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#101 |
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![]() तेरी आँखों में कोई प्यार का पैगाम नही तुझको अपना ना बनाया तो मेरा नाम नही तूने ठुकराया था जिस दिल को किसी की खातिर आज उस दिल में बग़ावत के सिवा कुछ भी नही जिनमे सपने थे तेरे प्यार के ऐ जान-ए-वफा आज उन आँखो में नफ़रत के सिवा कुछ भी नही प्यार की आग में संगदिल मैं जला हू जितना तुझको उतना ना जलाया तो मेरा नाम नही सारी दुनिया में फ़कत तुझसे मोहब्बत की है तू किसी और की हो जाए ये मुमकिन ही नही नाम तेरा ही मेरे नाम के साथ आएगा तू किसी और की कहलाए ये मुमकिन ही नही नाज़ है तुझको बहुत हुस्न पे अपने लेकिन तेरे सर को ना झुकाया तो मेरा नाम नही तेरे माथे पे मेरे प्यार का टीका होगा जुल्फ़ तेरी मेरे शानो पे लहराएगी है यकीं मुझको के मगरूर जवानी तेरी मोम बनके मेरी बाहों में सिमट आएगी संगमरमर से हँसी तेरे बदन पे संगदिल लाल जोड़ा ना सजाया तो मेरा नाम नही
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
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#102 |
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![]() स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से लूट गये सिंगार सभी बाग के बबूल से और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे नींद भी खुली ना थी के हाय धूप ढल गयी पाँव जब तलक़ उठे के ज़िंदगी फिसल गयी पात-पात झर गये के शाख-शाख जल गयी, चाह तो निकल सकी ना, पर उमर निकल गयी गीत अश्क बन गये, स्वप्न हो दफ़न गये, साथ के सभी दिए धुआँ पहन पहन गये, और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे क्या शबाब था के फूल-फूल प्यार कर उठा क्या कमाल था के देख आईना सहर उठा इस तरफ ज़मीन और आसमां उधर उठा थाम कर जिगर उठा के जो मिला नज़र उठा एक दिन मगर यहाँ, ऐसी कुछ हवा चली लूट गयी कली-कली के घुट गयी गली-गली, और हम लूटे-लूटे, वक़्त से पीटे पीटे साँस की शराब का खुमार देखते रहे कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे हाथ थे मिले के ज़ुल्फ़ चाँद की संवार दूँ होंठ थे खुले के हर बहार को पुकार दूँ दर्द था दिया गया के हर दुखी को प्यार दूँ और सांस यूँ के स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ हो सका ना कुछ मगर, शाम बन गयी सहर, वो उठी लहर के ढह गये किले बिखर-बिखर, और हम डरे-डरे, नीर नैन में भरे, ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे माँग भर चली के एक जब नयी-नयी किरण ढोलके धुनक उठी, धूमक उठे चरण-चरण शोर मच गया के लो चली दुल्हन, चली दुल्हन गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन पर तभी ज़हर भरी, गाज़ एक वह गिरी, पूछ गया सिंदूर, तार-तार हुई चूनरी और हम अज़ान से, दूर के मकान से, पालकी लिए हुए कहार देखते रहे कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे
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#103 |
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![]() वो हम न थे, वो तुम न थे वो हम न थे, वो तुम न थे वो रहगुज़र थी प्यार की लूटी जहा पे बेवजह पालकी बहार की ये खेल था नसीब का, न हंस सके न रो सके न तूर पर पहुँच सके, न दार पर ही सो सके कहानी किससे ये कहे, चढ़ाव की उतार की लूटी जहा पे बेवजह पालकी बाहर की तुम ही थे मेरे रहनुमा, तुम ही थे मेरे हमसफ़र तुम ही थे मेरी रोशनी, तुम ही ने मुझको दी नज़र बिना तुम्हारे ज़िंदगी शमा है एक मज़ार की लूटी जहा पे बेवजह पालकी बाहर की ये कौन सा मुक़ाम है, फलक नही ज़मी नही के शब नही सहर नही, के ग़म नही खुशी नही कहा ये लेके आ गयी, हवा तेरे दयार की लूटी जहा पे बेवजह पालकी बाहर की गुज़र रही है तुमपे क्या बना के हम को दर-ब-दर ये सोचकर उदास हूँ, ये सोचकर है चश्मतर ना चोट है ये फूल की, ना है ख़लिश ये ख़ार की लूटी जहा पे बेवजह पालकी बाहर की
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#104 |
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![]() भरे बाज़ार से अक्सर मैं खाली हाथ आता हूँ, कभी ख्वाहिश नहीं होती कभी पैसे नहीं होते..!!
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#105 |
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![]() सीख रहा हूं अब मैं भी इंसानों को पढने का हुनर सुना है चेहरे पे किताबों से ज्यादा लिखा होता है…..
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#106 |
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![]() किसी को धन नहीं मिलता किसी को तन नहीं मिलता लुटाओ धन मिलेगा तन मगर फिर मन नहीं मिलता हमारी चाहतें अनगिन मगर जीवन नहीं मिलता किसी के पास धन-काया मगर यौवन नहीं मिलता ये सांपों की है बस्ती पर यहाँ चन्दन नहीं मिलता जहां पत्थर उछलते हों वहां मधुबन नहीं मिलता मोहब्बत में मिले पीड़ा यहाँ रंजन नहीं मिलता लगाओ मन फकीरी में सभी को धन नहीं मिलता वो है साजों का मालिक पर सभी को फन नहीं मिलता अगर हो कांच से यारी तो फिर कंचन नहीं मिलता मिलेंगे लोग पंकज पर वो अपनापन नहीं मिलता.
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#107 |
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![]() मेरी जुबां पर सच भर आया कुछ हाथों में पत्थर आया मैंने फूल बढ़ाया हंस कर मगर उधर से खंजर आया उनको मिली विफलताएं तो दोष हमारे ही सर आया मुझे इबादत की जब सूझी बुझता घर रोशन कर आया थकन मिट गयी मेरी पंकज जब मेरा अपना घर आया
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#108 |
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![]() बेहतरीन संकलन.........
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#109 |
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![]() ग़ज़ल बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फैंकने होंगे, किसी हथियार से अम्नो- अमाँ क़ायम नहीं होता मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता तपस्या त्याग यदि भारत की मिट्टी में नहीं होते कोई गाँधी नहीं होता, कोई गौतम नहीं होता ज़माने भर के आँसू उनकी आँखों में रहे तो क्या हमारे वास्ते दामन तो उनका नम नहीं होता परिंदों ने नहीं जाँचीं कभी नस्लें दरख्तों की दरख़्त उनकी नज़र में साल या शीशम नहीं होता -अशोक रावत
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तय तो करना था सफ़र हमको सवेरों की तरफ़
ले गये लेकिन उजाले ही अँधेरों की तरफ़ मील के कुछ पत्थरों तक ही नहीं ये सिलसिला मंज़िलों भी हो गयी हैं अब लुटेरों की तरफ़ जो समंदर मछलियों पर जान देता था कभी वो समंदर हो गया है अब मछेरों की तरफ़ साँप ने काटा जिसे उसकी तरफ़ कोई नहीं लोग साँपों की तरफ़ हैं या सपेरों की तरफ़ शाम तक रहती थीं जिन पर धूप की ये झालरें धूप आती ही नहीं अब उन मुडेरों की तरफ़ कुछ तो कम होगा अँधेरा रोज़ कुछ जलती हुई तीलियाँ जो फ़ेंकता हूँ मैं अँधेरों की तरफ़. -अशोक रावत
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