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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
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#13 | |
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![]() अलैक जी, कुछ ही शब्दों में आपने शैख़ सादी के सम्पूर्ण मानवता को समर्पित जीवन और कृतित्व का जो सुन्दर वर्णन किया है उससे उनके प्रति आपकी अनन्य श्रद्धा भी निसृत हो रही है. आपकी बेशकीमती टिप्पणी के लिए आपका आभारी हूँ, अलैक जी. |
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#14 |
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मौलाना रूमी
मौलाना जलालुद्दीन रूमी (1207-1273 ई.) इस्लाम की सूफी विचारधारा के महानतम शायरों में से एक माने जाते हैं. उन्होंने ही ‘मौलवी’ या ‘नृत्य करने वाले दरवेश’ नामक सम्प्रदाय (order)की नींव डाली जो आज भी विद्यमान है. रूमी की कथाएं इन्हीं मौलवी दरवेशों के सम्मान में लिखी गयीं और उनकी वृहद् रचना ‘मसनवी’ भी उसी स्रोत से जुड़ी हुयी है. यह फ़ारसी की एक विशाल ग्रन्थावली है जिसके छह भाग हैं. और जिसमे दोहों की तरह 40000 तुकांत युग्म शामिल हैं. इसमें असंख्यों कथाओं, प्रसंगों और प्रतीकों के माध्यम से सूफ़ी विचारधारा की व्याख्या की गई है व उसे समझाने का प्रयास किया गया है. कहा जाता है कि रूमी ने चौदह वर्ष तक अपने एक पट्ट शिष्य को उठते-बैठते, खाते-पीते, घूमते हुए या नहाते हुए, दिन या रात अर्थात जब भी उन्हें कोई विचार सूझता था तो उसी वक़्त बोल कर लिखवा देते थे. यही कारण है कि मसनवी की कथाएं और प्रसंग किसी ख़ास क्रम में नहीं दिखाई देते. लेकिन इसके बावजूद इसको इसमें शामिल गायन योग्य और प्रेरणादायक कविताओं के लिए आज भी सम्मानपूर्वक याद किया जाता है. इसमें प्राचीन जन श्रुतियों, कुर’आन कथाओं, संतों के अनुभवों, व्यवहारिक और विवेकपूर्ण व कड़वे, मीठे, सच्चे, गहरे अनुभवों का खजाना मौजूद है. इसे हम सूफ़ी दर्शन की बाइबिल कह सकते हैं.इस मसनवी का उर्दू और अंगरेजी के अलावा विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. |
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#15 |
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मसनवी-ए-रूमी / कुछ कथाएं
1. आधी ज़िन्दगी और पूरी ज़िन्दगी एक बार एक नहवी (व्याकरणविद)कश्ती में सवार हुआ. उसको अपने इल्म पर बड़ा नाज़ था. उसने कश्ती वाले से पूछा, “क्या तुमने कभी कुछ नहव पढ़ी है? कश्तिवाले ने जवाब दिया, “नहीं.” नहावी बोला, “अफ़सोस तुमने अपनी आधी उमर जाया कर दी.” कश्ती वाले को बड़ा बुरा लगा मगर वह खामोशी से कश्ती चलाता रहा. इत्तफाकन कश्ती भंवर में फंस गई. अब कश्ती वाले ने नह्वी से पूछा, “क्या आपने तैरना सीखा है?” “नहीं भाई,” उस ने जवाब दिया. कश्ती वाले ने कहा, “तो अफ़सोस आपने अपनी पूरी ज़िन्दगी ज़ाया कर दी, क्योंकि कश्ती भंवर में डूबने वाली है.” |
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#16 |
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2. बीवी और बिल्ली
एक आदमी की बीवी बड़ी मक्कार और चोर थी. वह खाने के लिए जो कुछ घर लाता था, उसकी बीवी खा जाती थी. एक दिन उस के घर एक मेहमान आने वाला था. वह आदमी मेहमान के लिए निहायत उम्दा गोश्त लाया. उसकी बीवी ने चुपके से कबाब बना कर खा लिए. जब मेहमान आया तो आदमी ने कहा, “गोश्त कहाँ है? मेहमान को अच्छा खाना देना चाहिये.” औरत ने जवाब दिया, ”गोश्त तो बिल्ली खा गई. बाजार से और ले आओ.” आदमी को बहुत गुस्सा आया. उसने तराजू उठाई और कहा, “मैं बिल्ली को तोलता हूँ.” बिल्ली का वजन एक सेर निकला. आदमी ने कहा, “मेरी जान, गोश्त का वजन एक सेर एक छटांक था. बिल्ली का वजन सिर्फ एक सेर है. अगर ये बिल्ली है तो गोश्त कहाँ है? और अगर ये गोश्त है तो बिल्ली कहाँ है? फ़ौरन ढूंढो.” (साभार- श्री गोपी चंद नारंग – Readings in literary Urdu prose) |
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#17 |
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मौलाना जलालुद्दीन रूमी के विशाल सूफ़ी काव्य विरासत को हम संस्कृत के एक महाकवि के शब्दों में इस प्रकार याद करना चाहते हैं :-
जयंति ते सुकृतिनो रससिद्धा: कविश्वरा: नास्ति येषां यश:काये जरामरणजं भयम् (नीतिशतक / भर्तृहरि) (भावार्थ: जय हो उन श्रेष्ठ रस सिद्ध कवियों की, जिनकी यश-काया को जरा-मरण का भय नहीं है अर्थात जिनकी कृतियाँ अमर हैं) तथा महाकवि इक़बाल के शब्दों में :- ज़ अशआरे जलाल अलदीम रूमी. ब: दीवारे हरीमे दिल बयाबीज़. ज़ चश्म मस्त रूमी वाम करदम सुरूरे अज़ मुकामे किबर याई. (इक़बाल) (भावार्थ: अपने ह्रदय मंदिर की दीवारों को रूमी की कविताओं से सजाओ. रूमी की मस्त आँखों के माध्यम से मैंने दिव्य सौन्दर्य का पान किया) Last edited by rajnish manga; 09-03-2013 at 01:58 PM. |
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#18 |
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सूफ़ी मत एवम् परम्परागत इस्लामी धारणाएं
इस्लाम के मूल सिद्धांतों में सर्वप्रथम है ‘कलमा-ए-शहादत’ अर्थात यह मानना कि ईश्वर (अल्लाह) एक है और मोहम्मद उसके पैग़म्बर या रसूल हैं. प्रत्येक मुसलमान के लिए इसका पाठ एवं इस पर अटूट विश्वास रखना अनिवार्य है. सूफ़ी मतावलंबियों के लिए भी अल्लाह एक है और कलमा पढ़ने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है. किन्तु वे इसके मौखिक पारायण के कायल नहीं हैं. इस सिद्धांत के सम्बन्ध में सूफ़ी-दृष्टि का निरूपण अबू-सईद अबुल खैर ने किया है: अज़ साहत दिले ग़ुबार कसरत रफ्तन बेज़ान कि बे लरज़ा दर वहदत सफ्तन मग़रूर सखुन म शव कि तौहीदे ख़ुदा वाहद दीदन बूद न वा हद गुफ्तन. ( भावार्थ: एकेश्वरवाद में विश्वास उस एक ईश्वर को देखने से प्राप्त होता है न कि बारम्बार यह दोहराने से कि ‘ईश्वर एक है’) |
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#19 |
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इस्लाम का दूसरा बुनियादी उसूल है प्रार्थना या सलात. प्रत्येक मुसलमान के लिए वाजिब है कि वह एक दिन में पांच बार निश्चित समय पर नमाज़ पढ़े. सच्ची प्रार्थना वही है जो पूर्णरूप से एकाग्र चित्त होकर ध्यानपूर्वक की जाए. सूफियों का कहना है कि सच्चा साधक चौबीसों घंटे ईश भक्ति में ही डूबा रहता है.उसकी हर गतिविधि उसकी प्रार्थना का ही भाग है. उसकी इबादत मात्र एक अनुष्ठान नहीं है.
तीसरा प्रमुख सिद्धांत है ज़कात अर्थात दान देना. इस के अनुसार प्रत्येक मुसलमान के लिए आवश्यक है कि वह अपनी कमाई का एक हिस्सा गरीब और ज़रूरतमंद लोगों की मदद के लिए खर्च करे. चूंकि सूफ़ी पूर्णतया अपरिग्रह्वादी होते हैं अर्थात न तो उनकी कोई कमाई होती है और न ही कोई संपत्ति. सिद्धांतत: सूफ़ी मान्यता के अनुसार सच्चा दान अपनी सेवा का जन-समर्पण है, धन का नहीं. अतः वे लोग सदा ही दुखी एवं पीड़ित लोगों के सेवा में लगे रहते हैं. |
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#20 |
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इस्लाम का चौथा सिद्धांत है रमजान के पवित्र महीने में दिन भर रोज़ा (उपवास) रखना. सूफ़ी संत अपना जीवन यापन परवरदिगार के भरोसे करते थे. वह भिक्षा भी नहीं मांगते थे. भक्तजनों द्वारा श्रद्धापूर्वक जो कुछ उन्हें दिया जाता था, उसी में अपना गुजर बरस करते थे. भोजन भी बहुत कम और सादा होता था. इस प्रकार सूफ़ी संत जीवन भर लगभग उपवास की स्थिति में ही रहते थे.
इस्लाम का पाँचवाँ सिद्धांत है हज करना अर्थात् पवित्र नगरी मक्का की तीर्थ यात्रा करना. हर स्वस्थ और आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान के लिए जीवन में एक बार मक्का जाना फ़र्ज़ है. इस तीर्थ यात्रा के केंद्र में है ‘काबा’. जिस मस्जिद में काबा यानि पवित्र काला पत्थर स्थित है उसे ‘बैत–अल्लाह’ अर्थात ‘खुदा का घर’ कहा जाता है. |
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