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#41 |
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![]() तब वायुदेव से देवों ने जाकर कहा अब आप ही। भली भांति करिए ज्ञात कि है कौन यह अतिशय मही॥ अप्रतिम शक्तिमय वायुदेव को बुद्धि शक्ति का गर्व था। अभी दिव्य यज्ञ को ज्ञात कर मैं, दूर करता हूँ व्यथा॥ [7] |
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#42 |
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तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा ।
अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति ॥८॥ अति दिव्य यक्ष का वायु देव से प्रश्न था तुम कौन हो ? हे! अहम् मन्यक वायु देव क्या तुम ही सार्वभौम हो ? उत्तर दिया तब वायु ने, गुण गर्व गौरव दर्प से। मातरिश्रिवा हूँ प्रसिद्ध वायु, सृष्टि मम संसर्ग से॥ [8] |
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#43 |
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तस्मिँस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदँ सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति ॥९॥
भू द्यौ में वायु देव तो, आधार बिन विचरण करें। सामर्थ्य शक्ति का आप तो, मुझसे भी कुछ विवरण करें॥ उत्तर दिया यह वायु ने, मेरी शक्ति इतनी भव्य है। सब कुछ उड़ा दूँ निमिष में, पृथ्वी में जो दृष्टव्य है॥ [9] |
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#44 |
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तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न ।
शशाकादतुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति ॥१०॥ रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने वायु देव के सामने। इसको उड़ा दो जानूँ, कितना वायु तत्व है आपमें॥ शक्ति प्रभु ने रोकी तो फिर, वायु तत्व का अर्थ क्या ? लज्जित हो लौटे, दिव्य यक्ष के ज्ञान की सामर्थ्य क्या ? [10] |
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#45 |
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अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति ।
तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे ॥११॥ फिर इन्द्र देव से देवताओं ने कहा अब आप ही। जानिए कि कौन है, अति दिव्य यक्ष महिम मही॥ इति तथा कथ दिव्य यक्ष के निकट इन्द्र त्वरित गए। वह आदि ब्रह्म तो निमिष मात्र में ही तिरोहित हो गए॥ [11] |
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#46 |
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स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमाँ ।
हैमवतीं ताँहोवाच किमेतद्यक्षमिति ॥१२॥ फिर यक्ष के स्थान पर ही, इन्द्र स्थित रह गए। उमा रूपा ब्रह्म विद्या को देख हतप्रभ रह गए॥ सर्वज्ञ ज्ञाता उमा रूपा, मर्म यक्ष का आप ही। कुछ कहें सादर विनत हूँ, सर्वज्ञ आपसा है नहीं॥ [12] |
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#47 |
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चतुर्थ खंड
सा ब्रह्मेति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये । महीयध्वमिति ततो हैव विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥१॥ उस उमा रुपी ब्रह्म शक्ति ने इन्द्र को उत्तर दिया, परब्रह्म ने ही स्वयं यक्ष का रूप था धारण किया। सुर असुर युद्ध में विजय का अभिमान देवों ने किया, इस मान मर्दन को ही ब्रह्म ने रूप यक्ष का था लिया॥ [1] |
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#48 |
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तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ।
ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥२॥ परब्रह्म का स्पर्श दर्शन इन्द्र अग्नि वायु ने, कर प्रथम जाना ब्रह्म को, लगे ब्रह्म को पहचानने। ये श्रेष्ठ अतिशय देवता, विश्वानि विश्व प्रणम्य है, इनके ह्रदय में ब्रह्म तत्व का मर्म अनुभव गम्य है॥ [2] |
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#49 |
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तस्माद्वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान्देवान्स ह्येनन्नेदिष्ठं ।
पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥३॥ साक्षात परब्रह्म नित्य अज, यह सच्चिदानंद प्रभो, अनुपम अगोचर भक्त वत्सल, भव विमोचन है विभो। इस तथ्य को अति प्रथम इन्द्र ने ज्ञात मन द्वारा किया, इन अन्य देवों की अपेक्षा श्रेष्ठता का पद लिया॥ [3] |
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#50 |
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तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदाइतीन् ।
न्यमीमिषवदा इत्यधिदैवतम् ॥४॥ जब हृदय में उत्कट पिपासा ब्रह्म , के साक्षात को, जागृत हो तब सर्वज्ञ देता, क्षणिक दर्शन भक्त को। उपदेश दिव्य है आधिदैविक मर्म जाने भक्त ही, जब इष्ट के साक्षात बिन , मन व्यथित व्याकुल हर कहीं॥ [4] |
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