30-09-2013, 12:12 AM | #1 |
Diligent Member
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माना मुझमें अब वो शराफत नही रही
सच बोलने की आप में आदत नहीं रही भड़क उठते है क्यूँ छोटी छोटी बात पर सच सुनने की आप में ताकत नही रही आदमी तो आज भी वही हूँ मैं लेकिन क्या हुआ जो मेरे पास दौलत नही रही कभी नाचती तू इन उँगलियों पर मेरी क्यूँ आज पहले सी मेरी हकूमत नही रही जिन्दगी गुजार दी तेरे पीछे '' नामदेव '' क्यूँ दिल में तेरे आज मुहबत नही रही #सोमबीरनामदेव |
30-09-2013, 09:06 AM | #2 | |
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Re: माना मुझमें अब वो शराफत नही रही
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ग़ज़ल का पहला शे'र जितना खूबसूरत है, बाकी अश'आर भी उसको अपनी गहरायी से वही ऊंचाई बख्शते हैं. आप इसी प्रकार ग़ज़ल की ज़ुबानी इज़हारे-ख़याल करते रहें और पढ़ने वालों को सरशार करते रहें, यही हमारी दुआ है. धन्यवाद, सोमबीर जी. |
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01-10-2013, 12:21 AM | #3 | |
Diligent Member
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Re: माना मुझमें अब वो शराफत नही रही
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aapke ke vichar mere liye ek aainaa hai jisme main apne aapko dekhta hu |
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02-10-2013, 12:25 PM | #4 | |
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Re: माना मुझमें अब वो शराफत नही रही
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माशा अल्लाह, खुबसूरत लफ्जों का गुलदस्ता । इन्हीं काफ़िया की बुनियाद पर किसी नाचीज़ की तुकबन्दी पेश है - जाने क्यों यारों हंसने की आदत नहीं रही । अब तो वो पहली सी तबीयत नहीं रही ।। मासुमियत खो गई, शरारत नहीं रही । सुनते हैं कि इन्सां की इन्सानियत नहीं रही ।। नशेमन गुम हुआ, सर पे छत नहीं रही । कुछ इस तरह अब बर्क-ए-दहशत नहीं रही ।। बे-दरो-दीवार दरीचों की ताबीर क्या हुई । कहाँ है वो खंडहर जिसकी इमारत नहीं रही ।। मुस्कुराता भी हूँ तो लोग उठाते है ऊँगलियाँ । और रो-रोकर जान देने की आदत नहीं रही ।। खुद का क़त्ल करके मुझे युं मिलेगा क्या ? रवानी-ए-वक़्त में दिल से अदावत नहीं रही ।। क्यों बंदिशों की हद बढ़ाते हो उफ़ुक तक । छोड़ो अब जंजीर तोड़ पाने की ताकत नहीं रही ।। दिले-नाशाद मशरुफ़ है जफ़ा से इस क़दर । कि मरने के लिये दुआ की ज़रुरत नहीं रही ।। मेरे सर झुकाने पर सजदे में कहने लगे हैं वो, कि 'अजय' में अब पहले-सी शराफ़त नहीं रही ।। Last edited by aspundir; 02-10-2013 at 12:29 PM. |
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02-10-2013, 02:31 PM | #5 | |
Exclusive Member
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Re: माना मुझमें अब वो शराफत नही रही
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बड़ी ही संजीदा शायरी हैं.......................
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