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Originally Posted by libya
इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झाँकूँ उसके पीछे तो रुस्वाई ही रुस्वाई है
यों लगता है सोते जागते औरों का मोहताज हूँ मैं
आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है
देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है
तोड़ गये पैमाना-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच "क़तील" कि बस इक यार तेरा हरजाई है
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वाह क्या अन्दाज है कतील शिफाई का - आँखेँ मेरी अपनी हैँ पर उनमेँ नीँद पराई है ।लिब्या जी बशीर बद्र की दिल को छूने वाली रचनाओँ से भी बावस्ता कराईये ।