिए न तो भूपेन के माता-पिता तैयार थे न ही प्रियम के माता-पिता। प्रियम ने कहा, ‘मैं एक सन्तान गर्भ में लेकर चली जाऊंगी।' प्रियम की इच्छा पूरी हुई। वह कम्पाला लौट गयी। प्रियम के पिता का घर बड़ौदा में भी था। प्रियम कम्पाला से बड़ौदा गयी। भूपेन मेस छोडकर एक किराये के घर में रहने लगे और पढ़ाई पूरी करने में जुट गये। इसी बीच प्रियम के मामा एच. एम. पटेल भूपेन से मिलने आये। मामा ने लौटकर प्रियम को बताया कि भूपेन रात-रात भर घर से गायब रहते हैं। प्रियम ने फोन कर भूपेन से कैफियत पूछी। कहीं-न-कहीं सन्देह का भाव प्रियम के मन में पैदा होने लगा। चार दिनों का दाम्पत्य जीवन गुजारने के बाद दोनों के बीच ढाई साल का अन्तराल था। इसी दौरान भूपेन का पॉल राबसन से परिचय हुआ। पॉल राबसन रात्रिकालीन गोष्ठियां चलाते थे, जिसमें माक्र्सवाद पर विचार प्रकट किया जाता था। भूपेन माक्र्सवाद से काफी प्रभावित थे और नियमित रूप से पॉल राबसन की गोष्ठी में भाग लेते थे। भूपेन को सूचना मिली की प्रियम ने एक पुत्र को जन्म दिया है। भूपेन को पिता के पत्र से पता चला कि गोपीनाथ बरदलै भूपेन को लौटते ही डी. पी. आई. की नौकरी देने वाले थे। कोलम्बिया में भी यूनेस्को की तरफ से भूपेन को नौकरी का प्रस्ताव मिला था। पी. एच. डी. पूरा करने के साथ ही भूपेन ने प्रियम को सूचित किया कि अब वे असम लौटने वाले हैं। प्रियम ने जवाब दिया कि भूपेन अफ्रीका के रास्ते भारत लौटने का टिकट लें, ताकि प्रियम के माता-पिता भूपेन से मिल सकें। पॉल राबसन ने भूपेन से कहा कि लन्दन में रजनीपाम दत्त रहते हैं, जो घोर साम्यवादी हैं, भूपेन जरूर मुलाकात करें। लन्दन पहुंचकर भूपेन रजनीपाम दत्त से मिले। भूपेन ने उनसे पूछा - ‘असम लौटकर एक पतनशील समाज के साथ मैं किस तरह तालमेल कायम कर पाऊंगा ? मैं निम्न मध्यवर्ग का हूं। मेरा मन टूट रहा है। मैं ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा बनना नहीं चाहता। विश्वविद्यालय में काम मिले तो करूंगा।' दत्त ने कहा, ‘तुम निराश क्यों हो रहे हो ? निराश नहीं होना चाहिए। तुम जिस बिन्दु पर रहोगे, उसी बिन्दु पर रहकर अगर दस लोगों के विचार बदल सकोगे तो वही तुम्हारी सार्थकता होगी। मान लो, तुम लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर बनकर एक पुल का निर्माण कर रहे हो। वैसी स्थिति में तुम्हें यह नहीं देखना है कि पुल किसके लिए बना रहे हो, बल्कि पुल का निर्माण ठीक से हो, इस बात का ध्यान रखना है। तुम वहां जाकर पढ़ाओगे, विद्यार्थियों को अपने विचार से बदलने की कोशिश करोगे। लड़कों का हृदय परिवर्तन कर तुम समाज का परिवर्तन कर सकते हो।' असम लौटते समय भूपेन काफी चिन्तित थे। नौ भाई-बहनों की देखभाल करनी होगी। एक अमीरजादी पत्नी के साथ गृहस्थी बसानी होगी। फिलहाल परिवार जिस किराये के घर में था, उसमें बहुत कम जगह थी। भूपेन अफ्रीका पहुंचे। अफ्रीका में प्रियम के पिता ने अपने दामाद की खूब आवभगत की। भूपेन को नये-नये स्थानों की सैर करवाई गयी। अफ्रीका से भूपेन बम्बई पहुंचे। फिल्म अभिनेता अशोक कुमार से अमेरिका में परिचय हुआ था। भूपेन बम्बई में अशोक कुमार से मिले। तब अशोक कुमार ‘परिणीता' की शूटिंग कर रहे थे। अशोक कुमार ने भूपेन से पूछा कि क्या वे फिल्म उद्योग में आना चाहेंगे ? भूपेन ने कहा कि फिल्म में रुचि तो है, पर अभी कुछ तय नहीं किया है। भूपेन बलराज साहनी से मिले। भूपेन और प्रियम का एक अन्तराल पर मिलन हुआ। दो साल के अपने बेटे को भूपेन ने पहली बार देखा। बड़ौदा में भूपेन का शाही स्वागत हुआ। शहर के नामी-गिरामी लोगों के साथ भूपेन का परिचय करवाया गया। भूपेन प्रियम और बेटे के साथ कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता से गुवाहाटी तक का सफर रेलगाड़ी से तय किया गया। गुवाहाटी स्टेशन पर काफी आत्मीय लोग स्वागत करने के लिए आये थे। किराये के घर के एक कमरे को माता-पिता ने सजाकर नवदम्पति के लिए रखा था। पिताजी ने एक नौकरानी भी रख ली थी। मगर भूपेन ने देखा कि इतने बड़े परिवार के लिए किराये का घर बहुत छोटा था। पिता कर्ज में डूबे थे। भाई-बहनों की सेहत भी ठीक नहीं लग रही थी। भूपेन ने रेडियो में काम करना शुरू कर दिया। अलग से 5॰ रुपये मासिक किराये वाला घर ले लिया। गीत लिखकर गाने लगे। गणनाट्य संघ के कार्यक्रमों में भाग लेने लगे। प्रियम ने भी अपने-आप को असम की बहू के रूप में परिवर्तित कर लिया। कई तरह के प्रलोभन आ रहे थे। प्रियम के पिता भूपेन को घर जमाई बनाना चाहते थे। असम सरकार भूपेन को कोई बड़ा पद देना चाहती थी, मगर तत्कालीन मुख्यमंत्री विष्णुराम मेधी को इस बात पर एतराज था कि भूपेन ‘कम्युनिस्ट' बन गए थे। |
05-11-2011, 06:34 PM | #13 |
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Re: भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि
गुवाहाटी लौटने के दो साल बाद बिरंचि कुमार बरुवा के प्रयास से भूपेन को विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के लेक्चरर की नौकरी मिल गयी। शैक्षणिक माहौल में भूपेन का मन रमने लगा।
सन् 1954 में गणनाट्य संघ के आमंत्रण पर भूपेन मघाई ओझा के साथ कलकत्ता गये। वेलिंग्टन स्क्वायर पर भूपेन ने गीत गाया और मघाई ओझा ने ढोल वादन प्रस्तुत किया। कलकत्ता में भूपेन की जबर्दस्त प्रशंसा हुई। पत्र-पत्रिकाओं ने उनकी तारीफ में काफी कुछ लिखा। सुचित्रा मित्र ने भूपेन को घर बुलाकर उनका अभिनंदन किया। हेमांग विश्वास के साथ मिलकर भूपेन ने गणनाट्य संघ का अधिवेशन आयोजित किया, जिसमें बाइस हजार लोगों को आमंत्रित किया। बम्बई से अधिवेशन में शामिल होने के लिए बलराज साहनी आये। उस समय असम के एक दैनिक पत्र ने भूपेन की रचनाधर्मिता पर साम्यवादी दर्शन का प्रभाव बताते हुए आरोप लगाया कि उनकी रचनाओं से कुछ और गन्ध आ रही है। ‘असम ट्रिब्यून' के संस्थापक राधा गोविन्द बरुवा के प्रोत्साहन से गुवाहाटी के उजान बाजार इलाके में भूपेन ने पहली बार मंच पर बिहू कार्यक्रम आयोजित करने का सिलसिला शुरू किया था। मजेदार बात यह थी कि उस कार्यक्रम में भूपेन को गाने नहीं दिया गया क्योंकि कार्यक्रम में सरकार के मंत्री उपस्थित थे। अगले दिन भूपेन के गीतों को छापकर दर्शकों के बीच बांट दिया गया। वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य अक्सर भूपेन के घर आते थे। वे थाह लेना चाहते थे कि भूपेन सोशलिस्ट हैं या नहीं। भूपेन ने कहा कि पहले वे समाज को ठीक से पहचान लेना चाहते हैं। गुवाहाटी का अभिजात वर्ग शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम आयोजित करता था। भूपेन उसके पास ही लोकसंगीत कार्यक्रम आयोजित करते थे और लोगों से कहते थे कि यही जनता का संगीत है। सन् 1954 में भूपेन कृश्न चन्दर, एम. एम. हुसैन, बालचन्दर, इस्मत चुगताई, मुल्कराज आनन्द के साथ फिनलैण्ड गये। उससे पहले असम के प्रगतिशील कलाकार दिलीप शर्मा चीन गये थे, तब भूपेन ने उनके लिए एक गीत लिखा था - ‘प्रतिध्वनि शुनू, नतून चीनर प्रतिध्वनि शुनू'। इस गीत का बांग्ला अनुवाद हुआ और यह गीत बंगाल में बहुत लोकप्रिय हुआ। फिनलैण्ड में युद्घविरोधी सम्मेलन में ज्यां पाल सार्त्र समेत दुनिया भर के बुद्घिजीवी शामिल हुए थे। फिनलैण्ड से लेनिनग्राड, मास्को, काबुल होते हुए जब भूपेन गुवाहाटी लौटे तो उन्हें पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार लौटने में तीन दिन देर हो गया। तार भेजकर उन्होंने इसकी सूचना विश्वविद्यालय प्रशासन को दे दी थी। मगर प्रशासन ने उनके नाम ‘कारण बताओ' नोटिस जारी कर दिया। भूपेन के भावुक दिल पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने इस्तीफा देने का फैसला किया। पिता एवं दूसरे शुभचिन्तकों ने भूपेन को समझाने की कोशिश की, पर भूपेन अपने फैसले पर अटल थे। जिस दिन भूपेन ने त्याग-पत्र दिया, उसी दिन तेजपुर से गंगा प्रसाद अग्रवाल और फणि शर्मा भूपेन से मिलने आये। वे ‘पियली फुकन' नामक फिल्म बनाना चाहते थे और भूपेन को संगीतकार की भूमिका निभाने के लिए कहने आये थे। अग्रिम राशि के रूप में उन्होंने सौ रुपये भूपेन को दिये और अनुबन्ध पत्र पर दस्तखत करवा लिया। भूपेन ने इस्तीफा दे दिया। फिल्म का संगीत तैयार करने के लिए भूपेन कलकत्ता आ गये और एक किराये का घर लेकर संगीत सृजन में जुट गये। प्रियम और बेटे को भूपेन ने बड़ौदा भेज दिया था। जाते समय प्रियम ने कहा था - ‘भूपेन, इस कठिन वक्त को गुजर जाने दो, तुम्हें खुद ही रास्ता ढूंढना होगा। हम कभी तुम्हारी मदद नहीं करेंगे, क्योंकि तुम मदद स्वीकार नहीं करोगे।' ‘पियली फुकन' से पहले भूपेन ‘सती बेउला' में संगीत दे चुके थे। ‘पियली फुकन' को स्वर्ण पदक मिला। भूपेन को बांग्ला फिल्म में संगीत देने का प्रस्ताव मिलने लगा। असम के नगांव शहर के निवासी असित सेन उस समय बांग्ला फिल्में बना रहे थे। उसी दौरान सत्यजीत राय की फिल्म ‘पथेर पांचाली' बनी थी। भूपेन के मन में एक फिल्म बनाने की योजना पनपने लगी थी। भूपेन को एक साथ चार बांग्ला फिल्मों में संगीत देने का प्रस्ताव मिला था। ‘पियली फुकन' में संगीत देने के लिए उन्हें छह सौ रुपये मिले थे। भूपेन ने कलकत्ता में घर खरीद लिया। पचीस हजार रुपये का प्रबन्ध किया और ‘एरा बाटर सुर' नामक फिल्म बनाने में जुट गये। पटकथा लिखते समय प्रियम ने उनकी सहायता की थी। फिल्म के लिए भूपेन ने कई नये कलाकारों की खोज की। फिल्म का नायक जयन्त निशा नामक लड़की से प्रेम करता है, पर निशा उसकी नहीं हो पाती। अन्त में नायक असम छोडता है और कहता है - ‘असम की धरती मुझे गलत तो नहीं समझेगी।' भूपेन ने बाद में स्वीकार किया कि इस फिल्म के जरिए उन्होंने अपने जीवन के एक हिस्से को सेल्यूलाइड पर उतारने की कोशिश की थी। भूपेन अपनी फिल्म के दो गाने लता मंगेशकर की आवाज में रिकार्ड करना चाहते थे। लता के साथ उनका परिचय नहीं था। हेमन्त कुमार के साथ भूपेन का परिचय था। हेमन्त कुमार ने ही भूपेन का परिचय एच. एम. वी. कम्पनी के साथ करवाया था। भूपेन ने हेमन्त कुमार को पत्र लिखा कि वे लता मंगेशकर से बात करें। हेमन्त कुमार ने जवाब दिया कि लता तैयार हैं। भूपेन बम्बई गये और हेमन्त कुमार के घर में ठहरे। लता के साथ पहली बार परिचय हुआ। लता ने कहा, ‘मैं आपको दादा कहकर पुकारूंगी।' पहला गाना था ‘जोनाकर राति ...' और दूसरा गाना भूपेन व हेमन्त के साथ था। गाना रिकार्ड होने के बाद धूम मच गयी। ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया' ने गाने की भूरि-भूरि प्रशंसा की। खुद लता मंगेशकर ने अभिभूत होकर भूपेन से कहा, ‘आज तक मैंने ऐसा सुर नहीं सुना था दादा!' |
05-11-2011, 06:34 PM | #14 |
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Re: भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि
'एरा बाटर सुर' बनाने के बाद भूपेन ने निश्चय किया कि ‘नील आकाशेर नीचे' नामक बांग्ला फिल्म बनाएंगे। बनारस में पढ़ते समय भूपेन का परिचय महादेवी वर्मा से हुआ था। महादेवी वर्मा की एक कहानी के आधार पर भूपेन इस फिल्म का निर्माण करना चाहते थे। उसी समय डेलू नाग नामक व्यक्ति ने आकर भूपेन को बताया कि इस कहानी पर फिल्म बनाने का अधिकार वह महादेवी वर्मा से खरीद चुका है। कहानी एक चीन देश के फेरीवाले के जीवन पर आधारित थी जो एक बंगाली लड़की को बहन बनाता है। बाद में फेरीवाले की मौत हो जाती है।
भूपेन ने डेलू नाग से कहा कि वह कहानी का अधिकार उनको बेच दे। नाग तैयार हो गया। भूपेन ने सोचा कि पटकथा ऋत्विक घटक से लिखवानी चाहिए। उन दिनों घटक ‘अयांत्रिक' बना रहे थे और उनके पास समय नहीं था। भूपेन ने मृणाल सेन से बात की। पन्द्रह सौ रुपये लेकर मृणाल सेन ने पटकथा लिखी। भूपेन हेमन्त कुमार से मिले। हेमन्त कुमार ने आश्वासन दिया कि फिल्म के लिए रुपये वे देंगे। संगीतकार के रूप में हेमन्त-भूपेन का नाम जाएगा। इसी दौरान भूपेन को किसी ने बताया कि डेलू नाग ने कहानी का अधिकार खरीदने के बारे में झूठी जानकारी दी थी। वास्तव में कहानी का अधिकार उसके पास नहीं था। भूपेन महादेवी वर्मा से मिलने रानीखेत गये। महादेवी उनको पहचान नहीं पायीं। भूपेन ने बनारस की मुलाकात के बारे में बताया। अपना ‘सागर संगमत' गीत गाकर सुनाया और हिन्दी में उसका अर्थ बताया। महादेवी प्रसन्न हुईं। भूपेन को उन्होंने खाना खिलाया। भूपेन ने उनसे पूछा कि चीनी फेरीवाले की कहानी उन्होंने बेच दी है क्या ? महादेवी ने बताया कि एक लड़का आया था, जो खरीदना चाहता था, मगर वह दुबारा नहीं आया। भूपेन ने उनसे अपनी योजना के बारे में बताया। महादेवी ने उनको अपनी कहानी का अधिकार दे दिया। उस समय देश में हिन्दी- चीनी भाई-भाई का माहौल था। चीन के काउंसलर को बुलाकर भूपेन ने मुहुर्त करवाया था। लता मंगेशकर को क्लैपिस्टिक देने के लिए आमंत्रित किया था। लता ने मजाक में कहा था - ‘भूपेन दा, मैं जिस फिल्म के लिए क्लैपिस्टिक देती हूं, वह फिल्म बनती नहीं है।' लता का मजाक सच साबित हुआ। रातोंरात भूपेन-हेमन्त प्रोडक्शन की जगह हेमन्त-बेला प्रोडक्शन बन गया और मृणाल सेन फिल्म के निर्देशक बन गये। एक तरह से लंगडी मारी गयी थी और फिल्म के प्रोजेक्ट से भूपेन को बाहर कर दिया गया। मृणाल सेन ने फिल्म बनायी। जिस दिन फिल्म कलकत्ता में रिलीज हुई, उसी दिन चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और फिल्म बुरी तरह पिट गयी। भूपेन हताश नहीं हुए। उन्होंने ग्वालपाडा के लोकजीवन को पृष्ठभूमि में रखकर ‘माहुत बन्धुरे' का निर्माण किया। इस फिल्म में ग्वालपाडा की बोली का प्रयोग किया गया था और ग्वालपडिया लोकगीत की गायिका प्रतिमा पाण्डेय के गीतों का इस्तेमाल किया गया था। ‘माहुत बन्धुरे' को जबर्दस्त सफलता मिली। फिल्म की प्रशंसा जवाहरलाल नेहरू ने की। उन्होंने सभी दूतावासों को यह फिल्म भिजवाई। |
05-11-2011, 06:36 PM | #15 |
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Re: भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि
भूपेन को भीषण आर्थिक संघर्ष करना पड़ रहा था। प्रियम बीच-बीच में आती थी और वापस बड़ौदा चली जाती थी। एक फिल्म में संगीत देने के बदले चार हजार रुपये मिलते थे। तब तक गीत गाने के बदले भूपेन पैसे नहीं लेते थे।
सन् 1960 में कलकत्ता में पोस्टर लगाया गया - ‘भूपेन हजारिका का खून चाहिए।' असम में चल रहे बांग्ला विरोधी आन्दोलन की प्रतिक्रिया में कलकत्ता में असमिया लोगों के खिलाफ घृणा का वातावरण तैयार हो रहा था। असम से सूर्य बोरा ‘शकुन्तला' फिल्म के सिलसिले में कलकत्ता गये थे और भूपेन के घर में ठहरे थे। बाहर निकलने पर उनकी हत्या कर दी गयी। उत्तम कुमार ने भूपेन को सन्देश भेजा कि जरा भी असुविधा महसूस हो तो वे उनके घर आकर रह सकते हैं। ज्योति बसु तब मंत्री नहीं बने थे। उन्होंने भूपेन को लाने के लिए गाड़ी भेज दी थी। भूपेन जहां रहते थे, उस इलाके में ‘मस्तान' टाइप लड़कों ने उनसे कहा - ‘हम आपका बाल भी बांका होने नहीं देंगे। हमारी लाश पर चढ़कर ही कोई आप तक पहुंच सकता है। असम से भागे बंगाली सियालदह पहुंच चुके हैं। आपको असली खतरा उन लोगों से ही है।' भूपेन के खिलाफ पोस्टर चिपका रहे एक लड़के को ऋत्विक घटक ने थप्पड़ मारकर पूछा था - ‘किसने सिखाया है तुझे भूपेन हजारिका के खिलाफ पोस्टर लगाने के लिए ?' बाद में पता चला था कि एक संगीतकार के इशारे पर वैसा किया गया था। एक दिन भूपेन बाहर से घूमकर घर लौटे तो नौकर ने बताया कि पैंतीस आदमी आये थे। कह रहे थे कि वक्त ठीक नहीं है। भूपेन दा से कहना रात नौ बजे के बाद कहीं गाने के लिए न जाएं। 20 अगस्त 1960 को असम के खिलाफ कलकत्ता की सड़कों पर जुलूस निकला था। उस दिन भूपेन महाजाति सदन के पास खड़े थे। उनके साथ कृष्णफली चाय बागान के समर सिंह थे। जुलूस आगे बढ़ रहा था। समर सिंह ने कहीं छिपने के लिए कहा। भूपेन ने कहा कि उन्हें कोई डर नहीं है। मगर समर सिंह नहीं माने। दोनों सोनागाछी चले गये। एक वेश्या के कोठे पर गये। वेश्या स्नान कर बाहर निकली। उसने कहा कि यह सब क्या हो रहा है। आज तो पूरा बाजार बन्द है, आप लोग कैसे आये ? भूपेन ने अपना परिचय नहीं दिया। उन्होंने कहा कि वे रात गुजारना चाहते हैं। वेश्या ने उनके लिए भोजन का प्रबन्ध किया। फिर वह बोली - ‘आप लोग बैठिए, मैं जरा बाहर से आ रही हूं।' भूपेन को आशंका हुई कि कहीं गुण्डों को बुलाने के लिए तो नहीं जा रही है ! कुछ देर बाद वह ढेर सारे रिकार्ड लेकर लौटी। रिकार्ड प्लेयर पर वह रिकार्ड बजाने लगी। पहला गाना था भूपेन का ‘सागर संगमत', दूसरा गाना था भूपेन का, तीसरा और चौथा गाना भी भूपेन का ही था। वेश्या ने कहा - ‘सुना है असमिया-बंगाली के बीच कुछ हुआ है ? ऐसी हालत में आपलोग यहां क्यों आये हैं ? मैं यह धंधा जरूर करती हूं पर आपको दूर से देखने के लिए महाजाति सदन में जाती हूं। आफ गाने मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। मैं असम जा चुकी हूं। एक चाय बागान के मालिक के साथ। नाम नहीं बताऊंगी। असम इतना प्यारा है। यह सब क्या हो रहा है।' सुबह पौ फटते ही भूपेन ने महिला से विदा मांगी और अपने घर लौट आये। 1960 में असमिया विरोध का जो माहौल बना, उसका गहरा प्रभाव भूपेन पर पड़ा। उनको फिल्म का काम मिलना बन्द हो गया। प्रियम बड़ौदा में थी। भूपेन और नौकर को गुजारे के लिए हर महीने पांच सौ रुपये की जरूरत होती थी। पांच सौ रुपये का जुगाड कर पाना कठिन हो जाता था। काफी कर्ज हो गया था। गुवाहाटी में भी परिवार को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था। इसी दौरान भूपेन ने ‘आमार प्रतिनिधि' में स्तम्भ लिखना शुरू किया। मासिक दो सौ रुपये मिल जाते थे। भूपेन ने सोचा कि किसी तरह पैसों का जुगाड कर ‘शकुन्तला' बनायी जाए। उधार लेकर उन्होंने ‘शकुन्तला' का निर्माण किया। फिल्म काफी सफल हुई। ‘शकुन्तला' को श्रेष्ठ आंचलिक फिल्म का पुरस्कार मिला। इस फिल्म के चलने से भूपेन को आर्थिक रूप से कुछ राहत मिली। एक साल तक के लिए भूपेन निश्चिन्त हो गये। भूपेन ने कम बजट में एक हास्य आधारित फिल्म ‘लटिघटी' बनायी, जिसकी शूटिंग उन्होंने तेरह दिनों में पूरी की। भूपेन को प्राग जाने का निमंत्रण मिला। प्राग से लौटने के बाद भूपेन असम गये और हेमांग विश्वास के साथ सांस्कृतिक टोली बनाकर जगह-जगह घूमते हुए असमिया-बंगाली सद्भाव का सन्देश देने लगे। तत्कालीन मुख्यमंत्री विमला प्रसाद चालिहा ने लगभग रोते हुए भूपेन से कहा था कि वे स्थिति को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं और उनके जैसे कलाकार ही कुछ कर सकते हैं। भूपेन को कई तरह की धमकियों का भी सामना करना पड़ा, परन्तु धैर्य खोए बिना उन्होंने अपना सांस्कृतिक अभियान जारी रखा। उत्पल दत्त ने ‘न्यू एज' में लिखा -‘भूपेन हजारिका की तरह कौन कलाकार अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए सड़क पर उतरता है ? क्या हम उतरते हैं ? क्या हमने कलकत्ता में ऐसा कोई प्रयास किया है ?' |
05-11-2011, 06:39 PM | #16 |
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Re: भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि
'लटीघटी' बनाने के बाद भूपेन ने खासी समुदाय की पृष्ठभूमि पर ‘प्रतिध्वनि' फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म को पेरिस फिल्म महोत्सव में दिखाया गया। पैसे की कमी के कारण भूपेन फ्रेंच में फिल्म के सबटाइटल की व्यवस्था नहीं कर पाए।
इस बीच भूपेन के दाम्पत्य जीवन में दरार बढ़ता जा रहा था। दस सालों के अन्तराल के बाद अचानक भूपेन की प्रेमिका को प्रियम अपने साथ घर लेकर आयी। उस दिन भूपेन को बुखार था। तब बड़ौदा से प्रियम आयी थी। उस दिन कलकत्ता के एक क्लब में एक असमिया परिवार ने दावत दी थी और भूपेन को आमंत्रित किया था। भूपेन जा नहीं पाए। दावत में प्रियम गयी थी। वहीं प्रियम की मुलाकात भूपेन की पूर्व प्रेयसी से हुई, जो किसी और की पत्नी थी। दोनों में घनिष्टता हो गयी। प्रियम के साथ वह अक्सर भूपेन के घर आने लगी। भूपेन प्रथम प्रेम को भूल नहीं पाये थे और इतने दिनों के बाद उसे पाकर पिघलने लगे थे। इसी तरह बम्बई की एक मशहूर कलाकार जब कलकत्ता आती थी तो भूपेन के घर में ठहरती थी। उसने प्रियम से कहा कि वह भूपेन जैसे जीनियस कलाकार की देखभाल ठीक से नहीं कर पा रही है। एक दिन भूपेन और प्रियम उस कलाकार को विदा करने हवाई अड्डे पर गये। कलाकार ने प्रियम के साथ एकान्त में बातचीत की और विमान पर सवार हो गयी। प्रियम रोने लगी। भूपेन ने रोने की वजह पूछी तो प्रियम ने बताया - ‘वह कह रही थी कि मुझसे ज्यादा वह तुमसे प्यार करती है।' पूर्व प्रेमिका के साथ भूपेन का मेलजोल बढ़ता गया। उसके पति को भी मामला समझ में आ गया। उसने दोस्ती का सम्मान किया। चारों एक साथ फिल्म देखने जाने लगे, होटल में खाना खाने लगे। सन् 1950 में भूपेन ने प्रियम से विवाह किया था। 1963 में दोनों ने तय किया कि विवाह बन्धन से मुक्त हो जाना उचित होगा। भूपेन ने सिद्घार्थ शंकर राय को अपना वकील बनाया। दोनों ने तलाक ले लिया। भूपेन ने मुस्कराते हुए हावड़ा स्टेशन पर प्रियम को अलविदा कहा। प्रियम कनाडा में रहती है। भूपेन जब भी जाते हैं, प्रियम से जरूर मिलते हैं। तलाक के बाद प्रियम का छोटा भाई यादवपुर विश्वविद्यालय में पढ़ने आया तो वह भूपेन के साथ ही रहने लगा। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में उच्च पढ़ाई करने चला गया, जहां से उसने भूपेन को खत लिखा कि वह भूपेन की छोटी बहन रूबी से ब्याह करना चाहता है। भूपेन ने प्रियम के साथ सलाह-मशविरा किया। प्रियम ने अपनी सहमति दे दी और कहा कि रूबी को किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी। भूपेन ने रूबी का ब्याह प्रियम के भाई के साथ करवा दी। दाम्पत्य जीवन से मुक्त होने के बाद भूपेन खुद को काफी एकाकी महसूस करने लगे और काफी शराब पीने लगे। रात-रात भर घर से बाहर रहने लगे। सन् 1965 तक भूपेन कहीं गाने जाते थे तो उसके लिए पैसे नहीं लेते थे। उनकी आदत-सी बन गयी थी कि हर कार्यक्रम के लिए एक नये गीत की रचना जरूर करनी है। सन् 1965 में जोरहाट के इण्टर कॉलेज में गायन प्रस्तुत करने के बाद भूपेन को हवाई यात्रा के अलावा पारिश्रमिक के रूप में पांच सौ रुपए मिले थे। भूपेन को बार-बार यह अहसास सालता था कि अपने परिवार को वे कुछ ठोस मदद नहीं दे पा रहे थे। मां को लकवा मार गया था। भूपेन की मां पहले सामाजिक कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाती थी। उन्होंने असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति से हिन्दी की पढ़ाई भी की थी। छोटा भाई अमर हजारिका दो बार टीबी का शिकार हो चुका था। भूपेन ने अमर को एक छोटा प्रेस खोलने में सहायता की थी। एक और भाई प्रवीण हजारिका नेफा में नौकरी करते थे। बाद में लन्दन में अध्यापक की नौकरी मिल गयी। छोटे भाई-बहनों को भूपेन कलकत्ता के घर में बुलाकर रखते थे और सबकी पढ़ाई-लिखाई और रोजगार की चिन्ता करते थे। भूपेन के छोटे भाई जयन्त हजारिका ने गायक के रूप में जबर्दस्त प्रसिद्घि हासिल की थी। अल्पायु में जयन्त की मौत हो गयी। जयन्त की दर्दीली आवाज के प्रशंसक असम के लोग आज भी हैं। सन् 1966 में भूपेन के पिता का देहान्त हो गया। श्राद्घ में विष्णुप्रसाद राभा, फणि बोरा आदि आये थे। विष्णुप्रसाद राभा ने भूपेन से कहा था - ‘क्या तू लेटर टू एडीटर ही बना रहेगा ? आर्ट के क्षेत्र में कुछ करने के लिए विधानसभा के भीतर जाना होगा। वहीं अपनी बात को कानून बना सकोगे।' फणि बोरा ने नाउबैसा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने का सुझाव दिया। भूपेन ने कहा कि वे पहले नाउबैसा इलाके का दौरा करेंगे, उसके बाद कोई फैसला करेंगे। भूपेन जब लखीमपुर पहुंचे तो अनगिनत प्रशंसकों को पाकर अभिभूत हो गये। युवाओं ने कहा कि देवकान्त बरुवा ने जो उम्मीदवार खड़ा किया है, वह एक नम्बर का गुण्डा है, जो बान्ध तोड़कर नये सिरे से बान्ध बनाने का ठेका लेता है। दूसरे प्रतिद्वन्द्वियों ने कहा कि अगर भूपेन चुनाव लड़ना चाहेंगे तो वे भूपेन का समर्थन करेंगे। भूपेन कोई निर्णय लिए बिना कलकत्ता लौट गये। इसी बीच अखबारों में छपा कि भूपेन हजारिका चुनाव लड़ने वाले हैं। माकपा की असम शाखा ने कहा कि वह भूपेन का समर्थन करेगी। सन् 1967 में भूपेन ने चुनाव लड़ा और देवकान्त बरुवा के उम्मीदवार को चौदह हजार मतों से पराजित किया। उस साल भूपेन के साथ-साथ विष्णुप्रसाद राभा, लक्ष्यधर चौधरी, सतीनाथ देव और महीधर पेगू जैसे साहित्यकार व्यक्ति एम. एल. ए. बनकर असम की तत्कालीन राजधानी शिलांग पहुंचे थे। सन् 1967 से 1971 तक विधायक रहते हुए भूपेन तीन महीने शिलांग में गुजारते थे। शेष नौ महीने संगीत और फिल्म में व्यस्त रहते थे। वे निर्दलीय उम्मीदवार थे और उन्होंने शुरू में ही कह दिया था कि विपक्ष में रहकर वे जनहित के सवालों को उछालते रहेंगे। |
05-11-2011, 06:40 PM | #17 |
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Re: भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि
अपने बारे में भूपेन हजारिका ने लिखा है - ‘असम की मिट्टी मुझे गलत तो नहीं समझेगी' - यह संवाद मैंने जयन्त दुवरा नामक एक काल्पनिक चरित्र के मुंह से कहलवाया था ‘एरा बाटर सुर' फिल्म में। चरित्र मेरा ही था। मैंने स्वाभिमान के साथ कहा था - गलत तो नहीं समझेगी, क्योंकि मैं कुछ दिनों के लिए असम से बाहर जाऊंगा। जो असुविधा हो रही थी, वह दिखा दिया गया था। जाने के रास्ते में कुछ बाधाएं थीं, उन्हें हटाकर वह क्षितिज की ओर चला गया। वैसा रूठकर मैंने लिखा था। असम की मिट्टी ने मुझे कभी गलत नहीं समझा। असम की मिट्टी ने जवाब दिया है, करोड़ों लोगों ने जवाब दिया है, स्वीकार किया है, स्नेह दिया है। वैसा मैंने यूं ही कहा था। जिस तरह मां से रूठकर कहा जाता है। वैसा कहने में कोई घृणा का भाव नहीं था।
... मैंने 13 साल की उम्र में ‘अग्नियुगर फिरिंगति' गाना लिखा था और दस साल की उम्र में शंकरदेव के बारे में गाना लिखा था। जब सन् 1946 में ‘अग्नियुगर फिरिंगति' को ज्योतिप्रसाद आगरवाला ने फिल्म में स्थान दिया तो मुझे प्रोत्साहन मिला। ज्योतिप्रसाद आगरवाला ने मुझसे कारेंगर लिगिरी, शोणित कुंवरी के गाने गवाए, ‘इन्द्र मालती' फिल्म में मुझे अपना गीत ‘विश्व विजयी न जबान' गवाया। मुझ पर प्रभाव पड़ा कि अपनी मिट्टी की गन्ध से प्यार करना चाहिए। ज्योतिप्रसाद आगरवाला एवं विष्णुप्रसाद राभा ने बचपन में मुझे यह प्रेरणा दी। जब मैं विदेश गया तो वहां भी देखा, पॉल राबसन जैसे कलाकार नये-नये प्रयोग कर रहे हैं। वहां से लौटकर ‘डोला हे डोला' और ‘सागर संगमत' जैसे गीतों की मैंने रचना की। मैं खुद ही गीत लिखता हूं, खुद ही धुन तैयार करता हूं, खुद ही गाता हूं, इसीलिए अपने गीत की शैली के बारे में खुद ही कोई राय नहीं दे सकता। अगर मेरी रचना में किसी को विशेष शैली नजर आती है तो शायद विषयवस्तु के कारण नजर आती है। मैंने कई गीत फिल्मों या नाटकों के किरदारों को ध्यान में रखकर लिखा है। उन गीतों से मेरे दर्शन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। ... मैं एक सफल गायक हूं या नहीं, कह नहीं सकता। मेरी आवाज जन्मजात देन है। संगीत सीखे बिना मैं बचपन में गाने लगा था -तोते की तरह। पांच साल की उम्र से ही लोग मेरे गीत की सराहना करते रहे हैं। जब मैं युवावस्था में पहुंचा, तब मैंने महसूस किया कि मुझे बहुत कुछ सीखना है। और मैंने लगातार सीखने का प्रयास किया है। जब मैं मंच पर गाता हूं, भावुक हो जाता हूं, ऐसे लोगों का कहना है। तब मैं अपने-आप को भूल जाता हूं। गाते समय मैं इस कदर रम जाता हूं कि सब कुछ भूल जाता हूं। गीत के एक-एक शब्द को मैं अनुभव करता हूं। मुझे ऐसा लगता है कि अगर मैं उन शब्दों को महसूस कर पाऊंगा तो श्रोता भी उनको अच्छी तरह महसूस कर पाएंगे। मैं जीवन भर सीखता रहा हूं। एकलव्य की तरह कई लोगों से मैंने प्रेरणा ग्रहण की है। बहस करता रहा हूं और सीखता रहा हूं। मैंने पॉल राबसन से पूछा था-- आपने अमुक जगह वह गाना गाया था, यहां क्यों नहीं गाया ? पॉल राबसन ने कहा था-- ‘गीत मेरे लिए हथियार है। जहां जिस हथियार की जरूरत होती है, उसी का इस्तेमाल करता हूं।' मैं जब गीत लिखता हूं तो उसमें तत्कालीन समय का चित्र होता है। तब मैं यह मानकर नहीं चलता कि गीत भविष्य में भी उतना ही प्रासंगिक रहेगा। गीत रचने का नियम पता हो तो नियम तोड़ने का साहस किया जा सकता है। मुझे ऐसे गीत अच्छे लगते हैं, जिसमें मिट्टी की गन्ध और आम आदमी के दिल की बात शामिल हो। जिन धार्मिक गीतों में भगवान कृष्ण हम जैसे मनुष्य बन गये हैं, वैसे गीत मुझे पसन्द हैं। फिल्म के संगीतकार के रूप में मेरा मानना है कि संगीत के जरिए मुझे फिल्म को नियंत्रित नहीं करना है। फिल्म की गति को आगे बढ़ाने के लिए मैं संगीत का इस्तेमाल करता हूं। जब कोई घटना या व्यक्ति का कोई पल मुझे सोचने के लिए मजबूर करता है तो मैं उसे पकड़ने की कोशिश करता हूं। जब तक ऐसा कर नहीं लेता, काफी मानसिक परिश्रम करना पड़ता है। प्रत्येक गीत का आदि, मध्य और अन्त होता है। मोती की तरह किसी गीत को चमकाने के लिए सोचने का वक्त चाहिए। हर तरह का सृजन प्रसव वेदना के समान होता है। मैं अपने गीत ‘सागर संगम' को अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मानता हूं। पूरी दुनिया के बारे में सोचते हुए मैंने इस गीत की रचना की थी। इस गीत की रचना मैंने स्वदेश लौटते हुए की थी। मगर इसे सम्पूर्ण करने में काफी समय लगा था। पर्फार्मिंग आर्टिस्ट के रूप में मुझे जनता का अपार स्नेह मिलता रहा है। रात-रात भर हजारों लोग मुझे सुनने के लिए प्रतीक्षा करते रहते हैं। दमदम स्टेशन पर अन्धे भिखारी मेरे गीत गाकर भीख मांगते हैं। मेरे लिए यह स्वीकृति सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के स्वर्ण पदक से कहीं बढ़कर है। भूपेन हजारिका के नाम पर गुवाहाटी में 2001 में ‘भूपेन हजारिका ट्रस्ट' की स्थापना हुई। यह ट्रस्ट भूपेन संगीत का संरक्षण का काम करेगा। संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष के रूप में भूपेन हजारिका ने असम के सत्रीया नृत्य को भारतीय शास्त्रीय नृत्य के रूप में मान्यता दिलवायी है। जैसा कि प्रत्येक किंवदन्ती पुरुष के साथ होता है, भूपेन हजारिका के खिलाफ भी असम के अखबारों में काफी कुछ लिखा जाता रहा है। कल्पना लाजमी के साथ उनके सम्बन्ध को लेकर इन अखबारों ने हमेशा आक्रामक तेवर अपनाया है। सन् 1971 में भूपेन आत्माराम की फिल्म ‘आरोप' में संगीत देने के लिए मुम्बई गये थे। कल्पना लाजमी गीता दत्त की बहन की बेटी है। तभी उससे उनका परिचय हुआ था। पहले श्याम बेनेगल की सहायक थी। बाद में भूपेन हजारिका की ‘स्थायी सचिव' बन गयी। ‘एक पल', ‘रूदाली', ‘दमन' जैसी फिल्मों का निर्देशन करने वाली कल्पना लाजमी ने ‘सानन्दा' को दिये एक साक्षात्कार में कबूल किया था कि वह भूपेन हजारिका के साथ ‘लिव टूगेदर' के सिद्घान्त के तहत जीवन यापन कर रही है। असम के कला समीक्षक मानते हैं कि कल्पना लाजमी ने भूपेन हजारिका को असम से दूर करने का प्रयास किया है और भूपेन हजारिका का ‘अधिकाधिक व्यावसायिक उपयोग' वह करती रही है। गुवाहाटी में एक संवाददाता सम्मेलन में कल्पना और पत्रकारों के बीच झड़प भी हो चुकी है। कल्पना अपने साक्षात्कार में कह चुकी है कि वह भूपेन हजारिका की सेहत को ध्यान में रखते हुए कुछ बंदिशें लगाती रही है, जिसे लेकर असम के लोग बुरा मानते रहे हैं। भूपेन हजारिका के जिन गीतों का अनुवाद नरेन्द्र शर्मा एवं गुलजार ने हिन्दी में किया है, वे गीत देश-विदेश में काफी लोकप्रिय हुए हैं। भूपेन ने अपने पुराने गीतों के धुनों को कल्पना की फिल्मों में इस्तेमाल किया है। समीक्षक मानते हैं कि ‘दमन' और बाद के म्यूजिक एलबमों में अनुवाद का स्तर सही नहीं है, क्योंकि स्तरीय गीतकारों ने उनका अनुवाद नहीं किया है। किंवदन्ती पुरुष भूपेन हजारिका आज असम की जनता के हृदय में वास करते हैं। अपने बारे में भूपेन हजारिका ने कहा भी है-- ‘मुझे बुढापे का अहसास सताता नहीं है। मेरी जीवन-लालसा अभी भी खत्म नहीं हुई है। मैं इस धरती पर बहुत दिनों तक जीवित रहना चाहता हूं। पहले सोचता था गाते-गाते जब पचास साल पूरे हो जाएंगे तो गाना छोड दूंगा। किसी एकान्त में जाकर बैठ जाऊंगा। मगर मनुष्य के जीवन की राह पहले से निर्धारित नहीं होती, यह बात मैं आज महसूस कर रहा हूं। अब सोचता हूं, मेरे जैसे व्यक्ति के लिए सेवानिवृत्त होना जरूरी नहीं है।' |
05-11-2011, 06:45 PM | #18 |
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Re: भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि
भूपेन हजारिका का साहित्य
गद्य 1. सुन्दरर न दिगन्त 2. सुन्दरर सरू बड आलियेदि 3. समयर पखी घोडात उठि 4. ज्योति ककाईदेऊ 5. विष्णु ककाईदेऊ 6. कृष्टिर पथारे-पथारे 7. दिहिंगे दिपांगे 8. बोहाग माथो एटि ऋतु नहय 9. बन्हिमान लुइतर पारे-पारे 10. नंदन तत्वर कर्मीसकल 11. मई एटि यायावर 12. संपादकीय गीत संग्रह 1. जिलिकाबो लुइतरे पार 2. संग्राम लग्न आजि 3. आगलि बांहरे लाहरी गगना 4. बन्हिमान ब्रह्मपुत्र 5. गीतावली शिशु साहित्य 1. भूपेन मामार गीते माते अ आ क ख पटकथा 1. चिकमिक बिजुली 2. एरा बाटर सुर 3. माहुत बन्धुरे पत्रिकाओं का संपादन 1. न्यू इंडिया - न्यूयार्क, 1949-50 (अमेरिका में भारतीय छात्र संघ का मुखपत्र) 2. गति (कला पत्रिका) - गुवाहाटी, 1964-67 3. बिन्दु (लघु पत्रिका) - गुवाहाटी, 1970 4. आमार प्रतिनिधि (मासिक पत्रिका) - कलकत्ता, 1964-80 5. प्रतिध्वनि (मासिक पत्रिका) - गुवाहाटी |
05-11-2011, 06:46 PM | #19 |
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Re: भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि
भूपेन हजारिका को दी गयी विविध उपाधियां
1. सुधाकण्ठ 2. पद्मश्री 3. संगीत सूर्य 4. सुर के जादूगर 5. कलारत्न 6. धरती के गन्धर्व 7. असम गन्धर्व 8. गन्धर्व कुंवर 9. कला-काण्डारी 10. शिल्पी शिरोमणि 11. बीसवीं सदी के संस्कृतिदूत 12. यायावर शिल्पी 13. विश्वबन्धु 14. विश्वकण्ठ |
05-11-2011, 06:48 PM | #20 |
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Re: भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि
भूपेन हजारिका की पसन्द/नापसंद।
प्रिय रंग : लाल और सफेद प्रिय फूल : रातरानी प्रिय भोजन : भात और मछली का झोल प्रिय मछली : कोई भी छोटी मछली प्रिय चिडिया : पण्डुक प्रिय पेड़ : बरगद प्रिय कलाकार : शंकरदेव प्रिय जगह : तेजपुर प्रिय साहित्यकार : लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा प्रिय गीत : जिसके बोल सुन्दर और शाश्वत हों प्रिय फिल्म : अकिरा कुरोसोवा की फिल्में/विशेष रूप से ‘रशमेन' प्रिय फिल्म निर्देशक : अकिरा कुरोसोवा कब दुःख होता है : जब सुख की मात्रा ज्यादा हो जाती है कब हंसी आती है : जब नेता अभिनेता बनने की कोशिश करते हैं। जब नेता खराब अभिनय करने लगते हैं तब हंसी रुक नहीं पाती। कब गुस्सा आता है : नमकहरामों को देखकर। वैसे अब पहले की तरह गुस्सा नहीं आता। मुख्य शत्रु : स्वयं। स्वयं से ही डर लगता है। कब तक गाएंगे : अन्तिम दम तक। मनोरंजन : फुरसत नहीं मिलती : जरा-सा वक्त मिलता है तो चित्र बनाते हैं। व्यंजन तैयार करना भी अच्छा लगता है। समालोचना : समालोचना का स्वागत करते हैं। एक गीत भी लिखा है - ‘समालोचना की आग में तपाकर मुझे विकसित करो'। परन्तु अगर सृजन की तुलना में व्यक्ति केन्द्रित हो तो मन पर चोट लगती है। |
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