09-03-2013, 02:04 PM | #16 |
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Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम
सूफ़ी’ ‘वहदतुल-वजूद’ अर्थात ‘ईश्वर सर्व-व्यापी है’ के नियम में विश्वास रखते हैं. मानव ह्रदय उसका प्रिय निवास स्थान है. अबू-सईद अबुल खैर ने अपनी एक रुबाई में इस बात को बड़े सुन्दर ढंग से समझाया है:
पुर्सेद यकीं मंजिले आन मेहर कुशल, गोफ्तम कि दिले मन अस्त ऊरा मंजिल गोफ्ता कि दिलत कुजास्त गोफ्तम बर ऊ पुर्सीद कि ऊ कुजास्त गोफ्तम दर दिल. (भावार्थ: किसी ने प्रश्न किया कि प्रियतम अथवा ईश्वर कहाँ निवास करता है? कवि कहता है कि मेरे दिल में रहता है. फिर प्रश्न पूछा गया कि तुम्हारा दिल कहाँ रहता है? कवि कहता है कि उस ईश्वर के पास. फिर प्रश्न हुआ कि वह वास्तव में कहाँ रहता है? कवि ने बताया कि दिल के अन्दर). सूफियों के अनुसार मानव ह्रदय में ही ईश्वर का निवास है अतः किसी का ह्रदय नहीं दुखाना चाहिए. किसी के प्रति बुरा व्यवहार करके उसका दिल दुखाना ईश्वर के प्रति किये गए अपराध के ही समान है. सूफ़ी संत नज़ीरी के शब्दों में इसे निम्न प्रकार समझाया गया है: ज़ खुद हरगिज़ नै आराज़म दिली रा, कि मी तरसम दरे ऊ जाए तू बाशद. अर्थात मैं किसी के ह्रदय को कष्ट नहीं देता क्योंकि मैं जानता हूं वहां तू रहता है. इस कारण सूफ़ी परोपकार और दीं दुखियों की सेवा को हज रूपी तीर्थ यात्रा से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं. ‘हाफ़िज़’ का कहना है कि ‘तू (सूफ़ी) जो चाहे कर, पर, दूसरों को कष्ट न दे क्योंकि हमारे आचार-शास्त्र में इससे बढ़ कर और कोई पाप नहीं है’. उपरोक्त सूफ़ी विचार धारा में महर्षि वेदव्यास का कथन जैसे गुंजायमान होता है: अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचन-द्वयं परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्. (अट्ठारह पुराणों में व्यास जी ने दो ही बातें कही हैं – परोपकार पुण्य है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना ही पाप है). Last edited by rajnish manga; 11-03-2013 at 01:03 PM. |
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