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Old 17-03-2014, 12:10 PM   #201
rajnish manga
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Default Re: इधर-उधर से

पहले गप्पी ने कहा, ‘‘ठीक है भाई ठीक है, और अब मेरी सुनो- मेरे बाप उस मकान से निकले तो उन्हें मिल गई एक घोड़ी। घोड़ी क्या थी, हिरण बछेड़ा थी। हवा से बातें करती थी- उड़ी सो उड़ी, कहो दुनिया का चक्कर मार आए। हाँ, तो बाप थे मेरे घोड़ी पर सवार और तभी किसी कौए ने बीट कर दी घोड़ी पर और उग आया उस पर एक पीपल का पेड़। मेरे बाप तो आखिर मेरे बाप ही थे न। अकल में भला कोई उनकी बराबरी कर सकता था। उन्होंने झट पीपल के पेड़ पर मिट्टी डाली और खेत तैयार कर उसमें ज्वार बो दी। अब बिना पानी के ज्वार बढ़े तो कैसे बढ़े ! पानी बरस नहीं रहा था। लोग परेशान थे। फसलें बर्बाद हो रही थीं। बस समझो कि अकाल पड़ गया था, अकाल ! तभी मेरे बाप को वह लम्बा बाँस याद आया जिससे तुम्हारे बाप आसमान में छेदकर पानी बरसाते थे। बस घोड़ी पर सवार मेरे बाप तुम्हारे बाप के घर पहुँच गये और उन्हें पानी बरसाने के लिए मना लिया।

फिर क्या कहना था ! जहां-जहां तुम्हारे बाप आसमान में छेद कर पानी बरसाते, वहां-वहां मेरे बाप घोड़ी को ले जाते और जहां-जहां घोड़ी जाती, वहां-वहां पीपल और जहां-जहां पीपल, वहां-वहां ज्वार का खेत। भाई मेरे, कुछ पूछो न ! ऐसी ज्वार हुई, ऐसी ज्वार हुई जैसे मोती- सफेद झक्क और मोटे दाने। ज्वार क्या थी भाई, अमृत था ! अब जो तुम्हारे बाप ने देखी वैसी अजूबा ज्वार तो मचल गए और पांच सौ रुपये की ज्वार लेकर ही रहे। मेरे बाप ने पैसे माँगे तो बोले, ‘अभी मेरे पास नहीं हैं, उधार दे दो।मेरे बाप बड़े दरियादिली तो थे ही, उन्होंने उधार दे दी ज्वार। और भाई क्या कहें, तुम्हारे बाप भी बड़े ईमानदार थे। उन्होंने कहा, ‘अगर मैं यह कर्ज न उतार सकूँ तो मेरे बेटे से पूरे पैसे ले लेना। मेरा बेटा बहुत अच्छा है और अच्छे बेटे अपने बाप का कर्ज जरूर अदा करते हैं।’’

दूसरे गप्पी ने यह सूना तो उसकी तो बोलती बंद ! न तो वह, सच है भाई, कह सकता था न, झूठ है, ही कह सकता था। सच कहता तो पाँच सौ रुपये का कर्ज चुकाना पडे़गा और झूठ कहता तो शर्त हारने के दो सौ रुपये देने पड़ेंगे। मतलब यह कि इधर कुँआ तो उधर खाई। उसने सोचा कुँए से तो खाई ही भली। वह झट बोला, ‘‘झूठ-झूठ-झूठ मेरे बाप ने कभी तुम्हारे बाप से पाँच सौ रुपये की ज्वार नहीं ली।’’ उसका इतना कहना था कि पहला गप्पी बोला, ‘‘मैं जीत गया, लाओ दो सौ रुपये दो।’’ दूसरे गप्पी ने दो सौ रुपये देकर अपनी जान छुड़ाई।
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Old 25-03-2014, 01:35 PM   #202
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Default Re: इधर-उधर से

"इधर उधर से" नामक यह सूत्र ठीक एक वर्ष पूर्व यानि 25/03/2013 को आरम्भ किया गया था. इस सूत्र में मैंने विभिन्न विषयों पर खुद अपने तथा अन्य कवि-लेखक महानुभावों के विचार आपके सम्मुख रखने की कोशिश की. धीमी गति के बावजूद मेरा यह प्रयास रहा कि इसमें कुछ न कुछ रोचक सामग्री देता रहूँ. जैसा कि मैंने पहले भी अर्ज़ किया था इन पोस्टों का उद्देष्य मुख्य रूप से मनोरंजन ही है. इनमे कुछ आपको काम की चीज लगे तो उसे ग्रहण कर लें अन्यथा छोड़ दें. इस एक वर्ष में आपका साथ-सहयोग निरंतर मिलता रहा जिसके लिये मैं आपका हृदय से आभारी हूँ. समय समय पर आपकी राय से भी मुझे लाभ मिलता रहा. मेरा निवेदन है कि भविष्य में भी आप सूत्र के विषय में अपना सहयोग पूर्ववत जारी रखेंगे और मेरा मार्गदर्शन करते रहेंगे.
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Old 25-03-2014, 02:04 PM   #203
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Default Re: इधर-उधर से

मंचों पर हास्यरस और वीर रस के मौसम
(आलेख आभार: राजेन्द्र धोड़पकर)

अपने देश में मंचों पर मौसम आमतौर पर हास्य रस या श्रृंगार रस का रहता है, लेकिन स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के आसपास वीर रस के कवि सम्मेलन में तब्दील हो जाता है। परिवर्तन इतना तेज नहीं हो पाता इसलिए अक्सर माहौल कुछ कन्फ्यूज्ड सा रहता है, यानी कॉमेडी सर्कस में वीर रस या वीर रस में कॉमेडी सर्कस जैसा। जो लोग आम तौर पर फूहड़ता के मुकाबले में बाजी मारने को जुटे रहते हैं वे वीर रस के जुमलों पर ‘जरा दाद चाहूंगा’ या ‘जरा गौर कीजिएगा, तालियों की आवाज से प्रोत्साहन चाहूंगा’ वाले अंदाज में आ जाते हैं। इस बार 15 अगस्त के कुछ दिन पहले पांच फौजी शहीद हो गए इसलिए यही माहौल कुछ पहले से शुरू हो गया है। सीमा पर फौजी अपना कठिन और जोखिम भरा कर्तव्य निभाते हैं, यहां भाई लोग टीआरपी, तालियां और मलाई बटोरने में लगे होते हैं। सेना के बड़े अफसर कहते रहते हैं भाई जरा हमें शांति से अपना काम करने दीजिए, हम जानते हैं कि हमें क्या करना है। यहां ताली बटोरू ब्रिगेड उनके पीछे लगी होती है- नहीं, नहीं, हम बताएंगे कि तुम्हें क्या करना है, पांच के बदले पचास पाकिस्तानी सैनिकों के सिर लाओ, वगैरह। जैसे भारतीय सेना न हुई, सलीम दुर्रानी हो गए, जो डिमांड पर छक्का मार दें।

देशभक्तों की दिक्कत यह है कि उनकी याददाश्त उसी तरह छोटी है, जैसे ‘गजिनी’ फिल्म में आमिर खान की। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या सीमा पर किसी तनातनी के दौर में वह जाग जाती है, लेकिन 48 घंटे से ज्यादा नहीं ठहरती। गजिनी के आमिर खान की तरह ही इन्होंने भी अपनी देशभक्ति उल्टे अक्षरों में लिख रखी है और उसे जगाने के लिए पाकिस्तान के आईने की जरूरत होती है। इससे दिक्कत यही है कि ये लोग शोर बहुत मचाते हैं, खासकर टीवी पर तो ऐसा लगता है कि कुछ लोग टीवी से निकलकर पाकिस्तान पर हमला कर देंगे। वैसे टीवी एंकरों के नेतृत्व में ऐसे देशभक्तों की फौज को एकाध बार सीमा पर भेज देना चाहिए। पाकिस्तान से इससे बड़ा बदला क्या होगा? इसके बाद यह भी संभव है कि इनकी देशभक्ति की याददाश्त थोड़ी बड़ी हो जाए और शोर कुछ कम।
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Old 25-03-2014, 02:55 PM   #204
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Default Re: इधर-उधर से

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की डायरी का एक पृष्ठ
(23 नवम्बर 1972 / पटना)

आज दिल्ली से लौटा तो ‘स्काला’ मैगज़ीन मिली इस अंक में इस विषय पर एक नोट है कि कोई साहित्यकार लिखता क्यों है ?

गेटे ने कहा था:
लेखन का धंधा करते मैंने कभी अपने आप से कभी यह नहीं पूछा कि जनता चाहती क्या है और किस प्रकार मैं जनता की सहायता कर सकता हूँ. बल्कि मैं तो बराबर अपने आप को पहले से अच्छा बनाता रहा हूँ, अपने व्यक्तित्व का विकास करता रहा हूँ, जिसे मैं शिव और सत्य मानता हूँ, उसी बात को सुन्दरता से लिखता हूँ.

एक लेखक का मत है:
मैं जीने के लिए लिखता हूँ. जब मैं लिखता हूँ तो मुझे अहसास होता है कि मैं जीवित हूँ.

एक अन्य लेखक का कहना है:
मेरे लिखने का उद्देश्य यह होता है कि मैं अपने भीतर के सत्य को पकड़ना चाहता हूँ.

एक लेखक यह सोचता है:
कि वह कुछ ऐसी बात कहना चाहता है जो उस युग में किसी को सूझ नहीं रही है अथवा अगर सूझी है तो वह उसे कह नहीं पाया है, अगर कह चुका है तो वह उस शैली में नहीं, जिसमे उसे कोई ख़ास लेखक कहना चाहता है. लेकिन एक ही शैली और एक ही युग में अगर वह बात कह दी गई है तब भी लेखक को अपनी भाषा में उसे दुहराना चाहिए, क्योंकि एक सत्य का आख्यान एक ही व्यक्ति करे, यह काफी नहीं है.
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Old 25-03-2014, 02:56 PM   #205
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Default Re: इधर-उधर से

मेरी लुई ने कहा है:
“आप मुझ पर तरस भले ही खायें, किन्तु लिखते वक्त मुझे दूसरों की चिंता जरूर होती है, पाठकों का ख़याल जरूर आता है.”

एक दूसरे लेखक ने लिखा है:
“मैं अपने पाठकों की शान्ति भंग करना चाहता हूँ, मैं उससे कहना चाहता हूँ कि तुम संतुष्ट मत रहो, सोचो, चिंता करो, दिमाग पर जोर दो.”

गुंथर ग्रास कहते हैं:
मैं यह मान कर चलता हूँ कि मैं पाठक को नहीं जानता. कम से कम यह तो फ़िज़ूल की बात है कि कोई अपने पाठक की कल्पना कर के लिखे.

सिजफ्रिड लेन्ज़ ने कहा है:
“पाठक निराकार जीव है. वह नेबूला है. इस निराकार जंतु पर आँख गड़ा कर लिखना संभव नहीं है ... इससे लेखक की स्वतंत्रता मारी जाती है.
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Old 25-03-2014, 03:42 PM   #206
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Default Re: इधर-उधर से

सुनो! भारत माता क्या कहती है ...
मैं भारत माता हूँ| धरती पर सबसे पुरानी संस्कृतियों में से एक, सदियों से मैंने अपने अन्दर भांति-भांति की भाषाओं, संस्कृतियों, परम्पराओं, धर्मों को समेटे रखा है| मेरे बच्चे, जो दुनिया भर में भारतवासी कहलाते हैं, प्रेम से मुझे माँकहते हैं—”भारत माँ”| और सच कहूँ तो, मुझे गर्व है उन पर इस बात के लिए, क्यूंकि, उनका मुझे माँ कहना मेरे संस्कारों को दर्शाता है| दुनिया भर में और कोई ऐसा देश नहीं जिसके वासी उसे इतने प्रेम एवं सम्मान पूर्वक, मनुष्य जीवन का सबसे ऊंचा दर्जा देते होमाँ का दर्जा| सुना है कभी तुमने, जापान चाचा, अमरीका अंकल, पाकिस्तान ख़ाला कहते हुए किसी को?
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Old 25-03-2014, 03:44 PM   #207
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Default Re: इधर-उधर से

ये मेरे संस्कार ही तो हैं, जिनके कारण मेरे बच्चे रिश्तों का मूल्य समझते हैं| तभी तो यहाँ के लोग बचपन में ही पारिवारिक बंधुओं व पड़ोसियों को मामा, चाचा, काका, काकी, भाभी इत्यादि जैसे नामों से पुकारना सीख जाते हैं| तभी तो मैं, और सारा विश्व ये जानता और मानता है की भारत भूमि जैसी और कोई भूमि नहीं|

तुम सोच रही होगी, जिस माँ को उसके बच्चों का इतना सहारा हो, उसे भला तुम्हारी जैसी निर्जीव वस्तु की ज़रूरत क्यूँ पड़ी? तो लो, मैं बताती हूँ तुम्हे आज की जब बच्चे माँ का निरादर करने लगे, उसके दिए हुए संस्कारों को भूलकर, हर गलत रास्ते पर चलने लगे, तो कितना दुःख होता है| कितनी लाचार होगी वो माँ जिसके गुहार सुनने वाला कोई नहीं, जिसके बच्चे उसी को नोच नोच कर ख़त्म करने की होड़ में लगे हुए हैंजानबूझ कर या अनजाने में, ये पता नहीं|

आज मेरी जो हालत उस बूढी, पगली भिखारन से कुछ कम नहीं, जो दर दर ठोकरें खाती फिरती है; जिसे लोग निकलते-गुज़रते गालियाँ देते जाते हैं और कुछ तो, उसके घावों पर और ज़ख्म देने से भी नहीं चूकते| फर्क बस इतना है, कि उस भिखारन पर तो फिर भी शायद कोई तरस खाकर उसे रोटी या थोड़े से सिक्के दे जाता हो, लेकिन मुझपर तरस खाने वाले, मेरे हित की सोचने वाला आज कोई नहीं| कोई नहीं|

सोचा करती थी कि मेरे बच्चे खूब नाम कमाएंगे, सारे जग़ को दिखा देंगे की इस देश जैसा कोई नहीं, तरक्की करेंगे, आगे बढ़ेंगे, अच्छे काम करेंगे और हमेशा मिल-बाँट के रहेंगे| पर ऐसा नहीं हुआ| जो हुआ, इसके बिलकुल विपरीत हुआ| बिलकुल विपरीत|
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Old 25-03-2014, 03:46 PM   #208
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Default Re: इधर-उधर से

आज ये लोग आपस की ही लड़ाई नहीं सुलझा पा रहे, तो बाहरी ताक़तों का सामना कैसे करेंगे| एक वो वक़्त था, जब अंग्रेजों को भगाने की मुहीम में मेरे सारे बच्चे एक हो गए थे, जब मेरी रक्षा करने के लिए मेरे कई सपूतों और सुपुत्रिओं ने जान की बाज़ी लगाने में भी देर ना लगायी थी; यहाँ तक कि, आपसी मतभेदों को भुलाकर, हर कोई, अपने तरीक़े से एक ही क्रान्ति का हिस्सा बन बैठा था| फक्र हुआ था तब मुझे, अपनी संतानों पर| गर्व से फूली ना समां पा रही थी मैं, ये जानकार कि मेरे लाल मेरी आन पर कभी आंच ना आने देंगे| गलत थी मैं|

आज देखो तो पता चलता है, एकता में अनेकता क्या होती है| मेरी सरकार से जनता नाखुश है, जनता से सरकार नाखुश है, जनता आपस में भी नाखुश है और सरकार से सरकार में आने की होड़ में लगी अन्य पार्टियाँ नाखुश है| अरे कोई मुझसे भी तो पूछो, मैं तो इन सबसे ही नाखुश हूँ|

दूसरे देशों से आतंकवादी बेहया घुस आते हैं और मेरे मासूम बच्चों को मार गिराते हैं| मैं चुप हूँ, ये सोचकर कि मेरे बड़े बच्चे, जिन्हें छोटों ने मान देकर, वोट के ज़रिये भरोसा करते हुए सिंघासन पर बिठाया है, वो बदला लेंगे, मुजरिमों को उनके किये की सजा देंगे| अन्याय के ऊपर न्याय की जीत होनी ही चाहिएमैंने उन्हें सिखाया है| एक साल, दो साल, तीन साल….सालों साल गुज़र जाते हैं और छोटेजो तकनीकी तौर पर जनताकहलाते हैन्याय की अपेक्षा करते करते उम्र बिता जाते हैं| सरकारें बदलती हैं, नेतृत्व करने के लिए नए लोग आते-जाते रहते हैं, पर सुधार का कहीं नामों-निशान तक नहीं|

क्या यही सिखाया था मैंने अपने बच्चों को?
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Old 25-03-2014, 03:49 PM   #209
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Default Re: इधर-उधर से

लोगों के आपस के लड़ने का रोना तो मैं क्या ही रोऊँ, जिस देश की सबसे ऊंची पदवी पर से लोगों का भरोसा उठ चुका हो, जहाँ न्याय की अपेक्षा करना बंद हो चुका हो, जहाँ ऊपर से नीचे तक हर शख्स भ्रष्टाचार का शिकार हो चुका हो, वहाँ मानवता, प्रेम, एकता की उम्मीद करना मेरी बेवकूफी होगी| आज सबको पैसा चाहिएसही पैसा, गलत पैसा, पर बस पैसा| हर कोई अपनी सोच रहा है| माँ-माँ कहके जिसके सामने बड़े हुए, उस भारत वर्ष की देखभाल करने वाला, उसके संस्कारों का नाम रौशन करने वाला आज कोई नहीं| नफरत सबके दिल में घर कर चुकी है| सब एक दूसरे पर दोष लगाने में व्यस्त हैं|

किसी के पास इतना वक़्त नहीं की एक क्षण ठहरे और सोचे क्या सही है और क्या गलत| कहीं जाने ली जा रही हैं, तो कहीं भुखमरी से इंसान तड़प तड़प के दम तोड़ रहा है, कहीं मेरे हित और उद्धार के लिए लोगों का दिया पैसा भ्रष्ट मंत्रियों की जेबें गरम कर रहा है और कहीं धर्म-जाति के झगड़े आज भी समाप्त होने का नाम नहीं ले रहे हैं| मनुष्य मनुष्य की इज्ज़त करना भूल चुका है, आदमी औरत की और सरकार लोकतंत्र की| समस्याएँ अनेक हैं पर आपस में सब जुडी हुई| वहीँ मै सोच रही हूँ, मेरा क्या कुसूर जो इस दर्द से गुज़रना पड़ रहा है मुझे? क्यूँ मेरा नाम बदनाम कर रहे हैं ये सब? क्यूँ अब भी अपने बच्चों को भारत माँ की जय होके झूठे नारे सिखा रहे हैं, मेरे नाम का झंडा लहरा रहे हैं जबकि वास्तव में इनके दिल में मेरा कोई स्थान है ही नहीं? आखिर क्यूँ?

बहुत देख लिया खून-खराबा, बहुत देख लिया कपट, लालच और भ्रष्टाचार, अब मेरी सहनशक्ति जवाब दे चुकी है| एक और बार अगर इनमे से किसी ने मुझे माँ कहकर पुकारा, तो मेरे सब्र का बाँध टूट जाएगा| अब तो बस उसी दिन का इंतज़ार है जब मैं आखरी ---
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Last edited by rajnish manga; 25-03-2014 at 03:58 PM.
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अशफाकऔर बिस्मिल > क्रांतिकारी भी और शायर भी

अशफाकऔर बिस्मिल की तरही शायरीफाँसी की स्मृति में बना अमर शहीद अशफ़ाकउल्ला खां द्वार (फ़ैजाबाद जेल, उत्तर प्रदेश)राम प्रसाद 'बिस्मिल' कीतरह अशफाक भी बहुत अच्छे शायर थे। इन दोनों की शायरी की अगर तुलना की जायेतो रत्ती भर का भी फर्क आपको नजर नहीं आयेगा। पहली बार की मुलाकात में हीबिस्मिल अशफाक के मुरीद हो गये थेजब एकमीटिंग में बिस्मिल के एक शेर का जबाव उन्होंने अपने उस्ताद जिगरमुरादाबादी की गजल के मक्ते से दिया था। जब बिस्मिल ने कहा-

"बहेबहरे-फना में जल्द या रब! लाश 'बिस्मिल' की।
कि भूखी मछलियाँ हैंजौहरे-शमशीर कातिल की।।"

तो अशफाक ने "आमीन" कहते हुए जबाव दिया-

"जिगरमैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन।
बयाँ कर दी मेरी सूरत ने सारीकैफियत दिल की।।"

एक रोज का वाकया है अशफाक आर्य समाज मन्दिर शाहजहाँपुरमें बिस्मिल के पास किसी काम से गये। संयोग से उस समय अशफाक जिगरमुरादाबादी की यह गजल गुनगुना रहे थे-

"कौन जाने ये तमन्ना इश्क कीमंजिल में है।
जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है।।"

बिस्मिलयह शेर सुनकर मुस्करा दिये तो अशफाक ने पूछ ही लिया-"क्यों राम भाई! मैंनेमिसरा कुछ गलत कह दिया क्या?" इस पर बिस्मिल ने जबाब दिया- "नहीं मेरेकृष्ण कन्हैया! यह बात नहीं। मैं जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूँ मगरउन्होंने मिर्ज़ा गालिब की पुरानी जमीन पर घिसा पिटा शेर कहकर कौन-सा बडातीर मार लिया। कोई नयी रंगत देते तो मैं भी इरशाद कहता।" अशफाक को बिस्मिलकी यह बात जँची नहीं; उन्होंने चुनौती भरे लहजे में कहा- "तो राम भाई! अबआप ही इसमें गिरह लगाइये, मैं मान जाऊँगा आपकी सोच जिगर और मिर्ज़ा गालिबसे भी परले दर्जे की है।" उसी वक्त पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने ये शेर कहा-

"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है ज़ोर कितना बाजु-ए-कातिल में है?"

यह सुनते ही अशफाक उछल पड़े और बिस्मिल को गले लगा के बोले- "राम भाई! मान गये; आप तो उस्तादों के भी उस्ताद हैं।"
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