17-09-2011, 06:43 PM | #13 |
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Re: हास्य कहानियाँ
हमसे बस एक ही रोटी बन सकी
हमारी पत्नी बहुत दिनों से घर जाने की जिद कर रही थीं मगर हम हमेशा मना कर देते थे। जब एक बार उन्होंने ताना दिया कि मैं जानती हूँ मेरे बिना घर नहीं सँभल सकता न इसीलिए आप मुझे नहीं जाने देते, तो हमने तुरंत उन्हें उनके घर भेज दिया और कह दिया कि तुम क्या समझती हो हम घर नहीं सँभाल सकते। जाओ, और जब तक तुम्हारा मन करे, अपने घर रहना। पत्नी के जाने के बाद हम होटल पर खाना खाने लगे थे, मगर जब देखा कि होटल में खाने पर पैसे भी ज्यादा खर्च होते हैं और पेट भी खराब होता जा रहा है तो हमने घर में ही खाना बनाना तय किया। उसी दिन हम खाना बनाने की विधि नाम की एक किताब भी खरीद लाए। अगले दिन हमने मेज पर किताब खोलकर रख ली और उसमें से पढ़कर एक गिलास आटा थाली में रख लिया। फिर किताब में लिखे अनुसार उसमें नमक मिला लिया। पानी डालकर गूँथ लिया और फिर स्टोव जलाकर उस पर तवा रख दिया। एक रोटी बेलकर तवे पर डाल भी दी। इस तरह एक रोटी तैयार हो गई। अब हमने दूसरी रोटी बेली और तवे पर डाल दी। मगर अभी तवे पर रोटी डाले एक मिनट भी न हुआ था कि वह तवे से चिपक गई और तीन मिनट में तो जलकर राख हो गई। हमने तीसरी रोटी बेल कर डाली, पर उसका भी दूसरी जैसा ही हाल हुआ और फिर बाकी रोटियों का भी। आखिर मन मारकर हम एक रोटी खाकर रह गए। हमारी समझ में नहीं आया कि बाकी रोटियाँ जल क्यों गईं ? हमने राजू की मम्मी से जाकर पूछा तो उन्होंने बताया, ‘‘तवा बहुत ज्यादा गरम हो गया होगा और तुमने एक रोटी जलने के बाद तवे को साफ नहीं किया होगा, न स्टोव मंदा किया होगा।’’ दूसरे दिन हम रोटी के झमेले में न पड़कर खिचड़ी बनाने लगे। राजू और रानी भी आ गए थे। हमने स्टोव पर कुकर चढ़ाकर उसमें एक गिलास पानी और एक गिलास चावल-दाल डाल दिए। तभी राजू बोला, ‘‘भाई साहब, दो गिलास पानी और डालिए।’’ तभी रानी बोली, ‘‘नहीं भाई साहब, एक गिलास और डालिए।’’ हमने किताब में देखा। उसमें लिखा था। मनमर्जी। सो हमने तुरंत दो गिलास पानी राजू के कहने पर और एक रानी के कहने पर और एक गिलास अपनी मर्जी से डाल दिया। कुकर बंद कर सीटी लगाई और गप्पें मारने लगे। इधर हम गप्पें मारते रहे उधर सीटियाँ बजती रहीं। अचानक घड़ाम की आवाज पर हम तीनों ने स्टोव की तरफ देखा। हमारा कुकर जमीन में ओंधा पड़ा था। तमाम खिचड़ी पास में टंगे कपड़ों पर जा लगी थी। हमें काफी देर ढूँढ़ने पर भी कुकर का ढक्कन नहीं मिला। अचानक राजू ने हमें बताया, ‘‘भाई साहब, ढक्कन तो छत से चिपका पड़ा है।’’ अगले दिन इतवार था। हमारे तमाम कपड़े खिचड़ी में सन चुके थे। हमने सोचा, क्यों न आज कपड़े ही धो डालें। हम कपड़े और टब लेकर बाथरूम में जा पहुँचे। टब में कपड़े डालकर नल खोल दिया। अचानक हमें ध्यान आया कि साबुन तो है ही नहीं। हम तुरंत पैसे लेकर बाजार गए, मगर इतवार को तो हमारे यहाँ का बाजार बंद रहता है। अब क्या हो ? हमने तुरंत बस पकड़ी और दूसरी कॉलोनी जा पहुँचे। वहाँ से साबुन लेकर लौटे तो अपने घर का हाल देखकर हमारी आँखें फटी की फटी रह गईं। हुआ यह कि हम तो नल बंद करना ही भूल गए थे। इधर इस बीच दो ढाई घंटे नल लगातार चलता रहा सो पूरे मकान और गली में पानी भरा पड़ा था। हमारे कपड़े गली में पानी पर ऐसे तैर रहे थे जैसे समुद्र में मोटरबोट चल रही हो। हमने झटपट कपड़े समेटे। नल बंद किया और कपड़े व टब कमरे में पटककर मकान में ताला डाल तुरंत पत्नी के मायके जाने वाली गाड़ी में जा बैठे। अगले दिन उन्हें किसी तरह मनामनूकर घर ले आए। अब उसी दिन से हमारी पत्नी जब देखो तब ताना देती रहती हैं, ‘‘कहो बड़े आए थे घर चलाने वाले। पता लग गया न घर चलाना हँसी खेल नहीं है।’’ अब हम सिर झुकाए चुपचाप उनकी बात सुनने के सिवा कर भी क्या सकते हैं। |
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