Re: कुछ अपनी कुछ जग की
मजबूरी
बचपन में सरोज जब अपने साथियों को काजू-मेवे खाते हुए देखता तो उसके मुंह में पानी भर आता. उसका मन करता कि वो भी जी भर कर काजू-मेवे खाए. काजू-मेवे वो खा नहीं सकता था.उसके माँ-बाप गरीब थे. इतने गरीब के वे अपने बेटे के लिए मूंगफली भी नहीं खरीद सकते थे. दोस्तों से काजू-मेवा मुफ्त में लेकर खाना सरोज के लिए भीख मांगने के बराबर था. कोई उसपर तरस खा कर काजू-मेवे के कुछ दाने दे,ये भी उसको मंज़ूर नहीं था. एक दिन सोहन ने काजू के कुछ दाने उसको दिए थे लेकिन उसने न कह दिया था.
बचपन बीता यौवन आया. सरोज की काजू-मेवे खाने की चाह पूरी न हो सकी . गरीबी उसे घेरे रही.
बुढापे का प्रवेश हुआ. गरीबी ने सरोज का पीछा नहीं छोडा.
एक दिन सरोज घर लौट रहा था. उसकी नज़र एक बोर्ड पर पड़ी. लिखा था-” एक रूपये की लोटरी टिकेट खरीदो और अपनी गरीबी भगाओ.” उस की जेब में एक रुपया ही था. पढ़ कर वो बढ़ गया..कुछ कदम बढ़ा ही था, वो मुड़ पडा. मन मारकर उसने ज़ेब से एक रुपया निकाला और लोटरी का टिकेट खरीद लिया.
सरोज की लोटरी लग गयी. खुशी को वो बर्ताश्त नहीं कर सका. हार्ट अटैक से उसे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा. ठीक हुआ तो हार्ट स्पेशलिस्ट ने उसे डाएटिशियन के पास भेज दिया.
चूँकि सरोज को कोलेस्ट्राल भी था, इसलिए डाएटिशियन ने उसे ऐसा डाएट चार्ट बना कर दिया जिसमें चिकनी चीज़ों की साथ-साथ काजू-मेवे खाना उसके लिए बिलकुल वर्जित था.
उसने पढ़ा तो वो मन मार कर रह गया.
ज़ेब में ढेर सारे रुपयों -पैसों के होने पर भी सरोज काजू-मेवे नहीं खा सकता था.
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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