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Old 15-04-2013, 12:49 AM   #81
Dark Saint Alaick
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खुद को तानसेन से कम नहीं समझा
पूजा उपाध्याय

हम अपने आप को बहुत से दराजों में फिक्स डिपाजिट कर देते हैं। वक्त के साथ हमारा जो हिस्सा था वो और समृद्ध होता जाता है और जब डिपाजिट की अवधि पूर्ण होती है, हम कौतुहल और अचरज से भर जाते हैं कि हमने अपने जीवनकाल में कुछ ऐसा सहेज के रख पाए हैं। ऐसा एक फिक्स डिपोजिट मेरे हारमोनियम में है। छह साल के शास्त्रीय संगीत के दौरान उस एक वाद्य यंत्र पर कितने गीतों और कितने झगड़ों का डिपोजिट है। आज सुबह से उस हारमोनियम की आवाज को मिस कर रही हूं। हमारा पहला हारमोनियम चोरी हो गया था। शहर की फितरत। वहां चोर भी रसिक मिजाज होते हैं। दूसरा हारमोनियम जो लाया गया, कलकत्ते से लाया गया था। बहुत महंगा था क्योंकि उसके सारे कलपुर्जे पीतल के थे। उसमें जंग नहीं लगती और बहुत सालों तक चलता। उस वक्त हमें मालूम नहीं था कि बहुत साल तक इसे बजाने वाला कोई नहीं होगा। उस वक्त हम भाई बहन एक रियाज करने के लिए जान देते थे। हम उसे बहुत प्यार से छूते थे। नयी लकड़ी की पोलिश। चमड़े का उसका आगे का हवा भरने वाला हिस्सा। उसके सफेद कीज ऐसे दिखते थे जैसे बारीक संगेमरमर के बने हों। मैं अक्सर कन्फ्यूज होती थी कि वाकई संगेमरमर है क्या? उस वक्त हमारी दुनिया छोटी थी और कोई चीज हो सकती है या नहीं हो सकती है, मालूम नहीं चलता था। हारमोनियम को गर्मी बहुत लगती थी तो गर्मियों में एक तौलिया भिगो कर, निचोड़ कर उसके ऊपर डाल देते थे और बक्सा बंद कर देते थे। कभी कभी ऐसा शाम को भी करते थे। गाना गाने को लेकर हमारी अलग बदमाशियां थीं। राग देश में जो छोटा ख्याल सीखा था उसके बोल थे बादल रे उमड़ घुमड़ बरसन लागे बिजली चमक जिया डरावे। मजेदार बात ये थी कि जून-जुलाई के महीने में अक्सर छुट्टी में रियाज में यही राग गाती थी। बारिश होती थी तो अपने आप को तानसेन से कम नहीं समझती थी कि मेरे गाने के कारण ही बारिश हो रही है। जिमी ने संगीत सीखना मुझसे एक साल बाद शुरू किया था। वो छोटा सा था तो उसके हाथ हारमोनियम पर पूरे नहीं पड़ते थे। सर हम दोनों को अलग अलग ख्याल सिखाते थे। मैं हमेशा हल्ला करती थी कि सर जिमी को ज्यादा अच्छा वाला सिखाते हैं। जिमी हमसे बहुत अच्छा गाता था बचपन में। हारमोनियम हम पटना लेकर आए। वहां कभी-कभी रियाज करते थे। डर लगता था पड़ोसी हल्ला करेंगे। दरअसल रियाज करने का असल मजा भोर में है। जब सब कुछ एकदम शांत हो,हलकी ठंढी हवा बह रही हो। पटना में वही गाते थे पर हारमोनियम नहीं बजा पाते थे। याद नहीं कितने साल पहले आखिरी बार हारमोनियम बजाया था। कल रिकोर्डिंग स्टूडियो में थी। शीशे के उस पार जाते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है। गीत के बोल भूलने लगती हूं जबकि मैंने लिखे हैं और मुझे हर शब्द जबानी याद है। कल आर्टिस्ट को आलाप लेते देखा तो पुराने दिन याद आए। अब तो सपने में भी ऐसा आलाप नहीं ले सकती। शायद हारमोनियम का फिक्स डिपोजिट कम्प्लीट हो गया है। अबकी देवघर जाउंगी तो ले आउंगी अपने साथ। बहुत सालों से टाल रही हूं पर इस बार सर से भी मिलूंगी। अन्दर बहुत सा खालीपन भर गया है। उसे कुछ सुरों से, कुछ लोगों से, कुछ आशीर्वादों से भरूंगी..।
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Old 16-04-2013, 08:16 AM   #82
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कोई बात कहने से पहले सौ बार सोचो

-मोनिका शर्मा

कहते हैं कि अपने मन मस्तिष्क में सब कुछ सोचा तो जा सकता है पर सब कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि शब्द जिसके मुख से उच्चारित होते हैं उस व्यक्ति विशेष के लिए हमारे मन में गरिमा और विश्वसनीयता के मापदंड तय करते हैं। इस विषय में यह मान्यता होती है कि कही गयी बात बोलने वाले व्यक्ति ने विचार करने के बाद ही कही होगी । चर्चित चेहरों के विषय में बात ज्यादा लागू होती है क्योंकि समाज में उन्हें एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में देखता है। संभवत: इसीलिए कहा गया है कि प्रसिद्धि अपने साथ उत्तरदायित्व भी लाती है जिसे निभाने के लिए सबसे पहला कदम तो यही है कि विचार रखने से पहले सोचा समझा जाय। वो नहीं,ये कहा था। शब्द जब तक अकथित हैं विचारों के रूप में केवल हमारी अपनी थांती हैं । मुखरित होने के बाद शब्द हमारे नहीं रहते । इसीलिए जो कहा जाय वो सधा और सटीक हो,यह आवश्यक है। यूं भी शब्दों के प्रयोग को लेकर विचारशीलता बहुत मायने रखती है। स्वयं को व्यक्त करते समय यह विचार करना आवश्यक है कि आपकी अभिव्यक्ति मर्यादित है या नहीं। जो कह डाला उसे बदलने या अपने कहे की जिम्मेदारी ना लेने से हमारे ही विचारों की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आती है। हमारे यहां तो अपने ही शब्दों में उलटफेर करना एक खेल के समान है। राजनेता,अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर एक आम नागरिक तक, अपने द्वारा कथित वक्तव्यों से पलटने के इस खेल में निपुण हैं। मेरी कही बात का गलत अर्थ निकाला गया है या मेरे कहने का का अभिप्राय वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं जैसे वाक्य कहकर अपने द्वारा कहे शब्दों का अर्थ-अनर्थ सब बराबर कर देते हैं। इस मार्ग को तो यहां अनगिनत बुद्धिजीवियों ने भी बड़े गर्व के साथ अपनाया है। प्रश्न ये उठता है कि घर से लेकर स्कूल तक हमारी प्रारंभिक शिक्षा-संस्कारों में ही अपने कहे शब्दों की जिम्मेदारी लेने की सीख क्यों दी जाती? क्यों नहीं यह पाठ पढ़ाया जाता कि जो कहें सोच विचार कर कहें क्योंकि यदि व्यक्तिगत रूप से हम सब अपने वक्तव्यों के लिए जवाबदेह बनते हैं तो कई सारी सामाजिक-पारिवारिक समस्याओं का निपटारा तो यूं ही हो जाएगा। ऐसा इसलिए कि जब सोच विचार कर कहेंगें तो उस जिम्मेदारी को निभाने में भी पीछे नहीं रहेंगें। मानसिकता ही ऐसी विकसित होगी कि कथनी और करनी में कोई अंतर न रह जाएगा। अंतत: यही सोच हमें वास्तविकता से जोड़ने का काम करेगी। जो देश, समाज और परिवार के प्रति जिम्मेदारियों के भाव को जन्म देगी। जो कहा जा चुका है उसका स्पष्टीकरण देने की परस्थितियां ही न बनें। इसके लिए यह आवश्यक है कि अपने विचारों को साझा करने से पहले शब्द और उनका भावी अर्थ हमारे ही मन-मस्तिष्क में स्पष्ट हो। हमें इतना तो याद रखना ही होगा कि मुखरित शब्दों में कभी संशोधन नहीं होता। इसलिए मेरा तो यही मानना है कि जो बी बोला जाए सोच समझ कर और तोल कर बोला जाए । कहीं ऐसा नही हो कि एक बार बोलने के बाद हमे लगे कि आखिर ये शब्द मैने क्यों कहे। दरअसल शब्द एक ऐसा घाव है जो एक बार किसी को लग जाए तो ताउम्र उसका घाव नहीं भरता है। हर बीमारी का इलाज किया या करवाया जा सकता है लेकिन शब्दों से हुए घाव को नहीं भरा जा सकता।
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Old 19-04-2013, 01:16 AM   #83
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रात से भोर तक बनाया कोलाज

-पूजा उपाध्याय

देर रात काम ही काम करना। नींद को देना भुलावे। सपनों को भेजना कल आने के मीटिंग-पोस्टपोनमेंट रिक्वेस्ट। खिड़की के पल्ले से आती हल्की हल्की हवा का विंडचाइम को रह-रह कर चुहल से जगाना और उस विंडचाइम का हल्के-हल्के बज उठना। खामोशी सा कोई निर्वात रचना। लिखना जाने क्या क्या। लिखना वो जो मन में उभर रहा हो। कैसे शब्द ढूंढना। कौनसे शब्द ढूंढना। कहां से लाना साम्य। कैसे तलाशना शब्दों के अर्थ। कैसे दृश्यों में खोना। इतना खोना कि क्या लिखें और क्या सोंचे कुछ समझ ही ना आए। लिखना स्क्रिप्ट। लिखना लिरिक्स। खो जाना किसी और समय में। परीकथाएं बुनना। बुनते बुनते यह भी भान नहीं रहना कि किस परी के बारे में क्या क्या लिखा जा सकता है। दरवाजे की चौखट पकड़े सोचना किसका तो नाम। हां,मर मिटना नीत्जे पर। नेरुदा पर। स्पैनिश, जर्मन। क्या क्या पढ़ना। जो भी भाषा समझ में आ जाए उसी भाषा में कुछ ना कुछ पढ़ना। किन-किन भाषाओं में इंस्ट्रूमेंटल सुनना। तलाश करना कि इस भाषा का इंस्ट्रूमेंट कैसे बोलता है। फिर खोजना शब्द सलीके के। करना आफिस का काम और मेरी जान, भूल जाना उस लड़की को जिसे चिट्ठियां लिखने की आदत थी। जिसे किस्से सुनाने में लुत्फ आता था। जो फोन कर के कहती थी जरा वो कविता सुना दो ना। तुम्हारी आवाज से किसकी तो याद आती है। जिसे वो सारे लोग अच्छे नहीं लगते। जिन्हें कविता कविताएं अच्छी नहीं लगती। उलाहने देना। भोर की किरणों को। नींद भरी आंखों से सर दर्द को देखना। याद करना शामों को। इस वसंत में आई हुयी पतझड़ की शामें। सड़क के दोनों ओर बेतरतीबी से बिछे हुए पत्तों का ढेर। सूखे पत्तों की कसमसाती महक। उंगलियों में मसल देना एक पत्ते की पीली नसों को। जैसे खतों के कागज में लगाना आग। बौरायी हवा में आम के बौर का घुल जाना। ये कैसी गंध है। मिली-जुली। किधर का दरवाजा खोलती है। कोई आदिम कराह है। मेरा नाम पुकारती है। समय के उजाड़ मकानों में मुझे टोहती है। एक मैं हूं। धूल में लिखती हुयी कविता। मिटाती अपनी हस्ती को। देखती हूं अपना नाम उंगलियों के पोरों में। पार्क में खिलते हैं फिरोजी रंग के फूल। पाती हूं उनकी जड़ों में मेरी टूटी हुयी दवात। भूल जाना लिखना। बंद कर देना किसी गहरे हरे दवात में अगली बहार के मौसम के लिए। भूल जाना कि नयी कोपलों का रंग होता है सुर्ख लाल। आँखों को कहना कि न पढ़े कविता। कानों को कहना कि न सुने उसका नाम कि उस नाम से उग आती है कलमें कितने रंग कीं मेरे अन्दर। सियाह रातें जब दर्द में चीखती हैं तब जा कर जनमती है कविता। तरबीब से जीना जिंदगी को लड़की। समेटना सब कुछ अपने अन्दर मगर ब्लैक होल की तरह। मत भेजना प्रकाश की एक किरण भी बाहर कि तुम्हारी तस्वीर भी न खींच पाएं लोग। निर्वात से जानें तुम्हें ऐसा हो तुम्हारा गुरुत्व। सिर्फ सुनने में अच्छा लगता है सुपरनोवा। मरते हुए तारे की आखिरी पुकार होती है। अनगिन गैलेक्सीज पार कर तुम्हारे दिल को छलनी कर जाती। सबसे पास का तारा। तकलीफों के इस बेसमेंट में मुस्कुराहटें बचाए रहना। किचन के डिब्बे में रखना थोड़ा दालचीनी का पाउडर। घड़ी में घुलना जरा जरा सा। थोड़ी स्ट्रोंग बनना। यहाँ की फिल्टर कॉफी की तरह। कैमरा को देख कर कहना,स्माइल प्लीज ...।
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Old 23-04-2013, 10:14 PM   #84
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बस, एक दूजे पर थोड़ा भरोसा कर लें

-अली सैयद

अपना आंगन परिंदों का डेरा। बेफिक्र चहकती, दाने चुगती, डालियों पर फुदकती चिड़िया। बाकी चिड़िया रात कहां गुजारती होगी। कभी गौर नहीं किया। शायद बगीचे के दरख्तों पर या फिर कहीं और। एक गौरैया पिछले साल से लगातार घर के अंदर, सीढ़ियों के ऊपरी हिस्से की सबसे ऊंची खिड़की के पेलमेट की स्टील रॉड पर शब गुजारती है। घर के दरवाजे शाम को बंद होने से एन पहले वो अपने ठिये पर हाजिर हो जाती है और हर सुबह जब मैं दरवाजे खोलता हूं, वो बाहर परवाज कर जाती है। कभी दरवाजे खोलने में देरी हो तो वो हाल में तेज पंख फड़फड़ाती हुई उड़ती और चीख मचाती है और दरवाजा खोलते ही खुले आसमान में ये जा वो जा...। आज सुबह लगा कि चाय पीने के बाद दरवाजे खोलने में कोई हर्ज नहीं सो चाय हलक से नीचे उतार रहा था कि वो बेडरूम में दाखिल हुई। उसने कमरे के अंदर दो उड़ान भरी और बाहर हाल में चली गई। कुछ सेकण्ड बाद शायद उसे लगा कि मैंने उसे तवज्जो नहीं दी है सो फिर कमरे में दाखिल हुई और पंख फड़फड़ाए व फिर कमरे के बाहर चली गई। मुझे अहसास हुआ कि गलती हुई है। मैं उठा और दरवाजा खोलने के लिए चल पड़ा। उसे इसी बात का इंतजार था। दरवाजा खुलते ही उसने आकाश साध लिया और मैं सोच में पड़ गया कि हम बे-जात लोग, एक दूसरे से बिल्कुल अलग, कद काठी, शक्ल-ओ-सूरत,रंग...। एक भरोसे के सहारे कितनी आसानी से साथ जिन्दगी गुजार पा रहे हैं। इधर एक छुटकू इंसान अपने घर मेहमान हुआ है। रिश्ते में मेरी अहलिया उसकी फूफी हुईं और इस नाते मैं उसका फूफा। उम्र कोई डेढ़ बरस। दो तकियों की ऊंचाई पर सिर रख चित लेटे हुए अखबार पढ़ने का हुनर उसने मुझसे सीखा है। फर्क सिर्फ इतना कि जहां मैं खामोश रहकर अखबार बांचता हूं वहीं वो हर्फों पर अपनी नन्ही अंगुलियों के इशारे के साथ यूं बुदबुदाता है कि जैसे अखबार पढ़ना कोई बच्चों का खेल हो। दूसरे बच्चों की तरह से खिलौने तोड़ना, चीजों को बेदर्दी से पटकना,उसकी खास काबिलियत में शुमार किए जाते हैं सो उसे उसकी खास फरमायश पर एक मोबाइल फोन मुहैय्या कराया गया है ताकि वक्त-बेवक्त वो जिससे चाहे बात कर सके। आज सुबह देखा कि उसका फोन मेरे फोन के ठीक बाजू में बिल्कुल मेरे फोन की तरह से एक फोन केस में सुरक्षित रखा है। शायद उसे मेरी अनुकृति होने, मुझसे सामाजिक दीक्षा लेने जैसे प्रभाव दिखलाने में मजा आ रहा हो। वो शक्ल-सूरत और स्वभाव में फिलहाल मुझसा नजर आ रहा है। उस गौरैया की तुलना में वो हम-जात है। मुझ जैसा आदमजाद। पर बड़े होकर वो मेरा हम ख्याल,दोस्त बना रहे ये जरुरी नहीं है। एक परिंदे के मुकाबिले में उस इंसान जात के मुझसे जीवन भर पटरी बैठाए रहने की संभावना शायद हां हो या शायद नहीं भी। कोई एक मुकम्मल तस्वीर नही। बस फिफ्टी फिफ्टी। दोस्ती या दुश्मनी, सहमति या रंजिशों की हद से बाहर जाकर असहमतिया। ख्याल ये कि अगर हम थोड़ा सा भरोसा,जरा सा स्पेस एक दूसरे के हिस्से में डाल पायें तो जात क्या, बे-जात क्या? रंग क्या,बे-रंग क्या? अपनी जिþन्दगी कितनी सहज, कितनी स्मूथ,कितनी आसान कर लें। या तैयार हो जाएं दुश्वारियों, दुश्चिंताओं के दरम्यान कभी भी आपस में मर कट कर खत्म हो जाने के लिए।
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Old 30-04-2013, 10:22 PM   #85
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गुम क्यों हो रही मानवीय संवेदना

-मोनिका शर्मा

यूं तो संवेदनहीनता से हमारा साक्षात्कार प्रतिदिन किसी न किसी समाचार पत्र की सुर्खियां करवा ही देती हैं पर कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि पूरे समाज की मानवीय सोच पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। आजकल तो आये दिन कोई न कोई वाकया इस बात की पुष्टि कर जाता है कि हमारी सामाजिक संवेदनाओं का लोप हुआ है और होता ही जा रहा है । कभी कभी तो लगता है हमारी इस अमानवीय उन्नति के विषय में संदेह करना ही बेकार है। हम हर दिन एक नया उदहारण प्रस्तुत कर रहे हैं असंवेदनशील व्यवहार का नया शिखर छू रहे हैं। हाल ही में जयपुर की एक सुरंग मार्ग पर हुयी सड़क दुर्घटना में एक पिता अपने चोटिल मासूम बच्चे को लेकर घंटों बिलखता रहा पर कोई भी वहां नहीं रुका। इस दुर्घटना में अपनी पत्नी और बच्ची को खो चुका यह आदमी वहां से गुजरने वाले लोगों से सहायता मांगता रहा पर किसी ने भी उसकी मदद नहीं की । जयपुर आज भी देश के बहुत बड़े शहरों में नहीं आता। यहां बड़े से मेरा तात्पर्य देश के ऐसे महानगरों से है जहां सामाजिक परिवेश से कोई नाता ही न रहे। यहां महानगरों के सन्दर्भ में बात कर रही हूं यह सोचते हुए कि यदि जयपुर जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण वाले नगर और उसके नागरिकों की संवेदनशीलता का यह हाल है तो बड़े शहरों के हालातों का तो अनुमान लगाना भी असंभव है। ऐसी घटनाएं दामिनी केस की भी याद दिलाती हैं। जिस दामिनी को न्याय दिलाने पूरा देश सड़कों पर उतर आया था वो घंटों बिना कपड़ों के सड़क पर तड़पती रही और कोई उसकी और उसके साथी की सहायता के लिए नहीं रुका। कभी कभी तो आश्चर्य होता है कि मानवीय संवेदनाओं को यूं ताक पर रखने वाले हम आन्दोलन करने कैसे निकल पड़ते हैं? क्या यह सोचने का विषय नहीं कि विपत्ति में फंसे लोगों की सहायता करने में हमारी सहभागिता कितनी है या कितनी होनी चाहिए? निश्चित रूप से यह चिंतन-मनन का विषय है। देश के प्रत्येक नागरिक के लिए भी और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी। एक आम नागरिक के लिए यह विचारणीय है क्योंकि हमें यह विचार क्यूं नहीं आता कि ऐसी दुखद घटना किसी के भी साथ हो सकती है। हमारे साथ भी। हमारे अपनों के साथ भी। तो हमें कैसा लगेगा लोगों का ऐसा व्यवहार देखकर। मनुष्यता के मायने तो यही सिखाते हैं कि इन आपातकालीन परिस्थितियों में पीड़ित को हर संभव मदद उपलब्ध करवाई जाए। यह सहायता हर जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य और और संवेदनशील इन्सान का धर्म है। प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी ऐसे वाकये चिंतन करने योग्य हैं। व्यवस्था के लिए यह शोध का विषय होना चाहिए कि क्यों कोई आम नागरिक ऐसे मामलों में चाहकर भी मदद का हाथ आगे नहीं बढाता? हर कोई बस बचकर निकलना चाहता है। यह प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति विश्वास की ही कमी है कि आम आदमी अपने बच्चों को भी यही सिखाता है कि ऐसे मामलों में वे किसी झमेले में न उलझें। बस बचकर निकल आयें । आम आदमी की सुरक्षा और सहयोग के लिए बने राज और समाज के इस तानेबाने में आयी यह विश्वनीयता की कमी कितने ही प्रश्न उठाती है। भय का वातावरण तैयार करती है। संकट के समय ही हम साथ नहीं, संगठित नहीं तो हमारी सामाजिक व्यवस्था के क्या अर्थ रह जायेंगें?
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पल भर में शिशु ने हमें बूढ़ा बना दिया

- विष्णु बैरागी

हमारी मौजूदा गृहस्थी की तीसरी पीढ़ी का पहला सदस्य अदम्य। हमारा पहला पोता। इसका जन्म तो हुआ 22 मार्च की शाम 7 बजकर 4 मिनिट पर किन्तु उस सुबह 5 बजे से ही हमारी सम्पूर्ण चेतना, सारी गतिविधियां, सारी चिन्ताएं,सारे विचार इसी पर केन्द्रित हो गए थे। इसकी मां प्रशा को उसी समय इसने अपने आगमन की पहली सूचना दी थी। 21 मार्च की शाम को प्रशा को डॉक्टर को दिखाया था। डॉक्टर ने कहा था ,15 अप्रेल या उसके बाद प्रसव होगा किन्तु 21 और 22 मार्च की रात्रि में कोई दो बजे से प्रशा असामान्य हो गई। तीन घण्टे तक वह सहन करती रही। अन्तत: सुबह पांच बजे अपनी सास, मेरी उत्तमार्द्ध को उठा कर स्थिति बताई। उन्होंने मुझे उठाया और फौरन डॉक्टर से फोन पर बात की। डॉक्टर ने कहा आठ बजे ले आइए। प्रशा को अस्पताल में भर्ती करा दिया। डॉक्टर ने पहले ही क्षण कहा,डिलीवरी आज ही होगी। शाम चार बजे तक नार्मल की प्रतीक्षा करेंगे। नहीं हुआ तो सीजेरियन करना पड़ेगा। परिवार में हम दो ही सदस्य और दोनों ही अस्पताल में। याने हमारा पूरा परिवार अस्पताल में। सुबह नौ बजे बेटे वल्कल को, मुम्बई सूचित किया। शाम छह बजे वल्कल पहुंच गया। चार बजे तक तो हम सब सामान्य थे किन्तु उसके बाद से सीजेरियन की कल्पना से ही घबराहट होने लगी। प्रशा को चार बजे से ही डाक्टर और नर्सों ने लेबर रूम में ले लिया था। पांच बजे। छह बज। नर्सों की आवाजाही कम हो गई थी। सात बज गए। लेकिन कहीं से कोई खबर नहीं। मैं पस्तहाल आॅपरेशन थिएटर के बाहर बेंच पर बैठ गया। लगभग सात बजकर दस मिनिट पर नर्स बाहर आई और मेरी उत्तमार्द्ध से बोली, लाइए, कपड़े दीजिए। मेरी उत्तमार्द्ध पूरी तैयारी से आई थी। फौरन कपड़े दिए। मैं ही नहीं हम सब सकते में थे। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था। तभी मेरी बांह थपथपाकर ढाढस बंधाते हुए मेरी उत्तमार्द्ध बोलीं ,खुश हो जाइए। डिलीवरी हो गई है। आप दादा बन गए हैं। मुझे विश्वास नहीं हुआ। नर्स ने तो कुछ नहीं कहा। फिर ये कैसे कह रही हैं? मैंने पूछा,आपको कैसे मालूम? नर्स ने तो कुछ भी नहीं कहा। वे सस्मित बोलीं ,ईश्वर ने यह छठवीं इन्द्र्री हम औरतों को ही दी है। कुछ पूछिए मत। किसी को फोन कीजिए। फौरन मिठाई मंगवाइए। मैं नहीं माना। मैं कुछ पूछता उससे पहले नर्स फिर प्रकट हुई। मैं कुछ बोलूं उससे पहले ही वह हवाइयां उड़ती मेरी शकल देख मुस्कुराती हुई मेरी उत्तमार्द्ध से बोली,सर को अभी भी समझ में नहीं आया होगा। डिलीवरी हो गई है। नार्मल हुई है और बाबा हुआ है। हमें अपनी वंश बेल बढ़ने से अधिक प्रसन्नता इस बात की थी कि हमारी प्रशा सीजेरियन का आजीवन कष्ट भोगने से बच गई। ईश्वर की यह अतिरिक्त कृपा हमें अनायास ही हमें सामान्य होने में तनिक देर लगी और जब हम खुद में लौटे तो रोमांचित थे। हम दादा-दादी बन गए। हम दोनों आपस में कुछ भी बोल नहीं पा रहे थे। थोड़े सहज हुए तो हम दोनों ने वल्कल को बधाईयां और आशीष दी। तभी नर्स हमारे परिवार की अगली पीढ़ी के पहले सदस्य को कपड़ों में लिपटाए लाई और मेरी उत्तमार्द्ध को थमा दिया। इसके बाद जो-जो होना थाए वह सब हुआ। हमारी जिन्दगी बदल चुकी थी। क्या अजीब बात है। एक नवजात शिशु ने पल भर में हमें बूढ़ा बना दिया और हम थे कि निहाल हुए जा रहे थे।
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फिजूल है अपने मन की बात कहना

-अनु सिंह चौधरी

मैं क्या लिखूं? कोई इस बारे में क्या लिख सकता है? इस लिखने का हासिल भी क्या होगा? उस दिन सुबह टीवी पर पहला फ्लैश देखा था। पांच साल की बच्ची इस बार पीड़िता है। बच्ची। पांच साल की। पांच साल की बच्ची जिसके साथ ना सिर्फ दुष्कर्म हुआ बल्कि उसके साथ ऐसी हैवानियत हुई कि सोचकर रोआं-रोआं कांप उठता है। मैं क्या लिखूं इस बारे में? सारे अखबारों की पहली खबर रही ये। आपने भी पढ़ी होगी। नहीं चाहा होगा फिर भी पढ़ी होगी। अपने सिर को दीवार पर मार देने की ख्वाहिश जागी थी क्या भीतर? कुछ खौला था? कुछ दरका था अंदर? या पन्ने पलट दिए थे आपन कि एक दिल्ली का गैंगरेप, एक सीकर रेप केस, एक भंडारा रेप केस भूले नहीं कि एक और। पांच साल की बच्ची है वो, ये कैसे भूलेंगे हम? साढ़े चार साल की एक और बच्ची है जो कहीं दूसरे शहर में अस्पताल में जूझ रही है। शहर का नाम क्या है इससे फर्क नहीं पड़ता। गूगल कीजिए तो चार-पांच साल के बच्चों से जुड़ी ऐसी ढेरों ख़बरें मिल जाएंगी आपको सिर्फ भारत के वेब पन्नों से। नहीं जानती कि ऐसी बच्चियों के लिए मर जाने की दुआ ज्यादा शिद्दत से करूं या उसके बच जाने की। मैं आंकड़ों में बात नहीं करना चाहती फिर भी सुना है कि हमारे देश में हर डेढ़ मिनट में एक दुष्कर्म होता है। मुझे घिन आती है फिर भी मैंने गूगल करके देखा कि हमारे देश के तकरीबन पचास फीसदी बच्चे यौन शोषण का शिकार हुए हैं किसी ना किसी रूप में। बच्चे,यानी बेटे और बेटियां दोनों। कभी कोशिश मत कीजिए जानने की या इस बारे में पढ़ने की। इसलिए क्योंकि हमें अपनी ख़ुशफहमियों की दुनिया में रहना है, हमें रातों की अपनी नींदें गुम करना गवारा नहीं। और ये जो खबर पढ़ी होगी ना आपन। ये ताजा ताजा। इससे अब सूखकर जम चुके ख़ून की भी बदबू नहीं आती। ये दुष्कर्म,यौन शोषण,अत्याचार की पराकाष्ठा है। नर्क की आग की तकलीफ इससे वीभत्स होती होगी,मुझे शक है। मैं क्यों लिख रही हूं इस बारे में? सही है कि फायदा भी क्या है। लेकिन मुझे भी याद रहे और आपको भी कि हमारे आस-पास हो क्या रहा है आखिर। हम उस समाज के बाशिंदे हैं जहां पीड़ित परिवार को दो हजार रुपए का लालच देकर रिपोर्ट ना लिखाने की गुजारिश की जाती है। फिर डराया-धमकाया जाता है। हम उस समाज के बाशिंदे हैं जहां दुष्कर्म की रिपोर्ट लिखाने के लिए जाने वालों को पुलिस थानों में बंद किया जाता है,उन्हें मारा-पीटा जाता है। हम उस कमबख्त समाज के बाशिंदे हैं जो लड़की,औरत, बूढ़ी,बच्ची या फिर बच्चे तक किसी को बख्शने में यकीन नहीं करता। हम उस बदकिस्मत समाज के बाशिंदे हैं जो अपने से कमजोर पर हावी होने में अपनी शान,अपनी मर्दानगी समझता है। हम उस बदनाम समाज के बाशिंदे हैं जो अब ना बदला तो गर्त में जाकर अपनी वजूद के निशान भी ढूंढ पाएगा, मुमकिन नहीं। कौन सा एंटी रेप कानून? इस देश में कानून का खौफ होता तो यही हाल होता? हमें अपने कानून पर उतना ही यकीन है जितना इस बात पर कि कानून-प्रक्रिया कानून के हाथों से भी लंबी होगी। मैं क्रांतिकारी नहीं। मैं सभ्य समाज में सबके समान अधिकारों की पक्षधर हूं। आप भी मेरे जैसा ही सोचते होंगे। फिजूल है हमारी शर्मिंदगी और हमारा डर। उसी तरह जिस तरह फिजूल है मेरा मन की बात आज इस तरह लिख देना।
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Old 05-06-2013, 12:47 AM   #88
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अच्छा लगता है जब बच्चे सिखाते हैं

-प्रवीण पांडेय

बच्चे पता ही नहीं चलता है कब बड़े हो जाते हैं? कल तक लगता था कि इन्हें अभी कितना सीखना है, साथ ही साथ हम यही सोच कर दुबले हुए जा रहे थे कि कैसे ये इतना ज्ञान समझ पाएंगे? अभी तक उनकी गतिविधियों को उत्सुकता में डूबा हुआ स्वस्थ मनोरंजन समझते रहे, सोचते रहे कि गंभीरता आने में समय लगेगा। बच्चों की शिक्षा में हम सहयोगी होते हैं, बहुधा प्रश्न हमसे ही पूछे जाते हैं। उत्सुकता एक वाहक रहती है, हम सहायक बने रहते हैं उसे जीवन्त रखने में। जैसा हमने चीजों को समझा, वैसा हम समझाते भी जाते हैं। बस यही लगता है कि बच्चे आगे आगे बढ़ रहे हैं और हम उनकी सहायता कर रहे हैं। यहां तक तो सब सहमत होंगे, सब यही करते भी होंगे। जो सीखा है, उसे अपने बच्चों को सिखा जाना, सबके लिये आवश्यक भी है और आनन्दमयी भी। यहां तक तो ठीक भी है पर यदि आपको लगता है कि आप उनकी उत्सुकता के घेरे में नहीं हैं तो पुनर्विचार कर लीजिये। यदि आपको लगता उसकी उत्सुकता आपको नहीं भेदती है तो आप पुनर्चिन्तन कर लीजिये। प्रश्न करना तो ठीक है पर आपके बच्चे आपके व्यवहार पर सार्थक टिप्पणी करने लगें तो समझ लीजिये कि घर का वातावरण अपने संक्रमण काल में पहुंच गया है। टिप्पणी का अधिकार बड़ों को ही रहता है, अनुभव से भी और आयु से भी। बच्चों की टिप्पणी यदि आपको प्राप्त होने लगे तो समझ लीजिये कि वे समझदार भी हो गए और आप पर अधिकार भी समझने लगे। उनकी टिप्पणी में क्या रहता है, उदाहरण आप स्वयं देख लीजिये। मेरी बिटिया कहती है कि आप पृथु भैया(मेरे बेटे) को ठीक से डांटते नहीं हैं। जब समझाना होता है तब कुछ नहीं बोलते हो। जब डांटना होता है तब समझाने लगते हो। जब ढंग से डांटना होता है तब हल्के से डांटते हो और जब पिटाई करनी होती है तो डांटते हो। ऐसे करते रहेंगे तो वह और बिगड़ जायेगा। हे भगवान, दस साल की बिटिया और दादी अम्मा सा अवलोकन। क्या करें, कुछ नहीं बोल पाए। सोचने लगे कि सच ही तो बोल रही है बिटिया। अब उसे कैसे बताएं कि हम ऐसा क्यों करते हैं? अभी तो प्रश्न पर ही अचम्भित हैं थोड़ी और बड़ी होगी तो समझाया जायेगा विस्तार से। उसके अवलोकन और सलाह को सर हिला कर स्वीकार कर लेते हैं। पृथु कहता है कि आप इतना लिखते क्यों हो, इतना समय ब्लॉगिंग में क्यों देते हो? आपको लगता नहीं कि आप समय व्यर्थ कर रहे हो। इससे आपको क्या मिलता है? थोड़ा और खेला कीजिये नहीं तो बैठे बैठे मोटे हो जायेंगे। चेहरे पर मुस्कान भी आती है और मन में अभिमान भी। मुस्कान इसलिये कि इतना सपाट प्रश्न तो मैं स्वयं से भी कभी नहीं पूछ पाया और अभिमान इसलिये कि अधिकारपूर्ण अभिव्यक्ति का लक्ष्य आपका स्वास्थ्य ही है और वह आपका पुत्र बोल रहा है। कई बच्चे अपने माता पिता को आदर्श मानते हैं पर जब उनके अन्दर यह भाव आ जाए कि उन्हे थोड़ा और सुधारा जा सकता है, थोड़ा और सिखाया जा सकता है तो वे अपने आदर्शों को परिवर्धित करने की स्थिति में पहुंच गए हैं। उनके अन्दर वह क्षमता व बोध आ गया है जो वातावरण को अपने अनुसार ढालने में सक्षम है। पता नहीं कि हम कितना और सुधरेंगे या संवरेंगे पर जब बच्चे सिखाते हैं तब बहुत अच्छा लगता है।
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याद आते हैं पुराने हिन्दी फिल्मी गीत

-सागर

सुबह आकाशवाणी की उर्दू सर्विस सुन रहा था। इतने अच्छे फिल्मी गीत आ रहे थे कि काम करते-करते उंगलियां कई बार ठिठक जाती थीं और गीतों के बोलों में खो जाता था। गजलें कई बार दिमाग स्लो कर देती हैं और एक उदास सा नजरिया डेवलप कर देती हैं। कभी कभी इतनी भारी भरकम समझदारी का लबादा उतार कर एकदम सिंपल हो जाने का मन होता है। रेट्रो गाने सुनना, राम लक्ष्मण का संगीत, उनसे कहना जब से गए हैं, मैं तो अधूरी लगती हूं, टिंग निंग निंग निंग। इन होंठों पे प्यास लगी है न रोती न हंसती हूं। लता जब गाती हैं तो लगता है, मीडियम यही है। इन गानों में मास अपील है। सीधा, सरल, अच्छी तुकबंदी, फिल्मी सुर, लय, ताल जो आशिक भी गाएगा और उनको डांटने वाले उनके अम्मी-अब्बू भी। समीर के गीत गुमटी पर पान की दुकान पर खूब बजे। ट्रक ड्राईवरों ने अल्ताफ राजा को स्टार बना दिया। और कई महीनों बाद जब इन गानों पर हमारे कान जाते हैं तो लगता है जैसे दादरा, ठुमरी, ध्रुपद और ख्याल का बोझ हमारा दिल उठा नहीं सकेगा। हम आम ही हैं खास बनना एक किस्म की नामालूम कैसी मजबूरी है। हालांकि यह भी सच है कि देर सवेर अब मुझे इन्हीं चीजों तक लौटना होता है, नींद इसी से आती है और सुकून भी आखिरकार यही देते हैं। शकील बदायूंनी साहब ने वैसे एक से एक कातिल गीत लिखें हैं। याद में तेरी जाग जाग के हम रात भर करवटें बदलते हैं। मोहम्मद रफी के गाए गीत तो सारे क्लासिक लगते हैं। उन्होंने 98 प्रतिशत अपने लिए सटीक गीत चुने और 99 प्रतिशत अच्छे गीत गाए हैं। लचकाई शाखे बदन, छलकाए जाम। वो जब याद आए बहुत याद आए का एक पैरा,कई बार यूं भी धोखा हुआ है, वो आ रहे हैं नजरें उठाए,प्यार के सुकोमल अहसास में से एक है। वहीं लता का गाया,खाई है रे हमने कसम संग रहने की,का एक मिसरा प्रेम को बड़े ही अच्छे शब्दों में अभिव्यक्त करता है। ऐसे तो नहीं उसके रंग में रंगी मैं पिया अंग लग लग के भई सांवली मैं। ये सोच कमाल है जो अंदर तक सिहरा से देते हैं। उदास गीतों में थोड़ी सी बेवफाई के टायटल गीत की वह लाइन,जो रात हमने बिताई मर के वो रात तुमने गुजारी होती या फिर आगे की पंक्तियों में, उन्हें ये जिद के हम पुकारें, हमें ये उम्मीद वो बुलाएं, मुहब्ब्त के कशमकश को शानदार तरीके से व्यक्त करता है। कुमार सानू का सीधी लाइन में गाया, मेरा दिल भी कितना पागल है, एक रेखीय लय में लगता है। इसके अलावा सत्रह साला ईश्क तब फिर से जिगर चाक करता है जब उन्हीं की आवाज में दिल तो ये चाहे पहलू में तेरे बस यूं ही बैठे रहें हम सुनते हैं। ये यादें मेरी जान ले लेगी। पटना के सदाकत आश्रम में लगे सरसों के फूल याद आने लगते हैं। और दिल त्रिकोणमिति बनाते हुए अक्सर किसी सुंदर, मीठे गीत को सुनते हुए सोचता है कि इसे कैसे फिल्माया गया होगा। दरअसल रेडियो यही है, दृश्य को होते हुए कान से देखना। शराबी अमिताभ के जन्मदिन पर किशोर के गाना गा चुकने के बाद नायिका का कहना कि ओ मेरे सजना लो मैं आ गई.. गाते ही म्यूजिक का तेज गति से भागना बंद आंखों से सोचा था तो लगा कि लंबे लंबे पेड़ों के जंगलों में यहां दोनों एक दूसरे को खोजते हुए भाग रहे होंगे। मन के सिनेमा में समानांतर ट्रैक पर हमेशा एक और सिनेमा चल रहा होता है।
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Old 20-07-2013, 10:14 PM   #90
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विवशता को समझ गए हैं अब उद्धव

-गिरिजा कुलश्रेष्ठ

सूरदास की गोपियों ने अपने भावों की पुष्टि के लिए मन न भए दस-बीस कह कर उद्धव के प्रस्ताव को चतुराई से निरस्त कर दिया था। बोलीं, एक हुतो सो गयौ श्याम संग को..। अब हम तुम्हारे ईश्वर की आराधना किस मन से करें। हमारी विवशता समझो उद्धव। उद्धव समझ गए । समझ क्या गए समझना पड़ा। और गोपियों का पीछा छूटा उद्धव के नीरस उपदेशों से। दस-बीस मन न होने की स्थिति गोपियों के लिए भले ही एक नियामत रही हो पर जो कई तरह से बंटे हुए हैं उनके लिये तो पूरी शामत ही है। मन एक, टुकड़े अनेक । टुकड़ों के साथ जीना सहज तो नही होता । महिलाओं के साथ ऐसा कुछ ज्यादा ही होता है। मुझे देखिये । जब ग्वालियर से कहीं जाती हूं तो कुछ मन तो कट कर यहीं छूट जाता है । अब जब ग्वालियर आ गई हूं हमेशा की तरह मन का शेष भाग बैंगलोर छूट गया है वह भी कई टुकडों में बंट कर। एक टुकड़ा प्रशान्त के पास महादेवपुरा (के.आर.पुरम) में, दूूसरा विवेक के पास खगदासपुरा में और अब (विवाह के बाद) तीसरा टुकड़ा खगदासपुरा में ही मयंक के पास (हालांकि बहुत दूर नही हैं पर इतने पास भी नही कि सुबह-शाम साथ बिता सकें। ऐसा अवसर साप्ताहिक मिलता है)। मन अब भी वहां के चिन्तन में डूबा है। प्रशान्त का दिन साढ़े पांच बजे शुरु हो जाता है । अब स्कूल खुल गए हैं । मान्या को तैयार होकर सात तक सड़क पर पहुंचना होता है। बस इन्तजार नही कर सकती। पौने छह बजे से ही उसे जगाने की कवायद शुरु हो जाती है पूरे फौजी कायदों से । उसकी पेंटिंग,म्यूजिक,कन्नड क्लास और स्वीमिंग,कराटे क्लास तो पहले से ही चल रही थीं। अब लगभग आठ घंटे स्कूल के लिये भी । चार बजे स्कूल से लौटने पर साढ़े पांच बजे से दूसरी कक्षाएं शुरु । सोम-मंगल ड्राइंग क्लास और गुरु-शुक्र को कराटे क्लास । शनिवार और रविवार को म्यूजिक और स्वीमिंग । इन सब चीजों की व्यवस्था करने में दोनों सेवारत माता-पिता तो व्यस्त रहते ही हैं । सुलक्षणा को साढे सात बजे सीडॉट (इलेक्टोनिक सिटी) के लिए निकलना होता है और प्रशान्त को इसरो के लिये साढे आठ बजे। नहा कर इधर मान्या कपड़े पहनती है। मां जल्दी उसके गले में नाश्ता उतारती जाती है । पर मान्या व्यस्त के साथ त्रस्त भी होती है क्योंकि उसके लिये इतना सारा बोझ कुछ भारी हो जाता है। मेरे विचार से बहुत कुछ एक साथ सीखने में पूर्णता या अपेक्षित कुशलता नही आ सकती । मैंने देखा है बच्चे होमवर्क को काफी दबाब में यंत्रवत करते हैं । मान्या भी अपने पाठों को सोचने या दोहराने से कतराती है । और फुरसत में टीवी पर उसका एकाधिकार रहता है । इस व्यस्तता के बीच उसके पास अपने आप कुछ सोचने का अवकाश ही नही है जो बच्चे के लिये सबसे ज्यादा जरूरी होता है । हां, जब भी मुझसे बात करती है यह शिकायत करना बिल्कुल नही भूलती। दादी आप चाचा के घर में ही क्यों रह रही हैं । भला इतने दिन भी कोई रहता है क्या? आपको मेरे साथ ही रहना चाहिये न । मैं रहना चाहती हूं। उसे कल्पनाओं के खुले आकाश की सैर कराना चाहती हूं। मैंने उसके साथ कुछ समय बिताया भी पर समय भी टुकड़ा-टुकड़ा। मन कहां भरता है इतने में । मन का एक हिस्सा विवेक के पास छूटा हुआ है, विहान के आसपास मंडराता हुआ । विहान भी आजकल स्कूल जाने लगा हैं ।
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