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Old 14-06-2012, 08:07 PM   #11
anjaan
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बड़ा कौन - लक्ष्मी या सरस्वती

इस कहानी में ज्ञान की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। संस्कृत में भी कहा गया है "विद्या धनम् सर्व धनम् प्रधानम्"। इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि ज्ञान की महिमा सर्वोपरि है। ज्ञानी की पूछ हर जगह होती है।

एक बार लक्ष्मी और सरस्वती में यह बहस होने लगी कि हम दोनों में बड़ा कौन है? लक्ष्मी माँ कहती थीं कि मैं बड़ी हूँ और सरस्वती माँ कहती थीं कि मैं। बहुत समय तक बहस चली लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकला। अभी बहस चल ही रही थी तभी वहाँ से एक भिखमंगा गुजरा। लक्ष्मी माँ ने कहा कि मैं इस भिखमंगे को अमीर बना दूँगी इस पर सरस्वती माँ ने हँसकर कहा कि मैं ऐसा नहीं होने दूँगी। इसके बाद माँ लक्ष्मी ने भिखमंगे के रास्ते में सोने की ईंट गिरा दीं और हर्षित हो गईं कि सोने की ईंट पाकर भिखमंगा अमीर हो जाएगा।
भिखमंगा अभी सोने की ईंट के दो चार कदम इधर ही था तभी माँ सरस्वती की उसपर कृपा हो गई। भिखमँगा सोचा कि मेरे पास तो दृष्टि है, सबकुछ अच्छी तरह से दिखाई दे रहा है इसके लिए चलने में भी परेशानी नहीं हो रही है लेकिन अंधे लोग कैसे चलते होंगे? थोड़ा मैं भी अंधा बनकर देखूँ। इसके बाद भिखमंगा आँख बंद करके चलने लगा और सोने की ईंट को पार कर गया। माँ लक्ष्मी ने अपना सर पीट लिया और माँ सरस्वती को अपने से बड़ा मान लिया।
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Old 14-06-2012, 08:08 PM   #12
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Default Re: रोचक लोककथाए.

बापू उसे मत फैंकना तुम्हारे काम आएगा

सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद किरपालू और उसकी बीवी धन्नो ने सोचा कि रामपुर में जाकर बसा जाय। रामपुर में ही उसका इकलौता बेटा मुरली अपने इकलौते बेटे गप्पू और पत्नी दुलारी के साथ रहता था। वहाँ जाकर किरपालू ने अपना मकान बनवाया और मुरली को जो किराए के मकान में रहता था अपने साथ रहने को कहा। सब कुछ ठीक चल रहा था। अचानक एक दुर्घटना में धन्नो की मृत्यु हो गई। धन्नो के मर जाने के बाद किरपालू तो एकदम गुमसुम हो गया। उसके ग़म में वो स्वयं बीमार पड़ गया।
बाप की यह हालत देख कर मुरली ने उसकी खूब सेवा करनी शुरु कर दी और हर प्रकार से देखभाल की। पिता ने भी देखा कि बेटा कितना ख्याल कर रहा है। किरपालू ने एक दिन मुरली को अपने पास बुलाया और अपनी सारी जायदाद उसके नाम करदी। सब कुछ मिल जाने के बाद अब मुरली के बरताव में परिवर्तन आना शुरु हो गय। वो बाप की अवहेलना करने लगा और दुलारी से भी कह दिया कि बापू जब भी कुछ मागें उसको मत देना।
किरपालू की हालत दिन प्रति दिन बिगड़ती चली गई। एक ओर स्वास्थ्य खराब रहने लग और दूसरी ओर मुरली ने उसके लिए घर से बाहर टूटी हुई खाट डाल दी और ओढ़ने के लिए उस पर एक टाट बिछा दिया। किरपालू अब अपने दिन वहीं पर काटने लगा। दुलारी का व्यवहार तो मुरली से भी खराब था। वो तो बात बात पर गाली पर उतर आती थी। गप्पू यह सब देख रहा था ओर उसको कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।
आख़िर एक दिन किरपालू की मृत्यु हो गई। बाप के मरने पर दुनिया को दिखाने के लिये मुरली बहुत रो रहा था। दुलारी के तो आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। यह सब देख कर गप्पू एक अजीब उलझन में पड़ गया।
दाह संस्कार करने के बाद मुरली घर लौटा। जब अड़ौसी पड़ौसी चले गए तो दुलारी से अकेले में बात कर के बाहर आया और खाट और टाट को उठाने लगा। गप्पू के पूछने पर कि वो उन चीज़ों का क्या करेगा तो मुरली बोला कि वो उसको बाहर फैंक देगा।
इतना सुनना था कि गप्पू एकदम बोल उठा।
"पिताजी उस खाट और टाट को संभल कर रख लीजिएगा। उसे मत फैंकना क्योंकि जब आप बूढ़े होंगे तो यह सब आपके काम आएँगे।"
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Old 14-06-2012, 08:08 PM   #13
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सच्चा सोनार

बात बहुत पुरानी है, वही आज कहानी है । एक गाँव में एक सोनार रहता था । वह सोनारी (गहने बनाने और बेचने का काम) करता था । उसके चार बेटे थे । एक दिन सोनार ने अपने चारों बेटों को बुलाया और पूछा,"तुम सबको मालूम है, सच्चे सोनार की परिभाषा ?" बड़े बेटे ने कहा, "जो बचाए रुपए में से चार आने, हम सच्चा सोनार उसी को माने।" मझले ने कहा, "सच्चे सोनार का है यह आशय, पचास पैसे खुद की जेब में और पचास ही पाएँ ग्राहक महाशय।" सझले ने कहा, "बिल्कुल नहीं! सच्चे सोनार का होना चाहिए यही सपना, रुपये में बारह आना अपना।" अब बारी थी छोटे की, उसने कही बात पते की, "रुपये का रुपया भी ले लो और ग्राहक को खुश भी कर दो।"

चलिए अब आगे की दास्तान सुनते हैं:-
सोनार और उसके बेटों की बातें एक अमीर महाशय सुन रहे थे। उन्होंने सोनार के छोटे बेटे की परीक्षा लेनी चाही। एक दिन अमीर महाशय ने सोनार के छोटे बेटे को अपने घर पर बुलाया और कहा, "मुझे सोने का एक हाथी बनवाना है लेकिन मैं चाहता हूँ कि वह हाथी तुम मेरे घर पर बनाओ।" अमीर महाशय की बात सोनार के छोटे बेटे ने स्वीकार कर ली। वह प्रतिदिन अमीर महाशय के घर पर आने लगा और अमीर महाशय की देख-रेख में हाथी का एक-एक भाग बनाने लगा। शाम को जब सोनार का छोटा लड़का अपने घर पर पहुँचता था तो वहाँ भी पीतल से एक हाथी का एक-एक भाग बनाता था। एक हफ्ते में अमीर महाशय के घर हाथी बनकर तैयार हो गया । सोनार के छोटे बेटे ने अमीर महाशय से कहा, "महाराज, थोड़ा दही मँगाइए, क्योंकि दही लगाने से इस हाथी में और चमक आ जाएगी।" अभी अमीर महाशय दही की व्यवस्था कराने की सोच ही रहे थे तभी घर के बाहर किसी ग्वालिन की आवाज सुनाई दी, "दही ले! दही।" अमीर महाशय ने उस ग्वालिन को बुलवाया। सोनार के बेटे ने कहा, "महाराज! इतनी दही क्या होगी? आप इस ग्वालिन को सौ-पचास दे दीजिए और मैं इस दही की नदिया (बरतन) में हाथी को डुबोकर निकाल लेता हूँ ।" राजा ने कहा, "ठीक है ।" इसके बाद सोनार के छोटे बेटे ने दही में हाथी को डुबोकर निकाल लिया और ग्वालिन अपना दही लेकर फिर बेचने निकल पड़ी । सोनार के बेटे ने अमीर महाशय से कहा, "महाराज! आपका हाथी तैयार है।" अमीर महाशय हँस पड़े और बोले, "एक दिन तो तुम अपने पिता को सच्चे सोनार की परिभाषा बता रहे थे और शत-प्रतिशत कमाने की बात कर रहे थे ।" सोनार का बेटा जोरदार ठहाका लगाया और कहा, "महाराज! मैं अपने पिता से झूठ नहीं बोला। दही बेचनेवाली मेरी पत्नी थी और असली हाथी मेरे घर चला गया और आपको मिला सोने का पानी चढ़ा हुआ नकली हाथी। हुआ यों कि दही की नदिया में यह नकली हाथी पहले से डला हुआ था और मैंने डुबाया तो असली हाथी को लेकिन निकाला इस नकली हाथी को। समझे।" अमीर महाशय हैरान भी थे और परेशान भी, क्योंकि उन्हें सच्चे सोनार की परिभाषा समझ में आ गई थी ।

प्रेम से बोलिए स्वर्णकार महाराज की जय !!
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Old 14-06-2012, 08:09 PM   #14
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पहले मैं तो छोड़ के देखूँ

चुन्नू को गुड़ खाने की बहुत बुरी आदत थी। सारा दिन बस उसको गुड़ चाहिए। परिणम यह हुआ कि उसका फुंसी और फोड़ों से बुरा हाल हो गया। माँ बाप अलग परेशान क्योंकि वो किसी की सुनता नहीं था। बस गुड़ खाने से मतलब।
बहुत जतन किए पर सब बेकार। दवाई का असर तो जब हो जब वो गुड़ खाना छोड़े। बस यही क्रम चलता रहा। कुछ दिन बाद पता चला कि गाँव में एक बहुत सिद्ध साधू आया हुआ है जो सब मुरादें पूरी करता है। चुन्नू के पिता बनवारी लाल ने सोचा कि क्यों न साधू महाराज से बिनती करूँ, शायद कुछ काम बन जाए और इसका गुड़ खाना छूट जाए। यह सोच कर बनवारी लाल चुन्नू को साथ लेकर साधू के पास गया और सारी कहानी सुनाने के बाद बोला कि महाराज इसका कुछ करो। साधू ने पहिले चुन्नू की ओर देखा फिर बनवारी की ओर देख कर कहा कि एक सप्ताह के बाद आना।
एक सप्ताह के बाद बनवारी लाल चुन्नू को लेकर साधू को मिलने गया। साधू ने थोड़ी देर तक चुन्नू की ओर देखा और फिर आँखों में आँखें डाल कर कहा कि बेटा गुड़ खाना छोड़ दो, यह तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है। इतना कह कर साधू ने दोनों बाप बेटे को घर जाने को कहा।
घर पहुँचते ही बनवारी लाल हैरान कि चुन्नू ने गुड़ नहीं माँगा। यही नहीं उसने तो कुछ दिन बाद गुड़ खाना बिल्कुल छोड़ दिया। धन्यवाद देने के लिए बनवारी लाल साधू के पास पहुँचा। धन्यवाद देने के बाद उस ने साधू के पैर पकड़ लिए और पूछा कि महाराज जब आपके बस कहने मात्र पर चुन्नू ने गुड़ खाना छोड़ दिया तो आप ने मुझे एक सप्ताह बाद क्यों बुलाया।
साधू कहने लगे कि बेटा बनवारी लाल, जिस दिन तुम चुन्नू को लेकर आए थे उस दिन मैं ने भी गुड़ खाया हुआ था। उसको कुछ कहने से पहिले मैं यह देखना चाहता था कि क्या मैं भी गुड़ खाना छोड़ सकता हूँ। उस एक सप्ताह में मैं ने गुड़ को हाथ तक नहीं लगाया था। यही कारण है कि मेरे कहने का चुन्नू पर फ़ौरन असर हो गया।
चुन्नू को कुछ शिक्षा देने से पहिले मैं तो छोड़ के देखूँ कि यह मेरे लिए सम्भव है या नहीं तभी मैं उसको कुछ कह सकता हूँ।
यह सुन बनवारी लाल ने साधू के पैर पकड़ लिए और घर की ओर चल पड़ा।
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Old 14-06-2012, 08:09 PM   #15
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चावल बन गया धान

नमस्कार, क्या आप लोगों को पता है कि बहुत पहले खेतों में चावल बोया जाता था और चावल ही काटा जाता था। मनन कीजिए, कितना अच्छा था वह समय, जब ना धान पीटना पड़ता था और ना ही चावल के लिए उसकी कुटाई ही करनी पड़ती थी। खेत में चावल बो दिया और जब चावल पक गया तो काटकर, पीटकर उसे देहरी (अनाज रखने का मिट्टी का पात्र) में रख दिया। तो आइए कहानी शुरु करते हैं; चावल से धान बनने की।
एकबार बाभन टोला (ब्राह्मण टोला) के ब्राह्मणों को एक दूर गाँव से भोज के लिए निमंत्रण आया। ब्राह्मण लोग बहुत प्रसन्न हुए और जल्दी-जल्दी दौड़-भागकर उस गाँव में पहुँच गए। हाँ तो यहाँ आप पूछ सकते हैं कि दौड़-भागकर क्यों गए। अरे भाई साहब, अगर भोजन समाप्त हो गया तो और वैसे भी यह कहावत ‘एक बोलावे चौदह धावे’ ब्राह्मण की भोजन-प्रियता के लिए ही सृजित की गई थी (है)। बिना घुमाव-फिराव के सीधी बात पर आते हैं। वहाँ ब्राह्मणों ने जमकर भोजन का आनन्द उठाया। पेट फाड़कर खाया, टूटे थे जो कई महीनों के। भोजन करने के बाद ब्राह्मण लोग अपने घर की ओर प्रस्थान किए।
पैदल चले, डाड़-मेड़ से होकर क्योंकि सवारी तो थी नहीं। रास्ते में चावल के खेत लहलहा रहे थे। ब्राह्मण देवों ने आव देखा ना ताव और टूट पड़े चावल पर। हाथ से चावल सुरुकते (बाल से अलग करते) और मुँह में डाल लेते। उसी रास्ते से शिव व पार्वती भी जा रहे थे । यह दानवपना (ब्राह्मणपना) माँ पार्वती से देखा नहीं गया और उन्होंने शिवजी से कहा, ”देखिए न, ये ब्राह्मण लोग भोज खाकर आ रहे हैं फिर भी कच्चे चावल चबा रहे हैं।” शिवजी ने माँ पार्वती की बात अनसुनी कर दी। माँ पार्वती ने सोचा, मैं ही कुछ करती हूँ और सोच-विचार के बाद उन्होंने शाप दिया कि चावल के ऊपर छिलका हो जाए।
तभी से खेतों में चावल नहीं धान उगने लगे। धन्य हे ब्राह्मण देवता।
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Old 14-06-2012, 08:10 PM   #16
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करत-करत अभ्यास ते

बात उन दिनों की है जब काशी विद्या के केन्द्र के रूप में विश्व-प्रसिद्ध था । विद्याध्ययन के लिए, दूर-दूर से लोग यहाँ आते थे । विद्याध्ययन की ललक लिए एक गरीब ब्राह्मण कुमार काशी पहुँचा । वह एक योग्य गुरु के सानिध्य में विद्याध्ययन करने लगा । वह अपने गुरु का बहुत प्रिय था पर पढ़ाई में फिसड्डी था । कई सालों तक वह परीक्षा में अनुत्तीर्ण होता रहा । बार-बार परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के कारण उसका मन पढ़ाई से उचट गया । एक दिन बोरिया-बिस्तर समेटकर वह अपने गाँव की ओर चल पड़ा । उसके दिमाग में अब एक ही बात चल रही थी, "पढ़ने नहीं जाऊँगा और भीख माँगकर खाऊँगा" । उस समय भिक्षाटन ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार समझा जाता था । आप इसका यह अर्थ कत्तई न निकालें कि उस समय ब्राह्मण आलसी होते थे ।
चलते-चलते वह ब्राह्मण कुमार, दोपहर को एक गाँव में पहुँचा । कड़ी धूप थी और उसका पूरा शरीर पसीने में नहाया हुआ था। उसकी ज्ञान-पिपासा तो मर गई थी पर जल-पिपासा तेज हो गई थी । वह एक कुएँ पर पहुँचा और गठरी से लोटी-डोरी निकालकर पानी भरने लगा । पानी भरते समय अचानक उसके दिमाग में कुछ कौंधा । वह विस्मय से कभी रस्सी को देख रहा था तो कभी कुएँ की जगत को ।
उसने सोचा कि जब इस घासफूस की रस्सी के बार-बार घर्षण से पत्थर (कुएँ की जगत) भी घिस जाता है । उसमें रस्सी के निशान भी पड़ जाते हैं तो विद्या के बार-बार अभ्यास से मेरा दिमाग क्यों नहीं घिस सकता । इसके बाद उसके कदम पुनः विद्या प्राप्ति के लिए काशी की ओर मुड़ गए । कालान्तर में उसकी मेहनत रंग लाई और उसकी गणना काशी के बड़े-बड़े विद्वानों में होने लगी ।

सच ही कहा गया है-
करत-करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान,
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निशान ।
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Old 14-06-2012, 08:11 PM   #17
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कठपुतली का नाच

छत्रपुर के ठाकुर रणवीर सिंह की उदारता और न्याय से सब जनता भली भाँति परिचित थी। उन के दीवान करम चन्द का तो बस कहना ही क्या। उनकी चतुरता और ज्ञान का सब को पता था। दीवानजी छत्रपुर के सारे काम-काज को देखते थे। उनके होते हुए ठाकुर रणवीर सिंह को किसी भी तरह की फ़िक्र नहीं था। रणवीर सिंह दीवान जी को बहुत मानते थे और हर बात में उनकी सलाह लेते थे। रियासत बहुत बड़ी थी इस लिये दीवानजी को काफ़ी घूमना फिरना पड़ता था। निश्चय है कि दीवानजी की तनख्वाह भी काफ़ी थी। ठाकुर साहिब के निजी नौकर सुन्दर के इलावा सारी जनता दीवानजी को बहुत मान देती थी। सुन्दर को सदा यही शिकायत रहती थी कि वो ठाकुर साहिब की सेवा में सदा लगा रहता है मगर उसको दीवानजी से बहुत कम पैसे मिलते हैं। यह बात रह रहकर उसको परेशान करती थी। एक दिन ठाकुर साहिब अपनी रियासत का दौरा करने निकले। उनके साथ सुन्दर भी था। अकेले में मौका पाकर सुन्दर ने अपने दिल की बात ठाकुर साहिब से कही और विनती की कि उसको भी दीवानजी के बराबर तनख्वाह मिलनी चाहिए। रणवीर सिंह ने सुन्दर की बात बहुत ध्यान से सुनी और कहा कि “तुम ठीक कहते हो सुन्दर, तुम्हारी बात पर हम घर जाकर फ़ैसला करेंगे”।
इतने में कुछ शोर शराबे की आवाज़ सुनाई पड़ी। ठाकुर साहिब ने सुन्दर को कहा कि वो जाकर देखे कि शोर कैसा है। सुन्दर भागा हुआ गया और आकर बताया कि वो बंजारे हैं।
“वो तो ठीक है, मगर वो कहाँ से आए हैं”, ठाकुर साहिब ने पूछा।
सुन्दर फिर भाग कर गया और आकर बोला कि वो राजस्थान से आए हैं।
“वो कौन लोग हैं ज़रा पता तो लगाओ”, ठाकुर साहिब ने फिर पूछा।
सुन्दर फिर भाग कर गया और आकर बताया कि वो कठपुतली वाले हैं।
“वो यहाँ क्या करने आएँ हैं”, ठाकुर साहिब ने फिर प्रश्न किया।
सुन्दर फिर भाग कर गया और आकर बताया कि वो कठपुतली का नाच दिखाने आए हैं।
“सुन्दर, जाकर पता तो करो कि क्या ये लोग आज रात को हमें पुतली का नाच दिखाएँगे।” सुन्दर फिर भागा गया और आकर बताया कि वो लोग आज रात को पुतली का नाच दिखाएँगे।
अब तक सुन्दर थक चुका था और उसको समझ नहीं आरहा था कि ठाकुर साहिब ये सब क्यों कर रहे हैं। छोटी छोटी बातों को लेकर उसे क्यों परेशान कर रहे हैं। इतने में दीवनजी आये और ठाकुर साहिब ने उनको भी यही सवाल किया कि वो जाकर देखें कि शोर कैसा है। दीवानजी गए और थोड़ी देर में आकर बताया कि ये लोग राजस्थान के बनजारे हैं, कठपुतली का नाच कराते हैं। सुना है कि ये लोग अपने काम में बहुत माहिर हैं, इसी लिए मैं ने इनसे कहा है कि आज रात को ये यहाँ पर आपको अपनी कला का प्रदर्शन दिखाएँ।

सुन्दर ये सब देख रहा था। इस से पहले कि ठाकुर साहिब कुछ कहें उस को अपनी गलती का एहसास हो गया। वो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और बोला, “अन्नदाता आज आपने मेरी आँखें खोल दी। मैं जहाँ भी हूँ और जैसा भी हूँ ठीक हूँ। बिना किसी कारण मैं ने दीवान जी की शान में ग़लत सोचा। इस बात की मैं क्षमा चाहता हूँ।”
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कन्हैया की हाज़िर जवाबी

बचपन में दौलत राम बहुत ग़रीब था। समय के साथ साथ उसने शहर में जाकर ख़ूब मेहनत की और बहुत पैसा कमाया। जैसे-जैसे लक्ष्मी मैया की कृपा होती गई, दौलत राम का घमण्ड बढ़ता गया और वो हर किसी को नीची निगाह से देखने लगा।
बहुत दिन बाद वो शहर से अपने गाँव आया। दुपहर में एक बार जब वो घूमने निकला तो उसे अपने बचपन की सारी यादें ताज़ा होने लगीं। उसे वो सारे दृश्य याद आने लगे जहाँ उसने अपना बचपन बिताया था। एकाएक उसका ध्यान एक बरगद के पेड़ पर पड़ा जिस के नीचे एक आदमी आराम से लेटा हुआ था। क्योंकि धूप थोड़ी तेज़ होने लगी थी इसलिए दौलत राम सीधा वहाँ पहुँचा और देखा कि उसका बचपन का साथी कन्हैया वहाँ आराम से लेटा हुआ है।
बजाए इस के कि दौलत राम अपने पुराने मित्र का हाल चाल पूछे, उस ने कन्हैया को टेढ़ी नज़र से देख कर कहा-
“ओ कन्हैया, तू तो बिल्कुल निठल्ला है। न पहले कुछ करता था और न अब कुछ करता है। मुझे देख मैं कहाँ से कहाँ पहुँच गया हूँ।”
यह सुनकर कन्हैया थोड़ा बुड़बुड़ा कर बैठ गया। दौलत राम का हालचाल पूछा और कहने लगा कि समस्या क्या है। दौलत राम के ये कहने पर कि वो काम क्यों नहीं करता, कन्हैया ने पूछा कि उस का क्या फ़ायदा होगा। दौलत राम ने कहा कि तेरे पास बहुत सारे पैसी हो जाएँगे।
“उन पैसों का मैं क्या करूँगा?” कन्हैया ने फिर प्रश्न किया।
“अरे मूर्ख, उन पैसों से तू एक बहुत बड़ा महल बनाएगा।”
“क्या करूँगा मैं उस महल का?” कन्हैया ने फिर तर्क किया।
“ओ मन्द बुद्धि उस महल में तू आराम से रहेगा, नौकर चाकर होंगे, घोड़ा गाड़ी होगी, बीवी बच्चे होंगे।” दौलत राम ने ऊँचे स्वर से गुस्से में कहा।
“फिर उसके बाद?” कन्हैया ने फिर प्रश्न किया।
अब तक दौलत राम अपना धीरज खो बैठा था। वो गुस्से में झुँझला कर बोला-
“ओ पागल कन्हैया, फिर तू आराम से लम्बी तान कर सोएगा।”
ये सुन कर कन्हैया ने मुस्कुराकर जवाब दिया- “सुन मेरे भाई दौलत, तेरे आने से पहले, मैं लम्बी तान के ही तो सो रहा था।”
ये सुनकर दौलत राम के पास कुछ भी कहने को नहीं रहा। उसे इस चीज़ का एहसास होने लगा कि जिस दौलत को वो इतनी मान्यता देता था वो एक सीधे-साधे कन्हैया की निगाह में कुछ भी नहीं। आगे बढ़ कर उसने कन्हैया को गले लगा लिया और कहने लगा कि आज उसकी आँखें खुल गई हैं। दोस्ती के आगे दौलत कुछ भी नहीं है। इंसान और इंसानियत ही इस जग मैं सब कुछ है।
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अपना हाथ जगन्नाथ

बुलाकी एक बहुत मेहनती किसान था। कड़कती धूप में उसने और उसके परिवार के अन्य सदस्यों ने रात दिन खेतों में काम किया और परिणाम स्वरूप बहुत अच्छी फ़सल हुई। अपने हरे भरे खेतों को देख कर उसकी छाती खुशी से फूल रही थी क्योंकि फसल काटने का समय आ गया था। इसी बीच उसके खेत में एक चिड़िया ने एक घौंसला बना लिया था। उसके नन्हें मुन्ने चूज़े अभी बहुत छोटे थे।
एक दिन बुलाकी अपने बेटे मुरारी के साथ खेत पर आया और बोला, "बेटा ऐसा करो कि अपने सभी रिश्तेदारों को निमन्त्रण दो कि वो अगले शनिवार को आकर फ़सल काटने में हमारी सहायता करें।" ये सुनकर चिड़िया के बच्चे बहुत घबराए और माँ से कहने लगे कि हमारा क्या होगा। अभी तो हमारे पर भी पूरी तरह से उड़ने लायक नहीं हुए हैं। चिड़िया ने कहा, "तुम चिन्ता मत करो। जो इन्सान दूसरे के सहारे रहता है उसकी कोई मदद नहीं करता।"
अगले शनिवार को जब बाप बेटे खेत पर पहुचे तो वहाँ कोई भी रिश्तेदार नहीं पहुँचा था। दोनों को बहुत निराशा हुई बुलाकी ने मुरारी से कहा कि लगता है हमारे रिश्तेदार हमारे से ईर्ष्या करते हैं, इसीलिए नहीं आए। अब तुम सब मित्रों को ऐसा ही निमन्त्रण अगले हफ़्ते के लिए दे दो। चिड़िया और उसके बच्चों की वही कहानी फिर दोहराई गई और चिड़िया ने वही जवाब दिया।
अगले हफ़्ते भी जब दोनों बाप बेटे खेत पर पहुचे तो कोई भी मित्र सहायता करने नहीं आया तो बुलाकी ने मुरारी से कहा कि बेटा देखा तुम ने, जो इन्सान दूसरों का सहारा लेकर जीना चहता है उसका यही हाल होता है और उसे सदा निराशा ही मिलती है। अब तुम बाज़ार जाओ और फसल काटने का सारा सामान ले आओ, कल से इस खेत को हम दोनों मिल कर काटेंगे। चिड़िया ने जब यह सुना तो बच्चों से कहने लगी कि चलो, अब जाने का समय आ गया है - जब इन्सान अपने बाहूबल पर अपना काम स्वयं करने की प्रतिज्ञा कर लेता है तो फिर उसे न किसी के सहारे की ज़रूरत पड़ती है और न ही उसे कोई रोक सकता है। इसी को कहते हैं बच्चो कि, "अपना हाथ जगन्नाथ।"
इस से पहले कि बाप बेटे फसल काटने आएँ, चिड़िया अपने बच्चों को लेकर एक सुरक्षित स्थान पर ले गई।
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